Wednesday, May 29, 2019

साक्षात्कार संदीप मील



1 सबसे पहले तो यही तय करना होगा कि किस समय को समकालीन कहा जाय । तमाम विवादों के बावजूद कहा जा सकता है कि पिछली सदी के आखिरी दशक से दुनिया में जो बदलाव शुरू हुए उनकी निरंतरता में हम मौजूद हैं । इस लिहाज से विगत लगभग तीस साल का समय समकालीन कहा जा सकता है । हालांकि वर्तमान समय ऐसा प्रतीत होता है जैसे विगत तीस सालों की इस दुनिया के चरम परिणामों से हमारा साबका पड़ रहा है लेकिन यही मानना उचित होगा कि सोवियत संघ के पतन के बाद की नवउदारवादी वैचारिकी के प्रभुत्व का समय हमारा समकाल है । स्वाभाविक है कि इस समय के सवालों से जूझते हुए ही मार्क्सवाद का विकास हो रहा है । सोवियत संघ के खात्मे के दौरान और उसके तुरंत बाद अकादमिक दुनिया में उत्तर आधुनिकता का बोलबाला था । आज उसका कोई नामलेवा भी नहीं है । बहसें उन सैद्धांतिक कोटियों में चल रही हैं जिन्हें मार्क्सवादी विद्वानों ने लोकप्रिय बनाया था । सबसे पहले तो खुद मार्क्स का लेखन ही विराट शोध का विषय हो चला है । उनके समग्र लेखन के संपादन और प्रकाशन की परियोजना से संसार भर के चालीस से अधिक मार्क्स विशेषज्ञ जुड़े हुए हैं । प्रस्तावित योजना के अनुसार 140 खंडों में उनके समग्र का प्रकाशन होना है । सभी जानते हैं कि उनके जीवनकाल में लिखित का बहुत थोड़ा हिस्सा ही प्रकाशित हो सका था । देहांत के बाद एंगेल्स ने अनछपी पांडुलिपियों से निकालकर कुछ और प्रकाशित कराया । बचा हिस्सा जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी के दफ़्तर में उपेक्षित पड़ा रहा था । रूस में क्रांति के बाद समग्र छापने का काम डेविड रियाज़ानोव के संयोजन में शुरू हुआ । कुछ आंतरिक राजनीति में रुक गया । जर्मनी में रखे दस्तावेजों पर हिटलरी उभार के चलते खतरा पैदा हुआ । उन्हें एम्सटर्डम भेज दिया गया । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद फिर काम शुरू हुआ तो रूस में ही उलटफेर हो गया । इस बार उनके बचे हुए दस्तावेजों का अध्ययन और संपादन करके जो प्रकाशन हो रहा है तो मार्क्स के लेखन में मौजूद खुलेपन को लक्षित किया जा रहा है । उनके प्रकाशित लेखन के साथ इस अप्रकाशित सामग्री को मिलाकर देखने से उनकी धरणाओं के निर्माण की प्रक्रिया का पता चल रहा है । इसके साथ वर्तमान दुनिया के अध्ययन के लिए जो मार्क्सवादी कोटियां कारगर सिद्ध हो रही हैं उनमें सबसे महत्वपूर्ण साम्राज्यवाद नामक कोटि है ।
2 पूंजी के वर्तमान आक्रामक स्वरूप को वित्तीय साम्राज्यवाद के रूप में ग्रहण किया जा रहा है । मार्क्स ने बताया था कि पूंजी के निर्माण की प्रक्रिया में ही उसके नाश के तत्व निहित होते हैं । मुनाफ़े के लिए ही इसका निवेश होता है लेकिन मुनाफ़े को साकार करना लगातार कठिन होता जाता है । जब पूंजी के केंद्र में मुनाफ़ा कमाना कठिन हो जाता है तो पूंजी उन क्षेत्रों की ओर भागती है जहां प्राकृतिक संसाधन और मानव श्रम सुलभ और सस्ता