2017 में
लेफ़्टवर्ड से विजय प्रसाद की किताब ‘रेड
स्टार ओवर द थर्ड वर्ल्ड’ का
प्रकाशन हुआ । किताब एशिया, अफ़्रीका
और लैटिन अमेरिका के देशों में रूसी क्रांति के विस्तार का विवेचन है । किताब में कहानी
1917 से शुरू होती है जब रूसी साम्राज्य के एक छोर से
दूसरे छोर तक तनाव फैल गया था । सीमा पर सैनिकों को लड़ाई का कोई अंत नजर नहीं आ रहा
था । मजदूरों और किसानों के लिए दो वक्त की रोटी जुटाना मुश्किल हो गया था । विभिन्न
समाजवादी समूह लोगों के बीच जारशाही के विरोध में प्रचार चला रहे थे । मार्च के शुरू
में ईंधन की कमी के चलते ब्रेड तैयार नहीं हो सकी । कारखानों में लोगों को भूखे जाना
पड़ा । हालात के विरोध में सूती मिल के स्त्री कामगारों ने हड़ताल कर दी ।
8 मार्च का दिन था । अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के
जुलूस में बच्चों के लिए ब्रेड और सीमा से सैनिकों की वापसी के नारे लगे । इन्हीं स्त्री
कामगारों ने रूसी क्रांति की शुरुआत की थी । क्रांति के कारण जिस सोवियत संघ की स्थापना
हुई थी उसे बिखरे हुए भी तीन दशक गुजर चुके ।
इसके बावजूद
रूसी क्रांति के निशानात मौजूद हैं । ये निशानात रूस के साथ ही समूची दुनिया में मौजूद
हैं । क्यूबा से वियतनाम तक और चीन से दक्षिण अफ़्रीका तक रूसी क्रांति की प्रेरणा पहचानी
जा सकती है । इस क्रांति ने साबित कर दिया था कि किसान और मजदूर न केवल दोस्त हो
सकते हैं बल्कि अपनी आकांक्षा के अनुरूप सरकार भी बना सकते हैं । लोकप्रिय विक्षोभ
को दिशा देने वाली राजनीतिक पार्टी की जरूरत भी इसने सिद्ध कर दी । इसी प्रेरणा के
चलते तीसरी दुनिया के देशों में चलने वाले लगभग सभी उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों के
साथ मार्क्सवाद का घनिष्ठ रिश्ता बना । विकसित देशों में भी फ़ासीवाद विरोधी
गोलबंदी में इस क्रांति ने निर्णायक भूमिका निभाई । खुद रूसी क्रांति के नेताओं ने
भी दुनिया के अलग अलग देशों के हालात का अध्ययन करके उनके मुताबिक क्रांतिकारी रणनीति
विकसित करने में व्यक्तिगत रुचि ली थी । क्रांति के बाद जो भी विदेशी पत्रकार
लेनिन से मिलने गए उनसे उन्होंने उनके देश के बारे में सवालों की झड़ी लगा दी ।
पत्रकारों की धारणा बनी कि वे कुछ भी छिपाते नहीं ।
साम्राज्यवादी
देशों की क्रांति विरोधी सेनाओं से लड़ाई चल रही थी । भुखमरी और दरिद्रता की पुरानी
समस्याओं पर काबू नहीं किया जा सका था । नई सत्ता से अपेक्षाओं की बाढ़ आई थी और
लोगों का धीरज समाप्त हो रहा था । अपेक्षा पूरी न होने से निराशा भी फैल रही थी ।
लेनिन ने यह सब खुलकर बताया । जर्मन लोगों से उनकी क्रांति की विफलता पर झुंझलाते
। जर्मनी में नाविकों ने विद्रोह किया और सोवियतों का भी गठन कर लिया । रूस की तरह
ही उन्होंने भी रोटी और शांति को अपना नारा बनाया । क्रांतिकारी जोश के चलते कम्युनिस्ट
