Saturday, October 26, 2019

अरुण माहेश्वरी के मार्क्स


                      
                                           
कार्ल मार्क्स के जन्म को दो सौ साल पूरे हो चुके हैं दुनिया भर में इस अवसर पर तमाम किस्म के आयोजन हुए लेकिन आयोजनों के अतिरिक्त मार्क्स को प्रासंगिक साबित करने में पूंजीवाद के संकट का योगदान कम महत्व का नहीं था मार्क्सवाद का निर्माण ही पूंजीवाद की कब्र खोदने के अस्त्र के रूप में हुआ था मार्क्स का समूचा जीवन और लेखन पूंजीवाद को मटियामेट करने में सक्षम शक्ति और साधन की खोज में बीता था कहने की जरूरत नहीं कि पूंजीवाद के संकट मार्क्सवाद के लिए संजीवनी का काम करते हैं मुक्तिबोध के शब्दों मेंजो तुम्हारे लिए विष है, वह मेरे लिए अन्न है इसके अतिरिक्त पश्चिमी दुनिया तथा अन्य ढेर सारे देशों के नव उदारवाद विरोधी आंदोलनों ने भी उसे जीवंत बनाए रखने में भरपूर मदद की चरम निराशा के दौर में लैटिन अमेरिकी देशों के वाम उभार ने भी उम्मीद को जिंदा रखा तमाम देशों में अति दक्षिणपंथ या फ़ासीवादी विचारों की विजय के बावजूद बीच बीच में किसी किसी मुल्क से जनता के जागरण की खबर आती ही रहती है   
सोवियत संघ के पतन, चीन के तिएन आन मेन की घटना और बर्लिन की दीवार गिरने से मार्क्सवाद के अवसान का जो शोर मचा हुआ था उस पर हाल के दिनों में कुछ विराम लग गया है फिर से मार्क्स की बात होने लगी है प्रचंड विरोधियों को भीमार्क्सवाद का अर्धसत्यलिखना पड़ रहा है ऐसे में सूर्य प्रकाशन मंदिर से इसी साल प्रकाशितबनना कार्ल मार्क्स काके लेखक अरुण माहेश्वरी ने इस किताब के लेखन के जरिए बहुत ही सार्थक हस्तक्षेप किया है किताब में अलग अलग लेखों के जरिए मार्क्स के बचपन, शिक्षा, युवा हेगेल के साथ संवाद तथा हेगेलपंथी समूह से अलग होकर स्वतंत्र सैद्धांतिक राह बनाने की कहानी है लेखक अरुण माहेश्वरी लेखन के साथ पत्रकारिता से भी जुड़े हुए हैं इसलिए उनकी भाषा में प्रचुर संप्रेषणीयता है । लेखक की भाषा के अतिरिक्त पुस्तक की प्रस्तुति भी बेहद सृजनात्मक है । लगभग सभी पृष्ठों पर उस प्रसंग से जुड़े किसी चित्र या संदर्भित किताब की तस्वीर लगाए गए हैं जो प्रसंग उस पृष्ठ पर वर्णित है । इससे पाठक को लिखित के साथ दृश्य का सुख भी मिलता चलता है ।
मार्क्स के बारे में किसी भी लेखन को कड़ी आलोचना से गुजरना लाजिम है । खुद मार्क्स वर्तमान की ऐसी निर्मम आलोचना के पक्षधर थे जो न तो शासन के कोप से और न अपने निष्कर्षों से सकुचाए । ऊपर से तो लगता है कि समय बुनियादी रूप से बदल गया है इसलिए पुरानी खेमेबंदियों पर भी विराम लग गया होगा । इस सवाल पर भी मार्क्स हमारी मदद करते हैं । उनका कहना था कि चीजें जितना बदलती हैं उतना ही पुराने के समान होती जाती हैं । विषमता या शोषण जैसे तथ्य उसी तरह की चीजें हैं जो तमाम तकनीकी, राजनीतिक, समाजार्थिक और सांस्कृतिक बदलावों के