2021 में राजकमल से विनोद कापड़ी की ‘1232 km: कोरोना काल में एक असम्भव
सफ़र’ को याद रखा जाना चाहिए ताकि वर्तमान सत्ता
के जन भक्षक चरित्र के बारे में भ्रम न पैदा हो । दुनिया का क्रूरतम तानाशाह भी हमारे इस समय की कठिनाइयों की कहानी सुनकर दहल
जायेगा । नोटबंदी से शुरू सनक ने कोरोना के दौरान पूर्णता प्राप्त कर ली । सच का
लेकिन एक दूसरा पहलू भी है । जैसे जैसे देश की सत्ता पर काबिज लोग अंग्रेजी राज की
तरह की भयंकर उपेक्षा जनता के प्रति बरतने के अभियान में आगे बढ़ रहे हैं वैसे ही
वैसे उसके विरोध के लेखन में भी धार पैदा हो रही है । हिंदी के किसी भी पाठक के
लिए बंगाल के अकाल पर लिखे संस्मरण अनजाने न होंगे । असल में रिपोर्ताज नामक विधा
का भारतीयकरण ही अकाल पर लिखे रिपोर्ताज से हुआ । वर्तमान शासन ने भी वैसे ही
दारुण हाल न केवल बना दिये बल्कि आम लोगों की परेशानियों के प्रति विदेशी शासकों
जैसी ही उपेक्षा बरती । लाकडाउन के दौरान कामगारों का अपने घरों की ओर जो पलायन
हुआ उसे 1947 के विभाजन के बाद की सबसे बड़ी त्रासदी के बतौर पहचाना गया है । इस पलायन
के समय के तमाम कष्टों का लेखक ने बहुत ही चाक्षुष विवरण प्रस्तुत किया है । इसका
एक कारण उनका दृश्य माध्यम से जुड़ा होना भी है । हिंदी में शायद यह पहली किताब
होगी जिसे दस्तावेजी सिनेमा बनाने के क्रम में तैयार किया गया है । पूरी किताब
इतने लगाव के साथ लिखी गयी है कि एक नयी विधा की शुरुआत की क्षमता इसमें है । अगर
यह किताब अलक्षित गयी तो इसे हिंदी का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा ।
शीर्षक में बतायी गयी दूरी गाजियाबाद से सहरसा की है ।
गाजियाबाद में कार्यरत सात दिहाड़ी मजदूरों ने यह दूरी साइकिल के सहारे लाकडाउन के दौरान
तय की । यह पूरी यात्रा सात दिनों में सम्पन्न हुई इसलिए किताब का एक शीर्षक ‘।
सात दिन । सात रात । सात प्रवासी ।‘ भी है । लेखक का परिचय उनमें से एक मजदूर के
साथ था । जब लेखक को उसने इस यात्रा का इरादा बताया तो लेखक ने इसे दर्ज करने का
निश्चय किया । इस तरह यह किताब इस मानव जनित भीषण त्रासदी की चश्मदीद गवाही है ।
उस दौरान लगभग प्रत्येक व्यक्ति जबर्दस्त निजी और सामाजिक तनाव से गुजरा था ।
पुलिस की मार से बचने के लिए रेल की पटरी पकड़कर जाने वाले मजदूरों की खून सनी
रोटियों की तस्वीरें भूलने की बात नहीं है । शासन की उपेक्षा और तंत्र की
भयोत्पदकता से निर्मित हमारे समय का वह अंश इतिहास में याद रखा जायेगा ।
वैसे तो पूरी किताब की मुख्य कहानी इन मजदूरों की यह यात्रा
ही है लेकिन इसके साथ ही साइकिल, बिहार, नदी, नाव, रास्ता, ट्रक, बस, प्रशासन और
इन सबके परिवारों की कहानी भी साथ साथ चलती रहती है । किताब पढ़ने के बाद इनमें से
कोई भी कहानी ऐसी नहीं जिसे भूल सकें । बहुत कम पढ़े लिखे मजदूरों की यह कहानी उनकी
