2023 में प्लूटो प्रेस से सलीम वाली और अनवर मोताला के
संपादन में नेविल अलेक्जेंडर की किताब ‘अगेंस्ट रेशियल कैपिटलिज्म: सेलेक्टेड
राइटिंग्स’ का प्रकाशन जान सैमुएल और कारेन प्रेस की प्रस्तावना के साथ हुआ ।
प्रस्तावना के मुताबिक नेविल अलेक्जेंडर ऐसे सार्वजनिक बौद्धिक थे जो विगत साठ
सालों तक नये समाज का सपना संजोए रहे और नयी सम्भावनाओं के लिए संघर्ष करते रहे ।
उनका यह सपना दक्षिण अफ़्रीका के यथार्थ पर खड़ा था । मुश्किल समय भी उन्होंने
प्रदत्त को चुनौती देना नहीं छोड़ा । उनके इस लेखन से दक्षिण अफ़्रीका की बेहतरी की
कोशिश को बहुत बल मिलता रहा है । 27 अगस्त 2012 को 75 साल की परिपक्व उम्र में इस
योद्धा का निधन हो गया । उनके साठ साल के लेखन के इस सुचिंतित संग्रह से दक्षिण
अफ़्रीका के इस महान बौद्धिक के विचारों का परिचय तो मिलता ही है दक्षिण अफ़्रीका की
बेहतरी के लिए लड़ने की प्रेरणा भी पैदा होती है । उनको पक्का यकीन था कि दक्षिण
अफ़्रीका में न्यायपूर्ण और सुसंस्कृत समाज का निर्माण किया जा सकता है । किसी की
शुभाकांक्षा की वजह से ही वे इसका बनना
तय नहीं समझते थे । इतिहास और अनुभव के आधार पर उन्हें लगता था कि ऐसे समाज के
सपने को जिंदा रखना सबसे जरूरी काम है ।
ऐसा
केवल चिंतन की दुनिया में ही नहीं होना था बल्कि रोज रोज की गतिविधियों में भी उसे
प्रतिबिम्बित होना था । इसके लिए मुक्ति संघर्ष हेतु नये रास्तों की खोज के साथ ही
बच्चों की पढ़ाई के क्लबों, पहचान और नस्ल के सवाल पर अंतर्दृष्टिपूर्ण लेखन के साथ
ही लोकतांत्रिक समाज के लिए शैक्षिक संघर्ष, भाषा और सत्ता संबंधी तात्कालिक
सवालों के साथ ही अनुपनिवेशन की रणनीति पर भी काम करना उन्हें जरूरी लगता था ।
उन्होंने विचार और व्यवहार की एकता को हमेशा बनाये रखा । जिस भी क्षेत्र में
उन्होंने हाथ लगाया उन्हें भविष्य की सम्भावना नजर आयी और इसी भरोसे के कारण
उन्होंने उम्मीद की भाषा विकसित की । उनके काम्य समाज को बनाने में उनके लेखन से
अनेकविध मदद मिलती है । दक्षिण अफ़्रीका के मुक्ति संघर्ष की उथल पुथल के बीच उनका
यह लेखन हुआ और इसलिए देश की समस्याओं को समझने में रास्ता दिखाता है ।
इस
समूचे दौर में दक्षिण अफ़्रीका में तीखी बहसें होती रही हैं । इनमें मुक्ति संघर्ष
की रणनीति और कार्यनीति, राष्ट्र निर्माण, नस्ल और वर्ग के आपसी रिश्ते, आजादी के
बाद नस्ली पूंजीवाद की निरंतरता, शिक्षा की भूमिका और मकसद तथा बहुभाषिकता संबंधी
तमाम सवाल उठते रहे हैं । लेखक ने इन सवालों पर विचार करते हुए सिद्धांतों के साथ
ही आसपास के ठोस यथार्थ पर भी निगाह रखी । वे जीवन भर बौद्धिक तटस्थता और
निष्पक्षता का विरोध करते रहे थे । मुक्ति के बाद दक्षिण अफ़्रीका के शासन ने जो
नवउदारवादी राह पकड़ी उसके विरोध में वे लगातार वैकल्पिक राह प्रस्तावित करते रहे ।
उनके इस विकल्प में सम्भावना के ठोस और प्रदर्शनीय नमूने हुआ करते थे । उनकी निगाह
सामाजिक आलोचना और अकादमिक विश्लेषण के पार देखती थी । पारम्परिक विद्वत्ता द्वारा
थोपी गयी नकली सीमाओं को उन्होंने कभी स्वीकार नहीं किया । उनके तईं कोई
सैद्धांतिक गतिविधि सामाजिक संलग्नता से अभिन्न होती थी । वे सिद्धांत और व्यवहार
के बीच किसी विभाजन को कभी मंजूर नहीं करते थे । अन्याय के विरुद्ध गरीबों और
हाशिये के लोगों के संघर्ष में वे राजकीय तंत्र के भीतर सक्रिय रहने के साथ ही
