जो लोग जनेवि के भाभाके से हिंदी साहित्य में
स्नातकोत्तर की पढ़ाई करते हैं उनका अनुभव शोध करने आये लोगों से अलग होता है ।
मेरा प्रवेश शोधार्थी के बतौर 1989 में हुआ । तब प्रवेश हेतु लिखित परीक्षा जनेवि
ही लिया करता था । लिखित परीक्षा काहिविवि में दिया था । साक्षात्कार हेतु उपस्थित
होने का निमंत्रण मिलने पर पहली बार दिल्ली आया । इससे लगभग छह माह पहले दर्शनशास्त्र के शोधार्थी गोरख पांडे ने आत्मघात कर लिया था ।
बड़े भाई अवधेश प्रधान उनके घनिष्ठ थे इसलिए मेरे दिल्ली आने से थोड़ा आशंकित थे ।
गोरख जी से मेरा भी दो तीन दिनों का साथ बनारस में रहा था । उनके निधन के बाद जीवन
का पहला लेख लिखा था ।
मुझसे पहले रामतीर्थ पटेल का प्रवेश
हो चुका था । उन्हीं के पास पेरियार में सीधे आया । उनके शोध निर्देशक मैनेजर
पांडे थे और मुझे भी पूर्व परिचय के कारण उनसे ही मिलना था । देखा शोधार्थी अपने
निर्देशक से सीधे मिलने में संकोच करते हैं । हमारे लिए यह विचित्र था । बाद में
देखा पूरे जनेवि में केवल हिंदी के ही विद्यार्थी अपने अध्यापकों के पांव छूते हैं
। पूछ्ने पर अब भी ऐसा करने वाले सम्मान का तर्क देते हैं । सवाल उठता है अन्य
विषयों के जो विद्यार्थी ऐसा नहीं करते वे असम्मान तो नहीं करते फिर हिंदी के लिए
यह विशेष चलन क्यों । पिता माता के तो शिष्टाचार में छूने की आदत रही लेकिन
अध्यापकों के साथ आम तौर पर दोस्ती जैसा ही रिश्ता रहा था । असल में हिंदी इलाके
का यह सामंती चलन जनेवि के हिंदी में भी चला आया था । इसके अलावे एक चलन और देखा
जिसे काहिविवि में बंद होते हुए देखा था । मौखिकी परीक्षा में शोधार्थी मिठाई का
बंदोबस्त करते थे । इसे त्रिभुवन सिंह ने बंद करा दिया था लेकिन यह दुर्गुण जनेवि
के हिंदी में बचा रह गया था । एक और बात बहुत अखरी कि हिंदी के विद्यार्थी जनेवि
के सामाजिक जीवन की मुख्य घटना अर्थात छात्र संघ चुनावों में मतदान तो करते हैं
लेकिन उम्मीदवार नहीं होते । हमारे अध्यापक भी अध्यापक संघ में किसी पद पर नहीं
होते थे । एक बार मैनेजर पांडे ने उपाध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ा लेकिन चिनाय से
हार गये । सहपाठी देवेन्द्र चौबे बाद में अध्यापक संघ के पदाधिकारी निर्वाचित हुए
तो खुशी हुई ।
जनेवि की बात हो तो उसके छात्र संघ
का जिक्र अवश्य होगा । इसके चुनाव अब भी उत्सव की तरह होते हैं । दस से अधिक दिनों
तक अलग अलग छात्रावासों के भोजनालय में सभाएं होती थीं जिनमें प्रत्याशियों के साथ
उनके समर्थन में राजनीतिक नेताओं या बौद्धिकों के व्याख्यान होते थे । सभा में
प्रश्नोत्तर होते जिसकी चर्चा देर रात तक गंगा ढाबे पर होती रहती थी । चुनाव से
अलग भी किसी भी राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय महत्व के मसलों पर इस तरह के व्याख्यान
नियमित रूप से रात के खाने के उपरांत होते । इन उत्तेजक व्याख्यानों में हम सब देश
के तमाम नेताओं और बौद्धिकों को सुनते । कभी कभी विभिन्न विषयों के अध्यापक भी ये
व्याख्यान देते । इनमें भी हिंदी के नामवर सिंह को ही सुना । छात्र संघ चुनाव के
दौरान की सभाओं में सबसे आकर्षक घटना उम्मीदवारों और खासकर अध्यक्ष पद के
प्रत्याशियों की बहस थी । इस बहस को सुनने अध्यापक तो आते ही थे, दिल्ली के अन्य
बुद्धिजीवी भी अक्सर आते थे । आज भी यह परम्परा कमोबेश कायम है ।
इन चुनावों में हमारे सहपाठी
जयप्रकाश लीलवान प्रत्याशी के बतौर खड़े हुए थे लेकिन उससे भी हिंदी के
विद्यार्थियों का अलगाव नहीं टूटा । उर्दू से अलबत्ता कुछ छात्र सक्रिय रहते ।
शकील तो अध्यक्ष भी रहे । बाद में आशुतोष, प्रणय और संजय कुमार भी चुनाव लड़े लेकिन
विजय केवल प्रणय को मिली । हिंदी इलाके के विद्यार्थियों ने छात्र राजनीति में