हो । इसी क्रम में दुनिया के गैर पूंजीवादी आर्थिक परिक्षेत्र के साथ उसके साम्राज्यवादी संबंध बनते हैं । वास्तविक साम्राज्यवादी संबंध का अनुगमन सांस्कृतिक साम्राज्यवाद भी करता है । इसे फिलहाल के भाषाई परिदृश्य के विश्लेषण के जरिए अच्छी तरह समझा जा सकता है । जिस अंग्रेजी को आधुनिक दुनिया में दाखिल होने का टिकट समझा जा रहा है उसे किसी जमाने में अत्यंत तुच्छ समझा जाता था । अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों को पब्लिक स्कूल इसीलिए कहा जाता है कि वहां सामान्य जनता की संतानों को शिक्षा मिलती थी । अन्यथा श्रेष्ठता तो कानवेन्ट की स्कूली शिक्षा में हुआ करती थी जिनका संचालन चर्च की ओर से होता था । अंग्रेजी ही नहीं लगभग सभी यूरोपीय भाषाओं का विकास लैटिन के इस दबदबे से लड़कर हुआ लेकिन साम्राज्यवाद की स्थापना के साथ ये यूरोपीय भाषाएं खुद ही श्रेष्ठता निर्माण के इसी तंत्र का अंग बन गईं । आधुनिक काल में लोकप्रिय संचार माध्यमों में भाषा के दबदबे में आनेवाले बदलावों को देखें तो पूंजी की माया स्पष्ट हो जाती है ।
3 मार्क्स के समय भी सर्वहारा चेतना पर तमाम तरह के परदे थे । उस समय मताधिकार का सवाल बहुत बड़ा सवाल था । आप जानते हैं कि चार्टिस्ट आंदोलन बहुत कुछ मताधिकार के विस्तार के लिए होनेवाला आंदोलन था । मजदूरों को मतदान का अधिकार मिल जाने से उनकी सरकार नहीं बन जाती लेकिन उनके भीतर राजनीतिक सत्ता को हासिल करने की आकांक्षा जरूर पैदा हुई । इसी तरह तकनीक हमेशा से दुधारी तलवार रही है । उसने शुरू में अवश्य लोकतांत्रिक प्रसार का भ्रम पैदा किया लेकिन ध्यान दें तो मार्क्स ने पूंजीवादी समाज के सिलसिले में उत्पादन के सामाजिक स्वरूप और अधिग्रहण की इजारेदारी का जो अंतर्विरोध उजागर किया था वह अंतर्विरोध क्रमश: प्रकट होता जाता है । इसी अंतर्विरोध को काबू में रखने के लिए और बिना किसी समस्या के अधिकाधिक मुनाफा कमाने के लिए पूंजीवाद को लगातार क्रांतिकारी बदलाव करते रहना पड़ता है । हमारे चाहने से पूंजीवाद अपने आपको बदलना बंद नहीं कर देगा । बस यह है कि प्रत्येक नया समाधान आगामी संकट से बाहर निकलने का एक और रास्ता बंद कर देता है । उस समय फिर अब तक न आजमाए गए किसी अन्य तरीके को आजमाना पड़ता है । इसीलिए पूंजी का प्रत्येक नया संकट पिछले संकट से अधिक गम्भीर होता है । इस सिलसिले में याद रखना होगा कि पूंजीवाद के स्वभाव में अस्थिरता होने के बावजूद उसे समाप्त करने के सचेत मानव प्रयास के बिना अपनी ही गति से उसके विनाश की आशा व्यर्थ है । इसी मामले में मार्क्स के सारे प्रयासों के केंद्र में पूंजीवादी शासन को उखाड़ फेंकने वाले कर्ता के रूप में शोषित दमित कामगार मजदूर अवस्थित है और इसके लिए उसकी अपनी पहलकदमी को खोल देने का महत्व समझा जा सकता है । इस कामगार की उनकी धारणा लचीली और व्यापक थी ।
