Tuesday, September 14, 2021

ज्ञानरंजन और ‘पहल’

 

              

                                      

ईमानदारी से कहूं तो ज्ञान जी से पहले ‘पहल’ से परिचय हुआ । उच्च शिक्षा के लिए बनारस आया तो उम्र बहुत नहीं थी लेकिन संगत अच्छी होने से तमाम चीजों से परिचिति कुछ जल्दी ही हो गयी । बड़े भाई अवधेश प्रधान की मार्फ़त तीसरी धारा के वाम से जुड़ाव हुआ । उनका क्षेत्र सांस्कृतिक था और ढेर सारे संयोगों के चलते मैं भी हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी हुआ सो वही अपना भी दायरा हुआ । हमारे बीच प्रलेस से जुड़े लोगों के बारे में बहुत बेहतर राय नहीं थी । बताने की जरूरत नहीं कि इंदिरा गांधी के जमाने में आपातकाल का समर्थन करने और कुछ मामलों में मुखबिरी करने की बातें भी उनके साथ जुड़ी बतायी जाती थीं । काशीनाथ सिंह का मशहूर संस्मरण पढ़कर इस पत्रिका के साथ जुड़े भावों की जानकारी मिली । मेरे कुछ मित्रों के वे शोध निर्देशक रहे । मेरे भी अध्यापक थे । बाद को दिल्ली की एक मुलाकात में उन्होंने खुद के प्रलेस के मुकाबले तीसरी धारा के साथ नजदीकी की बात बतायी थी ।

तब कविता लिखने का शौक हुआ करता था सो स्नातकोत्तर के अंतिम वर्ष में कविता भेजी । लिफ़ाफ़े में वापस लौट आयीं । इसका कोई गिला कभी नहीं रहा । मुलाकातें जब शुरू हुईं तो कभी जिक्र भी नहीं हुआ । स्थापित मानकों से उनके विद्रोह का अंदाजा तब हुआ जब देखा कि उनकी पत्रिका का पंजीकरण भी नहीं था । इसके बावजूद उस समय की रचनात्मकता का जैसा प्रतिनिधित्व इस पत्रिका में था वैसा ‘आलोचना’ में भी नहीं था । उसके परम्पराभंजक होने के चलते नामवर सिंह भी सहज नहीं रहे जबकि उनकी षष्टिपूर्ति के अवसर पर विशेषांक छापा गया था । बहरहाल जब दूधनाथ सिंह ने उनके व्यक्तित्व में मठाधीशी का उल्लेख किया तब तक ज्ञानरंजन से परिचय हो चुका था । स्वतंत्र सत्ता केंद्र बनाने की इस कार्यवाही को स्थापित मठों के समक्ष समर्पण से बेहतर मैंने माना ।

दिल्ली आने के बाद ज्ञान जी से मुलाकातें कुछ अधिक होने लगीं । आग्नेय जी की पुत्री छात्रावास में मेरे कमरे के ठीक नीचे रहती थी । पत्नी से उसकी मित्रता भी हो गयी थी । बाद में कैंसर से उसके देहावसान की दुखद सूचना भी मिली । उसके नाते से आग्नेय जी के साथ मेल मिलाप शुरू हुआ । वे पहल के संपादक मंडल में थे । उनके कहने से पचासवें अंक की समीक्षा भी लिखी थी । बनारस से ही कविता में गोरख पांडे के प्रति दीवानगी लेकर आये थे । पत्रिका के किसी काव्य विशेषांक में उनका जिक्र तक नहीं था । इस बात का उल्लेख हिंदी कविता की अभिजात परम्परा के साथ उनकी सहमति के बतौर किया । उसके बाद किसी अंक के संपादकीय में गोरख की कविता को मुखपृष्ठ पर छापने का जिक्र ज्ञान जी ने किया । धारणा यह बनी कि वे पहल को सचेत रूप से विपथगामी बनाये रखना चाहते हैं और इस मामले में किसी कमी की आलोचना का बुरा नहीं मानते ।

