आज के समय प्रगतिशील आंदोलन को हम याद ही क्यों कर रहे हैं ? इस सवाल का जवाब आज के दौर की पहचान में निहित है । आज के समय की विशेषता को समझने के लिए हमें आठ दस साल पहले के समय पर निगाह डालनी होगी जब विचारधारा के नाम पर उत्तर आधुनिकता का बोलबाला हुआ करता था । अस्मिता आधारित आंदोलनों को पचाने के लिए सत्ता को राजसत्ता के अलावा हर कहीं खोजा पाया गया था और पूँजीवाद को भी समाज के रेशे रेशे में फैला हुआ तथा फलस्वरूप गायब बताया जाता था । परिस्थिति पर व्यंग्य करते हुए रणधीर सिंह ने कहा था कि पूँजीवाद न सिर्फ़ सत्ता के केंद्र से गायब हो गया है बल्कि हम वामपंथियों के चिंतन से भी अनुपस्थित हो चला है । उस दौर की तुलना में आज पूँजीवाद की करतूतें न केवल अधिक प्रत्यक्ष हैं बल्कि उसके समर्थकों को भी आज के हालात के लिए उसे जिम्मेदार ठहराते हुए देखा जा सकता है । वर्तमान आर्थिक संकट के पीछे उसकी भूमिका तो देखी ही जा रही है अस्मिता आधारित आंदोलन भी तमाम किस्म की असमनाताओं का समर्थन करने और उसके विरोध को दबाने में राज्य मशीनरी की भूमिका को पहचान रहे हैं और अधिकाधिक राजनीतिक होते जा रहे हैं ।
पूँजीवाद ने शासन के लिए व्यापक सामाजिक सहमति बनाने के लिहाज से संसदीय लोकतंत्र की प्रणाली अपनाई थी लेकिन पूरी दुनिया में वह सवालों की ज़द में है । भारत में यह संकट ज्यादा प्रत्यक्ष दिखाई पड़ रहा है अन्यथा इसे बचाने के लिए इतना शोरगुल क्यों ? पश्चिमी मुल्कों में यही चीज तरह तरह की पाबंदियों की शक्ल में नजर आ रही है । ऐसे माहौल में मुक्तिबोध की कविता ‘पूँजीवादी समाज के प्रति’ और ज्यादा प्रासंगिक नजर आती है ।
इस बौद्धिक वातावरण में प्रगतिशील साहित्य की जो विशेषता हमारा ध्यान सबसे पहले खींचती है वह है साहित्य या कविता में राजनीति का दखल । ऐसा नहीं है कि राजनीतिक साहित्य लेखन का यह विस्फोट अचानक हुआ । हिंदी नवजागरण की शुरुआत ही साहित्य के पारंपरिक कार्यभार पर बदलाव के दबाव की सूचना देती है । इसी दबाव में भारतेंदु युग से ही कविता का राजनीतिक स्वरूप उभरने लगता है । आज के लिहाजन एक और बात पर ध्यान देना सही होगा । भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है । औपनिवेशिक सत्ता ने खेती के साथ जो खिलवाड़ किया उसी परिप्रेक्ष्य में हम हिंदी कविता में किसान समुदाय की उपस्थिति को एक तरह के प्रतिरोध के बतौर पढ़ सकते हैं । तब शुरू किया गया सर्वनाश आज चरम पर पहुँचता हुआ दीख रहा है ।
इस सिलसिले में यह बहस बेमानी है कि प्रगतिशील साहित्य की शुरुआत कब से मानी जाए ? जैसे धरती पर मनुष्य एक ही जगह पैदा होकर वहाँ से अलग अलग दिशाओं में नहीं गया बल्कि पृथ्वी पर एक साथ अनेक जगहों पर एक साथ उसका उद्भव हुआ उसी तरह प्रगतिशील साहित्य की शुरुआत भी 1930 के बाद से विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनेकानेक परिस्थितियों के चलते हुई । इसे आज भी भारतीय भाषाओं में जनता के साहित्य के बतौर सबसे मजबूत प्रवृत्ति माना जाता है जिसमें मार्क्सवाद को साहित्य के साथ सृजनात्मक रूप से मिलाया गया और जनता की ही भाषा में उसके लिए सदा से वर्जित रही साहित्य संस्कृति की दुनिया को उसके लिए सुलभ बनाया गया ।
प्रगतिशील कविता में किसान जीवन के सुख दुख की मौजूदगी उनके पिछड़ेपन की निशानी नहीं बल्कि नवजागरण की इसी विरासत का सकारात्मक विकास था । इसे विकास के वैकल्पिक रास्ते का आग्रह भी समझना चाहिए जो सोवियत रूस की मौजूदगी के कारण वास्तविक लगता था और हिंदी लेखकों को इसकी आहट प्रेमचंद के युगांतरकारी निबंध ‘महाजनी सभ्यता’ में ही मिलने लगी थी । आज़ादी के बाद जो विचलन आए उनमें खुद प्रगतिशील लेखक संघ के लोगों ने ही अपनी इस क्रांतिकारी विरासत से पीछा छुड़ाया और कलावादी, रूपवादी साहित्यिक प्रवृत्तियों से हेलमेल शुरू किया । उस महान आंदोलन के वारिसों में जो पतन आया उसकी याद दिलाने के लिए प्रलेस के स्वर्ण जयंती समारोह की घटनाओं का जिक्र काफी होगा । असल में इस विरासत का उद्धार वामपंथ की तीसरी धारा ने किया और उसे दोबारा प्रासंगिक बनाया ।
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