4 आवारा पूंजी का एक महत्वपूर्ण अंतर्विरोध राष्ट्र-राज्य के साथ होता है । इसके बावजूद आंदोलनों के दमन के लिए उसे इसी राज्य की जरूरत पड़ती है । इससे राज्य का वर्गीय चरित्र स्पष्ट होता जाता है । राज्य के सिलसिले में ध्यान देने की बात यह है कि धर्म और पूंजी की तरह ही राज्य भी मनुष्य की ऐतिहासिक रचना होने के बावजूद अपने आपको वर्गों के विभाजन से ऊपर उठा लेता है और समग्र समाज के हितों के प्रतिनिधित्व का भ्रम पैदा करने लगता है । इसलिए जनता के दिमाग में उसके बारे में भी गलतफ़हमी पैदा हो जाती है । कामगारों की राजनीतिक चेतना की उन्नति की दिशा में राज्य के वर्ग चरित्र का रहस्योद्घाटन जरूरी काम होता है । अंतर्राष्ट्रीय पूंजी की सेवा में जनता के आंदोलनों का दमन करके राज्य अपने आपको अधिकाधिक नंगा करता जाता है । इसके चलते मजदूर वर्ग के लिए राष्ट्रवाद की आकांक्षा का नेता बनना भी सम्भव हो जाता है । राष्ट्रवाद आम तौर पर बुर्जुआ वर्ग के हितों की सेवा करता है लेकिन चीन, वियतनाम और क्यूबा जैसे देशों में कमयुनिस्ट क्रांतिकारी आंदोलनों ने राष्ट्रवाद का झंडा बुलंद किया । लेकिन मजदूर वर्ग का राष्ट्रवाद बुर्जुआ राष्ट्रवाद से भिन्न होता है । उसमें साम्राज्यवाद विरोधी और लोकतांत्रिक रंग अधिक गहरा होना लाजिमी है ।
5 सबसे पहली बात कि मार्क्सवाद के प्रभाव में सांस्कृतिक-साहित्यिक मोर्चे पर जो पहल हुई उसमें जनवाद और आधुनिकता दोनों का असर था । उसने साहित्य संस्कृति को जनता के सृजन के रूप में पेश किया और उस पर शासक समुदाय के मुकाबले जनता का दावा ठोंका । दूसरे विश्वयुद्ध से पहले फ़ासीवाद विरोधी गोलबंदी के दौरान की वह समूची रचनात्मक प्रतिरोध की संपदा हमारी विरासत है । इस विरासत को और अधिक समृद्ध करना हमारा दायित्व है । इस दौर में पूंजी के संकट के चलते दुनिया भर में जो फ़ासीवादी उभार आया है उसके चलते सभी समाजों की पुरानी शासक ताकतों के हाथ में समाज की बागडोर जाने के विरोध में केवल मजदूर नहीं बल्कि उनके समर्थक अन्य बहुत सारे तबके खड़े हो रहे हैं । इसमें अग्रिम मोर्चे पर स्त्रियों के आंदोलन हैं । इसके अतिरिक्त अमेरिका में अश्वेत समुदाय के भीतर भी अलगाव की भावना बढ़ी है । उनके साथ होनेवाले व्यवस्थित अन्याय के विरोध में उठे आंदोलनों ने नए नेतृत्व को जन्म दिया है । इसी तरह स्थानीय निवासियों के आंदोलन भी सामने आए हैं । इन सबकी अपनी सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों का उभार जारी है । भारत के मामले में इसका अनुवाद स्त्री लेखन, दलित लेखन और आदिवासी लेखन के रूप में हुआ है । इसके कारण बहुत लम्बे समय के बाद साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में आंदोलनों का जिक्र शुरू हुआ है और सृजन की सामाजिक धारणा और व्याख्या बल पकड़ रही है ।