बावजूद समाप्त नहीं हुए । परिवर्तन के साथ निरंतरता की संलग्नता उनकी द्वंद्ववादी पद्धति की जान है । इसीलिए कुछ विद्वान इस दौर में भी शीतयुद्ध की निरंतरता देख रहे हैं । मशहूर मार्क्सवादी रणधीर सिंह एक कविता के सहारे कहते थे कि मार्क्स के अनुयायी भले बदल गए हों लेकिन उनके दुश्मनों में कोई बदलाव नहीं आया है । कुल मिलाकर यह कि मार्क्स के बारे में अतीत की दलबंदियों का खात्मा अब भी नहीं हुआ है । अगर इसके बारे में कोई भी संदेह हो तो जान लें कि हाल में लंदन में उनकी समाधि पर तोड़ फोड़ की गई । उनकी प्रासंगिकता के बारे में इससे बड़ा सबूत और क्या होगा कि दो सौ साल बाद भी कब्र में उनकी मौजूदगी नाकाबिले बर्दाश्त समझी गई ।   
सोवियत संघ के ढहने के बाद दुनिया भर में मार्क्स के अप्रासंगिक होने का जो शोर पैदा हुआ वह थोड़े ही दिनों के बाद बंद हो गया क्योंकि चुनौती न रहने से पूंजीवाद ने अपना मानवभक्षी रूप जाहिर करना शुरू कर दिया । संसार को शांति की आशा थी लेकिन उसकी जगह लगातार चलने वाले युद्धों का आदी बनना पड़ा । ऐसे में आहिस्ता आहिस्ता मार्क्स की चर्चा शुरू हुई । इसकी शुरुआत उनकी जीवनियों से हुई । नए समय की इन जीवनियों पर उनकी निंदा अभियान का असर था । उन्हें आर्थिक चिंतक मानने से भी परहेज करने वाली जीवनियों का प्रकाशन शुरू हुआ । उनको मानवीय साबित करने के लिए चिंतक की जगह व्यक्ति मार्क्स पर ध्यान केंद्रित किया गया । ठीक सदी के मोड़ पर फ़्रांसिस ह्वीन की लिखी जीवनी प्रकाशित हुई । इसके बाद जोनाथन स्पर्बर की लिखी जीवनी में तो कहा ही गया कि उन्हें उनके समय में अर्थात उन्नीसवीं सदी के संदर्भ में समझा जाना चाहिए । इसी क्रम में गारेथ स्टेडमान जोन्स की प्रकाशित हुई जीवनी से लेखक ने अधिकतर तथ्य और उनकी व्याख्या ली है । इस जीवनी में भी व्यक्ति मार्क्स को स्थापित करने पर जोर था । उससे मदद लेने के चलते आरम्भिक अध्यायों में मार्क्स कवि और प्रेमी के बतौर मुख्य रूप से नजर आते हैं ।  
असल में मार्क्स के किसी भी जीवनी लेखक के लिए यह बहुत बड़ी दुविधा होती है कि वह मार्क्स के भीतर राजनीतिक कार्यकर्ता को उभारे या अध्येता को । अगर वह अध्येता मार्क्स पर जोर दे तो आज के ज्ञानानुशासनों में से उन्हें किसमें अवस्थित करे । यह मुश्किल मार्क्स की नहीं थी, वे तो इनके बीच कोई बुनियादी भेद नहीं मानते थे । यह समस्या उनके जीवनी लेखकों की है जो न केवल मार्क्सवाद विरोधी शोरोगुल के शिकार हैं, बल्कि ज्ञानानुशासनों के कठोर विभाजन के माहौल में दीक्षित हैं ।