उसके बाहर की सक्रियता के भी पक्षधर रहे थे ।
उनकी
अदम्य आशा का बड़ा स्रोत इतिहास था और वे इसके लिए लम्बी दूरी के इतिहास का हवाला
देते थे । उनका मानना था कि समाज में विषमता है तो गरीब और कामगार समूह उसके विरुद्ध
संघर्ष भी करते हैं और ऐसे ही परस्पर विरोध के बीच वास्तविक लोकतांत्रिक भविष्य की
सम्भावना का जन्म होता है । आजादी के बाद के दक्षिण अफ़्रीका में राजकीय संसाधनों की
लूट से वे विक्षुब्ध थे । इसके प्रतिरोध हेतु वे संघर्ष के मूल्यों को स्रोत के बतौर
जगाने के इच्छुक थे । वे लगातार आत्म समीक्षा करते रहे और खुद को सृजनात्मक मार्क्सवादी, अफ़्रीकी सार्वभौमिकता
के समर्थक और अंतर्राष्ट्रवादी कहते रहे । दूसरों को सुनने के लिए वे हमेशा तैयार रहे, अपने को हमेशा पीछे
रखते रहे और क्रांतिकारी मानववाद में उनकी निष्ठा अटूट रही । उन्होंने भविष्य की पीढ़ियों
के लिए कुतुबनुमा की तरह अपने विचारों को प्रस्तुत किया ताकि वे सुसंस्कृत समाज बनाने
की दिशा में अविचल बढ़ते रहें । उनके लेखन में राजनीतिक और सामाजिक दर्शन, शिक्षा और संस्कृति, इतिहास, नैतिकता और समकालीन
यथार्थ तो है ही,
क्रांतिकारी
सामाजिक बदलाव के भी लिए उनका अपार महत्व है ।
नस्ल
और वर्ग के आपसी रिश्ते को समझने के क्रम में वे दोनों ही धारणाओं का विस्तार करते
हैं । सामाजिक बदलाव की व्यापकता को वे वर्ग तक ही सीमित नहीं मानते और नस्ल की
कोटि का कोई स्थिर सार नहीं मंजूर करते । सामाजिक न्याय और सुसंस्कृत जीवन हेतु संघर्ष
के क्रम में वे मुक्ति आंदोलन के तमाम तरह के अन्य नेताओं से राज्य और समाज की
प्रकृति के सिलसिले में संवाद स्थापित करते हैं । उनके तर्क और उनकी धारणाओं का
लक्ष्य हर हमेशा नस्लवादी, दमनकारी और शोषक नस्ली पूंजीवादी सत्ता को उखाड़ फेंकना
है । नस्ली पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष में सिद्धांत और व्यवहार के स्तर पर बहसों
को जन्म देने के मामले में उनका लेखन अन्यतम रहा है ।
1985
में ही अपनी एक किताब में उन्होंने अपने योगदान का मूल्यांकन करते हुए कहा कि
नस्लवाद और पूंजीवाद के आपसी संबंध को देखने के मामले में वे देश की समस्याओं के समाजवादी
समाधान की ओर उन्मुख रहे हैं । इस समाधान के लिए वे संघर्षों में मजदूर वर्ग के नेतृत्व
की गारंटी चाहते हैं । जातीय और नस्ली पूर्वाग्रहों से लड़कर राष्ट्र निर्माण के लिए
भी ऐसा करना वे जरूरी समझते रहे हैं । साथ ही वे स्त्री मुक्ति, राष्ट्र मुक्ति और
वर्ग मुक्ति को आपस में जुड़ा मानते हैं । शिक्षा और संस्कृति की दुनिया में ऐसे व्यवहार
के पक्षधर रहे हैं जो नस्लभेदी समाज में प्रभु वर्गों के हितों के लिए अपनाई गयी विभाजनकारी
और शोषक नीतियों को उलट सके । चूंकि उनका लेखन और व्यवहार समाजवादी परिप्रेक्ष्य का
पोषक रहा है इसलिए मुक्ति संघर्ष में उदारवादी विचारधारा के हामी लोगों ने उनका विरोध
भी किया । दक्षिण अफ़्रीका की नस्लभेदी सत्ता का जोरदार विरोध करने की कीमत उन्होंने
दस साल की जेल और फिर पांच साल की घरेलू की पाबंदी के रूप में चुकायी लेकिन इनसे मुक्ति
संघर्ष में उनकी भागीदारी और सक्रिय भूमिका पर कोई खास असर नहीं पड़ा ।
संपादकों
का कहना है कि
22 साल
की उम्र में ही उन्होंने महत्वपूर्ण सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और सांगठनिक
