Saturday, March 12, 2022

प्रतिरोध की नयी सैद्धांतिकी का उभरता खाका

 

           

                                             

हमारा समय अन्यायों के विरुद्ध जबर्दस्त जन उभार का समय तो है ही, साथ ही वर्तमान व्यवस्था की आलोचना और उसके परे जाने की सम्भावना खोजते हुए मौलिक विचार भी प्रस्तुत किये जा रहे हैं । चुनौतियों के समक्ष समर्पण की जगह उनकी थोपी हुई सीमाओं से जूझकर नया विकल्प भी सोचा जा रहा है । मानव प्रजाति की यह विशेषता उसके इतिहास में बार बार प्रकट हुई है कि वह हमेशा भौतिक की सीमा का अतिक्रमण करता है । स्थापित व्यवस्था के संरक्षक ऐसी सोच को हवाई तो कहते रहे हैं लेकिन इसकी वजह से मनुष्य ने जमीन पर रहते हुए भी हवा में उड़ने का सपना देखना छोड़ा नहीं । इस वैकल्पिक सोच के लिए वातावरण कभी अनुकूल नहीं रहा । उसे सदैव यथास्थिति का पोषण करने वाली सोच का मुकाबला करना पड़ा है । इस दौर के चिंतक भी वर्तमान की थोपी हुई सीमाओं के पार जाने का प्रयास निरंतर कर रहे हैं । उनकी भरपूर विविधता के चलते मोटी रूपरेखा ही इस अध्याय में प्रस्तुत की जा सकी है ।       

2021 में येल यूनिवर्सिटी प्रेस से ज़िज़ी पापाचारिसी की किताब ‘आफ़्टर डेमोक्रेसी: इमैजिनिंग आवर पोलिटिकल फ़्यूचर’ का प्रकाशन हुआ । लेखक बीस सालों से लोकतंत्र और तकनीक का अध्ययन कर रहे हैं । उन्होंने लोगों से तकनीक आधारित लोकतंत्र के नये रूपों की सम्भावना पर लगातार बातचीत की है । हाल में लोकतंत्र के बारे में जिस तरह की खौफ़नाक आशंका जाहिर की जा रही है उसके विपरीत आशा के साथ उनकी बात शुरू होती है । उनके अनुसार हमने तमाम क्रांतियों में भारी बलिदान करके लोकतंत्र को उसकी वर्तमान हैसियत में पहुंचाया है । क्रांतियों की उम्र छोटी नहीं होती । वे दीर्घजीवी होती हैं तभी उन्हें उनका अर्थ प्राप्त होता है । लोकतंत्र भी शायद साध्य न होकर साधन हो सकता है । हो सकता है इसके बेहतर भविष्य का रास्ता तकनीक से प्रशस्त हो । वैसे भी लोकतंत्र एकाधिक रास्तों से होकर ही गुजरा है । संपत्ति आधारित मताधिकार, चुनाव प्रक्रिया से स्त्रियों के बहिष्करण और चमड़ी के रंग के आधार पर कुछ लोगों को चुनाव में शामिल न करते हुए भी हम यही समझते थे कि लोकतंत्र का पालन हो रहा है । सिद्ध है कि शासन प्रणाली में समानता स्थापित करने की दिशा में काफी प्रगति करने के बावजूद कभी उसे पूरी तरह हासिल नहीं किया जा सका । लोकतंत्र पहुंच के भीतर भी लगता रहा और दूर का लक्ष्य भी बना रहा है । हमलावर पूंजी के इस दौर में शासन पूरी तरह से पूंजी की गिरफ़्त में है और जो भी औपचारिक लोकतंत्र था उसका खात्मा होता महसूस हो रहा है । पश्चिमी देशों के लोकतंत्र की आलोचना वामपंथी लोग तो पहले से करते ही रहे थे लेकिन हाल के दिनों में तो लगभग सभी गम्भीर चिंतकों ने शासकों की नयी पौध के बारे में कहा कि ये लोकतंत्र की जगह तानाशाही के विभिन्न रूपों पर विश्वास करते हैं । कुछ लोगों ने तो पिछले अमेरिकी राष्ट्रपति को फ़ासीवादी तक कहा । इस सवाल पर जिन लोगों ने आपत्ति जतायी उन्होंने भी तानाशाह मानने से इनकार नहीं किया । लगभग पूरी दुनिया में भांति भांति के लोकतंत्र विरोधी कदम उठाने के मामले में शासकों के बीच होड़ जैसी लगी हुई है । हंगरी के शासक ने संविधान में खुद को आजीवन राष्ट्रपति घोषित करा लिया । उनका यह कदम सत्तालोभ का चरम उदाहरण है लेकिन ढेर सारे अन्य देशों के शासक भी इसी सोच से ग्रस्त नजर आते हैं ।

