(12 फ़रवरी 2012 को जनसत्ता में ‘फ़ैज़ का अंतरंग’ शीर्षक से प्रकाशित समीक्षा का मूल )
फ़ैज़ की जन्म शताब्दी के अवसर पर ‘नया पथ’ ने एक विशेषांक निकाला था जो महज एक सौ रुपये का था । पत्रिका में प्रकाशित सामग्री को ही जोड़ घटाकर उन्हीं संपादकों के संपादन में दो किताबों में बाँटकर अब राजकमल प्रकाशन की ओर से छापा गया है । पहली किताब उनकी शख्सियत पर ‘अंधेरे में सुर्ख लौ’ शीर्षक से है और दूसरी उनकी शायरी पर ‘एक जुदा अंदाज़ का जादू’ शीर्षक से है और दोनों की सम्मिलित कीमत आठ सौ रुपया हो गई है । कीमत की बढ़ोत्तरी के बावजूद फ़ैज़ के अपने लेख जो ‘नया पथ’ में थे उन्हें इन संग्रहों में शामिल नहीं किया गया है जिसके चलते पाठक को उनके आलोचक व्यक्तित्व की जानकारी नहीं हो पाती । यह जरूर है कि कुछ नए लेख भी इन पुस्तकों में शामिल किए गए हैं जो या तो पत्रिका में छपने से रह गए या छपने के बाद उपलब्ध हुए होंगे । ये नए लेख भी महत्वपूर्ण हैं । हिंदी भाषी पाठक को इतने बड़े पैमाने पर फ़ैज़ के बारे में जानकारी के लिए संपादकों और प्रकाशक का शुक्रगुजार होना चाहिए ।
इन किताबों से फ़ैज़ का विराट व्यक्तित्व सामने आता है जो सिर्फ़ एक भाषा या मुल्क तक महदूद नहीं था । इसकी ज़द में आज का भारत, पाकिस्तान, बांगलादेश, फ़िलिस्तीन, बेरूत, अल्जीरिया और तकरीबन सारी दुनिया शामिल है । भारत से अलग होकर एक नए मुल्क के बतौर उभरे पाकिस्तान में अंधराष्ट्रवाद का बोलबाला स्वाभाविक था । फ़ैज़ के जीवन काल में पाकिस्तान ने भारत के साथ तीन लड़ाइयाँ लड़ीं । फ़ैज़ पर दबाव था कि वे भारत विरोधी देशभक्तिपूर्ण कविताएँ लिखें लेकिन उन्होंने चीन के खिलाफ़ आग उगलने वाले भारत के देशभक्त कवियों की तरह इस दबाव के सामने समर्पण नहीं किया और सच्चे मायने में अंतरराष्ट्रीयतावादी बने रहे । स्वतंत्र भारत में नागार्जुन की गिरफ़्तारियों के अलावा किसी बड़े लेखक को निर्वासन और जेल नहीं भुगतनी पड़ी लेकिन फ़ैज़ ने अपनी मान्यताओं की कीमत दोनों के जरिए चुकाई ।
सबसे पहले उस महत्वपूर्ण सामग्री की बात जो ‘नया पथ’ में नहीं थी और इन किताबों में दिखाई पड़ी है । अतुल तिवारी ने ‘लखनऊ और फ़ैज़’ शीर्षक संस्मरण लिखा है जिसमें प्रलेस के पहले सम्मेलन में फ़ैज़ की भागीदारी को नाटकीय तरीके से प्रेमचंद के अध्यक्षीय भाषण को उन्हें सुनते हुए प्रस्तुत किया गया है । सोचकर रोमांच हो आता है कि महज बीस साल की उम्र में फ़ैज़ न सिर्फ़ इस सम्मेलन में मौजूद थे बल्कि तभी जो वैचारिक प्रतिबद्धता अपनाई उसे तमाम मुश्किलों के बावजूद अंतिम दम तक निभाया । फिर भी कहीं आत्म-प्रशंसा नहीं अन्यथा एकाध कहानियों कविताओं के प्रकाशन के बाद लोग अपनी चर्चा छोड़कर और किसी की बात ही नहीं करना चाहते । उनका संकोच एक नायाब साक्षात्कार में दिखाई देता है जो दूसरी किताब में परिशिष्ट के बतौर संकलित है । जब मुज़फ़्फ़र इक़बाल ने उनकी तुलना अन्य वतनबदर कवियों नाजिम हिकमत और महमूद दरवेश से करनी चाही तो फ़ैज़ ने जोर देकर कहा कि उपरोक्त निर्वासित कवियों के साथ उनकी तुलना उचित नहीं है क्योंकि वे तो अपनी मर्जी से मुल्क से बाहर रह रहे हैं जबकि उपरोक्त कवियों को बाकायदे निर्वासित किया गया है । इसी साक्षात्कार में जब इक़बाल साहब ने कहा कि ‘आपने 1949 ईसवी से स्वयं को इससे (प्रगतिशील आंदोलन से) अलग कर लिया था’ तो प्रतिवाद करते हुए फ़ैज़ कहते हैं ‘यह गलत प्रचार है ।’ यह साक्षात्कार अनेक प्रश्नों पर फ़ैज़ की समझदार टिप्पणियों के कारण प्रगतिशील आंदोलन की उलझनों को समझने में मदद करता है । भारत पाकिस्तान की अज़ादी के कारण आए फ़र्क की याद दिलाते हुए वे कहते हैं ‘यह संगठन या आंदोलन उस समय अस्तित्व में आया जब हमारे देश में राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन अपने उत्कर्ष पर था ।’ यानी देश की आज़ादी ऐसा मुद्दा था जिस पर आम सहमति थी और ‘स्वतंत्रता के रूप में पहले उद्देश्य की प्राप्ति हो गयी थी, यद्यपि शीघ्र ही इस बात का आभास हो गया कि सच्ची आज़ादी प्राप्त करना अभी बाकी है । हर किसी का अपना फ़ार्मूला था ।’ इसमें जो बात अनकही है वह भारत की नेहरू की सत्ता के प्रति तब के वामपंथी बुद्धिजीवियों के रुख के प्रति खामोश विरोध है । इस मुख्य मुद्दे के अलावा ‘साहित्य में जीवन एवं उसकी समस्याओं का किस प्रकार यथार्थ चित्रण किया जाये, इस पर भी अनेक मत थे । जब समाज में बौद्धिक कुहासा हो और मार्गदर्शन का अभाव हो तो प्राय: देखा गया है कि लोग या तो समस्या के बाह्य रूप का चित्रण करते हैं या उसके सर्वथा विपरीत बातें करते हैं ।’ याद रखिए कि फ़ैज़ न सिर्फ़ लेखक थे बल्कि बाकायदे ट्रेड यूनियन के नेता भी थे । उनकी राजनीतिक परिपक्वता का सबूत उनके संकलित साक्षात्कार हैं । इन किताबों से यह भी पता चलता है कि वे सिर्फ़ कवि नहीं बल्कि सुलझे हुए और गंभीर विचारक भी थे । पहली किताब में नईम अहमद के साथ बातचीत में फ़ैज़ एक जरूरी सूत्र सुलझाते हैं । निजी और सार्वजनिक अनुभवों के बीच बनावटी खाई को ढहाते हुए वे कहते हैं ‘बेहद व्यक्तिगत अनुभव भी बाहर के वातावरण, परिस्थितियों और घटनाओं से जो असर पड़े, भावानाओं और अनुभूतियों में जो हलचल पैदा हो, उसके नतीजे होते हैं, सारी चीजें आपके अवचेतन का हिस्सा बन जाती हैं ।’
फ़ैज़ की अपनी आपबीती भी खुद उन्हीं की कलम से दर्ज हुई है जो पहली किताब में दो लेखों की शक्ल में संग्रहित है । उर्दू के अन्य प्रगतिशील कवियों के मुकाबले फ़ैज़ के यहाँ प्रकट क्रोध सबसे कम दिखाई देता है, इसके बावजूद उन्हीं के गीत आंदोलनकारियों में सबसे अधिक गाए गए । इस रहस्य को समझने की कोशिश ज्यादातर लेखों में की गई है । क्रांतिकारी शायरी के लिए फ़ैज़ ने पारंपरिक उर्दू शायरी में से जगह निकाली थी और इसके लिए उन्होंने एक हद तक परंपरा का पुनराविष्कार किया या कहें तो परंपरा के भीतर ही एक दूसरी परंपरा खोज निकाली । इसी वजह से अनेक लोग फ़ैज़ की शायरी को रवायती शायरी भी कहते हैं । खुशी की बात है कि किताबों के लेखों में रवायत के भीतर से नई राह निकालने की उनकी काबिलियत पर ध्यान दिया गया है ।
फ़ैज़ ने यह काम उन्होंने किसी तोड़ मरोड़ के जरिए नहीं बल्कि महान शायरों के कलाम में छिपी हुई क्रांतिकारिता को उद्घाटित करके किया । मसलन ग़ालिब के शेर हैं-
हरचंद हो मुशादहए हक़ की गुफ़्तगू
बनती नहीं है बादा ओ सागर कहे बग़ैर
मक़सद है नाजो गम्जा वले गुफ़्तगू में काम
चलता नहीं है दश्ना ओ खंजर कहे बग़ैर