सवालों पर अपनी दार्शनिक राय को सूत्रबद्ध करना शुरू कर दिया था । 1958 में वे केप द्वीप के
छात्र संघ की पत्रिका के संपादक थे और इसमें उन्होंने विश्वविद्यालय की धारणा के बारे
में एक लेख लिखा । इसमें उन्होंने एक कानून की तीखी आलोचना की जिसके तहत दक्षिण अफ़्रीका
के विश्वविद्यालयों को नस्ली आधार पर परिभाषित किया जाना था । फिर आधुनिक दुनिया में
शिक्षा के प्रसंग में लेख लिखा जिसमें शुद्ध शैक्षिक महत्व के सवालों के साथ सामाजिक
परिघटना के बतौर शिक्षा का विश्लेषण किया गया था । इसका उद्देश्य लोकतांत्रिक दक्षिण
अफ़्रीका में लोकतांत्रिक शिक्षा व्यवस्था के स्वरूप पर बहस खड़ा करना था । इसमें उन्होंने
पश्चिमी शिक्षा के उदय और उसके अंतर्विरोधों की भी परीक्षा की । इसमें ग्रीक नगर
राज्यों में इसकी जड़ों की चर्चा के साथ शिक्षा पर धर्म के प्रभाव का भी उल्लेख था
। दक्षिण अफ़्रीकी शिक्षा व्यवस्था में नस्लवादी विचारों और रूढ़ियों की चर्चा भी थी
। साथ ही लोकतंत्र और लोकतांत्रिक शिक्षा व्यवस्था के बीच के रिश्तों पर भी सोच
विचार किया गया था । जीवन के आखिरी दिनों तक वे समाज के सवालों पर हमेशा सार्वजनिक
चर्चा पर बल देते रहे । आजादी मिलने के बाद के हालात में जब विफलता स्पष्ट होती
गयी तब खासकर वे सार्वजनिक चर्चा को जरूरी मानने लगे थे ।
मरणोपरांत
प्रकाशित एक लेख जिसमें नये दक्षिण अफ़्रीका की चर्चा उन्होंने की उसमें जनता के
संसाधनों की लूट पर उन्होंने दुख जाहिर किया । चारों ओर उन्हें सामाजिक विध्वंस के
निशान नजर आये । नेताओं के भ्रष्टाचार और लोभ के सबूत अभूतपूर्व रूप से व्याप्त थे
जबकि उन्हें युवकों के लिए आदर्श होना था । आम लोग अपने दैनंदिन अनुभव में बच्चों,
बुजुर्गों और स्त्रियों के साथ बेरहमी, बेईमानी, अनुशासनहीनता और जनता को सुविधा
प्रदान करने में कोताही, जीवन रक्षक कानूनों की अवहेलना, देश के विभिन्न समुदायों
में व्याप्त, युद्ध के दौरान भी अकल्पनीय हिंसा, मादक द्रव्यों की सीमाओं के आरपार
तस्करी, कबाड़ स्वास्थ्य सेवा- यानी कुल मिलाकर अफरा तफरी और आत्मघाती अराजकता देख
रहे थे । उनको यही उस समय की असली सचाई महसूस हुई । इससे पहले भी अस्सी दशक के एक
विद्रोही की याद में उन्होंने नवउदारवादी पूंजीवाद में व्याप्त आत्ममुग्धता के
चलते उस दौर के मूल्यों के ह्रास पर अफसोस जाहिर किया था । उनको चिंता थी कि
नवउदारवादी बर्बरता के दौर में दक्षिण अफ़्रीका के युवाओं में भिन्न किस्म के मूल्य
किस तरह रोपे जाएं जबकि उनकी आकांक्षा की राह में ढांचागत सीमाएं खड़ी हैं और दूसरी
ओर मीडिया तथा सरकारी और गैर सरकारी वैचारिकता के प्रसारक नकारात्मक और आत्मघाती सोच
फैलाते रहते हैं ।
उन्हें
लगा कि नस्ली शासन की समाप्ति के बाद दक्षिण अफ़्रीका में नैतिकता विरोधी माहौल व्याप्त
है । इसी लेख में उन्होंने पाठकों से थोड़ा पीछे हटकर नब्बे के बाद के दक्षिण अफ़्रीका
की दशा और दिशा पर सोचने की गुजारिश की थी । उन्होंने अस्सी दशक के सपनों को फिर से
जगाने की भी अपील पाठकों से की । खुद के लिए भी उन्होंने उस दौर की अपनी चिंताओं को
ताजा करना शुरू किया ताकि इस जागरण में अपेक्षित सहयोग कर सकें । उस समय के अपने सक्रिय
हस्तक्षेपों को दस्तावेज के बतौर पेश करने की जिम्मेदारी उन्हें महसूस हुई । जैसा समाज