6 न केवल भारत में बल्कि समूची दुनिया में मजदूर आंदोलन एक नए दौर से गुजर रहा है । जिस तरह पूंजी का पुनर्गठन हो रहा है उसी तरह मजदूर आंदोलन का भी पुनर्गठन जारी है । असल में ये दोनों एक दूसरे के न केवल विरोधी हैं बल्कि एक दूसरे को प्रभावित भी करते हैं । पूंजी का हित मजदूरों के असंगठित होने में है । इसके विपरीत मजदूर एकताबद्ध होकर ही पूंजी के सभी तरह के हमलों का मुकाबला कर सकता है । पूंजी ने मुनाफ़ा न हो पाने की स्थिति में शोषण के नए नए क्षेत्र खोजे हैं और इस प्रक्रिया में नए किस्म में मजदूर पैदा किए हैं । मजदूर वर्ग के भीतर इन मजदूरों की आमद अभी नई है । इनमें से प्रौद्योगिकी क्षेत्र के कामगार तो बहुतेरा अपने को पारम्परिक मजदूरों से अलग समझते हैं । इसी तरह मजदूर वर्ग की कतार में सबसे बड़ी आमद महिला कामगारों की है । उनके साथ भी तालमेल बनाने में पारम्परिक मजदूर वर्गीय संगठनों को समय लग रहा है । अभी इन तबकों के विक्षोभ पूरी तरह से राजनीतिक रूप में सामने नहीं आ रहे हैं लेकिन इनका राजनीतीकरण बहुत तेजी से हो रहा है । वैसे भी बदलाव रोज रोज दिखाई देनेवाली प्रक्रिया नहीं होता लेकिन जारी रहता है ।  
7 न केवल हमारे देश में बल्कि समूची दुनिया में शोषक वर्गों के अबाध शासन के लिए ऊंच-नीच की सामाजिक व्यवस्था मौजूद रही है । आधुनिक बुर्जुआ समाज के आगमन के साथ सामाजिक गतिशीलता बढ़ने से वह अप्रासंगिक होती गई । उदाहरण के लिए गोल्डस्मिथ या शूमेकर जैसे नाम उनके पेशों से आए हैं लेकिन वर्तमान समाज में उनका कोई उपयोग नहीं रह गया । हमारे देश में भी उद्योगीकरण के साथ जाति व्यवस्था ढीली पड़ी लेकिन फिर समाज के सामंती यथार्थ ने उसे और अधिक मारक रूप में पुनर्जीवन दिया । इसे समझने ले लिए मार्क्स के इस सूत्र से भी सहायता मिलती है कि बुर्जुआ वर्ग को अपना शासन चलाने के लिए न केवल उत्पादन के साधनों और राज्य पर कब्जे की जरूरत पड़ती है बल्कि विचारों की दुनिया में भी शासक वर्गीय प्रभुत्व की स्थापना आवश्यक होती है । मार्क्स ने विचारधारा के क्षेत्र में संघर्ष को भी वास्तविक संघर्ष का ही हिस्सा माना और कहा कि बुनियादी ढांचे के सवालों को ऊपरी ढांचे के क्षेत्र में लड़ा और निपटाया जाता है । जातिवाद को ब्राह्मणवादी चिंतन पद्धति टिकाए रखती है और जनता को असंगठित रखने तथा सस्ते मानव श्रमिक की उपलब्धता के लिए इसे आधुनिक बुर्जुआ समाज ने भी अंगीकार कर लिया । औपनिवेशिक काल में सत्ता ने इसका पुनरुत्पादन किया और आज उसका नया दक्षिणपंथी उभार भारतीय समाज में मौजूद जो कुछ भी आधुनिक बोध है उसे मटियामेट करने के लिए प्रतिक्रांति की शक्ल में हुआ है । खुशी की बात उसका जोरदार प्रतिरोध है । जातिवाद के विरोध में इतना गहरा और व्यापक प्रतिरोध पहले कभी नहीं हुआ रहा होगा । यह प्रतिरोध किसी स्थापित राजनीतिक पार्टी की ओर से नहीं हो रहा बल्कि व्यापक सामाजिक आलोड़न का अंग है । शायद हमारे समाज के समस्त पुरातनपंथी अवशेषों का यह संगठित उभार लोकतांत्रिक समाज पर आधारित नए देश के निर्माण की ओर ले जाएगा ।