मतलब कि ईश्वर की बात शराब के जिक्र के बिना नहीं हो सकती और प्रेम की बातों में भी छुरी खंजर का जिक्र आना ही है । स्पष्ट है कि उर्दू शायरी की परंपरा इकहरी नहीं रही और फ़ैज़ ने नए जमाने की बात करने के लिए एक हद तक परंपरा के भीतर से जगह निकाली । फ़ैज़ अपनी शायरी की इस विशेषता को जानते थे और दृष्टिकोण के बतौर इसे सही भी समझते थे । मुज़फ़्फ़र इक़बाल के साथ बातचीत में उन्होंने माना भी है कि ‘मेरे विचार से परंपरा ने हमें जो दिया है, हमने उसका भरपूर उपयोग नहीं किया । अभी बहुत कुछ करना बाकी है । वास्तव में हमने ऐसा करने की चेष्टा भी नहीं की । हमारी पीढ़ी ने परंपरा से दूरी बना रखी है । परंपरा ने क्या दिया है, हमने सोचने की कोशिश नहीं की ।’
फ़ैज़ की शायरी की इस विशेषता के कारण अक्सर उनके इस्तेमाल किए हुए प्रतीकों के सही मानी तक पहुँचना मुश्किल होता है । कांतिमोहन सोज़ के दो लेख ‘वो बात जिसका फ़साने में कोई ज़िक्र न था’ (पहली किताब) और ‘जिस धज से कोई मक़तल में गया’ (दूसरी किताब) इस लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण हैं ।
दूसरी किताब में एक अन्य बहुत महत्वपूर्ण लेख प्रणय कृष्ण का ‘ग़म और रूमानियत : एक जिरह’ है जिसमें लेखक ने न सिर्फ़ फ़ैज़ की शायरी की विशेषता को गंभीरता से समझने की कोशिश की है बल्कि उनकी बाद की शायरी पर नाउम्मीदी के आरोपों को तर्क सहित खारिज भी किया है । इसमें फ़ैज़ की नज्म ‘मंज़र’ और ‘तुम ही कहो क्या करना है’ तथा ‘शाम’ की मौलिक व्याख्या की गई है । दूसरी ही किताब में हिंदी के अशोक वाजपेयी, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, अरुण कमल, मनमोहन, कृष्ण कल्पित आदि अनेक कवियों के लेख भी शामिल हैं जो उनकी कविता से फ़ैज़ को जोड़ते हैं हालाँकि अशोक वाजपेयी का लेख पहली किताब में शामिल किया जाना चाहिए था । पहली किताब के ज्यादातर लेख संस्मरणात्मक हैं । इस तरह के एकाध लेखों में इशारा सा किया गया है कि फ़ैज़ स्त्री लोभी और शराबी थे लेकिन फिर भी यह तय नहीं होता कि इसके बावजूद सभी ऐसे लोग फ़ैज़ हो जाते हैं । अपवाद के बतौर मेजर मुहम्मद इसहाक का लेख ‘रूदादे क़फ़स’ संस्मरणात्मक होने के बावजूद अनेक आलोचनात्मक लेखों से उम्दा है और उसे दूसरी किताब में दिया जाना उचित होता । दूसरी किताब के अंतिम लेख में सुहैल हाशमी ने फ़ैज़ के गायकों के बहाने उनकी प्रसिद्धि को रेखांकित किया है । उनकी पंजाबी कविता पर भी सतिंदर सिंह नूर का आलेख है । नूर जहीर ने एलिस के खतों पर लिखकर स्वयं एलिस के संस्मरण ‘यादों के साए’ पर मुहर लगाई है । सज्जाद ज़हीर की पत्नी रज़िया के नाम फ़ैज़ का खत तथा फ़ैज़ के खतों के बारे में ज़हूर सिद्दीक़ी का लेख फ़ैज़ की सामाजिक जिंदगी कि जीवंत तस्वीर पेश करते हैं । इस तरह इन किताबों में समूचे फ़ैज़ को समेटने की सफल कोशिश की गई है संपादकों की महात्वाकांक्षा से उत्पन्न कमियों के विनम्र स्वीकार के बावजूद ।
इन किताबों में एक कमी खटकती है जो ‘नया पथ’ के फ़ैज़ विशेषांक में नहीं थी । संकलित लेखों में फ़ैज़ की जिन ग़जलों/शेरों के संदर्भ आए हैं वे कहीं दे दिए गए होते तो पाठक उन्हें खोलकर देख लेता लेकिन इसके अभाव में उसे कोई संग्रह भी खरीदना पड़ेगा । बाज़ार के नजरिए से यह जितना भी लाभदायक हो पाठक के लिए अतिरिक्त बोझ ही होगा ।
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