पूर्वरंग
सोवियत पतन के बाद का मार्क्सवाद विरोध नए हालात
के मद्देनजर धीमा हुआ है और एक ओर अमेरिकी साम्राज्यवाद के विध्वंसक उभार तथा हाल में
आर्थिक मंदी की चपेट और दूसरी ओर लातिन अमेरिका में एक के बाद एक देशों में मार्क्सवाद
समर्थक दलों की विजय ने मार्क्सवाद को दोबारा प्रासंगिक बना दिया है ।
सोवियत संघ के पतन का धक्का इतना जबर्दस्त था कि
एकबारगी उससे संभलने में वक्त लगा । चारों ओर पूँजीवाद की जीत का इतना तगड़ा जश्न मनाया
जा रहा था और उत्तर आधुनिकता के ही प्रासंगिक दर्शन रह जाने के इतने बड़े बड़े दावे किए
जा रहे थे कि ‘मंथली रिव्यू’ में भी कुछेक प्रतिबद्ध लोगों को छोड़कर किसी की रुचि महसूस नहीं होती थी ।
इसी दौर में एजाज़ अहमद की किताब ‘इन थियरी’ का प्रकाशन हुआ । एजाज़ अहमद उर्दू साहित्य के विद्वान हैं और उत्तर आधुनिकता,
उत्तर औपनिवेशिकता आदि सिद्धांतों का साहित्य से बहुत कुछ लेना देना
था इसलिए वे इस सैद्धांतिक बहस में भी कूदे । ज्यादातर साहित्यिक सिद्धांतों पर केंद्रित
होने के बावजूद इस किताब में तत्कालीन बहसों में हस्तक्षेप करते हुए क्लासिकीय मार्क्सवादी
नजरिया अपनाया गया था । कुछ मामलों में उन्होंने ग्राम्शी पर विचार करते हुए उन्हें
भी शास्त्रीय मार्क्सवादी परंपरा में स्थापित करने की कोशिश की ।
इसी समय जब सब कुछ उत्तर हो रहा था तो मार्क्सवाद
के भीतर भी तरह तरह की मान्यताएँ घुसाकर उसे भी उत्तर मार्क्सवाद बनाया जा रहा था ।
मसलन अंतोनियो नेग्री की किताब ‘एंपायर’ आई जिसमें साम्राज्यवाद को नया अवतार ग्रहण किया हुआ बताया गया था । किताब
में कहा गया था कि साम्राज्यवाद आज मार्क्सवादियों ने जैसा उसे बताया था वैसा नहीं
रह गया बल्कि पुराने जमाने के साम्राज्यों की तरह का हो गया है । ऐसा कहकर वे बड़े बहु-राष्ट्रीय निगमों की संरचना को नए तरह की चीज बता रहे थे जिनका मुख्यालय तो
जरूर किसी एक देश में होता है लेकिन अलग अलग देशों में स्थित विभिन्न शाखाओं को सापेक्षिक
स्वायत्तता हासिल होती है । इसके चलते इन भिन्न भिन्न देशों में इनकी मौजूदगी भिन्न
भिन्न किस्म की होती है और इसीलिए उससे लड़ाई भी विविधवर्णी हो गयी है । साफ़ है कि विश्व
सामाजिक मंच में जिस तरह भाँति भाँति की शक्तियाँ शामिल हो रही थीं उसी के कारण इस
तरह के सिद्धांत भी पेश किए जा रहे थे । पुस्तक में साम्राज्यवाद से लड़ने की माओवादी
नीति ‘तीन दुनिया’ के सिद्धांत पर यह कहकर
सवाल उठाया गया था कि तीसरी दुनिया में भी एक पहली दुनिया बन गई है और उसी तरह विकसित
देशों में भी एक तीसरी दुनिया दिखाई पड़ती है । इस बीच फ़्रांसिस ह्वीन लिखित और
2000 में नार्टन, न्यूयार्क द्वारा प्रकशित मार्क्स की एक जीवनी ‘कार्ल मार्क्स: ए लाइफ़’ भी पश्चिमी देशों में बहुत लोकप्रिय
हुई जिसमें व्यक्ति मार्क्स को केंद्र में रखा गया था और कुछ कुछ चरित्र हनन भी करने
की कोशिश की गई थी मसलन जेनी मार्क्स के साथ उनकी सेवा के लिए परिवार की ओर से भेजी
गईं हेलेन देमुथ के साथ मार्क्स के अवैध संबंधों का संकेत किया गया था लेकिन पुस्तक
में दिए गए तथ्य ही मार्क्स की बनिस्बत एंगेल्स की उनसे अधिक करीबी साबित करते थे ।
बहरहाल कुल के बावजूद किताब में मार्क्स की ‘पूँजी’ को लेकर कुछ नई बातें कहने की कोशिश
की गई थी । लेखक ने ‘पूँजी’ को उन्नीसवीं सदी के महाकाय उपन्यासों की तरह पढ़ने की सलाह
