Friday, July 5, 2024

संरचनावाद पर शिवप्रिय की किताब

 


पश्चिमी बौद्धिकों से जिन प्रमुख धारणाओं का प्रवेश पिछले तीन दशकों में हिंदी में हुआ उनमें संरचनावाद सबसे अधिक चर्चित रही । इस धारणा की बौद्धिक व्याप्ति बहुत अधिक रही है । भाषा और संस्कृति से लेकर समाज तक को समझने के लिए इस धारणा का इस्तेमाल होता रहा है । इसके साथ जुड़ी उत्तर संरचनावाद की धारणा भी थी जिससे मिशेल फूको को संबद्ध बताया जाता है । फूको को आम तौर पर हिंदी में उत्तर आधुनिकता से जोड़ा जाता है इसलिए उत्तर आधुनिकता के बारे में प्रचुर लेखन करने वाले विचारकों ने उनके चिंतन को जरूरत से ज्यादा जटिल बना दिया । प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने उस परिपाटी का पूरी तरह तो नहीं लेकिन बहुत हद तक निषेध करते हुए इस धारणा को हिंदी के आम पाठकों के लिए कुछ बोधगम्य बनाया है । उन्होंने इस धारणा को समझाने के लिए आम जीवन से तमाम उदाहरण लिये हैं । हमारे आसपास के संसार में ऊंच नीच का भेद इतने बड़े पैमाने पर विन्यस्त है कि बोध और अभिव्यक्ति के लगभग सभी रूपों में उसकी गहरी झलक मिलती है । ऊंच नीच की इसी व्यवस्था को अनावृत करना संरचनावाद के विचारकों का ध्येय रहा है । उनका मानना था कि भेदभाव की इस प्रक्रिया के बारे में सचेत होकर ही इसका मुकाबला किया जा सकता है । इस व्यवस्था को आम तौर पर सहज मान लेने के मुकाबले इन चिंतकों ने सहज बोध पर ही सवाल उठाये । इस क्रम में व्यवस्था की व्याप्ति तो जरूर दिखायी गयी लेकिन उसके स्रोत को चिन्हित करने की समस्या बनी रही । इस धारणा की शक्ति के साथ इसकी सीमा को भी समझने में प्रस्तुत पुस्तक उपयोगी साबित होगी ।            

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