Wednesday, July 19, 2017

अक्टूबर क्रांति की सैद्धांतिकी

              
                                         
यह साल सोवियत संघ की बोल्शेविक क्रांति का शताब्दी वर्ष तो है ही, उस क्रांति के सैद्धांतिक सवालों को सटीक तरीके से उठाने और सुलझाने वाली लेनिन की मशहूर किताब ‘राज्य और क्रांति’ के लेखन का भी शताब्दी वर्ष है । अक्टूबर क्रांति के युगांतरकारी स्वरूप के बारे में ढेर सारे विद्वानों ने लिखा है । रूस की उस क्रांति का प्रभाव इतना गहरा था कि आज भी तमाम विकसित और विकासशील दुनिया में उसकी प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है । वह क्रांति वाम आंदोलन के भीतर के अवसरवाद और अराजकतावाद से निर्मम वैचारिक लड़ाई लड़ते हुए संपन्न हुई थी । इस तीखी लड़ाई का अक्स इस किताब में मौजूद है ।
रूसी क्रांति का गहरा रिश्ता प्रथम विश्व युद्ध से है । इसी विश्व युद्ध ने अन्य सामाजिक जनवादियों से लेनिन को अलग कर दिया था । दूसरे इंटरनेशनल से जुड़े अन्य नेताओं ने जहां इस युद्ध में अपने अपने देशों के शासकों का साथ दिया था वहीं लेनिन ने इस युद्ध के जनविरोधी साम्राज्यवादी चरित्र को पहचानकर इससे पैदा संकट का क्रांति की जीत के लिए इस्तेमाल किया । रूस की अक्टूबर क्रांति पूरी व्यावहारिक के साथ साथ सैद्धांतिक तैयारी के साथ संपन्न हुई थी । 1917 की फ़रवरी में जो क्रांति हुई उससे जारशाही का खात्मा हो गया और एक अस्थायी सरकार का गठन हुआ । तबसे लेकर अक्टूबर तक का समय दोहरी सत्ता का समय था । अस्थायी सरकार के साथ ही जनता के बीच से स्वत:स्फूर्त रूप से उपजी सोवियतें भी मौजूद थीं । मुख्य रूप से सैनिकों और मजदूरों की इन सोवियतों में आम तौर पर वामपंथियों का प्रभुत्व था । असल जीवन में इन सोवियतों के आदेश ही लागू होते थे । इसी माहौल में जनता के भीतर बढ़ते विक्षोभ ने अस्थायी सरकार और सोवियतों को एक दूसरे के आमने सामने खड़ा कर दिया था । बुर्जुआ राज्य और जनता के प्रतिनिधियों की सत्ता का यह विरोध एक हद तक इस किताब के सैद्धांतिक स्वरूप की आत्मा है ।
सैनिक युद्ध से ऊबे हुए थे । उनके बीच बोल्शेविकों की शांति संबंधी अपील तेजी से असर कर रही थी । अस्थायी सरकार लगातार अलोकप्रिय होती जा रही थी । क्रांति आसन्न थी । सरकार में शामिल लोग बोल्शेविकों के विरुद्ध वैचारिक हमला जारी रखे हुए थे । क्रांति में बोल्शेविकों को नेतृत्व देने के लिए लेनिन जुलाई में पेत्रोग्राद लौटे ही थे कि उनके जर्मनी के मुखबिर होने की अफवाह उड़ा दी गई । अचानक बोल्शेविकों के लिए पेत्रोग्राद सुरक्षित नहीं रह गया । जगह जगह उन पर हमले होने लगे । सोवियतों की सत्ता ने बोल्शेविकों को दमन न होने का भरोसा दिया लेकिन अस्थायी सरकार ने नेताओं की गिरफ़्तारी का हुक्म जारी कर दिया । शुरू में लेनिन ने गिरफ़्तारी देकर मुकदमे का सामना करने का फैसला किया लेकिन माहौल इतना खराब था कि साथियों की सलाह पर जुलाई के शुरू में उन्हें गुप्त तरीके से शहर छोड़ना पड़ा । सुदूर देहात में गुप्त जीवन बिताते हुए लकड़ी के एक कुन्दे को कुर्सी और दूसरे को मेज बनाकर दो महीने में उन्होंने यह किताब लिखी । उन्हें बचने की उम्मीद नहीं थी इसलिए निर्देश लिखा कि कुछ हो जाने पर नीली नोटबुक कोराज्य और क्रांतिके रूप में छाप दिया जाए ।
इस तरह की सैद्धांतिक किताब की जरूरत उन्हें एकाध साल पहले से ही महसूस हो रही थी । उन्होंने बुखारिन के चिंतन में राज्य के सिलसिले में मार्क्सवादी समझ से भटकाव देखा और इस किताब की योजना बनाई । 1917 के शुरू में प्रवास के दौरान किताब के लिए सामग्री उन्होंने तैयार कर ली थी । स्विट्ज़रलैंड से रूस के लिए आते हुए यह सामग्री वे पीछे छोड़ आए थे । जुलाई विद्रोह की असफलता के बाद इसी सामग्री के आधार पर यह किताब लिखी गई थी । उन्हें इसकी जरूरत महसूस हुई क्योंकि न केवल प्लेखानोव बल्कि काउत्सकी भी इस सवाल पर भ्रमित दिखाई पड़े । सात अध्यायों में किताब लिखने की योजना थी लेकिन 1905 और 1917 की क्रांतियों के अनुभव संबंधी सातवां अध्याय लिखा नहीं जा सका । उसका खाका बना लिया था । लगा कि उस पर विस्तार से लिखना होगा इसलिए जो सामग्री थी उसे ही प्रकाशित करवा लिया ।
पांडुलिपि में लेखक के बतौर एफ़ एफ़ इवानोव्सकी का नाम दर्ज था । लेनिन को लगा था कि उनके नाम से छपने पर किताब जब्त हो जाएगी । आखिरकार इसका प्रकाशन 1918 में हो सका । उस समय तक किसी छद्म नाम की जरूरत ही नहीं रह गई थी । 1919 में दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ जिसमें किताब के दूसरे अध्याय में ‘मार्क्स ने 1852 में प्रश्न को किस तरह पेश किया था’ शीर्षक नया अनुभाग जोड़ा गया ।