तानाशाही का यह रूप कोई नयी बात नहीं है । राज्य अपने जन्म के बाद से ही नागरिकों के जीवन को नियंत्रित करने का प्रयास करता रहा है । इस पहलू पर ध्यान खींचते हुए 2021 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से शार्लोट एप्सटाइन की किताबबर्थ आफ़ स्टेट: प्लेस आफ़ बाडी इन क्राफ़्टिंग माडर्न पोलिटिक्सका प्रकाशन हुआ लेखक का कहना है कि राज्य नागरिकों के शरीर की खबर रखता है । गिनती करते समय शरीर ही गिने जाते हैं । पासपोर्ट भी बायोमेट्रिक हो चला है । वर्तमान महामारी के समय शरीर के तापमान और उसकी हरकतों पर खास ध्यान दिया गया । रोजमर्रा में भी शरीर भारी भूमिका निभाता है । इलेक्ट्रानिक उपकरणों को खोलने के लिए भी शरीर का पहचान के बतौर उपयोग किया जाता है । उसके जरिये कार्यस्थल तक हमारी पहुंच बनती है और सरकारी सेवाओं के साथ भी शरीर जुड़ गया है । इसके जरिये सरकार के विरोधी प्रदर्शनकारियों की भी खोज खबर रखी जाती है । नागरिकों के मताधिकार के साथ भी इसे अधिकाधिक जोड़ा जा रहा है । शरीर के साथ राज्य का यह लगाव कोई आज की बात नहीं है । यह चीज औपनिवेशिक राज्य की विरासत है । सत्रहवीं सदी में यूरोप में राज्य का उदय किसी खास भूभाग में प्रभुसत्ता की स्थापना के मकसद से हुआ था । फिर धीरे धीरे अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था का यह अनिवार्य अंग हो गया । वैश्वीकरण के दौर में सीमाविहीन दुनिया की बड़ी बातें होती थीं लेकिन लगता है कि राज्य की खौफ़नाक वापसी हुई है । राज्य की वापसी के इस दौर के साथ भयंकर तानाशाही भी उभरी है । लेखक का कहना है कि राज्य का वर्तमान स्वरूप कोई तात्कालिक परिघटना नहीं है । जो कोई भी उसकी सीमाओं के भीतर रहता है उसे राज्य के प्रति अपनी निष्ठा साबित करनी पड़ती है । इसी तरह वह राजनीतिक कर्ता के रूप में सामने आता है । इस तरह राज्य और राजनीतिक व्यक्ति का गठन एक साथ हुआ है । इस व्यक्ति को अधिकार भी राज्य ने ही प्रदान किये । सुरक्षा, स्वतंत्रता और संपत्ति संबंधी ये अधिकार स्वाभाविक और शाश्वत नहीं हैं । शरीर तो पहले भी व्यक्तियों के पास हुआ करते थे लेकिन इन अधिकारों को शरीर के साथ जोड़ दिया गया । इस तरह इन अधिकारों को लागू करने के नाम पर हमारे शरीर पर राज्य ने नियंत्रण कायम कर लिया ।         