समझ और साहस की कहानी भी हो गयी है । किताब की सबसे बड़ी खासियत यही है कि लेखक ने
पूरी यात्रा को इन मजदूरों की जीवटता का आख्यान बना दिया है । निकलते ही जब पुलिस
की मार खानी पड़ी तो मजदूरों ने तकनीक के सहारे एक अद्भुत तरीका निकाला । मोबाइल से
रास्ते का पता लगाने पर वह तीन तरीकों का रास्ता बताता । एक रास्ता चारपहिये का,
दूसरा दोपहिये का और तीसरा पैदल का । पुलिस से बचने के लिए उन्होंने पैदल के
रास्ते का इस्तेमाल शुरू किया । रास्ते में नदी पड़ी तो उसे पार कराने के लिए कोई
नाविक तैयार न था । मजदूरों ने साइकिलें नदी में उतार दीं । ठीक जब पानी उनकी
गर्दन तक आया तो नाविक ने जान बचाने के लिए बुलाकर नदी पार करा दी । सबने तय किया
था कि किसी को अकेला नहीं छोड़ना है । एक मजदूर की साइकिल की चेन घिस गयी थी इसलिए
बार बार रुकना पड़ता था । याद आया कि देहात से उखाड़कर जब शहरों में मजदूरों को
अकेला कर दिया जाता है तो वे सामूहिकता के आधार पर अपनी खोयी सामुदायिकता को वापस
हासिल करते हैं । उनकी यह सामूहिकता पूरी किताब में अनेकानेक रूपों में व्यक्त हुई
है । जब कभी उन्हें भोजन के लिए जरूरत से ज्यादा मिला तो खुले मन के साथ उन्होंने
अन्य मुसीबतज़दा लोगों के साथ मिल बांटकर इस्तेमाल किया ।
रास्ते में शासन के आतंक के मारे मदद करने से लोग हिचक तो
रहे थे लेकिन बहुतेरे ऐसे भी प्रसंग आये जब कुल आतंक के बावजूद आम लोगों ने इनकी
खुलकर मदद की । सांप्रदायिक जहर घोलने की कोशिश के वर्तमान दौर में हम लेखक की कलम
से संकट में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुस्लिम बहुल इलाकों के बाशिंदों को मजदूरों
की मदद करते देखते हैं । रास्ते भर किसी भी मददगार ने बदले में कोई धन नहीं लिया ।
आपसी सौहार्द पर आधारित हमारे इस समाज के ताने बाने को बिखेर देने का अपराध को जनता
के साथ इतिहास भी माफ नहीं कर सकेगा । एक कारीगर ने बिना बताये भी जान लिया कि
इन्हें बिहार जाना है । किताब से गुजरते हुए लग रहा है मानो हम किसी पौराणिक
यात्रा की कहानी के रूबरू हों । ऐसी भीषण मानव जनित त्रासदी के बावजूद सत्ता भले
हासिल हो जाये लेकिन इन हालात के जिम्मेदार लोग कभी प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त कर
सकते । आदि कवि ने इसी किस्म के अपराध के लिए व्याध को शाप दिया था । लम्बी दूरी की
इस यात्रा के चलते मजदूरों ने साधारण साइकिलों के मुकाबले मजबूत स्पोर्ट्स
साइकिलें ली थीं । एक साइकिल की ट्यूब फट गयी । बाजार में कहीं ट्यूब मिल ही नहीं
रही थी क्योंकि वैसी साइकिलें देहात में इस्तेमाल नहीं होतीं । एक होमगार्ड ने
फोटो खींचकर ट्यूब का इंतजाम कर दिया । इस होमगार्ड ने मुसीबत के मारों की मदद को
ही अपना कर्तव्य बना लिया था । रास्ते में ट्रकों के ड्राइवर भी पिटने का खतरा