पार्टी की स्थापना भी हुई । जनवरी 1919 में बर्लिन की सड़कों पर क्रांतिकारी सरकार
की घोषणा करने के लिए एकत्र भी हुए लेकिन रूस की तरह वे आम जनता में नहीं गए और
सरकार के प्रति निष्ठावान बने रहे । दस दिन बाद रोजा और लीबक्नेख्त की हत्या हो गई
और क्रांति की भ्रूणहत्या हो गई । अगर एक और यूरोपीय देश मुक्त हो गया होता तो रूस
की घेरेबंदी ढीली पड़ती ।
एक जापानी
पत्रकार ने जब पूछा कि क्रांति सफल पश्चिम में होगी या पूरब में तो तत्काल उत्तर
देने की जगह सोच में पड़ गए । पुरानी धारणा के अनुसार उन्हें लगता था कि साम्यवाद
पश्चिम में ही सफल होगा लेकिन तीसरी दुनिया के हालिया विद्रोहों को देखते हुए और
साम्राज्यवाद संबंधी अपने अध्ययन के चलते लगा कि पूरबी उपनिवेशों के शोषण से वे
अपने देश की अंदरूनी समस्याओं को हल कर पा रहे हैं । साथ ही देखा कि उपनिवेशों को
हथियारबंद करके और उन्हें लड़ना सिखाकर अपनी कब्र भी खोद रहे हैं ।
रूसी
क्रांति मानवता के इतिहास में सबसे बड़ी घटना थी । किसानों और मजदूरों का राज असम्भवप्राय
स्वप्न था । जार के शासन को ही उखाड़ फेंकना पर्याप्त नहीं था । उसके शासन के
विरुद्ध फ़रवरी 1917 की क्रांति के लिए भारी बलिदान देना पड़ा था । इस क्रांति से
उपजी बुर्जुआ सत्ता नाकाफी थी । मजदूरों और किसानों के नारों में उनके जिन सपनों
को स्पष्ट किया गया था उनका गला ही नयी सत्ता घोट देने वाली थी । वह युद्ध को
समाप्त करने और लोगों को जमीन सौंपने नहीं जा रही थी । लोगों की जरूरी चाहतों को
वह अपना लक्ष्य कभी नहीं बनाने वाली थी । इसी वजह से अक्टूबर-नवम्बर में दूसरी
क्रांति हुई और सोवियतों ने सत्ता पर कब्जा कर ही लिया । दुनिया के अभागों नेas
अम्भव को सम्भव कर दिया । देश का शासन उसके कामगार भी चला सकते हैं । इससे भी
महत्व की बात थी कि सोवियत संघ ने अपने ही नागरिकों के हितों को बुलंद करने की जगह
विश्व समाजवाद के हितों को बुलंद करने की घोषणा की । इसी आधार पर कोमिंटर्न का गठन
हुआ ।
दुनिया भर
में क्रांतिकारी शक्तियों को मदद देना और निर्देशित करना कोमिंटर्न ने अपनी
जिम्मेदारी बतायी । उन्हें आपस में जोड़ना और उनकी शिकायतों तथा मांगों को स्वर
देना भी उसने अपनी जिम्मेदारी मानी । रूसी क्रांति जारशाही से पीड़ित लोगों की पहल
तो थी लेकिन इसने अपने लिए वैश्विक कार्यभार तय किया । मानव इतिहास में कामगारों
का शासन पर कब्जा हो इसके बेहद कम नमूने मिलते हैं । राजा रानी इसे अपना जन्मसिद्ध
अधिकार मानते हैं । 1789 की फ़्रांसिसी क्रांति ने सबसे पहले इस चलन को तोड़ा ।
सामान्य जनता ने भूख और युद्ध से परेशान होकर शासन की बागडोर अपने हाथ में ली ।
स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व उनका नारा था । रूसी क्रांति की तरह ही फ़्रांसिसी
क्रांति की भी अनुगूंज बहुत दूर तक सुनायी पड़ी थी । स्पेनी भाषी एक द्वीप में
फ़्रांसिसी बगान मालिक के विरुद्ध गुलामों ने विद्रोह कर दिया । यह पहला गुलाम