राज्य ने न केवल नागरिकों के जीवन को पूंजीवाद की अन्यायी शोषक समाज व्यवस्था हेतु नियंत्रित किया बल्कि प्रकृति के अबाध दोहन का भी इंतजाम किया । इस विषय पर 2021 में रटलेज और अर्थस्कैन से जूडिथ शपीरो और जान-एंड्र्यू मैकनेश के संपादन में ‘आवर एक्सट्रैक्टिव एज: एक्सप्रेशंस आफ़ वायलेन्स ऐंड रेजिस्टेन्स’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब में शामिल ग्यारह लेख चार हिस्सों में संयोजित हैं । पहले हिस्से में वर्तमान दोहन युग में हिंसा की सैद्धांतिकी का विवेचन है । दूसरे हिस्से में स्थानीय स्तर पर हिंसा की बढ़ोत्तरी का जायजा लिया गया है । तीसरे हिस्से में इस दोहन के बारे में सोचने के नये तरीकों की छानबीन है । अंत में दोहन के इस राज के सीमांत की तलाश की गयी है । संपादकों के मुताबिक इस किताब में ऐसे जटिल समय का विवेचन है जिसमें प्राकृतिक संसाधनों के मनुष्य द्वारा दोहन के कारण संसारव्यापी पर्यावरणिक संकट पैदा हो गया है । वैसे तो इस संकट के ढेर सारे पहलू हैं लेकिन जलवायु परिवर्तन, जमीन और जंगल की कमी, जैव विविधता का नाश और वैश्विक महामारियों की जड़ ऊर्जा, भोजन और उपभोक्ता सामग्री की मांग में बढ़ोत्तरी से निपटने के लिए प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से पैदा हालात में है । समूची धरती के संचालन का अध्ययन करनेवाले वैज्ञानिकों का कहना है कि पर्यावरण के दोहन से अचानक ऐसे बुनियादी बदलाव आये हैं जिन्हें पलटना सम्भव नहीं रह गया है । इसके कारण वातावरण की स्थिरता, जलवायु और जैव विविधता बिलकुल अपने आखिरी विंदु तक पहुंच गये हैं । हमने ढेर सारी सीमाओं का अतिक्रमण कर लिया है या जल्दी ही करने वाले हैं । इन सब वजहों से समूचा ब्रह्मांड एक नये युग में प्रवेश कर चुका है । इसी युग को वैज्ञानिकों ने एन्थ्रोपोसीन का नाम दिया है जिसका मतलब है कि ब्रह्मांड में फिलहाल होनेवाले बदलाव मानव जनित हैं । मनुष्य और धरती के अस्तित्व पर आये खतरे का प्रधान कारण संसाधनों का दोहन है । दोहन की यह भूख जीवाश्म ईंधन, खनिज और कीमती धातुओं तक ही सीमित नहीं रह गयी है । दोहन की गति और उसके प्रसार में बेतरह इजाफ़ा हुआ है । उसके विस्तार में तकनीकी प्रगति से मदद मिली है और अब पूंजी तथा सरकारों का साथ पाकर वह सच में वैश्विक हो चला है । पहले विकासशील देशों के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन तक ही नजर थी, अब तो उसके दायरे में दोनों ध्रुव, वायु तरंगें, वातावरण और सुदूर अंतरिक्ष तक आ गया है । प्राकृतिक संसाधनों के इस दोहन के साथ हिंसा भी लिपटी हुई है । यह हिंसा समकालीन सामूहिक जीवन में व्याप्त हो गयी है । दोहन के ग्रामीण और शहरी इलाकों में पर्यावरण और मजदूर कार्यकर्ताओं के क्रूर दमन के अतिरिक्त भी संरचनात्मक विकास, प्रकृति संरक्षण और जैव अभियांत्रिकी तक इस हिंसा का प्रसार अनेकानेक रूपों में हुआ है । दोहन के साथ जुड़ी प्रत्यक्ष हिंसा तो नजर आ जाती है लेकिन शासन, प्रशासन और अर्थतंत्र में समायी संरचनात्मक हिंसा अक्सर दिखायी नहीं पड़ती । इस मामले में हिंसा अनसुनी, अनदेखी और क्रमिक भी हो सकती है । वर्तमान सदी में यह हिंसा दुर्घटना या सह उत्पाद होने की जगह हमारे अनुभव का अभिन्न अंग बन गयी है । बेदखली और शोषण से जुड़ी हिंसा का वर्तमान तर्क अतिशय दोहन का यह उन्माद ही है । संपादकों के अनुसार मानव इतिहास में सभ्यता, साम्राज्य, संप्रभुता, संचय, पूंजी और आधुनिकता जैसी धारणाओं का दूसरा नाम सामाजिक और प्राकृतिक दोहन ही रहा है । वर्तमान हिंसा को सामान्य जन चुपचाप सहन नहीं कर रहे, बल्कि उसका जमकर प्रतिरोध हो रहा है । दोहन ही हमारे इस समय का एकमात्र यथार्थ नहीं है, बल्कि उसके विरोध की सक्रियता भी उतना ही ठोस यथार्थ है । धरती और जीवन को विनष्ट करने वाले संसाधनों के दोहन से जो विस्थापन हो रहा है उसका मुकाबला करते हुए दुनिया भर में तमाम समुदाय कानूनी और भौतिक रूप से लड़ भिड़ रहे हैं ।                    

2021 में रटलेज से ट्रेसी निकोल्स की किताब ‘डिसमैन्टलिंग रेप कल्चर: द पीसबिल्डिंग पावर आफ़ मी टू’ का प्रकाशन हुआ । किताब में बलात्कार की संस्कृति को स्त्री की मुखरता के वर्तमान वातावरण के सहारे विश्लेषित किया गया है । शांति अध्ययन और नारीवाद के सहकार से किताब का तर्क विकसित किया गया है जिसके मुताबिक संस्कृति के रूपांतरण के अवसरों से लाभ उठाकर शांति की प्रक्रिया कायम की जा सकती है । उथल पुथल से भरे माहौल में लेखिका ने इसे लिखने का इरादा किया तथा लिखते समय उन्हें गुस्सा, निराशा और निश्चय की भावनाओं से गुजरना पड़ा । उनके निजी जीवन के किसी खास संक्रमण काल के दौरान स्त्री पर यौन हिंसा के मामले में चुप्पी का विरोध करते हुए मुखरता का समर्थक ‘मीटू’ आंदोलन फूट पड़ा और लेखिका के लिए इस किताब से पीछा छुड़ाना सम्भव नहीं रह गया । ध्यान देने की बात है कि यह आंदोलन महज गवाही का आंदोलन है लेकिन इसे विडम्बना ही तो कहा जायेगा कि हमारे समाज को उत्पीड़ित के मुख से उसकी पीड़ा का बयान तक सुनने का धीरज नहीं रह गया है । वह अन्याय को चुपचाप बर्दाश्त करने को ही स्त्री का आभूषण समझता है ।            