इस किताब में लेनिन का केंद्रीय तर्क यह है कि राज्य का उदय ही वर्ग विभाजित समाज में शासक वर्ग की सत्ता को दमन के सहारे बनाए रखने के लिए हुआ था । यही नहीं राज्य की मौजूदगी का मतलब है कि समाज में न केवल परस्पर विरोधी वर्ग और उनके स्वार्थ बने हुए हैं बल्कि उनके बीच का अंतर्विरोध असमाधेय है । असल में अक्टूबर क्रांति से पहले जब फ़रवरी क्रांति में जारशाही का अंत हो गया और अस्थायी सरकार का गठन हुआ तो इस अस्थायी सरकार में शामिल विभिन्न वामपंथी गुटों में परिस्थिति के दबाव के चलते राज्य के बारे में तमाम किस्म के भ्रम फैल रहे थे । कुछ लोगों को लग रहा था कि चूंकि राज्य वर्गोपरि हो जाता है इसलिए उसका उपयोग किया जा सकता है । दूसरे सिरे पर अन्य लोग तत्काल राज्य के खात्मे के पक्ष में थे ।
इस स्थिति में लेनिन को राज्य के बारे में मार्क्सवादी धारणा को स्पष्ट करना सैद्धांतिक से अधिक व्यावहारिक सवाल महसूस हुआ । उन्होंने जोर देकर कहा कि राज्य की भूमिका वर्ग संघर्ष को खत्म करने की नहीं होती । उसकी मौजूदगी ही वर्ग संघर्ष के तीखेपन का प्रमाण है । इसी सिलसिले में पेरिस कम्यून से ली गई मार्क्स की सीख को भी बार बार किताब में दोहराया गया है । मार्क्स ने कहा था कि सर्वहारा का काम पहले से मौजूद राज्य की बनी बनाई मशीनरी से नहीं चल सकता । उसे राज्य की अपनी मशीनरी का निर्माण करना होता है । इसे मार्क्स की तरह ही लेनिन ने भीसर्वहारा की तानाशाहीके जरिए लागू होता दिखाया है । लेनिन इस बात पर जोर देते हैं कि बुर्जुआ राज्य का ध्वंस सर्वहारा का कर्तव्य है । इस कर्तव्य को पूरा करने के लिए लेनिन नियमित सेना की जगह पर सशस्त्र जन मिलीशिया की स्थापना, राज्य के कामों की जटिलता को समाप्त करके नौकरशाही को अप्रासंगिक बना देने और अल्पतंत्र की तानाशाही के बरक्स बहुमत की तानाशाही कायम करने का उपाय सुझाते हैं । कहने की जरूरत नहीं कि अक्टूबर क्रांति के बाद बनने वाली व्यवस्था के लिए ये बेहद ठोस सवाल थे । अचरज नहीं कि नई सत्ता के मंत्रियों ने अपने आपको संबंधित विभागों का जन कमीसार कहना पसंद किया ।
बुर्जुआ राज्य और क्रांति के बाद स्थापित होने वाली सत्ता के बीच एक बेहद महत्वपूर्ण अंतर की ओर लेनिन ने पेरिस कम्यून संबंधी मार्क्स के लेखन के सहारे इशारा किया । मार्क्स ने कहा था कि पेरिस कम्यून ने विधायिका और कार्यपालिका को मिला दिया था । असल में अगर कार्यपालिका अलग रहती है तो विधायिका केवल बहसबाजी का अड्डा बनकर रह जाती है । लोकतंत्र वहीं तक सीमित रह जाता है और राज्य के असली काम नौकरशाही के जरिए कार्यपालिका निपटाती है । संसार के लगभग सभी लोकतांत्रिक देशों में विधायिका की इस कमजोरी को महसूस किया जाता रहा है । बुर्जुआ लोकतांत्रिक राज्य की जान विधायिका नहीं, सैन्यतंत्र और नौकरशाही का ढांचा होता है । क्रांति के बाद स्थापित होने वाली सत्ता का काम इस मुखौटे को वास्तविक ताकत में बदलना है । राज्य के काम को संचालित करने वाली वास्तविक संस्थाओं को जनता के नियंत्रण में लाकर ही उन्हें कारगर बनाया जा सकता है । विधायिका और कार्यपालिका के इस एकीकरण को सिद्धांत और व्यवहार की एकता की व्यापक सोच के मुताबिक समझा गया । इसका संबंध समाज के संचालन को अधिकाधिक आसान बनाने से भी है ।
आज भी इस किताब की प्रासंगिकता को समझा जा सकता है । अनेक वामपंथी नेता वर्तमान राज्य कोकल्याणकारी राज्यमें तब्दील करने की बात करते देखे जा सकते हैं और इसमें तत्कालीन भ्रमों की अनुगूंज सुनना मुश्किल नहीं है । बुर्जुआ शासन को अल्पतंत्र की तानाशाही मानने की प्रतिध्वनि 1% के शासन की धारणा में महसूस किया जा सकता है । उसके मुकाबले 99% की वंचना की समझ मार्क्स से उपजी थी किंतु लेनिन के जरिए हम तक पहुंची है । सबसे पुराने लोकतंत्र का दावा करने वाले देश अमेरिका में भी तमाम राजनेता इस बात को मानने लगे हैं कि देश की असली ताकत कांग्रेस के चुने हुए प्रतिनिधियों के मुकाबले थैलीशाहों, जासूसी और निगरानी की संस्थाओं तथा सेना के हाथों में केंद्रित होती गई है ।   

अंध-राष्ट्रवाद की तत्कालीन बीमारी भी अक्सर वाम राजनीतिज्ञों के एक हिस्से को आज भी बुर्जुआ शासकों के साथ खड़ा कर देती है । जिस तरह उस समय के रूस में जर्मनी के विरुद्ध उन्माद से लेनिन ने लोहा लिया था उसी तरह कई बार हमें भी पड़ोसी मुल्कों के विरुद्ध उन्माद से जूझना पड़ता है । बुर्जुआ वर्ग के पास सर्वहारा को रक्षात्मक मुद्रा में धकेल देने का सबसे आजमाया हुआ हथियार युद्धोन्माद है । युद्ध और कुछ नहीं संकटग्रस्त पूंजी के पुनर्गठन का माध्यम होता है । इसके सहारे वह अपने बर्बर शोषक शासन के लिए वैधता तो हासिल करता ही है देश की सीमा के भीतर भी विभिन्न समुदायों के कत्लेआम के लिए उकसावा प्रदान करता है । ऐसी स्थितियों में लेनिन की यह किताब हमें हमेशा भ्रम और निराशा से बाहर निकालने में मदद करती रहेगी ।                                 

Sunday, July 2, 2017

इक्कीसवीं सदी में अक्टूबर क्रांति

                
                                            