विद्रोह था जिसमें गुलामों ने राज्य स्थापित करने में सफलता पायी । फ़्रांस और हैती
की अठारहवीं सदी की इन क्रांतियों से रूसी क्रांति का सीधा रिश्ता था । इन
विद्रोहों ने शासकों के दैवी प्रभामंडल को तार तार कर दिया । अब सामान्य लोग भी
शासन कर सकते थे ।
लेकिन एक
अंतर भी था । अठारहवीं सदी की क्रांतियां पूंजीवाद के आरम्भिक रूपों के विरोध में
हुईं । तब संपत्ति को पूंजी की शक्ल मिलनी शुरू हुई थी और उद्योग का जन्म हो रहा
था । आर्थिक गतिविधियों में व्यापारियों का दबदबा था । इन क्रांतियों के दशकों बाद
उपनिवेशवाद, गुलामी और व्यापार का लाभ उद्योगपतियों को बड़े पैमाने पर मिला । इसी
अपार मुनाफ़े के बल पर वस्तुओं और सेवाओं का पुनर्गठन हुआ । विज्ञान और तकनीक का
बेहतर इस्तेमाल करते हुए खेती से उखड़े कामगारों को लगाकर उद्योगपतियों ने कारखाना
आधारित उत्पादन शुरू किया और संपत्ति तथा सत्ता पर कब्जा मजबूत बनाया । अब इनका
नियंत्रण अर्थतंत्र के साथ साथ राजनीति पर भी हो चला । इस प्रक्रिया के आरम्भ में
संपन्न फ़्रांस और हैती की क्रांतियों में साधारण लोगों ने तानाशाही तो उखाड़ फेंकी
लेकिन इतिहास को मनोवांछित शक्ल देने में कामयाब न हो सके । फ़्रांस की क्रांति का
लाभ पूंजीपति वर्ग को मिला । हैती की क्रांति का गला घोटने के लिए अमेरिका ने उस
पर पाबंदी लगायी । अमेरिका को डर था कि इससे अमेरिका की दास प्रथा को धक्का लगेगा
। इसलिए जेफ़रसन ने हैती के साथ किसी भी किस्म के व्यापार पर रोक लगा दी । इसका
मकसद गुलामों के उस गणतंत्र को खत्म करना था । यही काम डेढ़ सौ साल बाद फिर अमेरिका
ने किया जब उसने क्यूबा पर पाबंदी लगायी । इसका भी सीधा मकसद अमेरिकी इलाके में
रूसी क्रांति के प्रभाव को रोकना था ।
तकनीक और
उत्पादन के क्षेत्र में पूंजीवादी प्रतियोगिता ने तेज रफ़्तार से प्रगति की ।
वस्तुओं का जखीरा लग गया जबकि कामगारों की आमदनी बेहद कम रही । इससे अति उत्पादन
और अल्प उपभोग की समस्या सामने आयी । कामगार ढेर सारी वस्तुओं को पैदा तो कर रहे
थे लेकिन उन्हें खरीदने के लिए उनके पास धन नहीं था । एक के बाद एक संकटों की बाढ़
आ गयी । पूंजीवाद के इस संकट पैदा करने वाले स्वभाव को मार्क्स ने अपने ग्रंथों
में उजागर किया । पूंजीवाद का अभिलक्षण भयावह उत्पादकता और खतरनाक अस्थिरता नजर
आयी । विराट सभयता को जन्म देने के लिए उसने कामगारों को दरिद्र बना दिया लेकिन इसी
वजह से उसकी जीवनक्षमता भी नष्ट हुई । इन संकटों को हल करने के क्रम में उपनिवेशों
और बाजार पर कब्जा कायम रखने के लिए सेनाओं का विस्तार हुआ और युद्ध रोजमर्रा की बात हो गये । कामगारों
में भुखमरी फैली और पूंजीपति छप्पन भोग उड़ाते रहे । इसी संदर्भ में फ़्रांस और हैती
की क्रांतियों की प्रेरणा से औद्योगिक केंद्रों में मजदूर आंदोलन और उपनिवेशों में