2020 में एविड रीडर प्रेस से गेराल्ड पोसनेर की किताब ‘फार्मा: ग्रीड, लाइज, ऐंड द प्वायजनिंग आफ़ अमेरिका’ का प्रकाशन हुआ । लेखक को इस विषय पर लिखने की सलाह बीस साल पहले मिली थी । सलाह देने वाले एक खोजी पत्रकार थे जो पचासी साल कि उम्र में यह काम करने की हालत में नहीं थे । लेखक ने इसके लिए जो पढ़ा उसमें महामारियों की कहानियों के अलावा प्रयोगशालाओं, वैज्ञानिकों, दवा निर्माता कंपनियों और उनके व्यवसाय का ब्यौरा शामिल था । उनके सामने सबसे बड़ी बाधा इन कंपनियों के रहस्य थे । इसे अनावृत करने के लिए उन्होंने ढेर सारे अधिकारियों, वैज्ञानिकों और सरकारी अफ़सरों से बात करने का फैसला किया । बहुतेरे लोगों ने गुमनामी की शर्त पर बात की । इसके लिए उन्होंने तमाम उपेक्षित सरकारी आदेशों, मुकदमों तथा लोगों के निजी कागजों को छाना । सभी जानते हैं कि सभी देशों की तरह अमेरिका में भी दवा निर्माता कंपनियों को भारी मुनाफ़ा होता है । इन कंपनियों के शासक वर्ग के साथ घनिष्ठ व्यावसायिक रिश्ते होते हैं । इनके घोटालों की खबरें बाहर इसलिए भी नहीं आ पाती हैं कि इनमें गोपनीयता बहुत बरती जाती है । दवाओं का यह महाकाय उद्योग दूसरे विश्वयुद्ध के बाद के सत्तर सालों में फला फूला है । इसमें मुट्ठी भर कंपनियों की इजारेदारी को देखते हुए इसे बिग फ़ार्मा नाम दिया गया । इस इलाके में कु नये खिलाड़ी भी आये लेकिन उनका आगमन जैव प्रौद्योगिकी के उत्थान के बाद हुआ । दवा और धन के इस साम्राज्य में कुछेक वैज्ञानिकों और अधिकारियों के बीच गलाकाट होड़ चलती रहती है । इनके भीतर की रहस्यमय दुनिया में धन कमाने की ऐसी भीषण होड़ है कि बीमारों के इलाज और जीवन बचाने का चिकित्सकीय मकसद गुम हो जाता है । वैज्ञानिकों ने यदि जीवनरक्षक दवाओं का आविष्कार किया तो उसके साथ ही कीमत बढ़ाकर रखने की साजिश भी हुई । इसमें नकली दवाओं का कारोबार है तो ऐसा सरकारी तंत्र भी है जो आंख मूंदकर मुनाफ़ाखोरों को लूटने देता है । कहने की जरूरत नहीं कि दवाओं और चिकित्सा के मामले में हमने अपने भी देश में व्यवसाय का यह पहलू कोरोना महामारी के समय देखा । पूरी दुनिया में इस महामारी से होने वाली मौतों में इन व्यवसायियों की आपराधिक सहभागिता रही ।            