दी थी । इस किताब की जटिल शैली को लेकर लेखक का कहना था कि मार्क्स ने जिस विषय को
व्याख्या के लिए चुना था वही इतना जटिल था कि विषय की जटिलता उनकी शैली में भी चली
आई । लेखक के अनुसार मार्क्स का ध्यान वस्तु की बजाए उसके रूप के प्रसार के रहस्योद्घाटन
पर था इसलिए नाजुक विषय को स्पष्ट करने की शैलीगत बेचैनी उनकी किताब में दिखाई पड़ती
है ।
वैसे भी मार्क्सवाद कोई ऐसा दर्शन नहीं रहा है
कि महज तार्किक रूप से सच होने के आधार पर उसकी प्रासंगिकता बनी रहे । इसी बीच लातिन
अमेरिकी देशों में नई शुरुआतों की खबरें आने लगीं । ब्राजील में लुला की जीत से और
कुछ हुआ हो अथवा नहीं, विश्व आर्थिक मंच के समानांतर
विश्व सामाजिक मंच के गठन और उसकी पहलों ने ध्यान खींचना शुरू कर दिया । अमेरिका के
सिएटल में हुए प्रदर्शनों से लगा कि यह कोई तात्कालिक परिघटना नहीं है । इन चीजों को
कुछ दिनों तक उत्तर आधुनिक व्याख्या के ढाँचे में समेटने की कोशिश होती रही लेकिन जल्दी
ही आंदोलनकारियों और प्रतिरोध की ताकतों को मार्क्सवाद पर बात करते हुए सुना जाने लगा
। ध्यान रखना होगा कि इस क्रम में मार्क्सवाद में एकदम से कोई नया तत्व नहीं जोड़ा गया
बल्कि उसके कुछ पहलुओं को उभारा गया है जो अब तक थोड़ा बहुत उपेक्षित रह गए थे । लेकिन
इस दौर के मार्क्सवाद संबंधी विचार विमर्श की एक विशेषता पर ध्यान देना जरूरी है ।
बीच में मार्क्सवाद का शैक्षणिक रूप बहुत ज्यादा उभारा गया था । उसके मुकाबले इस दौर
में आंदोलनों से उसके जुड़ाव को सहज ही महसूस किया जा सकता है ।
इसी बीच एक और भी चीज हो रही थी जिसकी ओर लोगों
का ध्यान थोड़ी देर से गया । सभी जानते हैं कि मार्क्स और एंगेल्स के लेखन का संपादन-प्रकाशन भी आंदोलन जैसी चीज ही रही है । खुद ‘कम्युनिस्ट
पार्टी का घोषणापत्र’ की एक भूमिका में मार्क्स-एंगेल्स ने इसकी लोकप्रियता में उतार चढ़ाव को मजदूर आंदोलन की हालत का पैमाना
कहा है । असल में मार्क्स को जिन भौतिक हालात में काम करना पड़ा वे लिखे पढ़े को अधिक
सहेज कर रखने की अनुमति नहीं देते । दूसरे, जिस सामाजिक समुदाय
के हित में उन्होंने लिखा वह समाज की हाशिए की ताकत था इसलिए लिखित-प्रकाशित सामग्री के संरक्षण की कोई व्यवस्था उसके पास नहीं थी । तीसरे मार्क्स
ने काम बहुत ले लिया था और जिंदगी ने वक्त कम दिया । उनकी भाषा जर्मन थी जिसके जानने
वाले कम थे और मार्क्स की लिखावट भी बहुत स्पष्ट नहीं होती थी । इन सबके चलते उनके
लेखन के प्रकाशन का इतिहास भी मार्क्सवाद के विकास के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है
। मार्क्स की मौत के बाद एंगेल्स ने उनके लेखन के प्रकाशन-संपादन
का दायित्व ग्रहण किया । इसी जिम्मेदारी के तहत उन्होंने ‘थीसिस
आन फ़ायरबाख’ और ‘गोथा कार्यक्रम की आलोचना’
के अलावे ‘पूंजी’ के शेष दो खंड संपादित करके प्रकाशित कराए क्योंकि
उनका ध्यान इस बात की ओर था कि यह काम मार्क्स का सबसे महत्वपूर्ण काम है और इसी की
उपेक्षा होने की संभावना सबसे अधिक थी । उनकी मृत्यु के उपरांत रूस में क्रांति के
बाद ‘मेगा’ के नाम से संपूर्ण रचनाओं को
प्रकाशित करने की जिम्मेदारी 1920 के दशक में मास्को के
‘मार्क्स-एंगेल्स इंस्टीच्यूट’ ने ली लेकिन इस परियोजना में काम करने वाले कुछ बुद्धिजीवियों से सोवियत सत्ता
की अनबन, जर्मनी में हिटलर के उदय आदि के चलते प्रकाशन का काम