असल में मार्क्स को कवि या प्रेमी के बतौर चित्रित करने में सबसे बड़ी समस्या यह है कि मार्क्स को उनके समर्थक और विरोधी कवि या प्रेमी होने के नाते नहीं मिले । जिन्होंने उनके विचारों को अपनाया उन्होंने पूंजीवादी समाज व्यवस्था के उन्मूलन का रास्ता उनके लेखन में पाया । इसी तरह जिन्होंने उन पर लगातार कोलतार पोतने की कोशिश की, कब्र तक में उन्हें चैन से नहीं रहने दे रहे हैं, वे उनके विचारों के क्रांतिकारी असर को समाप्त करने पर आमादा रहे हैं । दुरूह होने के बावजूद मार्क्स के आर्थिक विश्लेषण ने ही उन्हें पूंजीवाद के विरोधियों और समर्थकों के लिए प्रासंगिक बनाए रखा है । पहले एक समय मार्क्स को युवा और परिपक्व में बांटा जाता था । युवा मार्क्स के समर्थक उन्हें आर्थिक निर्धारणवाद से मुक्त बताते । लेकिन हाल के दिनों के शोध और लेखन ने इस कृत्रिम विभाजन को भी अमान्य कर दिया है । दिखाई पड़ा है कि शुरुआती लेखन के बहुत सारे सरोकार अंत तक बने रहे और परवर्ती लेखन में भी हेगेलीय दर्शन का परिप्रेक्ष्य कायम रहा । डेविड हार्वे या मार्चेलो मुस्तो जैसे लेखकों ने जोर दिया है कि उनका आर्थिक लेखन उन्हें वर्तमान के लिए प्रासंगिक बनाता है । यहां तक कि अभी 2019 में प्रकाशित माइकेल हाइनरिह की लिखी मार्क्स की जीवनी में व्यक्ति मार्क्स को प्रतिष्ठित करने वाली अन्य जीवनियों के बारे में वाजिब सवाल उठाते हुए मार्क्स के निर्माण की प्रक्रिया को उजागर करने की कोशिश है । संयोग से उसके पहले खंड में भी मार्क्स के जीवन के उसी काल का विवेचन है जिसे अरुण माहेश्वरी ने अपनी किताब में उठाया है । लेखक ने मार्क्स की जीवनियों की इस आलोचना को नहीं देखा इसलिए मार्क्स के आर्थिक चिंतन के पहलू को कम छुआ है ।
किताब में जीवन के अतिरिक्त विचार का विवेचन करते हुए लेखक ने एकदम शुरुआती समय पर ध्यान दिया है । इस क्षेत्र में उनका भरोसा डगलस मोगाच पर अधिक रहा है । किताब के शीर्षक के अनुरूप ही उन्होंने मार्क्स के वैचारिक निर्माण को उठाया है । इस मामले में हेगेल के असर और फिर उस असर से छुटकारे की कहानी कही गई है । किताब फ़ायरबाख के बारे में मार्क्स के मशहूर सूत्रों के विवेचन के साथ खत्म होती है । फ़ायरबाख से उनके वैचारिक अलगाव को लेखक ने स्वतंत्र विचारक के बतौर मार्क्स के उदय का लक्षक माना है । इस कहानी को भी विस्तार से अनेक लेखकों ने समझने की कोशिश की है । खासकर डेविड लियोपाल्ड की किताबद यंग कार्ल मार्क्ससे उन्हें कुछ अलग किस्म की कहानी मिल सकती थी । असल में मार्क्स के बौद्धिक विकास का यह चरण उनकी अधिकतर जीवनियों में वर्णन की तरह आता है । उनके बौद्धिक विकास की व्याख्या ठीक से नहीं हो पाती । उदाहरण के लिए हेगेल के प्रति उनके लगाव का जिक्र तो होता है लेकिन उसकी कोई संतोषजनक व्याख्या नहीं मिलती । दार्शनिकों के उस देश में हेगेल ने विद्यार्थियों के इस समूह को किस वजह से आकर्षित किया । हेगेल के चिंतन में निहित क्रांतिकारी संदेश को अधिकांश जीवनियों में स्पष्ट नहीं किया जाता । खुद मार्क्स ने बताया है कि प्रशियाई शासक समूह ने हेगेल को घिनौनी चीज की तरह छोड़ दिया था । ज्यादातर लोग उन्हें भाववादी मानकर उनका जिक्र सिर्फ़ इसलिए करते हैं कि मार्क्स ने उनके दर्शन को उलटकर खड़ा कर दिया था । युवा हेगेपंथियों को यह नाम दिया ही गया क्योंकि वे युवा हेगेल का पुनराविष्कार कर रहे थे और उनकी परवर्ती समझौतापरस्ती के विरोध में उनके ही विद्रोही तेवर को सामने रख रहे थे ।