2020 में वर्सो से केट सोपेर की किताब ‘पोस्ट-ग्रोथ लिविंग: फ़ार ऐन अल्टरनेटिव हेडोनिज्म’ का प्रकाशन हुआ । लेखक बहुत पहले से मनुष्यों की जरूरत और मानव कल्याण के बारे में दार्शनिक रूप से सोचते रहे हैं जिसका नतीजा यह किताब है । समृद्ध समाजों में उपभोग के रूप के बारे में इस किताब में विचार किया गया है । साथ ही उसमें बदलाव की सम्भावना की भी जांच परख की गयी है । इस बदलाव से समतापरक और टिकाऊ विश्व व्यवस्था के निर्माण में मदद मिलेगी । लेखक का यह भी कहना है कि पर्यावरण संकट का समाधान केवल तकनीकी साधनों के सहारे नहीं हो सकता । इस काम के लिए समृद्ध समाजों को अपनी जीवन पद्धति, कार्यपद्धति और उपभोग में बदलाव करना होगा । हरित तकनीक का भी लाभ तभी मिलेगा जब समृद्धि के बारे में हमारी सोच में बदलाव आयेगा और जब वृद्धिमुखी उपभोक्तावाद पर विराम लगेगा । इन बातों से बहुतेरे पर्यावरणवादी सहमत होंगे । लेकिन लेखक ने वैकल्पिक सुखवाद का नया पहलू जोड़ा है । उपभोग में आवश्यक बदलावों को वे त्याग अथवा कष्ट मानने का विरोध करते हैं । वे इसे पर्यावरणिक रूप से विनाशकारी और कष्टकर, आत्महंता और धन को ही सब कुछ समझने वाले जीवन से आगे की बात कहते हैं । इसके साथ ऐसी खुशी हासिल होगी जिसमें व्यक्ति के पास खुद के लिए अधिक समय होगा, मनोवांछित काम कर सकेगा, व्यर्थ भागमभाग नहीं होगी और अधिकाधिक भकोसने की जरूरत न होगी । उपभोग में कमी को अक्सर अवांछित नियम थोपने की तरह पेश किया जाता है जबकि असलियत में बाजार सबसे अधिक बाध्यकारी ताकत है । उसमें व्यावसायिक तौर पर जो कुछ अलाभकर है उसे बेकार करार दिया जाता है या उसे हाशिये पर डाल दिया जाता है । बहुत देर तक उबाऊ काम में जुटे रहकर भी गैर जरूरी चीजों को प्राप्त किया जाता है । यही नहीं उसमें बेहतर जिंदगी की धारणा पर इजारेदारी हो जाती है और बच्चों को भी उपभोग आधारित जीवन बिताने के लिए तैयार किया जाता है । संक्षेप में कहें तो लेखक का मानना है कि उस मान्यता को ही चुनौती देनी होगी जिसमें कार्याधिक्य,  भागमभाग और समय की कमी को मानव सुख से जोड़कर देखा जाता है जबकि यह उसके लिए काफी हानिकर होता है । इसके अतिरिक्त हमारे उपभोग से प्रकृति पर बेहद नुकसानदेह असर पड़ता है । इसके जो भी तकनीकी समाधान सुझाये जाते हैं उनसे और अधिक व्यय की ही प्रेरणा मिलती है । लेखक को लगता है कि विकसित देशों को उन्नति के वैकल्पिक तरीकों पर ध्यान देना होगा तथा समृद्धि और खुशहाली की वर्तमान सोच को छोड़ना होगा ।                   

2019 में ड्यूक यूनिवर्सिटी प्रेस से जैरस विक्टर ग्रोव की किताबसेवेज इकोलाजी: वार ऐंड जीयोपोलिटिक्स ऐट एन्ड आफ़ वर्ल्डका प्रकाशन हुआ । लेखक के मुताबिक़ 1992 में ही वैज्ञानिकों ने विकास की तत्कालीन गति और स्थिति को देखते हुए चेतावनी दी थी कि धरती को स्थायी नुकसान होने जा रहा है और सारे मनुष्यों को भारी विपदा झेलनी होगी । उस समय चिंता का विषय वातावरण, पानी, समुद्र, मिट्टी, जंगल, प्राणी जगत और जनसंख्या विस्फोट थे । मनुष्य के जीवन के लिए इन सबको ध्यान देने लायक माना गया था । समस्या के समाधान के लिए कुछ उपाय सुझाये गये थे । प्राकृतिक संसाधनों की बरबादी पर अंकुश लगाना था, संसाधनों का टिकाऊ प्रबंधन करना था, परिवार नियोजन के जरिये जनसंख्या को स्थिर रखना था, गरीबी में कमी कर उसे दूर करना था और बच्चे पैदा करने में स्त्रियों की सहमति को जरूरी बनाया जाना था । इस लक्ष्य हेतु हिंसा और युद्ध में निवेश भी घटाना था ताकि मानव जाति को बचाने लायक संसाधन मुक्त हो सकें । उस समय युद्ध की तैयारी का सालाना खर्च बहुत अधिक हो गया था । सीमित संसाधन वाली इस धरती पर मनुष्य के बचे रहने के लिए युद्ध से किनारा करना जरूरी हो गया था । पचीस साल बाद फिर से वही चेतावनी जारी करनी पड़ी । महसूस किया गया कि बीच के समय कुछ भी ठोस कदम नहीं उठाया गया । नतीजे के तौर पर हालात बिगड़े ही हैं ।  