रुक गया । इस परियोजना के तहत 1927 में ‘हेगेल के अधिकार दर्शन की आलोचना’ तथा 1932 में ‘1848 की आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियां’
और ‘जर्मन विचारधारा’ का
प्रकाशन हो सका था । इसके बाद ‘पूंजी’ की
तैयारी के नोट और कुछेक अन्य अध्ययनों को मिलाकर ‘ग्रुंड्रिसे’
का प्रकाशन हुआ । 1928 से 1947 तक और फिर 1955 से 1966 तक दो किश्तों
में सोवियत सत्ता के संरक्षण में संपूर्ण रचनाओं का प्रकाशन हुआ जो वास्तव में संपूर्ण
नहीं था । दूसरी ओर 1960 के दशक में एक और ‘मेगा’ की योजना बनी और प्रकाशन भी 1975 से शुरू हुआ लेकिन 1989 की घटनाओं ने एक बार फिर गति
पर रोक लगा दी । 1990 से इसका काम मंथर किंतु निरंतर जारी है
और लगातार दुनिया भर के अनेक विद्वान एमस्टर्डम और त्रिएर में पांडुलिपियों और किताबों
के हाशिए पर लिखी गई या अलग से नोटबुक में उतारी गई समस्त सामग्री की छानबीन कर रहे
हैं और उनके आधार पर लगातार प्रकाशन-समीक्षा के जरिए समूची दुनिया
में मार्क्स के लेखन और चिंतन के नए पहलू सामने आ रहे हैं ।
नव हेगेलपंथियों से मार्क्स का अलगाव
इस दौरान जोनाथन वुल्फ़ की किताब
‘ह्वाई रीड मार्क्स टुडे’ चर्चित हुई । किताब के
लेखक यूनिवर्सिटी कालेज लंदन में दर्शन के प्रोफ़ेसर थे और इसका प्रकाशन
2002 में हुआ था । भूमिका में लेखक ने बताया है कि उन्होंने जब मार्क्सवाद
पर एक पाठ्यक्रम शुरू किया तो उन्हें उम्मीद नहीं थी कि कोई इसे पढ़ेगा लेकिन अचरज तब
हुआ जब अनेक छात्र इसे पढ़ने के लिए आए । इस रुचि का कारण बताते हुए उन्होंने विश्व
सामाजिक मंच के जुलूसों में प्रदर्शित एक बैनर का जिक्र किया है जिसमें लिखा था
‘चेंज कैपिटलिज्म विथ समथिंग नाइस’ । इसी इच्छा
में वे मार्क्सवाद के लिए जगह देखते हैं । वे मार्क्सवाद को पूँजीवाद की मूलगामी आलोचना
के बतौर समझते हैं । पुस्तक में मार्क्स के विचारों के प्रति कोई श्रद्धा नहीं है बल्कि
ज्यादातर एक तरह की आलोचना ही है लेकिन किन्हीं प्रसंगों में बिना शक कुछ नई बात कहने
की कोशिश की गई है ।
सबसे पहले वे सवाल उठाते हैं कि इक्कीसवीं सदी
में मार्क्सवाद में से कितना कुछ बचा रहेगा और उत्तर देते हैं कि हमारी कल्पना से ज्यादा
ही । वे मार्क्स की एक सीमा का संकेत करते हैं जिसे हम आगे के तकरीबन सभी विचारकों
में दोहराया जाता हुआ पायेंगे । वे कहते हैं कि मार्क्स के लिए प्राकृतिक संसाधन अक्षय
थे इसलिए पूँजीवाद की उनकी आलोचना में हम पर्यावरण के विनाश संबंधी प्रसंग उतने नहीं
देखेंगे जितने आज दिखाई पड़ते हैं । पुस्तक की सीमा के बतौर वे इस बात को भी शुरू में
ही साफ कर देते हैं कि मार्क्स को उन्होंने पारंपरिक तरीके से यानी एंगेल्स की नजर
से ही देखा है ।
वुल्फ़ ने पुस्तक की शुरुआत मार्क्स के शुरुआती
लेखन के विश्लेषण से की है । इस सिलसिले में ध्यान रखना होगा कि पूँजीवाद की आलोचना
अपने जमाने में मार्क्स अकेले ही नहीं कर रहे थे । वुल्फ़ का मकसद अन्य आलोचकों के मुकाबले
मार्क्स की विशेषता को उजागर करना है । वे कहते हैं कि मार्क्स को पूँजीवादी समाज मानव
विरोधी नजर आता है लेकिन उन्हें लगा कि पूँजीवादी समाज में मजदूरों की बदहाली का सही
विश्लेषण नहीं हो रहा है इसीलिए इसका इलाज भी नहीं खोजा जा सका है । उस समय धर्म को
लेकर बहुत सारा आलोचनापरक चिंतन हो रहा था । धर्म संबंधी इस समस्त विवेचन को मार्क्स
ने सामाजिक आलोचना में बदला और इसके लिए अलगाव की धारणा का उपयोग किया तथा इसके साथ