अक्टूबर क्रांति को महज सौ साल बीते हैं लेकिन उसकी बात प्रागैतिहासिक काल जैसी महसूस होती है । क्रांति का अर्थ सूचना-संचार की तकनीकों के लिए सीमित हो चला है और राजनीतिक क्रांति की कल्पना कठिन हो गई है । इसकी प्रासंगिकता ही संदेह के घेरे में है और हालात में बदलाव को वर्तमान व्यवस्था के भीतर ही खोजा जा रहा है । फिर भी रह रह कर दबी हुई आग की तरह रूसी बोल्शेविक क्रांति की भावना धधक उठती है । रूसी बोल्शेविक क्रांति के बारे में पूरी बीसवीं सदी में और इक्कीसवीं सदी के इन वर्षों में जो भी बातें हुईं या हो रही हैं उन सबके साथ राजनीति जुड़ी हुई है । इसका कारण है कि अतीत का कोई भी मूल्यांकन शुद्ध रूप से वस्तुगत नहीं होता । हमारी वैचारिक मान्यताओं से इतिहास के बारे में हमारी राय प्रभावित होती है । रूसी क्रांति के मामले में ये मान्यताएं और भी दृढ़ रही हैं ।
अंतर्राष्ट्रीय वाम आंदोलन में मार्क्स की विरासत के स्वाभाविक दावेदार जर्मनी के सामाजिक जनवादी थे  लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के समय लेनिन को छोड़कर लगभग सभी सामाजिक जनवादियों ने अपनी अपनी सरकारों का साथ दिया था । ये लोग दूसरे इंटरनेशनल से जुड़े हुए थे । अकेले लेनिन ने इसे साम्राज्यवादी युद्ध माना और इससे उपजे हालात का लाभ क्रांति के लिए उठाया । रूस एशिया और यूरोप दोनों में बंटा हुआ था । लेनिन को उम्मीद थी कि रूसी क्रांति के प्रभाव से यूरोप में क्रांतियों की लहर पैदा होगी । खासकर उन्हें जर्मनी से बहुत आशा थी । इतिहास की वास्तविक गति में ऐसा कुछ हुआ नहीं और रूस को अपने बल पर ही क्रांति को टिकाए रखना पड़ा ।
इसके चलते पश्चिमी मार्क्सवाद की धारा और रूसी क्रांति से प्रभावित कम्यूनिस्टों की तीसरे इंटरनेशनल की धाराएं अलग अलग विकसित हुईं । पश्चिमी मार्क्सवाद से जुड़े लोग रूसी क्रांति और उसके नेताओं को मान्यता देने में हिचकते हैं । कुछ लोग इसके लिए ग्राम्शी, रोज़ा लक्जेमबर्ग, क्लारा जेटकिन और लूकाच को लेनिन के विरोध में खड़ा करके उनका साथ देने लगते हैं । कुछ अन्य लोग लेनिन को तो मान्यता दे देते हैं लेकिन स्तालिन के सवाल पर अड़ जाते हैं । उदाहरण के लिए प्रसिद्ध मार्क्सवादी इतिहासकार एरिक हाब्सबाम ने जब बीसवीं सदी में मार्क्सवाद के उत्थान पतन का जायजा लिया तो उन्होंने विभिन्न दौरों में मार्क्सवाद की उठती गिरती किस्मत पर प्रकाश डाला । इन दौरों में जहाँ पहला दौर 1880 से 1914 का है वहीं दूसरा दौर सीधे 1929 से 1945 का है । बीच का 1914 से 1929 तक का दौर, हो सकता है, बिना किसी कारण के छोड़ दिया गया हो लेकिन लेनिन के बाद सोवियत संघ और अन्य मुल्कों में हो रहे विकास के प्रति लेखक की अरुचि की झलक भी इससे मिलती है ।
आम धारणा ही स्तालिन को तानाशाह मानती है लेकिन जो मार्क्सवादी हैं उनमें से भी एक हिस्सा स्तालिन के मुकाबले त्रात्सकी के समर्थन में खड़ा हो जाता है । यह सवाल रूसी क्रांति की अवधि के मामले में दुबिधा का रूप ले लेता है । इसके अतिरिक्त स्तालिन के शासन काल में हिटलर की सेनाओं के साथ युद्ध में सोवियत सेना की जीत के चलते थोड़ी दुबिधा यहां भी बनी रहती है । आगे जिन किताबों और लेखकों का जिक्र किया जा रहा है उनके प्रसंग में ये सारे सवाल प्रकट होंगे ।   
1996 में पिमलिको से ओरलैन्डो फ़िगेस की किताब ‘ए पीपुल’स ट्रेजेडी: द रशियन रेवोल्यूशन, 1891-1924’ का प्रकाशन हुआ । भूमिका में वे बताते हैं कि आजकल इतने छोटे बदलावों को भी क्रांति कहने का रिवाज चल पड़ा है कि इस किताब में जिसको क्रांति कहा गया है उसकी व्यापकता को समझने में पाठक को दिक्कत महसूस होगी । रूसी क्रांति प्रभाव के मामले में दुनिया के इतिहास की कुछेक बड़ी घटनाओं में से एक थी । इसके घटित होने के एक पीढ़ी बाद ही दुनिया की एक तिहाई आबादी इसके विचारधारात्मक असर वाले शासन में आ गई । इसने समकालीन दुनिया की शक्ल परिभाषित की और इसकी छाया से बाहर आना बस अभी सम्भव हुआ है । इन्हीं की एक किताब रेवोल्यूशनरी रशिया, 1891-1991: ए पेलिकन इंट्रोडक्शनका प्रकाशन 2014 में पेलिकन से हुआ है । किताब का मकसद रूसी क्रांति को दीर्घकालीन इतिहास के नजरिए से देखना है । लेखक ने सौ सालों को एक ही क्रांतिकारी चक्र के बतौर व्याख्यायित किया है । इसकी शुरुआत 1891 में अकाल के समय ज़ार की तानाशाही के साथ जनता के टकराव से होती है और खात्मा 1991 में सोवियत सत्ता के अंत से होता है । रूसी क्रांति के अधिकतर वर्णन 1917 से थोड़ा पहले से शुरू होकर 1917 के थोड़ा बाद जाकर खत्म हो जाते हैं । लेकिन लेखक का मानना है कि रूसी क्रांति के समूचे चरित्र को समझने के लिए रूस के दीर्घकालीन इतिहास को देखने से हम उसके बीज, उसकी हिंसा, स्वतंत्रता के बाद तानाशाही की परिघटनाओं को रूस के ज़ारशाही अतीत के सहारे समझ सकते हैं । क्रांति के प्रभाव की दीर्घकालिकता भी लम्बे समय के इतिहास से ही स्पष्ट होती है । रूसी क्रांति को बहुत सारे लोग 1921 में गृहयुद्ध के खात्मे के साथ खत्म मान लेते हैं, कुछ लोग 1924 में लेनिन के देहान्त तक उसकी व्याप्ति मानते हैं । कुछ लोग 1927 में त्रात्सकी की पराजय से उसे जोड़ते हैं, कुछ अन्य 1929 में जबरिया खेती के समूहीकरण और उद्योगीकरण तथा पंच वर्षीय योजनाओं तक उसकी निरंतरता स्वीकार करते हैं । लेखक ने इन सबसे अलग रुख अपनाया है ।  