भटकने की थोड़ी आजादी लेते हुए आग्नेय जी के प्रसंग से कुछ बातों का जिक्र जरूरी है । इसे दर्ज कहीं और होना चाहिए था लेकिन भूल जाने से यहीं लिख डालना बहुत बुरा न होगा । कमरे पर हाल ही में गुजरे साथी बृज बिहारी पांडे आया करते थे । उनसे बातचीत के दौरान आग्नेय जी ने सभी लेखक संगठनों की एकता की भोली इच्छा जाहिर की । पांडे जी ने कहा कि राजनीतिक पार्टी तो फिर भी अपनी पुरानी अवस्थिति को आसानी से सुधार ले सकती है लेकिन लेखकों के लिए खुद के लिखे को मिटाकर नयी बात कहना लगभग असम्भव होता है । इसलिए राजनीतिक पर्टियों के लिए एकता जितनी आसान है उसके मुकाबले संस्कृति और लेखन के क्षेत्र में अधिक मुश्किल है । संस्कृति के मामले में उसकी इस विशेषता की संवदनशील और वस्तुगत परख पर तब भी गर्व हुआ था और आज भी कायम है ।

आग्नेय जी और ज्ञानरंजन में काफी अंतर था । आग्नेय जी संस्थानों के कपटतंत्र से न केवल वाकिफ़ थे बल्कि उसका गाहे ब गाहे इस्तेमाल भी करते थे । इलाहाबाद में अध्यापन हेतु साक्षात्कार था , उन्होंने गोविंदचंद्र पांडे से अपनी नजदीकी की बात मुझे बतायी । मेरा मुख पर्याप्त खुला हुआ था इसलिए लाभ न उठा सका । उनके मुकाबले ज्ञानरंजन मानो इस दुनिया से अपरिचित लगते थे । वैसे कुछ लोग उन पर भी निष्णात होने का संदेह व्यक्त करते हैं लेकिन जितना अनुभव मेरा है उसके आधार पर कह सकता हूं कि संस्थानों के समानांतर की सत्ता निर्मित करना उन्हें पसंद था । अब तो पत्रिका बंद हो गयी है अन्यथा ए पी आई और केयर लिस्ट की क्षुद्रता का मुकाबला कैसे कर पाते! जिस पत्रिका का पंजीकरण भी नहीं था उसमें प्रकाशित होना गौरव की बात मानी जाती थी । आज जिस निर्लज्ज घमंड का प्रदर्शन खुलेआम हो रहा है उस समय इसकी कल्पना कठिन है कि कभी पहल में प्रकाशित होने के लिए तमाम लेखक लालायित रहते थे । स्थापित लोगों को दरकिनार करके साहस के साथ ज्ञान जी यह अवसर नितांत नये और अनजान लोगों को देते थे । इस किस्म की तमाम किस्से मेरे जाने हुए हैं । यह गौरव ज्ञानरंजन ने मुझे भी प्रदान किया इसके लिए हमेशा उनका शुक्रगुजार रहूंगा । कविता तो लौट आयी थी लेकिन बाद में लेख और एक पुस्तिका भी उन्होंने छापी । जो लेख पहली बार छापा उसका संबंध वर्धा से है ।

दिल्ली में पढ़ते हुए आइसा में सक्रिय था । समय सोवियत संघ के पतन के बाद का था । रणधीर सिंह को छोड़कर कोई भी अपनी प्रतिबद्धता घोषित करने में लज्जा का अनुभव करता था । उत्तर आधुनिकता ने मार्क्सवाद के साथ खड़े होने की असुविधा उठाये बिना क्रांतिकारी मुद्रा प्रदर्शित करने की छूट दे रखी थी । हिंदी में नामवर सिंह वैसे भी प्रतिबद्धता के मुकाबले पश्चिमी साहित्य सिद्धांतो के प्रचलन का अनुगमन करने के लिए जाने जाते थे । एक जमाने में वे शिक्षण संस्थानों में स्थापित विद्वानों के समानांतर तीक्ष्ण विश्लेषण के लिए विद्यार्थियों में लोकप्रिय थे । दुर्भाग्य से बाद में वे खुद ही संस्थान बन गये । ऐसे में उनके या हमारे किसी अध्यापक के पास न जाने वाले ज्ञानरंजन हमें पसंद आते और उनकी यह प्रतिसत्ता हमें आकर्षित करती । जो माहौल था उसमें आग्नेय जी मार्क्सवाद के बारे में संशयालु हो चले थे । ज्ञानरंजन ने पहल की ओर से एजाज़ अहमद का सार्वजनिक व्याख्यान मार्क्सवाद की प्रासंगिकता पर आयोजित किया तो उनके साहस से लगाव हो आया । व्याख्यान को पुस्तिका की तरह छपाकर उन्होंने मुफ़्त वितरित किया था । उस कार्यक्रम में जो हो सकता था समस्त सहयोग किया । पुरखा नहीं सहधर्मी की तरह महसूस हुए । इसी तरह उस समय हम प्रसन्न कुमार चौधरी की लम्बी कविता ‘सृष्टि चक्र’ के नशे में थे । आग्नेय जी को कविता जमी नहीं थी । ज्ञानरंजन ने सम्पर्क तलाशना चाहा ताकि उनकी कोई अन्य कविता मंगा सकें ।       