श्रम के अलगाव की बात उठाई । उन्होंने यह भी माना कि उदारवादी समाज में प्राप्त अधिकारों
को मजदूरों को प्रदान करने से भी उनकी समस्या का समाधान नहीं हो सकता । धर्म के सवाल
से शुरू करने की वजह युवा हेगेलपंथी थे । युवा हेगेलपंथियों में मार्क्स सबसे अधिक
फ़ायरबाख के नजदीक थे । फ़ायरबाख ने कहा कि ईश्वर ने मनुष्य को नहीं वरन मनुष्य ने ईश्वर
को बनाया है । उनका कहना था कि मनुष्य ने अपने सभी गुणों का सर्वोत्तम रूप कल्पित करके
उन्हें ईश्वर में निवेशित कर दिया । उनके अनुसार इसके कारण हम मानवीय गुणों को उनका
उचित दाय प्रदान नहीं कर पाते । मार्क्स ने कहा कि ‘धर्म की आलोचना
सारत: पूरी हो चुकी’ है । स्वाभाविक रूप
से धर्म की आलोचना उस समय की सत्ता की आलोचना भी थी क्योंकि वह सत्ता अपने आपको धर्मसम्मत
बताती थी । इसीलिए युवा हेगेलपंथियों की नास्तिकता इतनी खतरनाक मानी गई । बहरहाल मार्क्स
फ़ायरबाख के ही विश्लेषण से संतुष्ट नहीं हुए । उन्होंने सवाल उठाया कि आखिर मनुष्य
ने धर्म का आविष्कार ही क्यों किया । इसका उत्तर देने के क्रम में वे इस मान्यता तक
पहुँचे कि इस दुनिया की तकलीफों ने धर्म की कल्पना को जन्म दिया है इसलिए धर्म का उच्छेद
उन हालात के खात्मे से जुड़ा हुआ है जिन्होंने धर्म और ईश्वर की कल्पना को पैदा किया
। इसके बाद वे इस बात पर जोर देते हैं कि मार्क्स ने वास्तविक दुनिया को बदलने में
मनुष्य की भूमिका को उजागर करने के लिए अपने समय की दार्शनिक धाराओं का खंडन किया ।
उनके अनुसार मार्क्स हाब्स से लेकर फ़ायरबाख तक के भौतिकवाद की आलोचना इसलिए करते हैं
कि वह दुनिया को बदलने में मनुष्य की भूमिका को मंजूर नहीं करता तो दूसरी ओर हेगेल
में अपनी पूर्णता को पहुँचा हुआ भाववाद भी ऐतिहासिकता को स्वीकार करने के बावजूद समस्त
बदलाव को महज चिंतन के बदलाव तक सीमित कर देता है । हेगेल की तरह वे मानते हैं कि मनुष्य
अपने आपको और दुनिया को सांसारिक गतिविधि के जरिए बदलता है लेकिन उनके विपरीत कहते
हैं कि यह बदलाव महज चिंतन के क्षेत्र में नहीं बल्कि वास्तविक दुनिया में होता है
। इस गतिविधि का एक महत्वपूर्ण पहलू उत्पादक गतिविधि या श्रम है । अब श्रम का सवाल
ही उन्हें अलगाव की अमूर्त धारणा से उसके ठोस रूपों पर विचार करने की ओर ले जाता है
। श्रम के अलगाव के कारण मनुष्य अपने अस्तित्व को साकार नहीं कर पाता । श्रम के अलगाव
के कारण जो गतिविधि आनंद का स्रोत होनी चाहिए वही तमाम तरह की तकलीफों का स्रोत बन
जाती है । मेहनत करने वाला मनुष्य काम की स्थितियों के कारण अपनी मनुष्यता को खोकर
महज हाथ और पेट बनकर रह जाते हैं । श्रम माल में बदल जाता है जिसे बाज़ार में खरीदा
और बेचा जाता है । श्रमिक का जीवन ही मानो उसके अपने लिए नहीं बल्कि धनी मानी लोगों
की जरूरत के मुताबिक चलता हुआ प्रतीत होता है । मार्क्स ने श्रम के अलगाव को इस तरह
प्रस्तुत किया कि पूँजीवाद के तहत मनुष्य का सार उसके अस्तित्व से जुदा हो जाता है
। मार्क्स के अनुसार मनुष्य सारत: उत्पादक प्राणी होता है लेकिन
पूँजीवादी व्यवस्था में उसे अमानवीय स्थितियों में मेहनत करनी पड़ती है ।
इस अलगाव का पहला रूप यह है कि मनुष्य अपनी मेहनत
से पैदा हुई चीज से अलग कर दिया जाता है । मार्क्स के अनुसार जिस भी वस्तु के हम दर्शन
करते हैं वह मनुष्य की मेहनत के जरिए उस रूप में आई होती है । बात यह है कि संसार के