उठाकर भी इन्हें ट्रक पर बिठा लेते हैं तो यात्रा थोड़ी छोटी हो जाती है ।
ऐसी सामाजिक संवेंदना के साथ ही किताब में शासन और व्यवस्था
का निकम्मापन भी गूंजता रहता है । खासकर बिहार पहुंच जाने के बाद इन मजदूरों को
जिस तरह के लकवाग्रस्त प्रशासन से लड़ना पड़ता है उसमें प्रशासन की क्रूरता के साथ
मजदूरों का जुझारूपन भी खुलकर व्यक्त हुआ है । बिहार की सीमा को छूते ही ये मजदूर
उसी भावुकता से भीग जाते हैं जिसके तहत आदिकवि ने जन्मभूमि को स्वर्ग से बेहतर
बताया था । रास्ते भर इन मजदूरों को भोजन मिलता रहा था वहीं बिहार की सीमा में
घुसने के बाद इन मजदूरों को भोजन के लिए शासनाधिकारियों से कठिन लड़ाई करनी पड़ती है
। इस लड़ाई के दौरान लेखक को इन मजदूरों के भीतर नायकत्व का विकास होता नजर आता है
जब वे खुद को बंदी बनाये जाने का विरोध करते हुए कैम्प के ढेर सारे अन्य मजदूरों
के साथ मिलकर नारेबाजी शुरू करते हैं । किताब का एक प्रसंग तो लगभग रुलाने वाला है
जब रास्ते में लुटेरे तमंचा लगाकर उनकी साइकिल लूटना चाहते हैं । उनकी आपसी बातचीत
से मजदूरों को अंदाजा हो जाता है कि ये भी दिहाड़ी मजदूर हैं, काम बंद होने से धोखा
देकर कुछ लूटना चाहते हैं, असली तमंचे और गोली की इनकी औकात नहीं है इसलिए मजदूर
अड़ जाते हैं । आखिरकार लुटेरों की हकीकत सामने आ जाती है । पूरी यात्रा में मजदूर
मौत के साथ मुकाबिले में जूझते नजर आते हैं । उनकी बातचीत में यह अनुभूति प्रकट
होती रहती है । नदी में डूबने की सम्भावना से लेकर लूट की इस घटना तक मानो मृत्यु
से दो दो हाथ लगातार जारी है । बीच में ही एक साथी बेहोश होकर गिर पड़ता है तो
यात्रा अधूरी रह जाने की आशंका गहरा जाती है । इस आशंका को पराजित करने वाले ये
मजदूर सचमुच महारथी के रूप में उभरे हैं ।
लेखक विनोद कापड़ी ने अद्भुत धीरज और समझ के साथ इस कहानी को
उकेरा है । किताब में बीच बीच में इन मजदूरों की निजी जिंदगी भी आती रहती है ।
देहात में रहने वाले उनके परिवारीजन में पत्नी और मां उभरकर आते रहते हैं ।
फ़िल्मकार की निगाह उनके इस महाकाव्यात्मक संघर्ष के इन नाजुक पहलुओं को भी बखूबी
पकड़ लेती है । इसे भावुकता के व्यर्थ प्रदर्शन की जगह संघर्ष की राह में आनेवाले
भावुक क्षणों की तरह देखा जाना चाहिए । शायद यह उनके दस्तावेजी सिनेमा के अभ्यास
से निकला हो जिसमें समूचे दृश्य की बदौलत ही मानी पैदा होते हैं । दस्तावेजी
सिनेमा और कथा सिनेमा के बीच यह बुनियादी अंतर होता है । कथा सिनेमा के निर्माता
को कथा प्रवाह का सहारा रहता है जबकि दस्तावेजी सिनेमा बनाने वाले के पास इस सुविधा
के न होने से उसे रोचकता पैदा करने के लिए सब कुछ का रचनात्मक उपयोग करना पड़ता है
।
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