किसान-मजदूर आंदोलन पैदा हुए । ये आंदोलन ही अंतर्राष्ट्रीय समाजवाद के केंद्रक
बने ।
प्रथम
विश्वयुद्ध ने समाजवादी आंदोलन की रफ़्तार को तेजी दी । मार्क्सवादियों ने इसके बारे
में दुनिया को अराजकता में झोंक देने वाले इस युद्ध के लिए साम्राज्यवाद जिम्मेदार
है । पूंजीवादी देशों के शासक वर्गों ने सारे संसार के मानव श्रम और प्राकृतिक
संसाधनों के शोषण से मुनाफ़ा कमाने के लोभ के कारण यह हालत बनायी है । उन्होंने
मजदूर वर्ग से इस युद्ध का विरोध करने और अपने सपनों का समाज बनाने की गुजारिश की
।
युद्ध के
अंतर्विरोधों ने रूस में गम्भीर संकट पैदा कर दिया । 8 मार्च 1917 को महिला दिवस
के अवसर पर कामगार स्त्रियों के प्रदर्शन ने अफरा तफरी पैदा कर दी । दस साल पहले
ही समाजवादी स्त्रियों के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन ने दुनिया भर में इस तारीख को
महिला दिवस मनाने का फैसला किया था । पेत्रोग्राद की शाखा ने स्त्री कामगारों से
हड़ताल करने का आवाहन किया था । इसके लिए जो पर्चा निकाला गया था उसमें आस्ट्रियाई
और जर्मन कामगारों के कत्ल के औचित्य पर सवाल खड़ा किया गया था । युद्ध के मोर्चे
पर अपने प्रिय लोगों को भेजने के फैसले को बेकार कहा गया था । कहा गया था कि
उन्हें आपस में लड़ने और एक दूसरे की गर्दन काटने के लिए मजबूर किया गया है । युद्ध
को पूंजीपतियों के लिए लाभकर भी बताया गया था । युद्ध से उन्हें अमीर होते दिखाया
गया था और साथ ही इसका समूचा खर्च मेहनत करने वालों से वसूल किये जाने की
भविष्यवाणी की गयी थी । इस अन्याय को खामोश रहकर बरदाश्त करने का विरोध भी इस
पर्चे में किया गया था । सरकार को इस युद्ध को शुरू करने और सब पर भुखमरी थोप देने
का आरोप लगाया गया था ।
आवाहन करने
वालों को इतने भारी समर्थन की उम्मीद नहीं थी । हजारों स्त्रियां कारखानों से बाहर
निकल आयीं । पुरुष कामगार और किसान भी उनके समर्थन में आ गये । सिपाही भी उनके साथ
आ गये । उनको भी लगा कि यह युद्ध उनका नहीं है । उनका असली युद्ध तो अभिजात वर्ग
और उनका तानाशाह शासन है । उनका मुकाबला करना होगा । महिला दिवस के दो दिन बाद
पचास हजार मजदूर हड़ताल पर चले गये । रूस के इतिहास में इतना बड़ा प्रदर्शन कभी नहीं
हुआ था । एक सप्ताह बाद ही 16 मार्च को सरकारी तंत्र पूरी तरह बैठ गया ।
मजदूरों
में शासन करने का आत्मविश्वास बनाना था । यह आत्मविश्वास उनमें धीरे धीरे आया ।
पहले ल्वोव नामक एक कुलीन फिर केरेंस्की नामक वकील ने शासन संभाला । मजदूर चुप
नहीं बैठे । क्रांति की ऊर्जा उन्हें टिकाये हुए थी । अस्थायी सरकार ने जब
स्त्रियों को समान अधिकार के सवाल पर आगा पीछा किया तो अलेक्सांद्रा कोलंताई ने
हालिया विद्रोह में महिलाओं की भूमिका की याद भी दिलायी । उनकी संयुक्त लड़ाई से
हासिल अधिकारों से आधी आबादी को वंचित करने पर उन्होंने सवाल उठाया । समान
अधिकारों के लिए 19 मार्च को स्त्रियों का प्रदर्शन हुआ और ये अधिकार उन्हें मिले