ऐसा होने के बावजूद हम उसे अपनी मेहनत का ही उत्पाद स्वीकार नहीं करते । इस तरह हम
अपनी ही बनाई दुनिया में अजनबी की तरह रहते हैं । ये वस्तुएँ सिर्फ़ पराई और रहस्य ही
प्रतीत नहीं होतीं बल्कि हम पर राज भी करने लगती हैं । मान लीजिए हम कहते हैं
‘बाज़ार की ताकतें’ और हमारी बनाई हुई चीज होने
के बावजूद हम उन्हें इस तरह समझते हैं मानो वे गुरुत्वाकर्षण की शक्ति जैसी कोई चीज
हों । इस तरह बाज़ार हम पर शासन करने लगता है ।
अलगाव का दूसरा रूप श्रम विभाजन से पैदा होता है
। इसके कारण श्रमिक समूची व्यवस्था को नहीं समझ पाता और अपनी जगह पर अपना काम यांत्रिक
तरीके से करता रहता है । इसके कारण मनुष्य मशीनी तरीके से एक ही काम बार बार करता रहता
है और उसकी सृजनात्मकता मारी जाती है । इसी से फिर मनुष्य प्रजाति के बतौर हमारे खास
गुणों या मानवता से हमारा अलगाव होता है । मनुष्य का अपना खास गुण है सामाजिक रूप से
उत्पादक गतिविधि । मार्क्स कहते हैं कि उत्पादन तो अन्य प्राणी भी करते हैं लेकिन मनुष्य
स्वतंत्रता पूर्वक अपनी मर्ज़ी के मुताबिक अनपहचाने रास्तों पर चलकर भी उत्पादन करता
है । उसके द्वारा उत्पादित वस्तुओं की विविधता अपार हो सकती है लेकिन पूँजीवाद के तहत
मनुष्य की यह उत्पादक आज़ादी मारी जाती है । मेहनत प्रसन्नता की बजाए तकलीफ बन जाती
है । मनुष्य की दूसरी विशेषता उत्पादन के मामले में बड़े पैमाने का सहयोग है । इसे सामान्य
रूप से हम नहीं महसूस करते लेकिन अगर दूसरे ग्रह से कोई आए तो उसे हमारे उत्पादन और
उपभोग में बहुत बड़ा सहकार दिखाई पड़ेगा । हजारों तरह की चीजों को बनाकर हम समूची दुनिया
में करोड़ों की संख्या में उसे इस्तेमाल करते हैं । मार्क्स का कहना है कि ये दोनों
ही विशेषताएँ पूँजीवादी उत्पादन पद्धति में नष्ट हो जाती हैं और मनुष्य अपनी विशेषता
खोकर अन्य प्राणियों की तरह हो जाता है । मनुष्य अपनी स्वतंत्रता का अनुभव काम करते
हुए नहीं काम खत्म हो जाने के बाद करता है ।
यह अलगाव दूसरे मनुष्यों से हमारे अलगाव के रूप
में भी सामने आता है । हम सामाजिक जीव के रूप में अपना अस्तित्व नहीं समझते बल्कि कमाने
और खर्च करने वाले प्राणी की तरह अपने आपको समझने लगते हैं । यह अलगाव यदि पहले मनुष्य
पर उसके ही बनाए ईश्वर के शासन के रूप में दिखाई पड़ता था तो पूँजीवादी व्यवस्था में
मुद्रा या पूँजी के शासन के रूप में दिखाई पड़ता है । पूँजी एक परदा हो जाती है जिसके
पीछे हम शायद ही कभी देखते हैं । यही मानव संबंधों को निरूपित करने लगती है । पूँजीवादी
समाज में लोग किसी को इसलिए प्यार नहीं करते क्योंकि वह प्यार करने लायक है बल्कि उसके
धनी होने पर उससे प्यार किया जाता है । किसी के प्रति श्रद्धा भी उसके गुणों की बजाए
उसके धनी होने पर उमड़ती है । जो काम दूसरों के प्रति लगाव के कारण किया जाना चाहिए
उन्हें पैसा लेकर किया जाने लगता है ।
इसके बाद वुल्फ़ मार्क्स के परिपक्व दर्शन की ओर
मुड़ते हैं और बताते हैं कि इसमें उनके शुरुआती विचारों का विस्तार है । वे
‘अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदान’ की भूमिका
के बतौर लिखी पंक्तियों को उठाते हैं और बताते हैं कि मार्क्स के अनुसार मानव इतिहास
बुनियादी तौर पर मनुष्य की उत्पादक शक्ति के विकास की कहानी है । आर्थिक संरचनाओं में
बदलाव भी इसी उत्पादक शक्ति के विकास में सहायक अथवा बाधक होने के आधार पर होता है