बन रहा था को देखने के लिए जैसा समाज सबको मिलकर बनाना था को याद करना सही लगा ।
दीर्घकालीन
इतिहास को ध्यान में रखने की आदत की वजह से वे अक्सर ग्राम्शी की मोर्चेबंदी की लड़ाई
का हवाला देते हैं । इससे ही उनके अदम्य आशावाद का जन्म हुआ था । इस लड़ाई में अपने
दायित्व को पूरा करने के लिए वे लगातार बहस मुबाहिसों में लगे रहते थे । इस रणनीति
को वे सिद्धांत के साथ ही व्यवहार के क्षेत्र में भी लागू करते थे । अपने लेखन की बहसधर्मी
प्रकृति से वे परिचित थे और इसे राजनीतिक विकास के लिए जरूरी समझते थे । किसी भी बौद्धिक
प्रेरणा के लिए वे ऐसा बहसधर्मी संवाद अपने लिए बहुत ही आवश्यक समझते थे । अपने
बौद्धिक विकास के क्रम में वे जिनसे प्रभावित हुए उनके बारे में भी सचेत थे ।
बहुधा वे कहते कि उनके विचार संघर्षों की परम्परा में गहरे धंसे हैं तथा इन्हें
आकार देने में संघर्षरत जनता और उनके नेता तथा संघर्ष की दिशा और महत्व को स्थापित
करने बौद्धिकों का हाथ है । उनके लेखन, भाषण और सांगठनिक गतिविधि में खासी
व्यापकता थी और उनसे सनसनी फैलती थी क्योंकि अक्सर वे मुक्ति संघर्ष और तत्कालीन
बौद्धिक माहौल के स्थापित विचारों का वैचारिक विकल्प महसूस होते थे ।
संग्रह
में संकलित लेखों के लेखक नेविल का प्रमुख वैचारिक योगदान राष्ट्रीयता की समस्या
पर केंद्रित है । इसी प्रसंग में वे भाषा, शिक्षा और संस्कृति आदि पर विचार करते
हैं । आलोचना के साथ संवाद के आधार पर उन्होंने वे सिद्धांत और व्यवहार तैयार किये
जिनसे समस्याओं के समाजवादी समाधान में मदद मिलनी थी । दक्षिण अफ़्रीका में राज्य,
समाज और संघर्ष पर विचार करते हुए 1979 में छपे एक लेख में उन्होंने यही रवैया
अपनाया है । जेल में नेल्सन मंडेला के साथ उनकी जो बहस शुरू हुई थी उससे प्रेरित
होकर 1974 से 1979 की पाबंदी के दौरान उन्होंने एक किताब लिखी । यह बहस नये
अफ़्रीका, राष्ट्र निर्माण, नस्ली पूर्वाग्रह, नस्ली रुख तथा नस्ल, वर्ग और लिंग के
रिश्तों को लेकर हुई थी । दो साल तक दोनों लोग प्रति सप्ताह इस सवाल पर विचार करते
कि मुक्ति के बाद नये राष्ट्र का निर्माण कैसे किया जाएगा । इसके लिए शिक्षा,
ढांचों में बदलाव और अस्मिता राजनीति के सवालों से सीधे ही टकराना था । नेविल ने जो किताब लिखी उसका मकसद
स्वाधीनता आंदोलन की ताकतों के बीच एकता कायम करना था । इसके लिए दक्षिण अफ़्रीकी
राष्ट्र की पहचान के सवाल पर गम्भीर बहस जरूरी थी । नये समाज को गढ़ने वाली ताकतों
को तैयार करने के लिए यह काम निहायत जरूरी था । उन्होंने इसी समझ के साथ संकीर्णता
से ऊपर उठकर व्यापक मोर्चे में एकता की वकालत की । असल में नस्लभेदी शासन और
मुक्ति आंदोलन की भी कुछ धाराओं में प्रतिक्रियावादी राष्ट्रवाद के विचार व्याप्त
थे । इसका नतीजा यह होता कि आंदोलन के भीतर वर्ग संघर्ष में कमी आती और समाज पर
पिछड़ी सोच का दबदबा कायम रहता । इसके मुकाबले के लिए भी आंदोलन की यह तैयारी
आवश्यक थी । इससे विषमता के समाजार्थिक आधार की समझ साफ होती और उस स्थिति की
वैचारिक अभिव्यक्ति भी पहचानने में आसानी होती । नस्लभेदी शासन के अंत और देश की
आजादी के लिए यह जरूरी लगा था । असल में उस समय दक्षिण अफ़्रीकी समाज में नस्ल की
वैचारिकी इतनी प्रबल थी कि नेविल ने नस्ल-विरोधी समूहों के निर्माण का काम भी शुरू
किया था । गैर नस्ली विकल्प के निर्माण की दिशा में इन समूहों को आधार का काम करना