8 डाक्टर आंबेडकर हमारे देश में क्रांतिकारी जनवादी सोच का प्रतिनिधित्व करते थे । उन्होंने सामाजिक बदलाव को स्वाधीनता आंदोलन की कार्यसूची में जगह दिलाने में कामयाबी हासिल की । इस सिलसिले में एक बात पर गौर करना जरूरी है । मार्क्स के चिंतन में भी सामाजिक तत्व का महत्वपूर्ण स्थान था । वे हमेशा सामाजिक क्रांति और सामाजिक बदलाव की बात करते थे । इस्तवान मेजारोस ने कहा कि बीच के दिनों में मार्क्सवादी चिंतन में यह तत्व कमजोर पड़ा था और सारा जोर राजनीतिक तत्व पर दिया जाने लगा था । इक्कीसवीं सदी के मार्क्सवाद के लिए उन्होंने समग्र सामाजिक रूपांतरण का परिप्रेक्ष्य फिर से वापस लाने पर बल दिया । भारत में किसी भी बुनियादी सामाजिक बदलाव का अभिन्न अंग जातिवाद का उच्छेद होगा । आंबेडकर ने इसके लिए जिस अंतर्जातीय विवाह का रास्ता सुझाया था वह जीवन साथी के चुनाव के मामले में स्त्री स्वतंत्रता की ओर भी ले जाता है । भूसंपदा पर सामंती जकड़बंदी तोड़ने के लिए जमीन का राष्ट्रीकरण उनकी ऐसी मौलिक सोच थी जिसके निहितार्थ प्रकट होने बाकी हैं । मार्क्स और आंबेडकर के आपसी सहकार के लिए सामाजिक बदलाव के आंदोलन में दोनों का पुनर्पाठ आवश्यक है ।
9 इस बात से अक्सर इन्कार किया जाता है कि पूंजीवाद के अस्तित्व के साथ संकट लगे रहते हैं । यह पूंजीवादी समाज अपने एक सिरे पर चरम समृद्धि और दूसरे सिरे पर भारी दरिद्रता का उत्पादन करता है । समाजार्थिक विषमता का निरंतर विकास पूंजीवाद की विशेषता है । लोकतंत्र को वह तब तक ही सहन कर पाता है जब तक हालात सामान्य रहते हैं । संकट के हल के लिए पिछली बार उसने युद्ध का सहारा लिया था । युद्ध भी पूंजीवाद के साथ लगे हुए हैं । सबसे पहले तो पूंजी को राजनीतिक संरक्षण देने के क्रम में सरकारें लड़ाई में मुब्तिला होती हैं । इस अर्थ में वह लगातार युद्धरत रहता है । लेकिन युद्ध में राष्ट्रवाद की भावना भड़काकर जनता के विक्षोभ को दबाया जाता है और सैनिक साजो सामान की खपत के चलते अर्थतंत्र में तात्कालिक तेजी आती है । 2008 के संकट के बाद दुनिया के विभिन्न देशों में दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद का उभार हुआ है । इसे फ़ासीवाद के विश्वव्यापी उभार का नया दौर कहना उचित होगा । इसने शरणार्थियों की विराट फौज को जन्म दिया है । मजदूर वर्ग की वर्गीय एकजुटता को नस्ल, लिंग, भूभाग, भाषा, धर्म आदि के आधार पर विभाजित करके बुर्जुआ शासन के इस दौर को कायम रखने की कोशिश की जा रही है । इसके साथ ही नए तरह की एकजुटता भी उभर रही है । असल में पूंजी का प्रत्येक नया हमला एक ओर जनता की ताकतों को पीछे धकेलता है तो दूसरी ओर विक्षुब्धों की नई फौज भी पैदा करता है ।
