Wednesday, January 4, 2017

वोट के लुटेरे

                              
                                               
2012 में सेवेन स्टोरीज से ग्रेग पलास्त की किताब ‘बिलिनेयर्स ऐंड बैलट बैंडिट्स: हाउ टु स्टील ऐन एलेक्शन इन 9 इजी स्टेप्स’ का प्रकाशन हुआ । किताब की भूमिका राबर्ट एफ़ केनेडी जूनियर ने लिखी है । किताब में शामिल कार्टून टेड राल के बनाए हुए हैं । किताब की विषय वस्तु अमेरिकी चुनावों पर थैलीशाहों का बढ़ता कब्जा है ।
भूमिका से पता चलता है कि इस बार ट्रंप के चुनाव में जो कुछ खुलेआम हुआ उसकी प्रक्रिया पहले ही शुरू हो चुकी थी । इस प्रक्रिया का एक घटक वहां के सर्वोच्च न्यायालय का सिटिज़ेन्स यूनाइटेड के मामले में 2010 का यह फैसला है कि कारपोरेशन व्यक्ति हैं और तब निश्चित है कि धन ही उनकी बोली होगी । स्वाभाविक है कि जिसके पास जितना अधिक धन होगा लोकतंत्र में उसकी आवाज सबसे ऊंची होगी और गरीब अमेरिकियों की आवाज सुनाई नहीं देगी । सबूत यह है कि पिछले दो दशकों के चुनावों में वही प्रत्याशी विजयी हुए जिन पर सबसे अधिक धन लगाया गया था । लेखक को लगता है कि मजबूत मध्यवर्ग के आधार पर टिका हुआ अमेरिकी लोकतंत्र धीरे धीरे अरबपतियों के अल्पतंत्र में बदलता जा रहा है ।
इस माहौल में भूमिका लेखक को अपने बचपन की याद आती है जब उन्हें लैटिन अमेरिका में अनेक देशों के स्थानीय दलालों के सहयोग से चंद धनी बाहरी लोगों के हाथों में देश के शासन की बागडोर दिखाई पड़ती थी । देश की जमीन और तमाम संसाधन इन्हीं थैलीशाहों के कब्जे में होते थे और राष्ट्रपति का पद इनके बीच ही घूमता रहता था । इस तरह के शासन को चलाने के लिए जनता को धोखे में रखने वाले प्रचारतंत्र, प्रेस पर नियंत्रण, चुनाव में धोखाधड़ी, जनता के संगठनों पर हमले और ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ के नाम पर शक्तिशाली और क्रूर पुलिस राज्य को बरकरार रखने की जरूरत होती थी । अब उन्हें अपना देश अमेरिका भी उसी तरह का बनता नजर आ रहा है । उनके मुताबिक देश ऐसी व्यवस्था की गिरफ़्त में आता जा रहा है जिसमें देश के प्रति किसी भी निष्ठा से रहित पारदेशीय बहुराष्ट्रीय निगमों के व्यापारिक हितों की सेवा राजनीति का सबसे बड़ा काम हो गया है । इन ताकतों का सब तरह के संचार माध्यमों पर कब्जा हो गया है । अमेरिका के इतिहास में पहली बार कारपोरेट घरानों और मीडिया के हित एक दूसरे के साथ नत्थी हो गए हैं ।
कारपोरेट घरानों के हाथ में अकूत धन और मीडिया के आ जाने के बाद वे अमेरिकी लोगों को वोट देने से रोककर प्रतिनिधिमूलक लोकतंत्र को स्थायी रूप से अपंग बना देने की साजिश कर रहे हैं । तमाम तरह के ऐसे भेदभावपरक कानून बनाए जा रहे हैं जिनके कारण गरीब, अल्पसंख्यक समुदाय, वरिष्ठ नागरिक और विद्यार्थी मतदान के अधिकार से वंचित होते जा रहे हैं । मतदाताओं का दमन कानूनी अपराध है और इससे बचने के लिए विशेष समुदाय के मतदाताओं को बड़े पैमाने पर जेल में डालकर उनको मताधिकार से वंचित करने का महीन रास्ता अपनाया जाता है । विभिन्न तरह के पहचान पत्रों को अनिवार्य बनाकर भी यह काम किया जाता है ।