था । तत्कालीन नस्ली विचारों का नाश सबसे पहले चेतना के स्तर पर होना था ।
नस्ल-विरोधी समाज के जन्म के लिए आंदोलन को भ्रूणावस्था में इसका वाहक होना था ।
ऊपर से लगता है कि वे नस्ल के सवाल को वर्ग से अलगा रहे हैं लेकिन नस्ल की उनकी
धारणा शोषक पूंजीवादी सामाजिक संबंधों से अभिन्न है । नस्लेतर समाज बनाने का उनका
सपना तत्कालीन नस्ली पूंजीवाद का मजबूत प्रतिरोध भी है ।
राष्ट्र
की समस्या के बारे में उनके लेखन का अर्थ एक ओर इस सवाल पर स्पष्टता के लिए था तो
दूसरी ओर उसका लक्ष्य व्यापक एकता का निर्माण भी था । इसके जरिये वे तत्कालीन शासन
के विरोध का भी दायित्व निभा रहे थे । वे सत्ता के आधार नस्लवाद के बेतुकेपन को
उजागर करना चाहते थे । नस्लवादी विचारों का पूरी तरह विखंडन भी उनका उद्देश्य था ।
इसके सहारे ही नये समाज के निर्माण के लिए राजनीतिक और सामाजिक गोलबंदी हो सकती थी
। उनका मानना था कि अगर आंदोलन के दौरान नस्ली पहचान की ही सुविधा का लाभ लेकर
संगठन बनाया जाता है तो यह शासन की विचारधारा के समक्ष समर्पण होगा । इसके ही
विरोध में वे राष्ट्र निर्माण और राष्ट्रीय चेतना का सवाल ले आये थे । बहु नस्ली
समाज के प्रस्ताव को भी वे उसी सोच की दलदल में फंसना समझते थे जिससे निकलने की
लड़ाई लड़ी जानी थी । नस्ली विभाजन और विचारधारा ने राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को
बाधित किया था । इसका अर्थ यह नहीं कि वे उत्पीड़न के अन्य रूपों को मानते नहीं थे
। उत्पीड़क और शोषक शासन की अखंड और बहुमुखी प्रकृति को वे खूब अच्छी तरह समझते थे ।
इसके बावजूद उन्होंने विभाजक औजार के रूप में नस्ल की कोटि को प्रमुखता दी तो उसका
कारण शोषितों और पीड़ितों के जीवन अनुभव में निहित है । इसके बावजूद वे मानते थे कि
धर्म से लेकर राजनीति और अर्थव्यवस्था तक सब कुछ को ऐसी भाषा को व्यक्त और कल्पित करना
होगा जो उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के बोझ से मुक्त हो ।
राष्ट्र
की उन्होंने विस्तृत परिभाषा प्रस्तुत की क्योंकि उसके आम विवरण के नीचे उसके विविध
रूप छिप जाते हैं । वे मानते थे कि अफ़्रीका को यूरोपीय इतिहास के ढांचे में देखना उचित
नहीं है । उसे उसकी अपनी ही शर्तों पर देखने और समझने के वे पक्षधर थे । यूरोप में
राष्ट्र की धारणा को समझने के लिए वे बेनेडिक्ट एंडरसन की कल्पित समुदाय की धारणा का
उपयोग करते हैं । एंडरसन के अनुसार पश्चिमी यूरोप में छापे की भाषा और पूंजीवाद के
उदय ने पवित्र भाषा लैटिन की जगह स्थानीय भाषाओं को स्थापित किया । इनसे फिर कल्पित
समुदाय बने जो धार्मिक और शाही समुदायों से एकदम अलग थे । इन्होंने फिर आधुनिक राष्ट्रीय
चेतना को जन्म दिया । इस तरह पूंजीवाद के विकास और राष्ट्रीय चेतना के बीच में सम्पर्क
का काम छापे की भाषा ने किया था । अब राष्ट्र की कल्पना भाषाई समुदाय के बिना भी हो
सकती है । इसका मतलब कोई भी राष्ट्र राजनीतिक और वैचारिक निर्मिति होता है । इसकी कल्पना
की जरूरत होती है क्योंकि छोटे से छोटे राष्ट्र का व्यक्ति भी अपने अन्य सदस्यों के
बारे में नहीं जान सकता । नेविल को यह परिभाषा थोड़ा आदर्शवादी महसूस हुई लेकिन इससे
किसी निश्चित भूभाग के भीतर समाजवादी या पूंजीवादी उत्पादन संबंध की ठोस स्थिति के
साथ नत्थी सामाजिक यथार्थ के रूप में कल्पित समुदाय को समझा जा सकता है । इसका अर्थ