दिल्ली छोड़कर अध्यापन के काम में पहले शाहजहांपुर के एक कस्बे में पांच साल रहा । उस समय इस पत्रिका की खास खबर नहीं रही । हालांकि वहां रहते जो डायरी लिखी उसे बाद में उन्होंने छापा । अपूर्वानंद को एक अनजान आदमी की डायरी छापना विचित्र लगा था । इसके बाद वर्धा गया तो उनसे पत्र व्यवहार शुरू हुआ । परेशान तो रहा लेकिन विश्वविद्यालय को देखता परखता भी रहा । उनसे बात की तो उन्हें यह अनुभव मजेदार लगा और लिखने को कहा । मैंने संस्था छूट जाने के बाद लिखने का वादा किया । संयोग से ऐसा जल्दी ही हो गया । दिल्ली आकर बेकारी करते हुए उसे मजे ले लेकर लिखा । आनंद में लम्बा हो गया था । काट छांटकर उन्होंने कस दिया और छापा । इससे पुरुषोत्तम भी नाराज हो गये । संस्थान के विरुद्ध ज्ञानरंजन की प्रतिबद्धता स्पृहणीय है । पहल को उन्होंने इस दुर्धर्ष दायित्व के लिए बहुत अच्छी तरह इस्तेमाल किया । कोई भी संस्थान अपनी प्रकृति से ही वितृष्णा को जन्म देता है । इस भाव को सार्वजनिक जगह देना सबके बूते की बात नहीं होती । पहल ने इस प्रसंग में ऐतिहासिक भूमिका निभायी है । हिंदी में पुरस्कारों की निर्लज्ज व्यापकता को तोड़ पाना तो सम्भव न हुआ लेकिन पहल सम्मान के जरिये उन्होंने एक दूसरे किस्म के आयोजन की बुनियाद डालनी चाही । शाहजहांपुर में पता चला कि स्थानीय कथाकार हृदयेश को भी यह सम्मान मिला था ।           

दूधनाथ सिंह ने उनको नकारात्मक भाव से सांवला ग्रह कहा था । सचमुच उनमें विद्रोह जनित प्रचंड आकर्षण है । दूधनाथ जी ने उसी संस्मरण में पंत की कविता और ज्ञानरंजन की कहानियों में समानता दिखाते हुए कहा था कि चमकदार शब्दों का सीमित भंडार दोनों की सीमा है । इसे महज शैली के प्रति आकर्षण से सावधान करने के लिए चेतावनी माना जाये तो उचित है । पहल निकालने के बाद उनकी कहानियों के बंद हो जाने का सम्भावित कारण तलाशते हुए दूधनाथ जी ने यह बात लिखी थी । मुझे लगता है कि उनकी कहानियों में ठहराव की वजह शिल्प के क्षेत्र में कोई नयापन न होना नहीं था, बल्कि उनकी कहानियों के कथ्य में परम्परा के प्रति जो विकट विद्रोह है उसी की अभिव्यक्ति के नये माध्यम की सफलता में इसे निहित होना चाहिए । पहल के जरिये जो कुछ उन्होंने इतने लम्बे समय तक किया उसे उनकी कहानियों का विस्तार समझने से उनके सकर्मक जीवन की वैचारिक एकसूत्रता स्पष्ट होगी ।