मार्क्स के वैचारिक विकास का वह काल निश्चय ही महत्वपूर्ण था तभी इतने सारे विद्वानों ने उस समय को विवेचन-विश्लेषण के लिए चुना । माहेश्वरी जी ने मार्क्स के पेरिस प्रवास तक के शुरुआती हिस्से को अपनी किताब के लिए रखा । इसी दौर में हेगेलपंथियों से मार्क्स का अलगाव होने लगा था लेकिन यह अलगाव किसी निजी चिढ़ का नतीजा नहीं था, वरन वे जिस मार्ग पर बढ़ रहे थे उसके सूझने के साथ पुराने झाड़ झंखाड़ की सफाई जरूरी हो गई थी । मतलब कि किसी सकारात्मक विकास की दिशा में आगे जाने में पुरानी सोच बाधा बन रही थी इसलिए उसकी आलोचना जरूरी हो गई थी । वे अगर कुछ छोड़ रहे थे तो कुछ अपना भी रहे थे । अखबार के संपादन के क्रम में ही उन्हें आर्थिक सवालों पर ध्यान देने की जरूरत महसूस हुई थी । माहेश्वरी जी ने इस पहलू को उठाया होता तो विचार पक्ष के स्पष्टीकरण में अमूर्त उलझनों से बच सकते थे । वैसे जितना सीमित क्षेत्र उन्होंने अपने लिए चुना है उसमें मार्क्स की वैचारिक विकास यात्रा को खोलने में वे सफल हुए हैं ।
धर्म का सवाल उस समय भी बेहद तीखे वाद-विवाद का केंद्र बना हुआ था इसलिए अत्यंत स्वाभाविक था कि माहेश्वरी जी उस पर अधिक ध्यान देते । यह सवाल हमारे अपने समय के लिए भी बेहद जरूरी हो गया है । हताशा में बहुतेरे मार्क्सवादी सोचते हैं कि धर्म से मनुष्य का छुटकारा असम्भव है । इसके उलट कुछ और लोग सोचते हैं कि नास्तिकता ही वर्तमान की समस्याओं से छुटकारा दिला सकती है । ऐसे में मार्क्स के धर्म संबंधी विवेचन को समझना बहुत जरूरी है । वे मानते थे कि धर्म कुछ खास परिस्थितियों की उपज है । वह इस अन्यायपूर्ण समाज में मनुष्य की आवश्यकता है । इसलिए इस समाज को बदलने से ही मनुष्य के इस अलगाव को समाप्त किया जा सकता है । मार्क्स के जन्म की दो सौवीं सालगिरह में ऐसी ढेर सारी किताबों की जरूरत पहले से बहुत अधिक है ताकि कार्यकर्ताओं की नई खेप उनके विचारों से परिचित हो सके । फिलहाल दक्षिणपंथी उभार का जैसा शोर मीडिया में मचा हुआ है उसमें यह तथ्य दबा दिया जाता है कि तमाम किस्म के अनाचार और अत्याचार के समग्र विरोध की जैसी लहर चल रही है वैसा उभार बहुत कम देखने में आता है । राजनीति में मध्यमार्गी विकल्प की जगह सिकुड़ रही है और अगर इस खाली जगह को दक्षिणपंथ भरता दिखाई पड़ रहा है तो वामपंथ भी अपने को नई परिस्थितियों के आलोक में नवीकृत करता हुआ उसके पीछे चला आ रहा है । आंदोलनों की नई लहर से ढेर सारे नए कार्यकर्ता पैदा हो रहे हैं । उनके शिक्षण के लिहाज से किताब बेहद उपयोगी है ।                                      

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