भी । इसके बाद मजदूरों ने सोवियतों का गठन किया और दुहरी सत्ता कायम हुई ।
सोवियतों की सत्ता को जनता की ओर से वैधता मिली हुई थी । लेनिन ने मजदूरों की इस
रचनात्मकता का स्वागत किया । जनता की इन संस्थाओं की मौजूदगी से दुहरी सत्ता की
कल्पना किसी ने नहीं की थी । इसका मतलब था कि मजदूर केवल अस्थायी सरकार के
निर्देशों से ही शासित होने को तैयार नहीं थे । उन्होंने अपनी आकांक्षाओं की
अभिव्यक्ति के लिए इन सोवियतों का निर्माण कर लिया था । व्यापारियों, उद्योगपतियों
और बाबुओं की संसद के मुकाबले यह उनकी अपनी संसद थी । लेनिन ने इन सोवियतों को
पेरिस के कम्यूनों का वारिस माना । इस तरह की संस्था का निर्माण ब्राजील के
गुलामों ने भी विद्रोह के दौरान किया था । पूंजी के मालिकों की धौंस पर आधारित
शासन के विपरीत गठित मजदूरों के शासन की इस तरह की संस्थाओं को उनकी चेतना की
लोकतांत्रिकता समझा जाना चाहिए ।
इन मजदूरों
को लेनिन के रूप में अपना सिद्धांतकार मिला । वे ध्यान से कारखाने और सड़क की
हलचलों को सुनते थे और कार्यकर्ताओं से मजदूरों की मानसिकता भांपने की उम्मीद करते
थे । अपनी पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं से उनका जीवंत सम्पर्क 1890 के बाद से ही
बना हुआ था और उनके जरिए अपने काम की कमजोरी और सम्भावनाओं का उन्हें पता लगता
रहता था । इस जमीनी जानकारी के आधार पर उन्हें नीति और सिद्धांत बनाने में सुविधा
होती थी । इनके कारण ही फ़रवरी से अक्टूबर के बीच तेजी से बदलते हालात में उन्हें
यथोचित फैसले लेने में आसानी हुई थी ।
रूस की
खेती में पूंजीवाद के प्रवेश के अपने अध्ययन के कारण लेनिन को किसानों के वर्ग
विभाजन के बारे में पता था । यह बात किसानों के बारे में रोमांटिक धारणा रखने वाले
क्रांतिकारी स्वीकार नहीं करते थे । अस्सी फ़ीसद से अधिक किसान गरीब और भूमिहीन थे
और उनके हालात सर्वहारा जैसे ही थे । रूसी आबादी के भारी हिस्से के हालात बता रहे
थे कि वे मजदूर वर्ग की राजनीति का समर्थन ही करेंगे । मजदूरों और किसानों के आपसी
संश्रय का यही सैद्धांतिक आधार था । बोल्शेविक पार्टी का यही प्रमुख राजनीतिक आयाम
था । इस मोर्चे पर लेनिन अपना अध्ययन लगातार नवीकृत करते रहते थे ।
‘क्या
करें’ और ‘एक कदम आगे, दो कदम पीछे’ में
लेनिन ने दो बातों पर जोर दिया था । सबसे पहली बात कि मजदूरों और ग्रामीण सर्वहारा
की अनुशासित पार्टी का गठन जरूरी है । पार्टी अपने कार्यकर्ताओं को लोगों के बीच
रहने, उनका हौसला बढ़ाने और विक्षोभ के फूट पड़ने की स्थिति में तैयार रहने में मदद
करती । स्वत:स्फूर्त विरोध प्रदर्शन में पार्टी के अनुभव और राजनीतिक स्पष्टता के
कारण दमन के सामने भी हताशा नहीं व्याप्त होती । दूसरे कि मजदूरों और किसानों की
क्रांतिकारी ऊर्जा को अपने लक्ष्य में समाहित करने हेतु पार्टी को तैयार रहना
