Tuesday, January 31, 2012

प्रगतिशील आंदोलन की पृष्ठभूमि

प्रगतिशील आंदोलन के बारे में बात करते हुए जाने अनजाने उसकी राजनीतिक सामाजिक पृष्ठभूमि का जिक्र नहीं होता और छायावादी कवियों की चेतना में आए बदलावों का ही उल्लेख किया जाता है । ये बदलाव अप्रासंगिक नहीं हैं बल्कि उनका संदर्भ प्रगतिशील धारा को अपने पूर्ववर्तियों से जोड़ता है । लेकिन छायावादी कवियों के भीतर आए ये बदलाव उस बदलाव के लक्षण हैं जो राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय महौल में आया था । हिंदी कविता का इससे क्या रिश्ता ? अगर यह सवाल आपके मन में उठे तो ध्यान दें कि छायावाद के ही प्रसंग में रामचंद्र शुक्ल नेहिंदी साहित्य का इतिहासमें हिंदी कविता के अंतरराष्ट्रीय संदर्भ का जिक्र किया था ।

रूस में समाजवादी क्रांति संपन्न हो चुकी थी और भारत पर उसका प्रभाव पड़ने लगा था खासकर कोमिंटर्न की स्थापना के बाद की ‘कोलोनियल थीसिस’ का सारे ही उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों पर गहरा असर था लेकिन जर्मनी में फ़ासीवाद के उदय और सोवियत संघ पर उसके आक्रमण के विरोध में रूसियों के जवाब ने पूरी दुनिया में समाजवादी सत्ता का डंका बजा दिया था । इसके साथ ही पश्चिमी देशों की मंदी के दौरान भी रूस की प्रगति के समाचारों का भी कोई कम असर नहीं था । फ़ासीवाद के विरुद्ध सारी दुनिया के मानवतावादी लेखकों की जुटान और उसमें वामपंथी लेखकों की अगुवाई ने भी भारत के लेखकों को साहित्य की नई प्रवृत्तियों के प्रति सचेत किया ।

इधर देश में भी असहयोग आंदोलन की औचक वापसी ने स्वतंत्रता संग्राम पर से कांग्रेस के नेतृत्व की नैतिक वैधता को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया था । पहली बार कांग्रेस से अलग हटकर नई राजनीतिक पार्टियों का गठन होना शुरू हुआ । औपनिवेशिक सत्ता द्वारा इंग्लैंड के मशीनरी उद्योग को फ़ायदा पहुँचाने के लिए भारत में कुछ कारखानों की स्थापना की गई थी जिनमें खेती से उजड़कर मजदूरों के रूप में आबादी का एक हिस्सा गया था । दूसरी ओर भारत की खेती भी औपनिवेशिक अर्थतंत्र से जोड़ी जाने लगी थी और शुरुआती नकदी फ़सलों के आगमन के साथ बाजार का उतार चढ़ाव भी किसानों को प्रभावित करने लगा था । अंग्रेजों द्वारा जमींदारी प्रथा की स्थापना और समर्थन तथा जमींदारों को शासन के समर्थन ने किसानों का जीवन दूभर बना दिया था । मजदूरों और किसानों की एक हित समूह के बतौर मौजूदगी तथा मार्क्सवाद के प्रभाव से जगह जगह इनके स्वतंत्र संगठनों के उभार ने आजादी की लड़ाई में एक नया पहलू जोड़ा । कांग्रेसी नेतृत्व में इन जमींदारों की घुसपैठ ने किसान संगठनों की अलग पहल का रास्ता तैयार किया । मार्क्सवादियों के प्रत्यक्ष या परोक्ष नेतृत्व में 1925 में मजदूर संगठन तथा 1936 में छात्र संगठन और प्रगतिशील लेखक संघ के गठन को अलग अलग करके नहीं देखना चाहिए ।

यही चीज है जो छायावादियों के भीतर आने वाले बदलावों के पीछे काम कर रही थी । और इसी वजह से प्रगतिशील लेखकों को निराला के गद्य एवम कविताओं और पंत की कविताओं तथा महादेवी के गद्य से विरासत जैसी मिली । प्रगतिशील आंदोलन की परिपक्वता के साथ 1948 का नाविक विद्रोह और तेलंगाना का किसान संघर्ष जुड़ा हुआ है । कम्युनिस्ट पार्टी इन जमीनी सच्चाइयों के आधार पर अपने आंदोलन को सजाने की बजाए अंतरराष्ट्रीय केंद्र का मुखापेक्षी बनी हुई थी और इस साहित्यिक ऊर्जा का सही दिशा में निवेश न कर सकी । तेलंगाना की आँच में पके वामपंथियों और आजादी के बाद नेहरू के सामने समर्पण के माहौल में पगे बौद्धिकों की चेतना में भारी अंतर के पीछे परिस्थिति में आया यही बदलाव है ।

आजादी के बाद सिर्फ़ पारंपरिक वामपंथी आंदोलन नेहरू की चमक ताम झाम में कैद रहा बल्कि प्रगतिवादी आलोचना की एक धारा भी सांस्थानिक क्रांति की संभवना के मोह में फँसी रही और पश्चिम से आयातित कलावादी मुहावरे को साधने की गफ़लत में अपनी विरासत से ही इनकार करती रही इसके बावजूद व्यापक वाम कतारें और रचनाकार तथा प्रतिबद्ध आलोचक सत्ता के खिलाफ़ लड़ते रहे प्रगतिशील कवि तो जनता के साथ इस कदर खड़े रहे कि अनेकश: कुछ बालोचित उत्साह से भरे आलोचकों को उन्हीं के विरुद्ध कमर कसनी पड़ी । हम नागार्जुन के खिलाफ़ ऐसे ही एक अभियान की याद कर सकते हैं जिसके संचालक अब समझदार होने के बाद कांग्रेस के समर्थक हो चले हैं । असली छलांग नक्सलबाड़ी के बाद लगी जब प्रतिरोधी वाम को नया विद्रोही स्वर मिला इसने अराजक विद्रोह को व्यवस्थित विरोध में बदला, भुला दिए गए प्रगतिशील कवियों को नई ऊर्जा दी, लोहियाई प्रतिपक्ष की धारा के रचनाकारों को प्रेरणा दी तथा इस दौरान भी विरोध में जूझते रहने वाले आलोचकों को नए पाठक दिए

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