सभी मानते हैं कि रूस के पतन के शुरुआती झटके के तुरंत बाद इक्कीसवीं सदी से थोड़ा पहले ही मार्क्सवाद में व्यापक रुचि पैदा हुई । इस रुचि का दायरा केवल मार्क्सवाद नहीं बल्कि उसके रूसी व्यवहार तक भी फैला हुआ था । उदाहरण के लिए 1999 में यू सी एल प्रेस से मर्क सैंडल की किताब ‘ए शार्ट हिस्ट्री आफ़ सोवियत सोशलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । इसमें भी लेखक ने रूसी इतिहास के 1917 से 1991 तक के समय को समाजवादी प्रयोग का समय माना है ।  
2000 में मैकमिलन से राबर्ट सर्विस की किताब ‘लेनिन: ए बायोग्राफी’ का प्रकाशन हुआ । फिर 2002 में पैन बुक्स से उसका प्रकाशन हुआ और 2008 में पैन बुक्स ने ही उसका ईलेक्ट्रानिक संस्करण जारी किया । लेखक का कहना है कि सोवियत संघ में कम्यूनिस्ट पार्टी के संग्रहालय को शोध हेतु खोल देने से उन्हें बाकी जीवनियों के मुकाबले ज्यादा सामग्री देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।
लेनिन के व्यक्तित्व की उपलब्धियों को गिनाते हुए लेखक ने बोल्शेविक नामक एक गुट को ऐसी पार्टी में बदल देने का उल्लेख किया है जिसने 1917 की क्रांति को संपन्न किया । इस क्रांति के फलस्वरूप दुनिया के इतिहास की पहली समाजवादी सत्ता की स्थापना हुई और तमाम विपरीत स्थितियों में भी कायम रही । प्रथम विश्व युद्ध और गृह युद्ध से सफलतापूर्वक देश को बाहर निकाला गया । कम्यूनिस्ट इंटरनेशनल की स्थापना करके पूरे महाद्वीप की राजनीति को इस सत्ता ने प्रभावित किया । इन सबका कारण यह था कि लेनिन का शुरुआती जीवन रूसी समाज के इतिहास के एक विचित्र समय में गुजरा । उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में रूसी साम्राज्य बुनियादी परिवर्तन से गुजर रहा था और उसी के साथ लेनिन की पीढ़ी ऐतिहासिक बदलावों के भंवर में उलझी हुई थी । दुनिया का सबसे बड़ा देश अपनी संभावनाओं को खोल और परख रहा था । पुराने सामाजिक और सांस्कृतिक बंधन ढीले पड़ रहे थे । अंतर्राष्ट्रीय संपर्क बढ़ रहा था और रूस की सांस्कृतिक और वैज्ञानिक उपलब्धियों को सारा संसार अचम्भे से देख रहा था ।    
लेखक का कहना है कि फिर भी शिक्षित लोगों को बदलाव की रफ़्तार बेहद सुस्त महसूस हो रही थी । उन्हें लगता था कि रूस इतना विराट, इतना विविध और इतना परंपराबद्ध है कि बदल नहीं सकता । रूसी समाज बदलाव का आदी नहीं था । 1861 में अलेक्सान्द्र द्वितीय ने कुछ बदलाव लाने की कोशिश की थी लेकिन बदलाव के समक्ष मुश्किलें बहुत थीं । अमीर-गरीब के बीच चौड़ी खाई थी । देहात की किसान आबादी अपनी दुनिया से बाहर कुछ नहीं सोचती थी । सरकारी अधिकारियों और संपत्तिशाली लोगों के विरुद्ध विक्षोभ फैला हुआ था । दूसरी ओर कोयला, लोहा, हीरा, सोना और तेल का विशाल भंडार था । विशाल भूक्षेत्रों में प्रचुर अन्न पैदा होता था । सुसंस्कृत कुलीन तबका था । महान उपन्यासकार, वैज्ञानिक, संगीतज्ञ और चित्रकार थे । पेशेवर मध्यवर्ग की तादाद में बढ़ोत्तरी हो रही थी । स्थानीय स्वशासन की संस्थाएं विकसित हो रही थीं । नौकरशाही में कुलीनों के मुकाबले पेशेवर लोग अधिक दाखिल हो रहे थे । इस संक्रमण से उथल पुथल पैदा हो रही थी । यथास्थिति के विरोधी, सदियों से समाज का दमन करनेवाली बादशाहत के विरोध में हिंसक उपाय अपना रहे थे । किसानी समाजवाद के पक्षधर अपनी विचारधारा का प्रचार करते थे । उदारपंथी भी थे लेकिन सदी का अंत आते आते जार की तानाशाही के विरुद्ध सबसे प्रभावी विचारधारा के रूप में मार्क्सवाद स्थापित हो गया । जार और पूंजीवाद के अनेक पहलुओं के विरुद्ध बौद्धिक और मेहनतकश हलकों में व्याप्त माहौल से लेनिन को बहुत लाभ मिला । प्रथम विश्व युद्ध में रूस की हालत ने शासन विरोधी माहौल बनाने में मदद की ।
लेनिन पर अपने समय का प्रभाव तो था ही, समय पर उनका प्रभाव भी कुछ कम गहरा नहीं था । पैतृक घर में शिक्षा को उन्नति की राह समझा जाता था । शिक्षा के चलते उन्हें विदेशी भाषाओं को सीखने का मौका मिला, विज्ञान के प्रति लगाव पैदा हुआ और समाज को समझने में सहायक विचारधाराओं से प्रेम हुआ । उन्हें अपनी भावनाओं को काबू में रखना आता था और अपने क्रोध को जुझारू आक्रामकता का रूप देकर वे लंबे समय तक राजनीतिक लड़ाई लड़ सकते थे । अपनी बुनियादी मान्यताओं को उन्होंने दृढ़ता के साथ पकड़े रखा । मार्क्सवाद के अलावा रूसी साहित्य का भी उन पर अमिट असर पड़ा था । छपे हुए शब्दों से उनका नाता अधिक गहरा था । लेनिन घनघोर पढ़ाकू और प्रचंड लिक्खाड़ थे, वक्ता उतने प्रभावी न थे । अध्ययन और राजनीतिक संवेदनशीलता के कारण 1917 में उन्होंने सत्ता दखल की पटकथा लिखी । नतीजतन अक्टूबर में सत्ता दखल को अंजाम दिया । मार्च 1918 में ब्रेस्त-लितोव्स्क की संधि के जरिए रूस पर जर्मनी के हमले को रोका । 1921 में नई आर्थिक नीति लागू करके उन्होंने नवजात सोवियत संघ को जन विक्षोभ से उबारा । इन सभी मौकों पर लेनिन द्वारा संचालित अभियानों ने घटनाओं की दिशा तय की । 