है कि राष्ट्र को भाषाओं की विविधता के बावजूद उत्पादन संबंधों के मुताबिक निर्मित
राजनीतिक और वैचारिक प्रक्रिया के रूप में देखा जा सकता है । इस तरह किसी राष्ट्र का
निर्माण ऐतिहासिक प्रक्रिया बन जाता है ।
दक्षिण
अफ़्रीका में नस्ल,
वर्ग, जातीयता और राष्ट्र
की समस्या से जूझते हुए उन्होंने नस्ली पूंजीवाद की अपनी धारणा विकसित की । इस
धारणा की अभिव्यक्ति उन्होंने अफ़्रीकी नेशनल कांग्रेस से अधिक वामपंथी लोगों के एक
सम्मेलन में की और कहा कि अफ़्रीकी नेशनल कांग्रेस की मुक्ति उद्घोषणा में समझौते
के कारण उदारवाद की झलक बहुत अधिक आ गयी है । वे मानते थे कि नस्लभेदी शासन में इस
नस्ली पूंजीवादी व्यवस्था की सामाजिक राजनीतिक अभिव्यक्ति हुई थी इसलिए मुक्ति
संघर्ष का काम इस व्यवस्था का अंत है । उस व्यवस्था का विरोध रंगभेद को बरकरार
रखने वाले ढांचे और हित का विरोध है । उनका कहना था कि अश्वेत मजदूरों को नस्ली
उत्पीड़न और वर्ग उत्पीड़न की दो स्वायत्त व्यवस्थाओं से दबा बताना भूल है । इनको दो
समझना विश्लेषण के लिए जितना भी मददगार हो, राजनीति और विचार की दुनिया में वे
उन्हें अलगाकर देखना असम्भव है । शासक सत्ता उनकी इस एकता को परदे के पीछे छिपाने
के लिए उन्हें दो दिखाती है । इस नस्ली पूंजीवाद को वे तीन ऐसे काम करते बताते हैं
जो आपस में मजबूती से जुड़े हुए हैं । ये काम हैं- नस्लभेदी बेदखली, नस्लभेदी शोषण
और रोजगार में नस्लभेदी आरक्षण । बेदखली का मतलन गोरे उपनिवेशकों द्वारा जमीन पर
कब्जा, अफ़्रीकियों की जबरन बेदखली और 87 प्रतिशत दक्षिण अफ़्रीका में कानूनन जमीन
पर उनके कब्जे पर रोक । उनका कहना था कि दक्षिण अफ़्रीका में यह बेदखली लगातार जारी
है । दक्षिण अफ़्रीका में नस्ली पूंजीवाद की विशेषता है कि उसके कानून उपनिवेशकों
के अवैध कब्जों को मान्यता प्रदान करते हैं और विस्थापन तथा बेदखली को जारी रखते
हैं । उनके अनुसार यह नस्ली पूंजीवाद औपनिवेशिक नस्लभेदी शासन में भौतिक जीवन का
आधार तो था ही, सामाजिक चेतना के रूपों में भी इस कदर समा गया था कि मुक्ति आंदोलन
की सांगठनिक रणनीति में भी खुद को अक्सर अभिव्यक्त करता था । इसका असर वे आर्थिकी
के साथ ही समाज भाषाई, सांस्कृतिक, धार्मिक, नैतिक, शैक्षिक और लैंगिक क्षेत्रों
तक में देखते हैं ।
शिक्षा
संबंधी उनके लेखन में स्कूल की चिंता बहुत अधिक व्यक्त हुई है । शिक्षा संबंधी
चर्चा की शुरुआत आम तौर पर वे देश की स्थिति पर चर्चा के साथ करते हैं । असल में
शिक्षा संबंधी उनकी धारणाओं को उनकी आम सैद्धांतिक और व्यावहारिक मान्यताओं से अलग
करना लगभग असम्भव है । इसके साथ ही वे शिक्षा और संस्कृति के सवालों को भी जोड़ते
हैं ताकि ये सभी मिलकर राष्ट्र निर्माण के उनके व्यापक सरोकार को मजबूती प्रदान कर
सकें । इसमें अचरज की कोई बात नहीं क्योंकि मुक्ति संग्राम को वे सीधे आगामी समाज
के सपने के साथ जुड़ा देखते थे । राष्ट्र निर्माण और सामाजिक बदलाव में शिक्षा की
भूमिका को वे महत्वपूर्ण मानते थे । दक्षिण अफ़्रीका की समाज व्यवस्था से उसकी
शिक्षा प्रणाली गहराई से जुड़ी थी । नब्बे के दशक में दक्षिण अफ़्रीका का शासक वर्ग
भी विश्व पूंजीवादी संकट के कारण संकटग्रस्त था । उस समय दक्षिण अफ़्रीका में निवेश
करने के विरोध में अभियान चल रहा था जिसके कारण आर्थिक कष्ट बढ़ गया था । मुनाफ़े
