Sunday, March 22, 2020

फ़ासीवाद से लड़ाई की एक दास्तान


2019 में रैंडम हाउस से कैरोलीन मूरहेड की किताब ‘ए हाउस इन द माउनटेन्स: द वीमेन हू लिबरेटेड इटली फ़्राम फ़ासिज्म’ का प्रकाशन हुआ । कहने की जरूरत नहीं कि यूरोप में मुसोलिनी के नेतृत्व में जर्मनी से पहले ही इटली में फ़ासीवाद का शासन स्थापित हो चुका था । किताब की शुरुआत तूरिन में मजदूरों में लोकप्रिय एक समाजवादी नेता के घर फ़ासीवादियों के हमले से होती है । वे घर में घुसकर बंदूक के बल पर समाजवादी मजदूर नेता और उनकी तीन बच्चियों तथा तीन लड़ाकुओं को कार से ले जाते हैं । ले जाना तो वे सबको चाहते थे लेकिन नेता के अनुरोध पर पत्नी और छोटे बच्चों को छोड़ दिया । पुरुषों को फ़ासिस्ट पार्टी के मुख्यालय ले जाया गया । पत्नी शहर भर में परिवार की खोज खबर के लिए दौड़ती धूपती रहीं लेकिन सभी पुरुषों को नगर के विभिन्न हिस्सों में ठिकाने लगा दिया गया । लड़कियों को एक नहर के किनारे ले जाकर गर्दन के पीछे से गोली मार दी गई । दो तो वहीं मर गईं लेकिन तीसरी घायल नहर के पानी में बह चली । हत्यारों ने पानी में गोली चलाकर उसकी जान लेनी चाही । मरा जानकर हत्यारे पार्टी नेता को सफलता की खबर देने गए । लेकिन वह घायल ही पानी से बाहर निकल आई और रेंगकर पड़ोस के घर चली गई । गर्भ में पल रहा शिशु मर गया था । मां भी जीवित न रह सकी । इन हत्याओं की खबर शहर भर में फैल गई । पता नहीं चल रहा था कि उनको दफ़नाया कब और कहां जाएगा । शहर के शवगृह के कर्मचारियों से पता चला कि दो बहनों को तीन दिन बाद शनिवार को दफ़नाया जाएगा । एक घर से दूसरे घर, एक औरत से दूसरी औरत होते हुए खबर फैली कि हड़ताल होकर रहेगी और एकत्र होकर शवयात्रा में लाल प्रतीक के साथ चलना है ।
सुबह साढ़े आठ बजते बजते कब्रगाह के दरवाजे पर दो हजार से अधिक औरतें लाल प्रतीक लिए हाजिर हो गईं । तूरिन के इतिहास में औरतों का यह सबसे बड़ा जुलूस था । पिछले उन्नीस महीनों में बहुतेरी हत्याएं हुई थीं लेकिन इस हत्या ने उनको जगा दिया था । उनमें गुस्सा भरा हुआ था । सवा नौ बजे एक कार से फ़ासिस्ट उतरे, हवा में गोली चलाई और शोक के चिन्ह रौंद डाले । इसके बाद गाड़ियों में और पुलिस बल आया । औरतें बिखरकर छुप गईं, कुछ को पकड़ लिया गया और उनको एक कतार में हाथ ऊपर उठवाकर खड़ा किया गया । एक औरत चिल्ला चिल्ला कर गाली देने लगी । उसे पकड़ने के चक्कर में धक्कामुक्की हुई तो उसकी सखियों ने उसे छुपा लिया । इसी समय दो ताबूत आए । औरतों ने प्रतिरोध के गीत गाते हुए घुटनों के बल बैठकर ताबूतों को जाने का रास्ता दिया । सैकड़ों औरतों को पकड़कर फ़ासिस्ट बंदीगृह लाया गया । डेढ़ महीने बाद जब तूरिन आजाद हुआ तो उनमें से कुछ तब भी बंदीगृह में ही थीं ।
उस शनिवार को तूरिन के कारखानों में पंद्रह मिनट की हड़ताल रही । शहर में ट्राम रोक दी गई थी । कालीन बनाने के कारखाने में एक औरत ने छत पर चढ़कर लाल बैनर लटका दिया था । बाद में कब्रगाह जाकर औरतों ने बचे फूलों को ताजा कब्र पर चढ़ाया । जबसे जर्मनी ने इटली के इस नगर पर कब्जा किया था तबसे ढेरों जुलूस प्रदर्शन इटली के उद्योग क्षेत्र में हुए लेकिन इस तरह का औरतों का औरतों के लिए निडर प्रदर्शन पहले नहीं देखा गया था । इनमें उन चार औरतों का विशेष योगदान था जो विगत उन्नीस महीनों से प्रतिरोध के अग्रिम मोर्चे पर डटी रही थीं । इन चार में से दो ने शवयात्रा में भाग लिया था ।