इसी कड़ी में 2002 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से ए वेरी शार्ट इंट्रोडक्शन नामक पुस्तक श्रृंखला के तहत स्टीव स्मिथ की किताब ‘द रशियन रेवोल्यूशन: ए वेरी शार्ट इंट्रोडक्शन’ का प्रकाशन हुआ । लेखक ने फ़रवरी और अक्टूबर की क्रांतियों को निरंतरता में देखा है क्योंकि फ़रवरी में ज़ारशाही को उखाड़ फेंका गया और अक्टूबर में बोल्शेविकों ने सत्ता पर कब्जा किया । इसी साल पालग्रेव से जान गुडिंग की किताबसोशलिज्म इन रशिया: लेनिन ऐंड हिज लीगेसी, 1890-1991’ का प्रकाशन हुआ । किताब में लेखक ने बीसवीं सदी में रूस में किए गए समाजवादी प्रयोग के सिलसिले में कुछ बुनियादी सवालों का जवाब देने की कोशिश की है । पहला तो यह कि रूस जैसे पिछड़े अर्ध-एशियाई देश में मार्क्सवाद से प्रभावित समाजवादी विचारों ने कैसे जड़ पकड़ी । इसका जवाब देते हुए वे कहते हैं कि मजबूत भौतिक आधार न होने के बावजूद रूसी समाज को समाजवाद की सबसे अधिक जरूरत थी । लेखक ने रूसी क्रांति की मौजूदगी 1917 के बाद आगामी चौहत्तर सालों तक मानी है ।
2003 में रटलेज से स्टीफेन जे ली की किताब ‘लेनिन ऐंड रेवोल्यूशनरी रशिया’ का प्रकाशन हुआ । किताब इस बात का सबूत है कि मार्क्स के नवोत्थान के साथ उस क्रांतिकारी मार्क्सवादी परंपरा का भी उत्थान हो रहा है जिसे कम्यूनिस्ट आंदोलन की बहसों की गरमी में त्याग सा दिया गया था ।
इसके अगले साल ही 2004 में पालग्रेव मैकमिलन से आर डब्ल्यू डेविस की नई भूमिका के साथ ई एच कार की किताब ‘द रशियन रेवोल्यूशन: फ़्राम लेनिन टु स्तालिन (1917-1929)’ को फिर से छापा गया । मूल रूप से 1979 में इसका प्रकाशन हुआ था । ई एच कार ने तीस साल लगाकर चौदह खंडों में सोवियत संघ का इतिहास लिखा था । उसी सामग्री के आधार पर उन्होंने यह किताब विद्यार्थियों के लिए लिखी थी । सोवियत संघ की समाजवादी व्यवस्था की समस्याओं को गहराई से समझने की इस ऐतिहासिक कोशिश को पलटकर इस समय देखने पर पता चलता है कि क्रांति के बाद नवस्थापित सोवियत सत्ता को इतिहास में पहली बार ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था जिसका न तो मानवता ने कभी सामना किया था, न ही क्रांति के नेतागण को इनके समाधान का कोई अनुभव रहा था । फिर भी विपरीत स्थितियों से जूझते हुए रचनात्मक तरीके से जीवित मनुष्यों के उस समाज में जमीन से उठकर आए सेना और मजदूर समुदाय के नेताओं ने इसे कर दिखाया ।  
2005 में द यूनिवर्सिटी आफ़ मिशिगन प्रेस से मोशे लेविन की किताब ‘लेनिन’स लास्ट स्ट्रगल’ का प्रकाशन हुआ । किताब मूल रूप से लेनिन द्वारा संकट के समय अपनाई गई नई आर्थिक नीति से जुड़े संघर्षों का विश्लेषण करती है । नई आर्थिक नीति का महत्व यह है कि उसके जरिए लेनिन ने योजना और बाजार के समन्वय की दिशा में एक गंभीर प्रयोग किया था । इसी के साथ लेनिन इस समस्या से भी जूझ रहे थे कि जो क्रांति जनता की मुक्ति के लिए हुई थी उससे उत्पन्न राज्य अपने आपमें ऐसा ढांचा बन गया जो मुक्ति के लिए बाधक साबित हो रहा था । ये दोनों समस्याएं आपस में जुड़ी हुई थीं । अर्थतंत्र और प्रशासन के क्षेत्र में जनता की पहलकदमी और पार्टी ढांचे के बीच तालमेल की कोशिश ही लेनिन के जीवन के अंतिम साल का सबसे घनघोर संघर्ष था ।
2006 में अजंता बुक्स इंटरनेशनल से रणधीर सिंह की किताब क्राइसिस आफ़ सोशलिज्म का प्रकाशन हुआ । किताब में समाजवाद के संकट की बात करते हुए रूस में घटित घटनाओं को समझने की कोशिश की गई थी । रणधीर सिंह ने रूस के पतन को किसी घटना या तारीख में देखने की जगह एक प्रक्रिया के रूप में देखा । उन्होंने इस घटना से कुछ सैद्धांतिक सवाल भी उठाए । उनका कहना था कि सत्ता पर बोल्शेविकों के काबिज होने के बाद से ही नौकरशाही का विकास शुरू हो गया । शुरू में लेनिन और बाद में स्तालिन ने इससे लड़ाई जारी रखी लेकिन स्तालिन की मृत्यु के बाद इस तबके ने शासन और पार्टी दोनों पर कब्जा कर लिया । इस प्रक्रिया का विस्तार से विश्लेषण करने के बाद रणधीर सिंह ने दो जरूरी सवाल उठाए । एक तो यह कि तीसरे इंटरनेशनल द्वारा सूत्रबद्ध वर्तमान दौर की कम्यूनिस्ट पार्टियों के सांगठनिक ढांचे में इस नौकरशाही से बचने या पैदा होने के बाद उससे लड़ने की कोई संस्थाबद्ध आंतरिक प्रक्रिया नहीं है । दूसरे यह कि क्रांति के बाद सत्ता मिलने पर वर्गों के निर्माण और फिर उसके कारण वर्ग विभेद की स्थिति पैदा हुई थी । इस वर्ग निर्माण के कारणों और इससे पैदा समस्याओं को हल करने का कोई रास्ता मार्क्सवाद के भीतर नहीं है । स्वाभाविक है कि इन हालात की पूर्व कल्पना मार्क्स-एंगेल्स के लिए कठिन थी ।       