2019 में पालग्रेव मैकमिलन से कार्ल जे ग्रिफ़िन, राय जोन्स और आयन जे एम राबर्टसन के संपादन में ‘मोरल इकोलाजीज: हिस्ट्रीज आफ़ कनजर्वेशन, डिसपोजेशन ऐंड रेजिस्टेन्स’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब में दो भाग हैं जिनमें पहले भाग के लेख संरक्षण और बेदखली के बीच तथा दूसरे भाग के लेख संरक्षण और कब्जे के बीच के रिश्तों की छानबीन करते हैं । पश्चलेख कार्ल जैकोबी ने लिखा है । संपादकों का कहना है कि साझे के चारागाहों को जलाने का चलन 1980 दशक के पूर्वार्ध में ही बंद हो गया था । उनके आसपास देखभाल के लिए बने आवासों को ऐसे शहरी लोगों को बेच दिया गया जो गाहे ब गाहे शहर के शोरगुल से दूर देहाती शांति में कुछ दिन बिताना चाहते थे । उसके बाद से साझेदारी की चारागाह आधारित जीवन पद्धति बदनाम हो गयी । ठंड के दिनों में पुरानी घास जला देने का चलन था ताकि नयी घास उग सके । इससे नये बाशिंदों को साफ हवा मिलने में भारी समस्या महसूस होने लगी । घास जलाने और जानवर चराने की प्रथा का कोई लिखित सबूत नहीं था । नये बाशिंदों की पकड़ शासन प्रशासन में मजबूत थी । रोक लगवाने में वे कामयाब रहे । नतीजा कि घास के ये मैदान जंगल में बदलते गये । नये बने आवासों की सुरक्षा के लिए जंगलात की सफाई जरूरी हो चली । इस तरह उनके संरक्षण के नाम पर ही पुरानी जीवन पद्धति के नामो निशान मिटा दिये गये । इस किताब में इसी मुद्दे के तर्कों, विचारों और टकरावों को जगह दी गयी है । जंगलात के संरक्षण की कुलीन नीतियों और योजनाओं ने स्थानीय आबादी की जीवनचर्या को लूट और डकैती घोषित कर दिया । जंगल के संरक्षण की लगभग सभी योजनाओं में उसके भीतर रहने वालों की जीवनचर्या को प्रकृति के साथ अपराध बताया जाता है । इनमें बिना सरकारी पट्टे के निवास को गैर कानूनी करार दिया गया ।  पेट भरने के लिए शिकार को पशुओं के साथ क्रूरता बताया जाने लगा । घर बनाने और जलावन के लिए लकड़ी एकत्र करने को चोरी कहा गया । स्वाभाविक था कि इसके विरोध में लड़ाई होती । जंगल में बसे लोग अपना जीवन जिस तरह चलाते थे वह जंगल के ही विभिन्न संसाधनों के समझदारी भरे उपयोग पर आधारित टिकाऊ जीवन पद्धति थी । इसे ही संपादकों ने नैतिक पारिस्थितिकी कहा है और बताया है कि स्थानीय समुदायों ने इस पारिस्थितिकी के पक्ष में डटे रहकर बाहरी लोगों द्वारा जंगल के दुरुपयोग का घनघोर विरोध किया ।                     

2019 में बेरेट-कोएह्लर पब्लिशर्स से मेलानी जाय की किताब ‘पावरार्की: अंडरस्टैंडिंग द साइकोलाजी आफ़ आप्रेशन फ़ार सोशल ट्रान्सफ़ार्मेशन’ का प्रकाशन हुआ । इसमें लेखिका ने बताया है कि चार साल की उम्र में पहली बार जब उन्होंने मछली मारी उसी दिन पश्चात्ताप की वह यात्रा शुरू हुई जिसकी परिणति यह पुस्तक है । उसके बाद से मछली मारने का आनंद तो गया ही, समुद्र से निकली चीजों का भोजन भी मुश्किल हो गया । उस उम्र में समस्या की समझ तो नहीं हुई लेकिन शरीर ने अरुचि की शक्ल में उसे व्यक्त कर दिया । उनका खूब ध्यान रखने वाले माता पिता अन्य जीवों के साथ क्रूरता करते तो उन्हें यह अंतर्विरोध समझ नहीं आता था । वे सिखाते थे कि जिस तरह के व्यवहार की उम्मीद दूसरों से करूं वैसा ही व्यवहार दूसरों के साथ करूं । अध्यापक, धर्मगुरु और सभी आदरणीय लोग यही बताते थे । इसके बावजूद इस नियम का उल्लंघन उन्हें चतुर्दिक नजर आता था । मानवेतर प्राणियों, स्त्रियों और छोटे बच्चों के मामलों में सर्वत्र इस नियम का उल्लंघन होता था और कोई आपत्ति नहीं प्रकट करता था । नियम का जितना ही जाप किया जाता था उतना ही इसका उल्लंघन होता था और यह अंतर्विरोध अदृश्य बना रहता था । इस समस्या से लेखिका को परेशानी तो होती थी लेकिन इसे समझने में कामयाबी उन्हें बीस साल बाद ही मिली । सामाजिक अन्यायों के बारे में सोचते हुए उन्हें मानवता की कमी की समस्या का अनुभव हुआ । अचरज होता था कि लोग उत्पीड़न का विरोध करने की जगह उसे बर्दाश्त क्यों करते हैं । मानवाधिकारों के लिए सड़क पर प्रदर्शन करने वाले लोग अपने घरों में उनका उल्लंघन कैसे करते हैं । जो लोग करुणा और न्याय पर आधारित समाज देखना चाहते हैं वही लोग चुनावों के समय इस बात को भूल क्यों जाते हैं । इन सवालों का जवाब भी लेखिका को एक अन्य मानवेतर प्राणी के ही प्रसंग में मिला । तेइस साल की उम्र में उन्होंने हैमबर्गर खाया । उन्हें अस्पताल में दाखिल होना पड़ा । उसके बाद से मांसाहार असम्भव ही हो गया । इसी क्रम में उन्हें पशुओं को भोजन हेतु नकली तौर पर पालने की नयी संस्कृति का पता चला । इसके तहत ढेर सारे मानवेतर प्राणियों का लालन पालन इस तरह किया जाता है कि उनका वजन बढ़ता रहे । वे केवल भोजन लायक होते हैं । इसे ‘एनिमल एग्रीकल्चर’ कहा जाता है । इस तरह से पोषित जानवर आजकल की संक्रामक बीमारियों को फैलाने का भारी स्रोत सिद्ध हो रहे हैं क्योंकि उनके भीतर स्वतंत्र घूमते जानवरों जैसी प्रतिरोधक क्षमता नहीं होती । इससे लेखिका को धक्का लगा । सबसे बड़ी बात कि वे जब भी इस पर बात करना चाहतीं तो लोग सुनने को राजी नहीं होते ।                 