10 हमारे देश में कल्याणकारी राज्य की ओर से जो भी कदम उठाए गए उन्होंने पहले की पारम्परिक सत्ता संरचना को नया जीवन दिया । खेती में पूंजीवादी विकास का कोई भी प्रयास सामंती जकड़ को चुनौती देने की जगह उसे ही मजबूत बनाने के काम आया । इससे ग्रामीण जीवन में भारी विकृतियों का जन्म हुआ है । अब खेती पर नया हमला कारपोरेट पूंजी का हुआ है । पारम्परिक सूदखोरों की जगह ग्रामीण बैंकों के राजनीतिक रसूखदार लोगों ने ले ली । भू स्वामित्व के ढांचे में क्रांतिकारी बदलाव न आने के चलते समूचे समाज में विकास अवरुद्ध पड़ा हुआ है । कोई भी नई चीज स्थापित शक्ति संरचना को बलशाली बनाने के काम आती है । उदाहरण के लिए शिक्षा के चलते सामाजिक गतिशीलता को बढ़ावा मिलना चाहिए था लेकिन शिक्षा के लिए सम्पत्ति की आवश्यकता ने गारंटी कर दी कि शिक्षित लोगों में ऊंची जाति के लोगों की बहुतायत रहे । इसने शिक्षा संस्थानों को लोकतांत्रिक चेतना के निर्माण के बजाय उसका गला घोंटने वाले संस्थानों में बदल दिया । तभी आरक्षण के विरोध में उच्च शिक्षाप्राप्त लोग बहुत अधिक नजर आते हैं ।
11 अंग्रेजी औपनिवेशिक देशों में भारत सबसे महत्वपूर्ण देश था । मार्क्स इंग्लैंड की राजधानी लंदन में रह रहे थे । कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र में ही पूंजीवादी प्रसार की विडम्बना को मार्क्स-एंगेल्स ने लक्षित किया था । वे न केवल पूंजीवाद के बल्कि उसके औपनिवेशिक विस्तार के भी विरोधी थे । उनका भारत संबंधी प्रचुर लेखन ढेर सारी अंतर्दृष्टियों से भरा हुआ है । 1857 के समय न्यू यार्क ट्रिब्यून के लिए लिखे लेखों का तो संग्रह भी उपलब्ध है । इस विद्रोह से चार साल पहले 1853 में ही उन्होंने रेल के प्रसंग में कहा कि इसका लाभ भारतीय लोग तभी ले सकेंगे जब या तो वे अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकें या इंग्लैंड में सर्वहारा का शासन स्थापित हो जाए । उसी समय उन्होंने अंग्रेजी शासन के खात्मे की बात कह दी थी जबकि अस्सी साल बाद जाकर पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पारित हो सका । अब तो अप्रकाशित पांडुलिपियों की उपलब्धता के बाद उनके लेखन में उपनिवेशिक यथार्थ और खासकर हमारे देश जैसे भारी महत्व के उपनिवेश के उल्लेख उम्मीद से ज्यादा मिलने लगे हैं । मशहूर अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक का अनुमान है कि दादा भाई नौरोजी की मुलाकात हिंडमैन के जरिए मार्क्स से हुई रही होगी । क्योंकि मार्क्स के लेखन में मौजूद उपनिवेशवाद विरोधी लेखन की भाषा अनेक जगहों पर नौरोजी से काफी मिलती जुलती है । जिस प्रथम इंटरनेशनल के केंद्र में मार्क्स रहे थे उसे कलकत्ते से कुछ लोगों ने पत्र लिखा और उसकी भारतीय साखा के गठन के संबंध में दिशा निर्देश मांगा था । सम्पर्क करने वाले अंग्रेज रहे होंगे क्योंकि इंटरनेशनल की जनरल कौंसिल की बैठक में पत्र पर विचार करने के बाद स्थानीय मजदूरों को लेकर शाखा बनाने की सलाह दी गई थी । पूंजीवादी विकास के गैर यूरोपीय रास्ते की सम्भावना की तलाश के प्रसंग में भी तमाम यूरोपेतर समाजों के साथ भारत का जिक्र भी अवश्य होना चाहिए ।