चाहिए । बहुतेरा ऐसा होता है कि जनता की भाषा बोलते हुए भी पार्टी के कार्यकर्ता
मजदूरों और किसानों की सहजानुभूति से दूर चले जाते हैं । इस तरह मजदूरों के
जुझारूपन से वे दगा कर बैठते हैं । अर्थ कि मजदूरों और किसानों की पार्टी को उनकी
स्वत:स्फूर्तता के लिए तैयार रहना चाहिए । 1896 में जब कारखानों में हड़तालें फूट
पड़ीं तो लेनिन ने कहा कि क्रांतिकारी लोग सिद्धांत और व्यवहार में इस उभार से पीछे
रह गये । वे ऐसा संगठन नहीं कायम कर सके थे जो इस समूचे आंदोलन का नेतृत्व कर सकता
। इस पिछड़ेपन पर काबू पाना उन्हें जरूरी लगा था । इसके लिए पार्टी को अनुशासित और
केंद्रीकृत होने के साथ ही पूंजीवाद, साम्राज्यवाद और समाजवाद की सैद्धांतिक समझ
से लैस भी होना चाहिए । संगठित क्रांतिकारियों के बल पर उन्हें रूस को बदल देने का
पक्का भरोसा था ।
साम्राज्यवाद
संबंधी अध्ययन के बल पर लेनिन ने विश्व साम्राज्यवादी व्यवस्था के साथ रूस की
जारशाही के गंठजोड़ को समझ लिया था । एकाधिकारी पूंजीवाद की जकड़ ने रूसी राज्य को
बाहर से दबोच रखा था । अगर मजदूरों की सरकार बनती भी तो बिना इस एकाधिकारी
पूंजीवाद का मुकाबला किये कोई वैकल्पिक कदम उठाना सम्भव नहीं था । जारशाही को उखाड़
फेंकना जरूरी तो था लेकिन पर्याप्त नहीं था । मजदूरों की सरकार को साम्राज्यवाद से
लड़ना होता, उसकी जकड़ से आजाद होना होता और जनता की बेहतरी के लिए देश के भरपूर
संसाधनों का इस्तेमाल करना होता । फ़रवरी क्रांति ने जार के शासन का अंत कर दिया था
लेकिन केरेंस्की की सरकार ने साम्राज्यवाद को रियायत देना शुरू किया । असल में वह
सरकार क्रांतिकारी प्रक्रिया की आत्मा से विश्वासघात कर रही थी । क्रांतिकारियों
के सामने सवाल था कि वे क्रांति की इस बरबादी के मूक दर्शक बने रहें या
साम्राज्यवाद से लड़ने को अनिच्छुक रूसी पूंजीपति वर्ग से इस क्रांति की रक्षा करने
के लिए कुछ करें । लेनिन ने कहा कि मार्क्सवादियों का लक्ष्य मजदूरों के वास्तविक
अनुभव से सीखना और इस तरह काम करना है कि मजदूरों और किसानों की सत्ता सामाजिक
सत्ता में बदल जाए । इसके लिए फ़रवरी क्रांति को साम्राज्यवाद की सेवा में जुटे
पूंजीपति वर्ग द्वारा कब्जा लिये जाने से बचाना होगा ।
7 अप्रैल
को लेनिन की अप्रैल थीसिस सामने आयी । इसमें दस विंदुओं में जारशाही को समाप्त
करने वाली जनता की भावनाओं को व्यक्त किया गया था । इसमें निहित सिद्धांत की वजह
से बोल्शेविक पार्टी का नेतृत्व पक्का हो गया । अप्रैल से अक्टूबर के बीच उनकी
सदस्य संख्या दस हजार से बढ़कर पचास हजार हो गयी । इनमें 1) विश्वयुद्ध को
साम्राज्यवादी युद्ध कहा गया । 2) क्रांति अब भी जारी है और सत्ता पूंजीवाद के हाथ
से निकलकर मजदूरों और किसानों के हाथ में
आयेगी । 3) अस्थायी सरकार पूंजीपतियों की है इसलिए इसका समर्थन नहीं करना होगा । 4) सोवियतों में बोल्शेविक
अल्पसंख्या में हैं इसलिए उन्हें धीरज के साथ व्यवस्थित रूप से समझाना होगा कि