चारों में जो सबसे बड़ी थीं वे इटली के सबसे जुझारू फ़ासीवाद विरोधी योद्धा की विधवा थीं । उनकी उम्र इकतालीस साल थी । अध्यापक और अनुवादक थीं । दोस्ती को देश और विचारधारा से ऊपर मानती थीं । लड़ाकुओं की एक टोली की राजनीतिक सलाहकार थीं । उनका जीवन इतना मूल्यवान माना गया कि पार्टी ने उन्हें शवयात्रा में भाग लेने से मना कर दिया था । दूसरी अनुपस्थित स्त्री पचीस साल की युवती पार्टी सदस्य थीं । वे कारखानों में फ़ासीवाद विरोधी कार्यवाहियों का संयोजन करती थीं और गुप्त स्त्री पत्रिका का संपादन करती थीं । एक रात पहले तक घर घर घूमकर उन्होंने प्रचार किया था । उनकी जगह उनकी छोटी बहन शवयात्रा में शामिल हुई थीं और गिरफ़्तार भी हुईं । दूसरे दिन पूछताछ में उन्होंने पुलिस को चकमा दिया कि वे पिता की कब्र पर आई थीं, उन्हें रिहा कर दिया गया । जो शामिल थीं उनमें से एक तूरिन के उत्तर के लड़ाकुओं के परिवार की अकेली लड़की थीं । उनकी उम्र छब्बीस साल थी । उनका स्वभाव विद्रोही था और वे जर्मनों के विरोध में जागरण की उम्मीदबर थीं । कब्रगाह पर जब फ़ासिस्ट आए तो उन्होंने एक बच्ची का हाथ थाम लिया और उसे अपनी पुत्री बताया । इस तरह वे गिरफ़्तारी से बच सकीं । उनकी हमउम्र दोस्त डाक्टर थीं और लड़ाकू दस्ते की चिकित्सा उनकी जिम्मेदारी थी ।
चारों औरतें दोस्त थीं और जर्मन आधिपत्य से लड़ते हुए उन्हें लगभग दो साल बीते थे । फ़ासीवादियों की क्रूरता को उनमें से दो ने कैद में उन्नीस महीनों तक लगातार झेला । इन कैदों में टार्चर और हत्या सामान्य बातें थीं । इटली पर 1943 से 1945 के बीच जर्मनी के कब्जे के दौरान हजारों औरतों ने प्रतिरोध में भाग लिया और देश की मुक्ति के लिए लड़ीं । मुख्य बात यह है कि इसके पहले के बीस सालों में मुसोलिनी के फ़ासीवादी शासन के दौरान उनके अधिकार और आवाज छीन लिए गए थे, अपने जीवन और देश को चलाने में उनकी कोई भागीदारी नहीं रह गई थी । इसके बावजूद उन्होंने गिरफ़्तारी, टार्चर, बलात्कार और हत्या को झेलते हुए लड़ने और जूझने की हिम्मत जुटाई । इटली के बाहर उनकी कहानी को शायद ही कोई जानता है । इसीलिए लेखिका ने उसे उजागर करने का संकल्प किया । वैसे तो इटली के प्रतिरोध की कहानी ही अनसुनी है ।
सितम्बर 1943 में इटली ने आत्मसमर्पण किया । अप्रैल 1945 में जर्मनी के कब्जे से देश आजाद हुआ । इस दौरान इटली लगभग गृहयुद्ध में मुब्तिला रहा । लोग केवल जर्मन आक्रांताओं से नहीं लड़ रहे थे, उनमें आपस में भी फ़ासीवाद के पक्ष और विपक्ष की लड़ाई जारी थी । इस निर्मम लड़ाई में हजारों लोग मारे गए लेकिन इस त्रासदी की याद शायद ही मनाई जाती है । ये चारों औरतें उस इलाके की थीं जो फ़ासीवाद के विरोध की लड़ाई में अग्रिम मोर्चे पर रहा था । इस गृहयुद्ध के चलते मुसोलिनी की भ्रष्ट सत्ता को उन्नीस महीने का जीवन और मिला लेकिन साथ ही लोगों की बहादुरी और गर्मजोशी भी उभरकर सामने आई । इन्हीं परस्पर विरोधी चीजों के चलते वह दौर बहुत ही रोचक माना जाता है ।  
इस इतिहास के विस्मरण की वजह बताना मुश्किल है । एक कारण शायद उस युद्ध की जटिलता ही है जिसमें आपस में लड़ने वाली ताकतें तरह तरह की थीं । अमेरिकी और ब्रिटिश साथ तो थे लेकिन उनमें पर्याप्त मतभेद थे । जर्मन फौज इनकी बढ़त रोकने के लिए इटली के संसाधनों का इस्तेमाल कर रही थी और साथ ही अपने साथी फ़ासिस्टों को भी काबू में रखना चाहती थी । इटली के फ़ासीवादियों को अपना भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा था ।  प्रतिरोध की ताकतों के आदर्श बड़े थे और साहस दुस्साहस की हद तक था । लेकिन इस उपेक्षा का प्रमुख कारण पश्चिमी चिंतकों की आशंका थी । उन्हें लगता था कि प्रतिरोध की ताकतें इटली को कम्युनिस्ट देश बना देंगी । इसलिए मित्र राष्ट्र उन्हें अयोग्य सहयोगी मानते रहे । लड़ाई में उनकी जरूरत तो थी लेकिन उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता था । युद्ध के खात्मे के बाद तो उनको याद करने का कोई फायदा नहीं था ।
किताब में जिन औरतों की कहानी बताई गई है उनके लिए गृहयुद्ध का मतलब केवल फ़ासिस्टों और जर्मनों से आजादी ही नहीं था बल्कि उसके आगे ऐसा नया और लोकतांत्रिक समाज बनाने का कार्यभार था जिसमें औरतें काम और परिवार में कानूनन और व्यवहार में बराबर होनी थीं । इटली ऐसा हो तो सकता था लेकिन हुआ नहीं यही उस लड़ाई की त्रासदी कही जा सकती है ।

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