में गिरावट आ रही थी, बेरोजगारी बढ़ रही थी, मुद्रास्फीति में बढ़ोत्तरी का असर
आमदनी पर सीधे सीधे पड़ रहा था । व्यवस्था के लिए काम देना मुश्किल हो गया था, जीवन
चलाने लायक पगार नहीं मिल रही थी, रहने लायक घर उनकी पहुंच से बाहर हो गये थे और
सरकार उनके बच्चों को सोलह साल की उम्र तक मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा देने से इनकार
कर रही थी ।
यह
संकट शासक वर्ग के राजनीतिक संकट में बदल गया । मजदूरों की हड़तालों और
विद्यार्थियों के विद्रोह ने रंगभेदी शासन की चूलें हिला दी थीं । ऐसी स्थिति में
अश्वेत मध्यवर्ग को शासन के आधार के भीतर लाने की कोशिश की गयी । शासन में रंगभेद
इतने गहरे बैठा था कि अश्वेत समुदाय के बहुत छोटे हिस्से को समाहित करने का यह
राजनीतिक सुधार भी एकदम विफल हो गया । दूसरी ओर देहातों और शहरों में मजदूर वर्ग
इस शासन को उखाड़ फेंकने की निर्णायक लड़ाई में उतर गया और उसने सुधारों तथा समावेशन
की इस कोशिश को पूरी तरह खारिज कर दिया । शिक्षा की समूची व्यवस्था इसी माहौल से
प्रभावित हो रही थी क्योंकि अधिकतर स्कूल शहरों में मजदूरों के इलाकों और देहातों
में अवस्थित थे और उन जगहों पर यह टकराव सबसे तीखा था । राजनीतिक और आर्थिक संकट
स्कूल के साथ ही जीवन के अन्य पहलुओं को भी प्रभावित कर रहा था । इन हालात के
बावजूद रंगभेदी शासन की नौकरशाही और उसकी नीतियों में कोई बदलाव नहीं नजर आ रहा था
। शिक्षा पर व्यय, अध्यापक और विद्यार्थी का अनुपात तथा शुल्क में कोई बदलाव नहीं
आ रहा था । किताब और ड्रेस पर भी सरकारी व्यय जस का तस ठहरा हुआ था । मतलब कि
रंगभेद की भौतिक और वैचारिक स्थितियों को पूर्ववत कायम रखा गया था । पाठ्यक्रम में
बदलाव और कौशल निर्माण जैसे कदम भी अपर्याप्त साबित हुए ।
शिक्षा
के सवाल को नेविल ने एक और संदर्भ में देखा है । देहाती और शहरी इलाकों में मुक्ति
आंदोलन के जोर पकड़ने के साथ संघर्ष को आगे ले जाने वाले कार्यकर्ताओं की नयी पौध
सामने आयी । उत्पीड़ितों के जीवन में मौजूद समस्याएं भी उनके साथ चली आयीं ।
विद्यार्थियों, उनके माता-पिता और अध्यापकों के संघर्ष के मुद्दे अलग अलग थे लेकिन
नेविल का कहना है कि मुक्ति आंदोलन को उनके इस अलगाव को दूर करने के तरीके खोजने
होंगे ताकि उनकी ऊर्जा को एक दिशा में लगाया जा सके । विद्यार्थियों में मुक्ति
संघर्ष का अगुआ होने की रोमांटिक धारणा भी मौजूद थी जो इस लड़ाई में मजदूर वर्ग का
नेतृत्व स्थापित होने में रोड़े अटका रही थी । नेविल का मानना था कि लड़ाई चाहे
स्त्री, युवा, चर्च या विद्यार्थी की हो अगर उसे सुधारवादी विचलन से बचाना है तो
उसे संगठित मजदूर वर्ग के आंदोलन से जोड़ना होगा ।
शिक्षा
व्यवस्था के भीतर लोकतांत्रिक गोलबंदी के बहुतेरे अवसरों का वे संकेत करते हैं और
स्कूल के संकट से उभरती वैकल्पिक शिक्षा की सम्भावना देखते हैं । इसके लिए वे तमाम
स्तरों पर अनेकानेक तरह की पहलों का उल्लेख करते हैं । शिक्षा के प्रति उनका यह
रुख समाज के व्यापक समाजार्थिक, राजनीतिक, सांगठनिक और सांस्कृतिक सवालों से
अलगाया नहीं जा सकता । 2008 में उन्होंने शिक्षा के सवाल पर जन हस्तक्षेप हेतु एक
संगठन बनाया जिसने घोषित किया कि शिक्षा प्रणाली की विफलता ने विभिन्न समुदायों,
शिक्षकों, स्कूल प्रबंधकों और सरकारी अधिकारियों में संशयवाद को जन्म दिया है ।
