Sunday, February 2, 2020

अर्धसत्य का मार्क्सवाद


              
                                
मार्क्सवाद को कफन देकर दफ़ना चुके बौद्धिक अनंत विजय की 2019 में वाणी से बहुमूल्य (795 रुपये) पुस्तकमार्क्सवाद का अर्धसत्यका प्रकाशन उपेक्षा करने लायक घटना नहीं है थोड़ी सी लोकचेतना का सहारा लें तो कह सकते हैं कि इस किताब की सींग पूंछ का पता नहीं चलता । ढेर सारी कतरनों को जोड़कर माहौल का लाभ उठाने के लिए किताब का रूप इसे दिया गया है । फिर भी इस पुस्तक के प्रचंड महत्व के अनुरूप टेलीविजन के परदे की मशहूर अभिनेत्री और तेज तर्रार सांसद तथा भाजपा नेत्री तथा भारत सरकार के उच्च शिक्षा की देखरेख करने वाले मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ख्यातिलब्ध पूर्वमुखिया स्मृति ईरानी ने इसका भव्य विमोचन किया । त्रिपुरा में मिली चुनावी जीत के तत्काल बाद लेनिन की मूर्ति गिराकर उसके सिर से फ़ुटबाल खेलने के बाद वैचारिक हमले का अगला कदम वर्तमान पुस्तक के प्रकाशन के साथ उठाया गया है । अनंत विजय जी बहुत दिनों से हिंदी, साहित्य और भारतीय संस्कृति के क्षेत्र में वामपंथ और मार्क्सवाद के प्रभाव से की जाने वाली व्याख्याओं से उसी तरह निपटने की मुद्रा में खड़े दीखते रहे हैं जिस मुद्रा में धारा 144 के बीच दिल्ली के कनाट प्लेस में कुछ प्रदर्शनकारी ‘गोली मारो सालों को’ चीखते हुए जुलूस निकालते हैं । हाल के दिनों में यह हमला मुद्रा और भाषा से आगे बढ़कर देश के कुछ हिस्सों में ठोस भौतिक तथ्य में भी बदलता रहा है हालांकि इसकी विरासत कुछ लम्बी है जिसके शिकार राष्ट्रपिता भी हुए थे  
वे जिस वैचारिकी से संबद्ध हैं उसके साथ हिंसा तो पहले से ही जुड़ी हुई थी, फिलहाल झूठ का कारोबार भी बड़े पैमाने पर नत्थी हुआ है । इस झूठ की प्रतिष्ठा के लिए पूर्ण असत्य की जगह अर्धसत्य का सहारा लिया जाता है ताकि श्रोता या पाठक समुदाय के साथ छल किया जा सके और लेखक को उसका अपराध बोध भी रहे । इस प्रक्रिया में लेखक ने मार्क्सवाद को भी अपनी इस समझ का शिकार बनाया है । दुनिया में मार्क्सवाद को सिद्धांत और व्यवहार की एकता के बतौर देखा जाता है लेकिन किताब के लेखक ने ‘---मार्क्सवाद को एक सिद्धांत के तौर पर परखने की बिल्कुल कोशिश नहीं की है, बल्कि इस वाद के बौद्धिक अनुयायियों और भक्तों के क्रियाकलापों को सामने रखने का प्रयत्न है ।’ भाषा का छल देखिए कि उनके अपने हलके में विवेक का प्रयोग किए बिना अनुसरण करनेवाले को जो कुछ कहा जाता है उसी लकब को मार्क्सवादियों पर सोचे समझे बिना चिपका दिया गया है । कहते हैं कि आपकी भाषा समूची संस्कृति का लक्षक होती है । आश्चर्य नहीं कि अनंत विजय जी को ‘भक्तों’ की उपस्थिति सर्वत्र नजर आती है । इस भाषा के सहारे वे विवेकवान अनुसरण को भी संदिग्ध बना देते हैं । असल में वह दुनिया उनकी कल्पना से परे है जिसमें बौद्धिक स्वाधीनता और किसी उच्च आदर्श का अनुपालन एक साथ सम्भव होते हैं । मार्क्स के सिद्धांत पर विचार न करने का संकल्प जाहिर करके जब वे मार्क्सवादियों के आचरण पर ही विचार करने चलते हैं तो उम्मीद बनती है कि इनके अलग अलग संगठन उनकी जानकारी में जरूर होंगे । जानकारी तो उनको है लेकिन आखिर अर्धसत्य के रचयिता को हांकने से कैसे रोका जा सकता है ! इस तथ्य को तो वे शायद पूरी तरह खारिज कर देंगे कि मार्क्सवादियों में आपसी मतभेद भी रहे हैं ।