। किसी आर्थिक संरचना के इस विकास में बाधक बनते ही शासक वर्ग की समाज पर पकड़ कमजोर
पड़ने लगती है और सामाजिक क्रांति का दौर शुरू हो जाता है । कुल मिलाकर उक्त किताब में
मार्क्स के शुरुआती चिंतन के सिलसिले में ही कुछ नई बातें कही गई हैं । उनके बाद के
लेखन को व्याख्यायित करते हुए वे कोई नई बात नहीं करते ।
नई
सदी में द्वंद्ववाद
अमरीका
में आर्थिक मंदी का न सिर्फ़ असर सबसे गहरा पड़ा बल्कि मार्क्सवाद संबंधी नए चिंतन के
कुछ विंदु भी वहीं से उभरे । इन कोशिशों के
तहत न्यूयार्क विश्वविद्यालय के राजनीति के शिक्षक बर्तेल ओलमैन की लिखी हुई एक
पुस्तक ‘डांस आफ़ डायलेक्टिक्स: स्टेप्स इन मार्क्स’ मेथड’ 2003 में यूनिवर्सिटी आफ़
इलिनोइस प्रेस, अर्बाना और शिकागो से प्रकाशित हुई । इसके बाद इनके और टोनी स्मिथ के
संयुक्त संपादन में 2008 में पालग्रेव मैकमिलन से ‘डायलेक्टिक्स फ़ार द न्यू सेंचुरी’
का प्रकाशन हुआ । सबसे पहले इस बात पर जोर देना जरूरी है कि पेशे से अध्यापक होने और
मार्क्सवाद के प्रचार-प्रसार में रुचि होने के कारण ओलमैन की ये दोनों पुस्तकें अत्यंत
पठनीय और भावावेग से भरी हुई हैं । खासकर दूसरी किताब तो नई सदी में उठने वाले सवालों
के परिप्रेक्ष्य में मार्क्सवादी दर्शन पर गौर करती है और उसी तरह इन नवीन विषयों पर
मार्क्सवाद के आधिकारिक विद्वानों (जो सिद्धांत के साथ व्यवहार से भी जुड़े हैं) के
लिखे हुए सृजनात्मक लेखों को शामिल करती है ।
1990 में इन्हीं की एक किताब “मार्क्सिज्म: ऐन
अनकामन इंट्रोडक्शन” का प्रकाशन स्टर्लिंग पब्लिशिंग प्राइवेट लिमिटेड,
दिल्ली ने किया था जिसकी भूमिका रणधीर सिंह ने लिखी थी । भूमिका में
दी गई सूचना के मुताबिक ओलमैन के माता और पिता यूरोप से अमरीका आने वालों में थे और
सचमुच के कामगार थे । इसलिए मार्क्सवाद के साथ उनका जुड़ाव बौद्धिक मात्र नहीं है ।
विश्वविद्यालयी अध्यापन से जुड़े होने के बावजूद ओलमैन का मजदूर आंदोलन से सक्रिय संबंध
बना रहा है । इसी कारण उनकी प्रस्तुति में साधारण पाठक के लिए ग्राह्यता एक महत्वपूर्ण
तत्व है । 1990 वाली यह किताब अलग ही तरह की किताब है । इसमें अन्य चीजों के अलावा
मार्क्सवाद के अध्यापन का एक आदर्श पाठ्यक्रम भी प्रस्तुत किया गया है । किताब के सबसे
महत्वपूर्ण लेख में साम्यवाद के संबंध में मार्क्स-एंगेल्स के
संभावित सपने का खाका खींचने की कोशिश की गई है । जहां अन्य विद्वान इस पहलू पर मार्क्स
के विचारों की चर्चा करने से बचते हैं क्योंकि स्वाभाविक रूप से मार्क्स के सामने यह
कोई फ़ौरी सवाल नहीं था । लेकिन इसके बारे में सफाई देते हुए ओलमैन कहते हैं कि अक्सर
निहित स्वार्थों के चलते भी सामाजिक-ऐतिहासिक संभावनाओं को
‘यूटोपिया’ कहकर उन्हें असंभव स्वप्न की तरह पेश
किया जाता है । वस्तुओं और ज्ञान के उत्पादन तथा कौशल में बढ़ोत्तरी के चलते अतीत के
यूटोपियाओं को रोजमर्रा की चीज बना दिया है इसीलिए साम्यवादी समाज को भी संभावना मानकर
उस पर बात की जा सकती है । साम्यवादी समाज के मार्क्स के खाके को खड़ा करने में ओलमैन
ने पूरी तरह मार्क्स के कथनों का ही सहारा लिया है ।
मार्क्स ने साम्यवादी भविष्य को दो हिस्सों में
बांटा है । पहले चरण को आम तौर पर ‘सर्वहारा की तानाशाही’
और दूसरे को ‘पूर्ण साम्यवाद’ कहा गया है । पहला चरण पूंजीवादी समाज के साम्यवादी समाज में क्रांतिकारी रूपांतरण