अन्य पार्टियों ने गलती की है और कि समस्त सत्ता सोवियतों को सौंपने का समय आ गया
है । 5) नयी सत्ता संसद में होने की जगह मजदूरों, किसानों और कृषि मजदूरों के
प्रतिनिधियों की सोवियत में अवस्थित होगी । पुलिस, सेना और नौकरशाही का खात्मा कर
दिया जाएगा । 6) सभी जागीरों पर कब्जा कर लिया जाएगा और जमीन का राष्ट्रीकरण होगा
। 7) सभी बैंकों का विलय सोवियत नियंत्रित एक ही बैंक में कर दिया जाएगा । 8)
समस्त सामाजिक उत्पादन और उसका वितरण सोवियत के नियंत्रण में होगा । 9) पार्टी की
कांग्रेस होगी और उसका कार्यक्रम संशोधित होगा । 10) नये अंतर्राष्ट्रीय का गठन
किया जाएगा ।
संदेश साफ
था । सत्ता को वर्तमान शासक वर्ग के हाथ से निकलकर बहुसंख्यक मजदूरों और किसानों
के हाथ में जाना था । सितम्बर 1917 तक मजदूरों में सत्ता पर कब्जा करने की अधीरता
नजर आने लगी थी । मजदूरों और किसानों ने अपनी सोवियतों में अपनी सरकार बनाने के
प्रस्ताव पारित किये । लेनिन ने विद्रोह को कला की संज्ञा दी । फ़रवरी क्रांति की
रक्षा के लिए विद्रोह का समय आ गया था । जान रीड ने लिखा कि खाइयों, गांवों की चौपालों और कारखानों, नाट्यगृह, सर्कस,
स्कूल और छावनी तक में सभा, बहस और व्याख्यान लगातार चलते रहते थे । उन्होंने एक
कारखाने का जिक्र किया है जिसके चालीस हजार मजदूर जो कोई बोलना चाहता उसे सुनने
एकत्र हो जाते । साथ ही उनकी चाहत सोवियत गणतंत्र भी था । इसी चाहत का प्रतिफलन
अक्टूबर क्रांति में हुआ ।
सैनिक
प्रतिनिधियों की कांग्रेस ने रूसी सोवियत कांग्रेस को पत्र लिखा कि इस समय जनता के
प्रति जवाबदेह मजबूत और लोकतांत्रिक सत्ता की जरूरत है । बयान, भाषण और संसदीय
वक्तृता बहुत देखी गयी । इसके लिए उन्होंने फ़रवरी क्रांति जैसी दूसरी क्रांति की
भी मांग की । बोल्शेविक पार्टी में दाखिल हुई पेत्रोग्राद की कामगार स्त्रियों ने
अक्टूबर 1917 में सम्मेलन किया । उसमें कामगारों के साथ जुझारू क्रांतिकारी
स्त्रियां भी शामिल थीं । वे केरेंस्की सरकार को उखाड़ फेंकना चाहती थीं । जुलूस
लेकर वे लेनिन से मिलीं और सत्ता संभालने की गुजारिश की । लेनिन ने मजदूरों से
सत्ता संभालने की प्रार्थना की । अक्टूबर में यह दूसरी क्रांति संपन्न हुई ।
सोवियतों ने सत्ता पर कब्जा किया, पूंजीवादी संसद को भंग कर दिया और खुद को समाज
का प्रशासक नियुक्त किया । लेनिन इस विजय समारोह के लिए पेत्रोग्राद सोवियत गये ।
उन्होंने सोवियत सरकार को मजदूरों की सत्ता कहा जिसमें पूंजीपतियों को कोई हिस्सा
नहीं मिलना था । उत्पीड़ित जनता ने खुद को ही सत्ता के बतौर संगठित किया । पुरानी
राजकीय मशीनरी को जड़ से समाप्त करना था और सोवियतों के रूप में नयी सत्ता की प्रशासनिक
मशीनरी को स्थापित करना था । यही बात लेनिन ने ‘राज्य और क्रांति’ में कही थी ।
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