भूमिका में वे मार्क्सवादी व्यवहार के बतौर सोवियत संघ का और अनुयायियों के रूप में फ़िदेल कास्त्रो और माओ का जिक्र करते हैं । कहने को तो वे सिद्धांत के तौर पर देखने से परहेज का दावा करते हैं लेकिन भूमिका में स्त्री प्रश्न पर मार्क्सवादी सैद्धांतिकी से जूझने का प्रयास करते हैं । मार्क्सवाद के अन्य बहुतेरे विरोधियों की तरह वे इस सवाल पर पारम्परिक नैतिकता के पक्ष से मार्क्सवाद पर हमला करते हैं और उपरोक्त अनुयायियों के जीवन को अनैतिक साबित करने की कोशिश करते हैं । असल में बुर्जुआ नैतिकता के सभी विश्वासियों की तरह उनकी आपत्ति भी मार्क्सवाद का स्त्री की स्वतंत्रता के पक्ष में खड़ा होना है । ये सभी लोग परिवार की असलियत को उजागर कर देने वाली मार्क्सवादी दृष्टि से खिन्न रहते हैं । उन्हें साहित्य की जानकारी के नाते पता होगा कि महादेवी वर्मा ने अपनी ऐतिहासिक किताब ‘श्रृंखला की कड़ियां’ में परिवार को भी एक कड़ी माना था । बहरहाल महादेवी और स्त्री मुक्ति के प्रसंग से उनकी एक और बात याद आई ।
पूरी किताब में जब कभी उन्होंने मार्क्सवाद का नाम लिया है तो उसके साथ रोमांटिसिज्म जरूर जोड़ा है । अक्सर वे ‘मार्क्सवाद का रोमांटिसिज्म’ लिखते हैं । इस धारणा से उनकी चिढ़ इतनी गहरी है कि नक्सलियों के रोमांटिसिज्म की भी चर्चा करते हैं । छायावाद के इस शताब्दी वर्ष में कोई तथाकथित साहित्य चिंतक रोमांटिसिज्म का इस तरह से उल्लेख करे उचित नहीं लगता लेकिन उनका यह रुख उनकी चिंतन पद्धति के मूल में है । कहने की जरूरत नहीं कि सामाजिक रूढ़ि का नकार रोमांटिसिज्म की जान है और अनंत विजय जी रूढ़ियों की पक्षधरता में यकीन करते हैं । याद दिलाने की जरूरत नहीं कि रोमांटिसिज्म का संबंध युवा प्रेम से होता है जिसे मुक्ति का रूप माना जाता है । इस प्रेम में तमाम किस्म की रूढ़ियों का नकार होता है । दुखद यह है कि अनंत विजय जी के मित्रगण इसे लव जेहाद कहते हैं और प्रेमियों को रोमियो गैंग । इसके चलते समाज के प्रति उनका यह नजरिया तो है ही साहित्य के प्रति भी वे यही रुख अपनाते हैं । पूरी किताब का शायद ही कोई लेख ऐसा होगा जिसमें पुरस्कार वापसी की बात न हुई हो । उन्हें यह तथ्य तो जरूर मालूम होगा कि यह साल जलियांवाला बाग हत्याकांड का भी शताब्दी वर्ष है और इस हत्याकांड के विरोध में नाइटहुड लौटाकर गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने पुरस्कार वापसी को अन्याय के प्रतिकार से जोड़ा था । हिंदी के प्रसिद्ध लेखक प्रेमचंद ने साहित्य को ‘जीवन की