की अवधि है । इस अवधि में साम्यवादी समाज अभी अपनी ही बुनियाद पर नहीं खड़ा होता बल्कि
जिस पूंजीवादी समाज के गर्भ से पैदा होता है हरेक मामले में उसके जन्म चिन्ह लिए हुए
होता है । इसकी कोई निश्चित अवधि का संकेत मार्क्स ने नहीं किया है लेकिन इसकी समाप्ति
के बाद क्रमश: दूसरा चरण शुरू हो जाता है । कम्युनिस्ट घोषणापत्र
में उन्होंने पूंजीवाद को हराने के बाद मजदूर पार्टियों के लिए तुरंत करणीय दस कदम
गिनाए हैं । उन्होंने माना है कि अलग अलग देशों में ये कदम भिन्न होंगे लेकिन विकसित
देशों में आम तौर पर लागू हो सकते हैं । इन कदमों का मकसद बुर्जुआजी से सारी पूंजी
छीनकर उत्पादन के सभी उपकरणों को राज्य के हाथ में केंद्रित करना और तीव्रतम संभव गति
से सारी उत्पादक शक्तियों का विकास करना है । इनमें से पहला कदम जमीन पर निजी मालिकाने
का खात्मा और समस्त किराए को सार्वजनिक उद्देश्य में लगाना है । इसे कई बार किसान के
ऊपर हमले के रूप में समझा गया है लेकिन ओलमैन के अनुसार इसका अर्थ जमीन के मालिक छोटे
किसानों से नहीं बल्कि अनुपस्थित मालिकों से है । इनके लिए तो असल में बिना डराए ऐसा
माहौल तैयार करना है जिसमें वे स्वेच्छा से जमीन के समूहीकरण के लिए राजी हो जाएं ।
इस दौर में आय में असमानता आर्थिक आवश्यकता होने के बावजूद सामाजिक रूप से अवांछनीय
रहेगी इसलिए प्रगतिमान आयकर के जरिए इसे न्यूनतम स्तर पर रखने की कोशिश की जाएगी ।
निजी आय में अंतर दुखद तो है लेकिन अनिवार्य है जबकि पारिवारिक आमदनी में फ़र्क पूरी
तरह से अस्वीकार्य है इसलिए विरासत का अधिकार खत्म करना होगा । व्यक्ति को उसी कमाई
पर अधिकार होगा जो वह खुद कमाएगा । प्रतिक्रांतिकारी बुर्जुआ समुदाय का सबसे बड़ा दंड
उसकी संपत्ति को जब्त करना होगा । कर्ज़ केवल राज्य ही दे सकेगा जिससे अर्थतंत्र को
निर्देशित करने की ताकत चंद धन्नासेठों के हाथ में न रह जाए । असल में कर्ज़ को नियंत्रित
करने के जरिए अर्थतंत्र को दिशा देने की आशा अपने आपमें प्रत्यक्ष दंड पर कम जोर देने
की मांग है । संचार और परिवहन का राज्य के हाथ में केंद्रीकरण भी सामाजिक जरूरत के
मुताबिक इन्हें ढालने की कोशिश के लिए जरूरी है । खेती और उद्योग का नियोजित विकास
ही प्रकृति से सहयोगमूलक दोहन का रास्ता तैयार करेगा । काम न करने के विशेषाधिकार को
खत्म करना श्रम के प्रति भेदभावपरक नजरिए के खात्मे के लिए जरूरी है । मानसिक और शारीरिक
श्रम के बीच भेदभावपरक अंतर की तरह ही मार्क्स की निगाह में खेती और उद्योग तथा शहर
और देहात के बीच अंतर को खत्म करना भी नए राज्य का प्रमुख दायित्व होना चाहिए । सभी
बच्चों के लिए मुफ़्त शिक्षा, कारखाने से बाल श्रम का खात्मा और
शिक्षा के साथ उत्पादक श्रम को जोड़ना बच्चे के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक है । संक्रमण के इस दौर में राज्य का चरित्र
‘सर्वहारा की डिक्टेटरशिप’ होगा । इस शब्द को लेकर
तकरीबन हरेक लेखक को सफाई देनी पड़ी है । ओलमैन का कहना है कि डिक्टेटर का अर्थ मार्क्स
के लिए प्राचीन रोम में प्रयुक्त अर्थ था जिसका मतलब संकट के समय सीमित अवधि के लिए
खास कार्यभार के लिए डिक्टेटर चुनने का सांविधानिक प्रावधान था । असल में ब्लांकी द्वारा
आगामी मजदूर राज्य के संगठन के सिलसिले में प्रस्तुत अभिजातवादी विचार के विरोध में
मार्क्स ने इस धारणा का इस्तेमाल किया था जिसका अर्थ खेत मजदूर समेत समस्त मजदूर वर्ग