2019 में स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से निक कोल्ड्राइ और यूलिसेस ए मेजियास की किताब ‘द कास्ट्स आफ़ कनेक्शन: हाउ डाटा इज कोलोनाइजिंग ह्यूमन लाइफ़ ऐंड अप्रोप्रिएटिंग इट फ़ार कैपिटलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । लेखकों ने बेहद जीवंत तरीके से ब्राजील के मूलवासियों के साथ हुए छल को उजागर किया है । उद्योग और प्रगति के नाम पर उनकी जमीन छीनने हेतु राइफ़ल का इस्तेमाल किया गया, ईसाई धर्म के सहारे उन्हें सभ्य बनाया गया और उसी समय टेलीग्राफ के जरिए उन्हें शेष देश के साथ जोड़ा गया । यह सब एक साथ उन्नीसवीं सदी के मध्य में हुआ था । कुछ मूलवासी पारम्परिक परिधान छोड़कर पश्चिमी वस्त्र धारण करने लगे और सामुदायिक जीवन छोड़कर एकल परिवार का जीवन चुना । उपनिवेशकों की भाषा उन्होंने सीख ली और टेलीग्राफ का देशव्यापी संजाल खड़ा करने का रोजगार करने लगे । उपनिवेशवाद के बारे में सोचने पर इसी किस्म का इतिहास दिमाग में उपजता है । सच तो यह है कि उपनिवेशवाद के असरात आज भी महसूस होते हैं । आज भी स्थानीय समुदाय विस्थापन, सांस्कृतिक घुसपैठ और नरमेध का विरोध करते हैं । इस विरोध को जाहिर करने हेतु वे उसी टेलीग्राफ के संजाल का उपयोग करते हैं जिसे उन्हें उपनिवेशित करने के लिए बनाया गया था । लेखक इस उपयोग के असर को लेकर बहुत निश्चिंत नहीं हैं । अपना संदेह प्रकट करते हुए वे बताते हैं कि सोशल मीडिया के जरिए व्यक्त विरोध के प्रत्येक कदम से कारपोरेट ताकतों को भी लाभ मिलता है । एक अन्य घटना का उल्लेख करते हुए वे बताते हैं कि व्यस्तता के चलते कर्मचारी अक्सर पानी पीना भूल जाते हैं । इसकी एक बड़ी वजह कार्यालयों में लगे एयरकंडीशनर भी हैं । इससे पैदा होनेवाली समस्याओं से बचने के लिए एक तकनीकी समाधान के बतौर फोन में समय सूचक लगा दिया गया जिससे पानी पीने की याद आती रहे । इस तरह जो काम निहायत प्राकृतिक था उसे तकनीक के हवाले कर दिया गया । उपनिवेशवादी शोषण की इस दौर में निरंतरता का यही सबूत है कि उस समय पश्चिम ने ही शेष दुनिया पर उसे थोपा था और आज भी वही शोषक की भूमिका में नजर आता है । खास बात कि इस समय उपनिवेशवादी शोषण के कुछ और भी हथियार पैदा हो गये हैं । मानव जीवन पर आधिपत्य जमाने और उसके आधार आजादी के खात्मे के नये तरीके खोज लिये गये हैं । इसी खतरनाक सम्भावना की छानबीन इस किताब में की गयी है ।                