2014 में पालग्रेव मैकमिलन से अगस्त एच निम्ज़ की किताब ‘लेनिन’स एलेक्टोरल स्ट्रेटेजी फ़्राम 1907 टु द अक्टूबर रेवोल्यूशन आफ़ 1917: द बैलट, द स्ट्रीट्स- आर बोथ’ का प्रकाशन हुआ । यह किताब रूसी क्रांति के बारे में लिखी गई अन्य किताबों से इस मामले में अलग है कि जब हम रूसी क्रांति की बात करते हैं तो भूल जाते हैं कि लेनिन ने चुनाव भी लड़े थे । लेखक का दावा है कि बोल्शेविकों की चुनावी रणनीति से अक्टूबर क्रांति का बहुत गहरा रिश्ता है । इस मामले में रूसी क्रांति अब तक की सभी क्रांतियों से अलग है कि उसमें चुनाव अभियानों से हासिल अनुभवों का भरपूर रचनात्मक इस्तेमाल किया गया था ।

2016 में मंथली रिव्यू प्रेस से समीर अमीन की किताब ‘रशिया ऐंड द लांग ट्रान्जीशन फ़्राम कैपिटलिज्म टु सोशलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । किताब में रूस के दानवीकरण की कोशिशों का विरोध किया गया है । उनका कहना है कि पश्चिमी संचार माध्यमों द्वारा रात दिन यह प्रचारित किया जा रहा है कि रूस में ज़ारशाही की विरासत को सोवियत संघ के नाम पर जारी रखा गया था । रूस की ऐसी छवि बनाई जा रही है कि जैसे ज़ारशाही के समय उससे बचकर रहना पड़ता था उसी तरह आज भी बचने की जरूरत है और बचाने की जिम्मेदारी अमेरिका और नाटो की संहारक सैन्य शक्ति को दे दी गई है । समीर अमीन की इस किताब में शामिल लेख 1990 से लेकर 2015 के बीच के लिखे हुए हैं । उन्हें उम्मीद है कि इनके जरिए पश्चिमी दुनिया में प्रचारित छवि के विपरीत रूस की वैकल्पिक छवि देखने का मौका पाठकों को मिलेगा ।
2017 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से मार्क डी स्टाइनबर्ग की किताबद रशियन रेवोल्यूशन, 1905-1921’ का प्रकाशन हुआ है । लेखक का जोर रूसी क्रांति की कहानी को लोगों के अनुभव के रूप में बताने पर है । इस क्रांति की कहानी भांति भांति से सुनाई गई है । इस क्रांति के तमाम कारण बताए जाते हैं । ऐसा करते हुए संस्थाओं, नेताओं और विचारधाराओं की भूमिका को खासा महत्व दिया जाता है । सामाजिक इतिहास में रूसी समाज के ऊपरी और निचले तबकों की बढ़ती हुई सामाजिक गोलबंदी को घटनाक्रम का प्रधान कारण बताया जाता है । इसी के तहत मनोवृत्तियों और दृष्टिकोणों की जटिल दुनिया में झांकने की कोशिश की जाती है । अनुभव आधारित इतिहास लेखन में जीवंत भागीदारी का सहारा लिया गया है । बाहरी दुनिया के साथ हमारे आंतरिक संवाद को अनुभव कहा जा सकता है । अपने आप से बाहर के अस्तित्व के साथ यह ऐसा टकराव होता है जो हमें अप्रत्याशित तरीके से बदल देता है । दुनिया के बारे में हमारे परिपक्व और विकसित ज्ञान को भी अनुभव कहा जाता है । कुछ हद तक यह व्याख्या भी होता है । अतीत के बारे में हमारे ज्ञान और व्याख्या पर अतीत की अपनी व्याख्या और ज्ञान का प्रभाव पड़ता है । इतिहासकार कोशिश करते हैं कि अतीत के प्रामाणिक अनुभव तक पहुंचें लेकिन ऐसा संभव नहीं होता । अलग बात है कि इस क्रम में तमाम चीजें हाथ लगती हैं । इस यात्रा में संग्रहालय बड़े काम की चीज होते हैं । इसीलिए प्राथमिक स्रोत का महत्व सबसे अधिक होता है । किताब में अखबारों पर स्रोत के रूप में काफी भरोसा किया गया है । अनुभव के इतिहासकार के लिए अखबार अतीत का वर्तमान होते हैं । हालांकि अखबार का संवाददाता भी अखबार की बिक्री से लेकर राजनीतिक लक्ष्य की सेवा तक विभिन्न तत्वों से प्रभावित होकर कोई भी कहानी सुनाता है । रूस में तो सरकारी सेंसर का भी दबाव रहता था । लोग कहते हैं कि अखबार दर्पण होता है लेकिन साथ ही यह भी जानते हैं कि वे दर्पण के अतिरिक्त भी ढेर सारे काम करते हैं । रूस के पत्रकार हमेशा टिप्पणी और राय की जिम्मेदारी उठाना आवश्यक समझते रहे हैं । इसमें तथ्य और उसकी व्याख्या के बीच संतुलन बनाना मुश्किल होता है । अगर वर्ग या किसी कोटि के बजाए ठोस मनुष्य के रूप में लोगों के अनुभवों तक पहुंचना हो तो इन बातों का ध्यान रखना जरूरी हो जाता है । किताब में जिन मूल्यों के लिए लोग लड़े उनकी भी चर्चा है । सामाजिक, आर्थिक, लैंगिक और नृजातीय विषमताओं का भी ध्यान रखा गया है । हिंसा के भी जरिए अभिव्यक्त सत्ता और प्रतिरोध की परिघटना को समेटने की कोशिश की गई है । समझने का प्रयास किया गया है कि लोगों ने स्वतंत्रता को किस तरह समझा, बरता और हासिल किया ।   
2017 में वर्सो से तारिक अली की किताब ‘द डिलेमाज आफ़ लेनिन: टेररिज्म, वार, एम्पायर, लव, रेवोल्यूशन’ का प्रकाशन हुआ है । लेखक के अनुसार किताब का मकसद लेनिन को सही ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना है । वे ऐसी क्रांति के जनक थे जिसने विश्व राजनीति को बदल दिया, पूंजीवाद और उसके साम्राज्य पर सीधे हमला किया तथा विउपनिवेशीकरण की प्रक्रिया तेज कर दी । इसके लेखन का दूसरा कारण यह है कि वर्तमान शासक विचारधारा और शक्ति संरचना बीसवीं सदी के सामाजिक मुक्ति संघर्षों के प्रति इतनी हिकारत से भरी हुई है कि ऐतिहासिक और राजनीतिक स्मृति का उत्खनन अपने आपमें प्रतिरोध महसूस हो रहा है । अब तो पूंजीवाद का विरोध भी बहुत सीमित हो चला है । सही है कि वर्तमान संघर्ष का लक्ष्य अतीत को दुहराना नहीं होना चाहिए बल्कि उससे सकारात्मक के साथ ही नकारात्मक शिक्षा भी लेनी चाहिए ।