आलोचना’ कहा था । यह दायित्व आखिर साहित्यकार किस तरह निभाएं अगर उन्हें इतनी भी आजादी न मिले । इस प्रसंग में अनंत विजय जी ह्वाट्स ऐप यूनिवर्सिटी और गोदी मीडिया के इस झूठ का भी समर्थन कर बैठते हैं कि यह पुरस्कार वापसी सुनियोजित थी । इस प्रसंग में उन्होंने असहिष्णुता संबंधी बात भी उठाई है और नई सरकार की सहिष्णुता के रूप में कुलपति के बतौर सदानंद शाही की नियुक्ति और निदेशक के रूप में बद्रीनारायण की नियुक्ति का हवाला दिया है । कहते हैं कि अपवादों से नियम की पुष्टि ही होती है । अनंत विजय जी को खबर होगी ही कि इन दोनों में से एक नियुक्ति को रद्द कराने का तकनीकी कारण पैदा करने में उनके दोस्तों ने निर्णायक भूमिका निभाई और इस तरह कुलपति के प्रसंग में नियुक्ति का आदेश निर्गत होने के बाद रद्द होने का वह अकेला उदाहरण बना । न केवल इतना बल्कि जिस बात के खंडन के लिए वे यह उदाहरण ले आए उस असहिष्णुता का ही समर्थन कर बैठे ! पुरस्कार वापसी से उनको इतना धक्का लगा कि उसका विरोध करने के लिए अशोक वाजपेयी को भी वामपंथी मानकर उन्हें भी गरिया बैठते हैं । संस्थानों या प्रतिष्ठान से उनका अनुराग उनके श्रीमुख से अरुंधति राय, महाश्वेता देवी और नयनतारा सहगल तक के बारे में गलतबयानी करा देता है ।    
उनकी भाषा किस हद तक सरकारी है इसका प्रमाण तब मिलता है जब वे नक्सलियों के बौद्धिक समर्थकों को स्लीपर सेल की तरह काम करने वाला बताते हैं । उनकी भाषा में इस कदर जहर भरा है कि विरोध करने को वे लगभग हमेशाछाती कूटनायाबुक्का फाड़नाकहते हैं । इस तरह की सांकेतिक शब्दावली का इस्तेमाल उन्होंने अपने राजनीतिक करीबियों से सीखा है जो जीवन की प्रत्येक घटना को हिंदू या मुस्लिम के चश्मे से देखते हैं । उनकी तरह ही सभी बातों का सरल समाधान खोजने के चक्कर में अनंत विजय जी वामपंथियों के साथ मानवाधिकार समर्थकों आदि को भी पीट देते हैं । राजनीति में चलने वाली मुहिम के साथ उनकी सहमति को आप उनके अग्रलिखित प्रस्ताव में देख सकते हैं । उनका प्रस्ताव है- ‘राजनीति में जिस तरह से कांग्रेस मुक्त भारत पर लम्बा विवाद हुआ, उसी तरह से हिन्दी में विचारधारा मुक्त साहित्य पर भी बहस होनी चाहिए ।उनका कष्ट है किदबे-कुचले मजलूमों  की बातें करते-करते हम अपने गौरवशाली इतिहास को भुलाने लगे ।इस तरह के लेखन से उनकी विरक्ति का स्तर बहुत व्यापक है और इसमें समस्त विमर्श परक लेखन आ जाता है । कहते हैंदलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श और अब तो पिछड़ों के साहित्य का एक अलग कोष्ठक तैयार करने की तैयारी हो रही है ।यह बात इनके समर्थन में नहीं, विरोध करने के लिए कही गई है । ध्यान दीजिए कि उनकी चिढ़ प्रगतिशील से लेकर दलित, स्त्री, पिछड़ा लेखन तक व्याप्त है । उनका वाम विरोध उन्हें साहित्य से विचारधारा के बहिष्कार के आह्वान तक ले जाता है । शायद विचारधारा विहीन लेखन का नमूना प्रस्तुत करने के लिए ही उन्होंने यह किताब लिखी है !