2019 में ब्रिल से जेनिफ़र क्लिंग के संपादन में ‘पैसिफ़िज्म, पोलिटिक्स, ऐंड फ़ेमिनिज्म: इंटरसेक्शंस ऐंड इनोवेशंस’ का प्रकाशन हुआ । संपादक की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब में नौ लेख शामिल हैं । इनमें शांतिवाद, राजनीति और नारीवाद के आपसी सम्पर्कों को देखने की कोशिश की गयी है । आम तौर पर इन तीनों के बारे में अलग अलग विचार किया जाता है लेकिन इनकी आपसदारी पर निगाह डालते ही शोध और विश्लेषण के नये नये क्षेत्र खुलते जाते हैं । उदाहरण के लिए शांतिवाद को नारीवादी निगाह से देखते ही हिंसा की धारणा को नये तरीके से समझने की राह खुलने लगती है । इसी तरह शांतिवाद और राजनीतिशास्त्र की आपसदारी पर निगाह डालते ही युद्ध और वर्तमान राजनीति के प्रतिरोध के विभिन्न भौतिक-सामाजिक इलाके खुलने लगते हैं । संपादक का मानना है कि भविष्य नारीवादी है और इसके चलते उन्हें स्वायत्तता, हिंसा, प्रतिरोध, शांति, धर्म और राजनीति जैसी धारणाओं पर नये सिरे से सोचने का मौका मिलता है । उन्हें इन धारणाओं के साथ संयुक्त पितृसत्ता और नस्लभेद की सोच की छानबीन करने की सुविधा इसी वजह से मिली है । इसी तरह शांतिवाद और नारीवाद की पारस्परिकता के कारण उनमें युद्ध और हिंसा के तर्कों, जलवायु परिवर्तन की समस्या के बारे में भांति भांति के नजरियों तथा इनके बारे में शैक्षिक और सांस्थानिक वातावरण में होने वाले विचार विमर्श को देखने की सही तमीज विकसित हुई । उनका कहना है कि सैन्यवाद, जलवायु परिवर्तन, शैक्षणिक ठहराव और व्यापक अन्याय जैसी तमाम हिंसक सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं का सामना वर्तमान दुनिया को करना पड़ रहा है । इन जटिल सामाजिक राजनितिक परिघटनाओं को समझने और इनके समाधान की शुरुआत के लिए इन्हें एकाधिक दृष्टियों से विश्लेषित करना होगा ।             

2015 में कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस से एटीन बलीबार की 2010 में फ़्रांसिसी में छपी किताब का अंग्रेजी अनुवादवायलेंस ऐंड सिविलिटी: आन लिमिट्स आफ़ पोलिटिकल फिलासफीका प्रकाशन हुआ अनुवाद जी एम गोशगैरियां ने किया है । देरिदा की याद में समर्पित इस किताब में लेखक ने राजनीतिशास्त्र की दुनिया में गम्भीर सैद्धांतिक हस्तक्षेप किया है । असल में राजनीतिशास्त्र में राजनीति को हिंसा से मुक्त जगह बताने की कोशिश होती रही है । इस किस्म की भ्रामक कोशिशों के अंतर्विरोध को किताब में जाहिर किया गया है । बलीबार का प्रस्ताव है कि समकालीन दुनिया में राज्य ही हिंसा की संरचनागत व्याप्ति का स्रोत बन गया है । यदि सचमुच हिंसा के इस प्रभाव से मुक्ति पानी है तो अहिंसा के प्रति नैतिक निष्ठा जताने की जगह सामाजिकता का पुनराविष्कार करना होगा और इसके लिए हिंसा विरोध की रणनीति जरूरी हो गयी है । अहिंसा और हिंसा विरोध के बीच की विभाजक रेखा को किताब में स्पष्ट किया गया है । इसे किताब का मौलिक योगदान भी कहा जा सकता है । राजनीति को अहिंसा का परिक्षेत्र समझने के अंतर्विरोध को उजागर करने से बलीबार ने किताब की शुरुआत की है । हिंसा में कमी या उसकी समाप्ति को ही अहिंसा समझा जाता है । नागरिक समाज का यही बुनियादी आधार है । नागरिक स्वतंत्रता और समता का तभी उपभोग कर सकते हैं जब आपस में धमकी या धक्कामुक्की का माहौल न हो । बहरहाल ऐसी अहिंसा को हासिल करने की पूर्वशर्त प्रतिहिंसा पर राज्य का एकाधिकार है । प्रतिहिंसा का अर्थ हिंसा को रोकने और दंडित करने का अधिकार है । इस प्रतिहिंसा की जरूरत से साबित होता है कि अहिंसा को हासिल करने का काम कभी पूरा नहीं होगा । जो भी नागरिक समाज पुलिस और नियंत्रण की राजकीय प्रतिहिंसा के विस्तार का इच्छुक होता है उसमें हिंसा की सम्भावना हमेशा बनी रहेगी । राजसत्ता जब तक समाज के साथ लगातार युद्धरत नहीं रहेगी तब तक वह समाज में शांति स्थापित नहीं कर सकेगी । बलीबार बताते हैं कि इस तरह अहिंसा हासिल करने के लिए प्रतिहिंसा के इस्तेमाल का चक्रीय तर्क बन जाता है । यह लक्ष्य खुद ही हिंसा के पुनरुत्पादन का बहाना बन जाता है । राज्य को हिंसक साधनों के इस्तेमाल का एकाधिकार मिल जाता है । इसके बरक्स बलीबार का प्रस्ताव ऐसी राजनीति की कल्पना करने का है जिसमें अहिंसा और प्रतिहिंसा के इस दुष्चक्र से बाहर निकला जा सके । इस वैकल्पिक राजनीति का आधार बलीबार के अनुसार हिंसा विरोध ही हो सकता है ।             

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