श्री अली का कहना है कि बीसवीं सदी में लेनिन का अतिरिक्त सम्मान करनेवाले उन्हें शायद ही पढ़ते थे । दुनिया भर में तात्कालिक उद्देश्यों के लिए उनकी गलत व्याख्या की गई और उनके विचारों का दुरुपयोग किया गया । उनके विचारों के निर्माण की ऐतिहासिक प्रक्रिया की उपेक्षा की गई । लेनिन रूसी इतिहास के साथ ही यूरोपीय मजदूर आंदोलन की भी पैदाइश थे । इन्हीं दोनों के भीतर से वर्ग और पार्टी के संबंध का सवाल आया था । इस सवाल पर अराजकतावाद और मार्क्सवाद की धाराओं के बीच होड़ रही थी । इस होड़ में मार्क्सवाद की विजय में लेनिन की निर्णायक भूमिका रही । इसीलिए लेनिन के समक्ष उपस्थित दुबिधा की समझ के लिए लेखक को दोनों धाराओं के इतिहास की छानबीन जरूरी लगती है ।
तारिक अली बताते हैं कि लेनिन के बिना अक्टूबर क्रांति सम्भव नहीं थी । जिस गुट और पार्टी का उन्होंने 1903 से ही तमाम कष्ट उठाकर निर्माण किया था वह फ़रवरी 1917 से अक्टूबर 1917 के बीच के निर्णायक महीनों में क्रांति करने के लिए तैयार नहीं थे । लेनिन की विदेश से वापसी से पहले इसके ढेर सारे नेता महत्वपूर्ण मुद्दों पर समझौता करने को तैयार हो गए थे । इसका मतलब कि क्रांति के लिए ही बनाई गई राजनीतिक पार्टी भी नाजुक मौकों पर विचलित हो जा सकती है । लेनिन ने समझ लिया कि अगर इस मौके पर चूक हो गई तो फिर से प्रतिक्रिया की जीत हो जाएगी । उन्होंने जमीनी समर्थकों के बल पर अनिच्छुक बोल्शेविक नेताओं को क्रांति की पहल करके अपने पीछे चलने को मजबूर कर दिया । इसमें उनको युद्ध से उकताए सैनिकों का सबसे अधिक साथ मिला क्योंकि वे भी कई बरसों से खाइयों-खंदकों में आपस में वही बातें कर रहे थे जो बोल्शेविकों के नारों में व्यक्त हुईं । विश्व युद्ध की थकान ने लेनिन को मौका दिया और उन्होंने उसे लपक लिया । क्रांतियों से इतिहास आगे बढ़ता है । उदारपंथी उसके पीछे पीछे घिसटते हैं ।
प्रथम विश्वयुद्ध में लेनिन को पहली दुबिधा का सामना करना पड़ा था जब बहुतेरे लोग अपने अपने देशों के शासकों के समर्थन में खड़े हो गए उनमें जर्मन समाजवादी कार्ल काउत्सकी भी थे जिनका लेनिन बहुत सम्मान करते थे । साम्राज्यवादी युद्धोन्माद के समक्ष बौद्धिक विचलन से बचाव के लिए लेनिन को मार्क्स के विचारों की समझ पर्याप्त लगती थी । जब कार्ल काउत्सकी ने युद्धोन्माद के सामने समर्पण कर दिया तो उन्होंने जर्मन समाजवादियों से सार्वजनिक तौर पर नाता तोड़ लिया । उनकी दूसरी दुबिधा क्रांति के रास्ते के सिलसिले में उपजी । फ़रवरी 1917 के बाद यह सवाल कोई अमूर्त सवाल नहीं रह गया था । लेनिन ने समाजवादी क्रांति की राह चुनी । उनकी पार्टी के अन्य नेता बाद में समझ सके कि मजदूर वर्ग राजनीतिक रूप से वास्तव में आगे था ।
प्रथम विश्व युद्ध और अक्टूबर से पहले फ़रवरी क्रांति न हुए होते तो लेनिन भी ढेर सारे अन्य प्रवासी क्रांतिकारियों की तरह ही जारशाही के पतन की प्रतीक्षा करते हुए मर गए होते । त्रात्सकी भी एक और उपन्यासकार होकर रह गए होते । लेकिन अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद उसका लाभ उठाने के लिए माकूल संगठन भी जरूरी होता है । इसके न होने के चलते ही दुनिया का इतिहास असफल क्रांतियों की गाथा से भरा हुआ है । हालांकि ढेर सारे लोग मानते हैं कि इतिहास की गति को मनमाने तरीके से तेज नहीं किया जा सकता लेकिन लेनिन का मानना था कि कभी कभी दशकों का काम कुछेक दिनों में निपटाया जा सकता है । अलग बात है कि यूरोप के मामले में उनकी उम्मीद के मुताबिक घटनाक्रम की गति नहीं रही ।
रूसी क्रांति को सही ऐतिहासिक संदर्भ में देखने के लिए तारिक अली ने रूस में पहले से चली आ रही क्रांति की परम्पराओं को याद दिलाया है । इन परम्पराओं में से एक तो क्रांतिकारी आतंक की धारा थी जिससे रूसी बौद्धिक समुदाय का भी एक हिस्सा जुड़ा हुआ था । इस धारा के लोगों ने ज़ार की हत्या की जिसके बाद चले भयानक दमन में इनके छोटे छोटे समूह खत्म हो गए । फिर भी बीसवीं सदी में बनने वाली अधिकतर राजनीतिक पार्टियों पर इस धारा का मजबूत प्रभाव था । ढेर सारे उदारवादी इतिहासकार समझते हैं कि अगर बोल्शेविक न आए होते तो रूस का पश्चिमी किस्म के लोकतंत्र में रूपांतरण हो गया होता । तारिक अली का अनुमान है कि यदि बोल्शेविकों का जन्म न हुआ होता तो पश्चिमी ताकतों के समर्थन से रूस में बड़े पैमाने पर खून खराबे के साथ सैनिक शासन स्थापित हुआ होता । फ़रवरी क्रांति से गठित सरकार रूस में व्याप्त संकट को हल करने में अक्षम थी । ऐसे हालात में या तो बोल्शेविकों के हाथ सत्ता आई होती या सेना के उन अधिकारियों के हाथ जिन्होंने बोल्शेविक क्रांति के बाद समूचे देश को गृहयुद्ध में झोंक दिया । क्रांति के संपन्न न होने पर सुधार का नहीं, प्रतिक्रिया का दौर आता है ।