खतरा यह था कि इससे शक्तिहीनता की भावना का जन्म होता और समाज के लिए किसी सार्थक
नतीजे की सम्भावना की उम्मीद मर जाती । नेविल ने इस संकट को मानते हुए भी इस
प्रवृत्ति को उलट देने के उपायों पर बल दिया । उनका कहना था कि शिक्षा संबंधी
अधिकांश नीतियों और धारणाओं का जन्म 1993 से 1998 के दौरान रंगभेदी निजाम के अंत
और नयी सत्ता में संक्रमण के दौरान हुआ था । इसी वजह से शिक्षा की कुछ वरीयताओं को
गलत जगह रख दिया गया । इनको दुरुस्त करने की कोशिशें भी विफल रहीं और सुधारों के
वांछित नतीजे नहीं निकले । असल में स्कूलों की भौगोलिक स्थिति के कारण नस्ली और
वर्गीय विभाजन गहराये और संसाधनों का असमान बंटवारा हुआ । अध्यापकों का प्रशिक्षण
भी ठीक से न हो सका और स्कूलों में भाषा की नीति में गड़बड़ी बनी रही । वे शिशु
विकास, सामुदायिक स्कूलों में बहुभाषिकता, ज्ञान के लिए इसके महत्व, विभाजनों को
दूर करके राष्ट्र के निर्माण और देश में असमान शक्ति संबंधों की समस्या को हल करने
के लिए सभी अफ़्रीकी भाषाओं को प्रोत्साहन देने की जोरदार वकालत करते रहे ।
नेविल
के लिए भाषा का सवाल राजनीति और विश्लेषण के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण था । वे
शिक्षा, संस्कृति और चेतना से इसका अभिन्न संबंध समझते थे । राष्ट्र के बारे में उनके
विचार संस्कृति संबंधी उनके चिंतन से जुड़े हैं । इसी तरह शिक्षा भी समाज से अभिन्न
है और यह सब कुछ ज्ञान की प्राप्ति से जुड़ा है । वैकल्पिक समाज की उनकी तलाश ही उनके
सभी प्रयासों को सही संदर्भ देती है । उस नस्ली पूंजीवाद के बर्बर इतिहास से वे बखूबी
परिचित थे जिसकी छाया से दक्षिण अफ़्रीका बाहर आया था । नस्ली चेतना के तहत ही यदि पूंजीवादी
संचय जारी रहता तो भविष्य भी क्रूरतापूर्ण ही होना था । लेकिन वे अलग तरह का भविष्य
गढ़ने को प्रतिबद्ध थे । इस भविष्य को उनकी सोच के मुताबिक समाजवादी होना था । उन्होंने
वामपंथ के भीतर पारम्परिक शब्दावली और सूत्रों को जपते रहने का विरोध किया और जीवन
तथा समय के अनुरूप युवकों के सपनों के मेल में नयी शब्दावली और सूत्र अपनाने पर जोर
दिया । वे शिक्षा के जरिये नये समाज को आकार देने में दिलचस्पी रखते थे । इसी कारण
शिक्षा के सवालों पर सोचते समय बहुत ही व्यापक परिदृश्य उनकी नजर के सामने रहता था
। अस्मिता के सवाल उनके लिए आखिरकार राष्ट्र निर्माण के साथ जुड़े थे और अस्मिता के
निर्माण में शिक्षा की भूमिका थी । इस नयी अस्मिता को रंगभेदी विभाजन की नस्ली समस्या
को हल करना था । भाषा को वे शक्ति संबंधों के साथ रखकर देखते थे । उनके मुताबिक इसके
जरिये समावेशन और बहिष्करण की प्रक्रिया को अंजाम दिया जाता है ।
इस
तरह भाषा और उसका व्यवहार व्यापक ऐतिहासिक प्रक्रिया का अंग बन जाते हैं । भाषा संबंधी
उनकी सोच राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष की उनकी धारणा और सामाजिक विषमता के उन्मूलन की उनकी
योजना का ही विस्तार है । उनका मानना था कि सामाजिक विषमता के होते भाषा का सवाल वर्गीय
सवाल बन जाता है । इसलिए नेविल कहते थे कि भाषा का सवाल अनिवार्य रूप से उससे जुड़े
समाज का सवाल है । इसी वजह से भाषा की परीक्षा करते हुए सत्ता, राजनीति और इतिहास
के सवाल भी साथ ही खड़े हो जाते हैं ।
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