12 प्रसिद्ध राजनीति विज्ञानी रणधीर सिंह कहते थे कि मार्क्सवाद के लगभग प्रत्येक विरोधी ने मार्क्स से पहले के समता विरोधी विचारकों के तर्कों को ही दुहराया है । न केवल समता विरोध बल्कि एक हद तक भौतिकवाद विरोध का भी उत्थान मार्क्सवाद के विरोध के साथ हुआ है । इसका अर्थ यह कि मार्क्सवाद का विरोध अलोकतांत्रिक सोच की ओर तो ले ही जाता है उसके साथ ही इहलौकिक चेतना का भी क्षरण होता है । धान दीजिए कि बहुत पहले रोजा ने समाजवाद का विकल्प बर्बरता को बताया था । इस समय तो पूंजीवाद न केवल मानव समाज के लिए बल्कि मनुष्यों के रहने लायक एकमात्र ग्रह धरती के लिए भी विनाशकारी साबित होता जा रहा है ।                                      
13 सही बात तो यह है कि मजदूर की श्रम शक्ति के चलते सारी सम्पदा का सृजन हुआ है । इस बात को कहना या समझना आज जितना आसान है उसकी एकमात्र वजह कार्ल मार्क्स का ग्रंथ कैपिटल ही है । अर्थशास्त्र में तमाम किस्म के तर्कजाल से इस सच्चाई को झुठलाने की चेष्टा की जाती रही है । कार्ल मार्क्स ने अर्थशास्त्र की आलोचना करते हुए इसी रहस्य को उजागर किया । तमाम कच्चा माल और बेशकीमती मशीन मिलकर भी पूंजी का सृजन नहीं कर सकते । पूंजी का सृजन तभी होता है जब वह जीवित मनुष्य का खून चूसती है । इसी तथ्य को बोधगम्य बनाने के लिए मार्क्स को वह ग्रंथ लिखना पड़ा । हीलब्रोनेर का कहना है कि मार्क्स से पहले के किसी अर्थशास्त्री के लिए मजदूर सक्रिय कर्ता था ही नहीं मार्क्स के लेखन में पहली बार अपनी श्रम शक्ति के मालिक के रूप में वह मोलभाव करता हुआ नजर आता है । मार्क्स से पहले के लोग मजदूर की हालत में सुधार करने के लिए अन्य सामाजिक ताकतों से अपेक्षा करते थे । मार्क्स के लेखन में उसकी स्वतंत्र ऐतिहासिक भूमिका उभरती है । मार्क्स के चिंतन की सबसे बड़ी विशेषता है कि उसे बौद्धिक व्यायाम के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता । इस दुनिया को बदलने के संघर्ष में ही उसका संरक्षण और विकास सम्भव है । वह जीवित मनुष्यों के हाथ में अपने हालात को काबू करने का अस्त्र है । खुद कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र की भूमिका में लेखकद्वय ने कहा कि इसकी बिक्री से उस देश के मजदूर आंदोलन का अनुमान लगाया जा सकता है ।
14 पूंजीवाद के स्वरूप में आनेवाले प्रत्येक बदलाव से संघर्ष के लिए मुश्किल बढ़ती है लेकिन अपने खात्मे के लिए पूंजीवाद हमारा काम आसान नहीं करेगा । शोषण के क्रम में मेहनतकश जनसमुदाय की हालत बुरी होती जाती है । इन परिस्थितियों से जूझने के क्रम में ही मनुष्य इस मशीन की बारीकियों को समझता है । आखिर इन तमाम गूढ़ चीजों का निर्माण मनुष्य ने ही तो किया है । पूंजी और श्रम दोनों ही अंतर्राष्ट्रीय परिघटनाएं हैं । शायद इसीलिए मजदूरों की मुक्ति के लिए प्रतिबद्ध राजनीतिक पार्टी भी एक अंतर्राष्ट्रीय परिघटना है । पूंजी का शासन राष्ट्र-राज्य की मशीनरी के सहारे चलता है इसलिए उसका प्रतिरोध राष्ट्रीय स्तर पर विकसित होता है लेकिन धीरे धीरे उसका अंतर्राष्ट्रीय आयाम विकसित होता जाता है ।
                                  

No comments:

Post a Comment