अपनी जगह बनायी तो इसका वाहक आइसा और अभाविप बने जो आज भी छात्र राजनीति में
विरोधी ध्रुवों का प्रतिनिधित्व करते हैं । छात्रावासों के माहौल और निजी रुचि के
कारण राजनीति से चंद्रशेखर, इतिहास से प्रथमा और तिथि, रूसी से शुभ्रा आदि से
मित्रता बनी ।
प्रवेश के कुछ ही दिन बाद ये चुनाव
होते हैं । 1989 के चुनाव थे । उसी दौरान की सभाओं से पता चला कि अब तक के हिंदी
से जगदीश्वर चतुर्वेदी एकमात्र छात्र संघ अध्यक्ष रहे थे । उनका भाषण सुनने गया ।
बाद में भी उनसे एकाधिक प्रसंगों में मुलाकात हुई । हम हिंदी के विद्यार्थी जनेवि
के जीवन के इस सर्वाधिक जीवंत मौके से कटे अपने भीतर ही सिमटे रहते । ऐसे में
हमारे वरिष्ठ शम्भुनाथ सिंह ने जो अब कुलपति हैं अपने कावेरी छात्रावास में हिंदी
के विद्यार्थियों की बातचीत का सिलसिला शुरू किया तो उसमें जाने लगा । उससे प्रदीप
तिवारी, सियाराम शर्मा, रमेश कुमार, मृत्युंजय सिंह, महेश आलोक, संजय कुमार, संजय
जोशी आदि से घनिष्ठता हुई । मुनिरका में पुराने परिचित प्रमोद सिंह, अनिल सिंह और
राधेश्याम मंगोलपुरी रहते थे । उनके पास भी आना जाना शुरू हुआ । मुनिरका जनेवि का
विस्तार ही है । विवाहोपरांत सपरिवार छात्रावास मिलने से पहले मुझे भी रहना पड़ा था
।
अध्ययन शुरू हुआ तो देखा कि अध्यापक
तो बहुत कम हैं लेकिन उनका जलवा बहुत है । देश भर से लोग उनसे मिलने आया करते और
दिल्ली के भी साहित्य जगत में उनकी उपस्थिति बहुत ही चमकदार होती थी । बोरी भर अध्यापकों
के विभाग से आया था और मुट्ठी भर अध्यापकों की सक्रियता देख रहा था । इनके कारण ही
दिल्ली और देश के तमाम विद्वानों को देखने सुनने का मौका मिलता । ब व कारंत और
एजाज़ अहमद के व्याख्यान याद हैं । बाद में एजाज़ साहब ने पहल की ओर से मार्क्सवाद
की प्रासंगिकता पर त्रिवेणी में भी व्याख्यान दिया । उसे छपाकर ज्ञानरंजन ने मुफ़्त
वितरित किया था । बाद में सुना कि उन्होंने इतिहास में कुछ पढ़ाया भी था । केदार जी
को जब साहित्य अकादमी मिला तो हम सबने उनकी कविताओं का पाठ उनकी मौजूदगी में किया
। मैनेजर जी ने व्याख्यान दिया और केदार जी ने भी अपनी कविताओं का पाठ किया । इन
अध्यापकों और जनेवि के समूचे माहौल के कारण हिंदी के विद्यार्थियों को समाज
विज्ञान के विद्यार्थियों के सामने भी आत्मविश्वास से बोलने का साहस मिला था ।
दिल्ली शहर का कोई भी साहित्यिक कार्यक्रम हमारे इन अध्यापकों की अनुपस्थिति में
सम्भव नहीं था । उनके कारण हम विद्यार्थी भी चौड़े होकर घूमते थे । इनकी राय पर
तीखी बहसें होती थीं । देश के बाहर से भी विद्यार्थी आते थे । फिलहाल सरकार के कोप
की शिकार फ़्रांचेस्का ओर्सिनी नामवर जी की कक्षाओं में बैठतीं ।
कक्षाओं के बाहर की दुनिया भी बहुत
उत्तेजक होती । किताबों और पत्रिकाओं के लिए परिसर में ही दुकान थी । जनेवि से
प्रतिदिन साहित्य अकादमी के लिए बस जाती थी । इतिहास के विद्यार्थी तीन मूर्ति
जाया करते थे । छात्रावासों में सभी विषयों के विद्यार्थी रहते और भोजनालय में एक
साथ खाते थे । खाते समय विभिन्न छात्र संगठनों की ओर से जारी परचों को पढ़ते और उन
पर बहस करते । इन सबने लगभग प्रत्येक छात्र को प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए सामयिक
मसलों का विशेषज्ञ बना दिया था । इस माहौल ने किसी विद्यार्थी को अपने ही विषय तक
सीमित नहीं रहने दिया ।
जनेवि के इसी माहौल ने ऐसा कर दिया
कि देश के किसी भी कोने में प्रशासन, पत्रकारिता और अध्यापकों की दुनिया में कोई न
कोई मिल जाता है । उसे बरबाद करने की कोशिशों का पता सबको है इसलिए यह नजदीकी सभी
बरकरार रखे हुए हैं । हाल में पेरिस से आये फोन से सत्यम झा को मेरी याद का पता
चला तो गर्व हो आया ।
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