अक्टूबर क्रांति के चरित्र पर विचार करते हुए वे बताते हैं कि कुछ अन्य लोग अक्टूबर क्रांति को केवल तख्तापलट समझते हैं । सही है कि शहरों में केंद्रित मजदूर वर्ग अल्पसंख्या में था लेकिन अगर देहात में फैले हुए खेतिहरों का समर्थन क्रांति को न मिला होता तो गृहयुद्ध में बोल्शेविकों को हारना पड़ता । क्रांतिकारी दौर में जनता का राजनीतिक प्रशिक्षण बहुत तेजी से होता है । जो किसान पहले बोल्शेविकों के मुकाबले दूसरों का समर्थन करते थे वे तेजी से बोल्शेविकों की तरफ चले आए । कोई भी अगुआ क्रांतिकारी पार्टी अपने दम पर ही जीत नहीं सकती । जो लोग इसे तख्तापलट मानते हैं वे इसमें अंतर्निहित क्रांति को नहीं समझ सकते । बीच में जुलाई में परिस्थिति के अपरिपक्व रहते क्रांति की कोशिश में लगे धक्के के बाद बोल्शेविकों के छापेखाने पर प्रतिबंध लग गया था, अनेक नेता जेल में ठूंस दिए गए और खुद लेनिन को फ़िनलैंड भागना पड़ा था । उन्होंने लगातार कहा कि यह धक्का अस्थायी है, जनता फिर से क्रांति करेगी और उसके लिए पार्टी को तैयार करना चाहिए । केंद्रीय समिति के कुछ महत्वपूर्ण नेतागण यकीन नहीं कर रहे थे और उन्होंने विद्रोह की योजना का विरोध किया । फिर भी विद्रोह हुआ ।
पूंजीवादी राज्य या साम्राज्यवादी सेनाओं के विरुद्ध हथियारबंद विद्रोह की विस्तृत और सटीक तैयारी करनी पड़ती है । विजय हेतु मजदूर और सैनिक योद्धाओं को सुनियोजित नेतृत्व देना जरूरी होता है । प्रत्येक क्रांति की विशेषता होती है लेकिन क्रांतियों में कुछ समरूपता भी होती है । इतिहास की एकाधिक क्रांतियां दो चरणों में पूरी हुईं । इसके उदाहरण के बतौर तारिक अली इंग्लैंड की 1648 की क्रांति, फ़्रांस की 1789 की क्रांति और रूस की बोल्शेविक क्रांति का जिक्र करते हैं । इनमें अंतर यह था कि जहां क्रामवेल और राबेस्पीयर को आगे की ओर घटनाओं ने धकेला वहीं रूस में लेनिन ने घटनाओं का क्रांति को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया । लेनिन ने अपने इन पूर्ववर्तियों से सीखा कि प्राप्य को हासिल करने के लिए अप्राप्य को पाने का लक्ष्य सामने रखना पड़ता है । इन सभी क्रांतियों को गृहयुद्ध में क्रांतिकारी राज्य की रक्षा के लिए पूरी तरह से नई सैन्य शक्ति का गठन करना पड़ा । इन सेनाओं में उन्नति योग्यता की जगह वर्ग के आधार पर होती थी । लेनिन और अन्य नेताओं में अंतर यह था कि क्रामवेल और राबेस्पीयर ने तब क्रांति में भाग लिया जब उसका होना निश्चित हो गया जबकि लेनिन ने क्रांति के लिए पचीस साल परिश्रम किया था । इसके लिए वे भूमिगत रहे, जेल गए और विदेश भी भागे । तय नहीं था कि उनके जीवनकाल में यह घटित होगी । उन्होंने कहा भी कि उनकी पीढ़ी सफल नहीं भी हो सकती है । वे भविष्य के लिए लड़ रहे हैं । अपनी आकांक्षा को वे कभी यथार्थ नहीं मानते थे । उनका मानना था कि जीत, हार और संक्रमण के समय कठोर क्रांतिकारी यथार्थवाद बेहद जरूरी होता है । केंद्रीय समिति के बहुमत के विरुद्ध जाकर भी क्रांति की सफलता सुनिश्चित करने में लेनिन की भूमिका निर्णायक थी ही, नवोदित राज्य की रक्षा के लिए भी उन्हें बहुधा ऐसा करना पड़ा । ब्रेस्त-लितोव्स्क संधि के समय भी वे अल्पमत में थे । 1917 से 1922 तक पांच साल लेनिन ने सरकार का नेतृत्व किया । गृहयुद्ध में विजय हासिल करना कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं थी । इस विजय के बाद क्रांतिकारी उत्साह में उतार दिखाई पड़ा । नए हालात में अर्थतंत्र को पुनर्जीवित करने के लिए छोटे पैमाने पर पूंजीवाद की इजाजत देते हुए नई आर्थिक नीति को लागू किया । इसी बीच प्राकृतिक आपदाओं का पहाड़ टूट पड़ा । अकाल, सूखा और टिड्डियों का हमला हुआ । मजदूर वर्ग तबाह हो गया । सरकार और पार्टी में मुट्ठी भर बोल्शेविक बचे थे । इस हालत में नौकरशाही का पनपना लाजिमी था । आखिरी दिनों में उनके सामने सबसे कठिन दुबिधा प्रकट हुई । वे पार्टी को नौकरशाह बनने से बचाना चाहते थे । इस संघर्ष का सबूत जो लेखन था उसे सोवियत जनता की जानकारी से बहुत दिनों तक दूर रखा गया था ।
2017 में वर्सो से चाइना मेविल की किताब ‘अक्टूबर: द स्टोरी आफ़ द रशियन रेवोल्यूशन’ का प्रकाशन हुआ । मेविल ने किताब के शुरू में बताया है कि प्रथम विश्व युद्ध के ऐन बीच में जब एक रूसी विद्वान की रूस के आधुनिक इतिहास पर लिखी किताब का अंग्रेजी अनुवाद 1917 में अमेरिका में छपा तो उसके अनुवादक की भूमिका का अंतिम वाक्य हालात में क्रांतिकारी बदलाव की भविष्यवाणी कर रहा था । इस किताब के छपते ही एक क्या दो क्रांतिकारी बदलाव रूस में हुए । एक फ़रवरी में तो दूसरा अक्टूबर में । फ़रवरी से अक्टूबर तक क्रांति की यह प्रक्रिया जारी रही । इस क्रांति की निगाह से स्वतंत्रता की राजनीति को देखा जाता रहा है । लेखक ने साफ कर दिया है कि वे किसी भी तरह निष्पक्ष नहीं रह सकते । लेखक ने उस क्रांति की कहानी कहने की कोशिश की है । इस कहानी में रूसी विशेषताओं की मौजूदगी से लेखक ने इनकार नहीं किया है । इसके बावजूद उनका ध्यान क्रांति के वैश्विक परिप्रेक्ष्य पर भी बना रहा है । इस क्रांति पर रूस के साथ पूरी दुनिया का अधिकार है ।