साहित्यकारों की पुरस्कार वापसी से उनकी चिढ़ का मूल उनकी इस धारणा में है कि साहित्यकारों को राजनीति में नहीं पड़ना चाहिए । उन्हें साहित्य लिखने तक ही सीमित रहना चाहिए । उनकी नजर में साहित्यकार को अपनी सीमा में रहना चाहिए । असल में उनकी यह सोच भी रोमांटिसिज्म विरोध से जुड़ी हुई है । रोमांटिसिज्म व्यक्ति को अपनी तय सीमाओं का अतिक्रमण करना सिखाता है । जमीन पर रहकर भी आसमान छूने की कोशिश करने के लिए प्रेरित करता है । इस किस्म के प्रयास ही यथास्थिति के पक्षधरों को अरुचिकर लगते हैं । शासक वर्ग की सोच हमेशा से स्थापित और प्रतिष्ठित के उल्लंघन को हतोत्साहित करती है । अतिक्रमण उसके लिए खतरनाक होता है । देवताओं को भी उनसे परेशानी होती है जो मनुष्य को बताई गई सीमा को पार करना चाहते हैं । अनायास नहीं कि रोमांटिसिज्म के अंग्रेजी कवि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरोध में थे । उनसे प्रभावित हिन्दी साहित्य का छायावाद, मुक्ति को बड़े मूल्य के रूप में ग्रहण करता है । मुक्ति के सभी अर्थों का विरोध इस किताब में व्यक्त हुआ है । इसके लिए झूठ का सहारा लेकर किए दुष्प्रचार तक को लेखक ने मान्यता दी है । जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के विरोध के लिए फांसी की सजा के उनके विरोध के विरोध तक में अनंत विजय जी चले जाते हैं । जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को बदनाम करने के संघी प्रचार की तर्ज पर वे भी टैक्स देने वालों के धन पर इन्हें ऐश करते बताते हैं । इस सिलसिले को साफ करने के लिए थोड़ा अर्थशास्त्र की जानकारी जरूरी है । उनके कुनबे में इतना ही जानना पर्याप्त होता है कि नोटबंदी से आतंकवाद पर रोक लगी । जिम्मेदार साहित्य चिंतक होने का दावा करने के नाते उन्हें जानना चाहिए कि प्रत्यक्ष कर से बहुत अधिक परोक्ष कर की वसूली होती है और यह परोक्ष कर सभी लोग अदा करते हैं । इस नाते उन्हें अपना टैक्स तो याद रहता है लेकिन माचिस से लेकर आलू प्याज तक के इस्तेमाल पर टैक्स देने वाला भूल जाता है । इसके अतिरिक्त भी टैक्स का यही सदुपयोग है कि उसे सेहत, शिक्षा और अन्य कल्याणकारी मदों में खर्चा जाए । इस नाते जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय पर टैक्स का धन खर्चना उसका सही उपयोग है । दुख की बात यह कि इन सबके बावजूद राकेश सिन्हा ट्विटर पर उनका समर्थन नहीं करते !         
अनंत विजय जी लेकिन एक सही बात का उल्लेख करते हैं । उनका कहना है कि वामपंथियों ने लोकप्रिय की उपेक्षा की । वैसे यह बात भी मार्क्सवादियों के ही एक हिस्से में प्रचलित रही है । इससे आशा बंधती है कि शायद वे सोशल मीडिया आदि के पक्ष में कोई बात कहेंगे लेकिन अर्धसत्य ने उनका पीछा यहां भी नहीं छोड़ा और एकाधिक जगहों पर उन्होंने फ़ेसबुकिया लेखन का गर्हित भाव से उल्लेख किया है । यदि इस मामले में वे उच्च-भ्रू नजरिए का शिकार हैं तो सवाल है कि आखिर किस मामले में वे लोकप्रिय के साथ खड़े हैं । असल में लोकप्रिय का उनका मानक या तो चेतन भगत हैं जिनका जिक्र शायद चुनाव पूर्व उनकी राजनीतिक सक्रियता के चलते हुआ है । इसके अतिरिक्त उन्होंने अमीष त्रिपाठी जैसे अंग्रेजी लेखक का नाम लिया है जो हिंदू पौराणिक कथाओं को लेकर कथा लेखन कर रहे हैं । हिंदी के लेखक की अंग्रेजी कुंठा उनका पीछा कैसे छोड़ती ! जनता के लिए लोकप्रिय और संपन्न समुदाय के लिए विशेष की पक्षधरता असल में उनकी वर्ण व्यवस्था समर्थक सोच का ही रुचिगत विस्तार है । इस किस्म के गर्हित विभाजन के समर्थन की जगह जनता में शास्त्रीय को लोकप्रिय की तरह ग्रहण करने की क्षमता-योग्यता पैदा करना मार्क्सवादियों ने अपनी जिम्मेदारी माना है । जो कुछ भी श्रेष्ठ है उन सब के आस्वाद का अधिकार सामान्य जन को होना चाहिए । इसे अगर फ़िलहाल चर्चित कवि फ़ैज़ के शब्दों में कहें तोये सारा माल हमारा है, हम सारा खजाना मांगेंगे। फ़ैज़ को उनके संगियों ने हिंदू विरोधी बनाया हुआ है । डर है इसे पढ़ने के बाद वे उन्हें भारत पर कब्जा करने की ललकार देने वाला न कहने लगें ! वैसे तोमेहनतकशलिखकर फ़ैज़ ने संदेह की गुंजाइश नहीं रहने दी है लेकिन कुपढ़ लोगों का संग साथ उनसे जो न करा ले । अर्धसत्य की खोज में तो वे निकल ही पड़े हैं ।          
                                    

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