1778 में अमेरिका एकमात्र लोकतांत्रिक देश था । आज 166 देशों में लोकतांत्रिक सरकारें हैं । लेखक ने व्यंग्यपूर्वक लिखा है कि हम अमेरिकी एक ओर तो अफ़गानिस्तान और इराक़ में लोकतांत्रिक सरकार बनवाने के लिए कत्लेआम कर रहे हैं और दूसरी ओर अपने ही देश में लोगों को वोट देने से रोकने के तमाम उपाय खोज रहे हैं और उन्हें बेरहमी से लागू कर रहे हैं । इसी सिलसिले में कार्ल रोव ने बताया कि अगर अमेरिका के एक प्रतिशत अश्वेत मतदाताओं में से चौथाई को मतदान से रोक दिया जाए तो चुनाव में बाजी पलटी जा सकती है ।
अरबपति लोग विभिन्न प्रत्याशियों पर किसी देशभक्तिपूर्ण भावना के तहत धन नहीं लुटाते बल्कि वे अमेरिकी जनता के सभी आदर्शों, सपनों और आकांक्षाओं पर प्रहार करने के मकसद से राजनेताओं को खरीदने के लिए यह निवेश करते हैं । सर्वोच्च न्यायालय के उपर्युक्त फैसले को जान मैककेन ने इक्कीसवीं सदी का सबसे बुरा फैसला कहा था । इस फैसले ने प्रत्याशियों पर पूंजी लगाने से कारपोरेट घरानों को रोके रखने के सौ सालों के कानूनी और वैधानिक इतिहास को मटियामेट कर दिया । उनका दिया हुआ चंदा असल में लोकतंत्र का स्वामित्व हासिल करने के लिए चुकाई गई फ़ीस होता है । लेखक के मुताबिक चुनाव अभियान में पूंजी लगाने की इजाजत कानूनी घूसखोरी की अनुमति देना है । कारपोरेट घरानों के चंदे की बदौलत चुनाव जीतने वाले राजनेता बाद में सर्वसुलभ हवा, पानी, जंगल, पहाड़ और सार्वजनिक जमीन को निजी मुनाफ़ाखोरी के लिए जनता से छीनकर कारपोरेट घरानों को सौंप देने का षड़यंत्र करते हैं । तेल, कोयला, गैस और परमाणु ईंधन की खरीद बिक्री का काम करने वाले ये व्यापारी पर्यावरण की परवाह किए बिना धरती और वातावरण को बरबाद करके नरक से भी इन सब चीजों को खींच निकालते हैं और मनुष्य के लिए जिंदगी जीना सबसे कठिन काम बना देते हैं । दूसरी ओर शेयर बाजार ऐसा जुआघर बन चुका है जहां जनता का धन अबाध रूप से लगातार बैंकों के जरिए इन थैलीशाहों की जेब में पहुंचता रहता है ।
लेखक को लगता है कि अमेरिका अब वैसी ही सरकारें बनाता जा रहा है जैसे शासन से छुटकारा पाने के लिए उसने आजादी की लड़ाई लड़ी थी । यूरोपीय बादशाहतों की मनमानी से भागकर इस देश के बाशिंदों ने आजादी मिलने पर लोकतंत्र को अपनाया था । लोकतांत्रिक शासन की इस परंपरा को ध्वस्त करने के लिए जनता को मतदान से वंचित करना पहला कदम है । लोकतंत्र का नाश करने वाली मशीन को ऐसा करने की ताकत पूंजी से मिलती है । लोगों को मतदान के अधिकार के साथ ही साफ हवा, साफ पानी, व्यापार में ईमानदारी और पारदर्शिता तथा कारगर लोकतांत्रिक शासन का भी अधिकार है । लेखक ने नागरिकों से इस अधिकार को वापस हासिल करने की लड़ाई छेड़ने की अपील की है ।

  

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