सिलचर रहते डायरीनुमा कुछ संक्षिप्त लिखा था । भेजा तो उन्होंने छापा । विस्तृत को शायद उन्हीं के सुझाव पर प्रियंवद ने मंगाया और अकार में छापा । एक काव्य संग्रह से चुनिंदा कविताओं के हिंदी अनुवाद भेजे । उसे पुस्तिका के रूप में छापा । वहां रहते लगातार पहल के अंक डाक से मिलते रहे । इनमें बलराज साहनी के किसी लम्बे लेख या व्याख्यान की पुस्तिका की याद है जिसमें अंग्रेजी राज की भाषा नीति के बारे में बेहद महत्व की बातें खुद की भाषाई यात्रा के बहाने कही गयी थीं । ध्यान दिया कि विचित्र और नये के प्रति उनमें दुर्निवार आकर्षण है । पत्रिका में कार्टूनों को प्रमुखता से प्रकाशित करने का साहस वे ही जुटा सकते थे । इन कार्टूनों के जरिये उन्होंने हिंदी साहित्य की बनती नयी दुनिया की बेतरह खिल्ली निडरता के साथ उड़ायी ।

वापस दिल्ली आने के बाद भी पहल के अंक डाक से आते रहे । इतने सालों तक बाहर रहने से बहुत कुछ छूट जाने का क्षोभ मन में था । ताजा मामलात की जानकारी लेने के लिए सोवियत संघ के पतन के बाद की वैचारिकी के साथ जान पहचान बढ़ाना शुरू किया तो फिर ज्ञानरंजन और पहल की याद आयी । एक पुस्तकसूचीनुमा बनाकर भेजा । उसे भी उन्होंने छापा । आगे के समस्त काम के बीज उसी में थे । बाद के अंकों में लिखने की इच्छा रही लेकिन लिख न सका । जब 125वें  अंक के अंतिम अंक होने की घोषणा हुई तो उसे कहकर मंगाया । इतना लम्बा सफर जिसमें न केवल ढेर सारे अंक बल्कि पुस्तिका और सम्मान । इस थाती को बाकायदे सबके लिए सुलभ बनाने की कोशिश होनी चाहिए । सूचना के मुताबिक प्रियंवद चिट्ठियों के संग्रह का संपादन कर रहे हैं । कर्मेंदु शिशिर शोधागार में भी शायद बहुत कुछ सुरक्षित है । समूचे हिंदी समाज को भविष्य के लिए इस खजाने को इस्तेमाल करने लायक हाल में सहेजकर रखना होगा ।

पहल का नाम पहला से निकला है । इस अर्थ में इस पर पश्चिमी अवांगार्द की धारणा का असर है । तमाम रचनाकारों ने सोचा था कि समाज में बदलाव लाने के लिए उसका अग्रदूत बनना होगा । लगभग सभी कला आंदोलनों पर इस सोच की छाप मिलेगी । भारत में कला में तो नहीं लेकिन साहित्य पर इसका असर काफी था । रवींद्रनाथ ठाकुर के जदि तोमार डाक से लेकर अज्ञेय की उड़ चल हारिल तक उसी धारणा का अनुवाद प्रतीत होता है । यह सोच साहित्य और कला की दुनिया के भीतर रचनाकार की संवेदनशीलता का सबूत थी । पहल पत्रिका का तो सब कुछ रचनात्मक था । मुखपृष्ठ के रेखांकन से लेकर लेखक परिचय तक । पत्रों को भी छापने में वे मौलिक सूझ का परिचय देते थे । मेरे सहपाठी देवेंद्र चौबे की रचना के बतौर उनका पत्र छापा जिसमें जे एन यू के हालात का जिक्र था । इस तरह पाठकों को उस विश्वविद्यालय पर हुए हमले का आंखों देखा जैसा हाल पढ़ने को मिल गया । सोशल मीडिया के इस जमाने में संपादक की तानाशाही के अंत की खुलकर तारीफ होती है लेकिन यह अंत वैसा ही शोकाकुल करने वाला अंत है जैसे मशीनी उत्पादन ने मौलिकता का अंत कर दिया । केवल संपादन किसी भी रचनात्मक और कलात्मक सृजन से कमतर दायित्व नहीं होता इसे पहल के जरिये ज्ञान जी ने साबित कर दिया । आशा है वे खुद भी उसे सर्वसुलभ बनाये जाने की किसी योजना पर चुपचाप काम कर रहे होंगे । जैसे कभी उन्होंने पहल निकालने की सूचना देकर अपने मित्रों को चौंकाया था उसी तरह इस दायित्व का भी निर्वहन करके वे हिंदी समाज को उपकृत करेंगे । आखिर यह पत्रिका उनके साथ आंगिक रूप से जुड़ी रही है ।                                               

1 comment:

  1. वाह! बहुत विस्तृत विवरण।
    सुंदर।

    ReplyDelete