का लोकतांत्रिक शासन है । शासन की इस पद्धति को संक्रमण के समय तक ही सीमित रहना था
। इसके बाद वे पेरिस कम्यून को सर्वहारा की तानाशाही को मार्क्स द्वारा आदर्श मानने
और पेरिस कम्यून के लोकतांत्रिक स्वरूप की चर्चा करते हैं । पेरिस कम्यून में सभी अधिकारियों
के चुनाव के प्रावधान के सिलसिले में एक सवाल उठता है कि जनता सही लोगों का चुनाव करेगी
इसकी क्या गारंटी है । मार्क्स को लगा कि अगर पूंजीवादी ब्रेन वाशिंग न हो तो लोकप्रिय
नियंत्रण जनता के हितों के प्रतिनिधित्व की गारंटी कर सकेगा । चलिए लोग तो सही आदमी
का चुनाव करेंगे लेकिन चुने हुए लोगों के सही बने रहने का रास्ता क्या होगा । बाकुनिन
की किताब ‘स्टेट एंड अनार्किज्म’ पर लिखी
टिप्पणियों से प्रतीत होता है कि मार्क्स को यकीन था कि सरकार के लोगों के हित उन वर्गों
के ज्यादा विरोध में नहीं होते जिन वर्गों से वे आते हैं । यानी सर्वहारा प्रतिनिधि
मजदूर वर्ग का प्रतिनिधित्व करेंगे और अगर कोई गड़बड़ी करेंगे तो प्रतिनिधि वापसी के
जरिए उन्हें दुरुस्त किया जाएगा । यह भी लगता है कि मार्क्स की निगाह में एक देश में
साम्यवाद नहीं आना था, दुनिया के पैमाने पर पूंजीवाद की तरह उसकी
मौजूदगी ही उसे आत्मनिर्भर व्यवस्था बना सकेगी । जिस तरह नए समाज के राजनीतिक रूप का
मार्क्स का विवरण सामान्य और अपूर्ण है उसी तरह उसके आर्थिक जीवन का भी विवरण अधूरा
ही है । कारखानों में क्रांति के फलस्वरूप काम के हालात में सुधार होगा । काम को सबसे
पहले सहनीय, फिर रुचिकर और अंतत: मानवीय
बनाना इन सुधारों का लक्ष्य होगा । काम के घंटे कम करना यानी अवकाश को मूल्यवान समझना
होगा । उत्पादन के क्षेत्र में भी योजना का महत्व मार्क्स समझते हैं और साम्यवादी योजना
का मकसद ‘सामाजिक जरूरतों’ की संतुष्टि
बताते हैं । किसी वस्तु का कितना उत्पादन होगा इसका फ़ैसला योजना बनाने वाले सामाजिक
जरूरत, उपलब्ध श्रम काल और उत्पादन के साधनों के मद्दे नजर करेंगे
। इस दौर में वितरण के सवाल पर मार्क्स कहते हैं कि सामाजिक उत्पाद में से व्यक्तियों
को उनका हिस्सा देने से पहले समाज उत्पादन के प्रयुक्त साधनों की जगह नए साधनों की
कीमत, उत्पादन के विस्तार के लिए अतिरिक्त हिस्सा तथा दुर्घटना,
प्राकृतिक आपदा आदि की स्थिति में चुकाई जाने वाली रकम इत्यादि की कटौती
कर लेगा । ये कटौतियां पूंजीवाद के मुकाबले ज्यादा होंगी । इसके बाद भी उत्पादनेतर
प्रशासन की लागत (इसमें नए समाज के विकास के साथ ही कमी आएगी),
स्कूल या स्वास्थ्य जैसी सामान्य जरूरतों की आपूर्ति और अक्षम लोगों
के लिए राहत पर कटौती होगी । प्रशासन की लागत में कमी आने की आशा से लगता है कि प्रशासन
की जरूरत लंबे दिनों के लिए मार्क्स भी महसूस करते थे । इतनी सारी कटौतियों के बावजूद
मजदूर को जितना मिलेगा वह पूंजीवादी व्यवस्था के तहत आमदनी से ज्यादा होगा क्योंकि
पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजिपतियों, जमींदारों, फ़ौजी अफ़सरों, नौकरशाहों और विभिन्न उद्यमों में जाने
वाला धन सबके बीच वितरित होगा । कल्याणकारी राहत इसके अतिरिक्त प्राप्त होगी । इस दौर
में लोगों को वही प्राप्त होगा जो वे समाज को देंगे । इसकी गणना श्रम-काल में होगी । इस दौर में धन की बजाए मार्क्स के शब्दों में ‘सर्टिफ़िकेट’ और ‘वाउचरों’
का इस्तेमाल होगा । उनके अनुसार ये वाउचर धन नहीं हैं क्योंकि उनका परिचालन
नहीं होगा । इस तरह मजूरी के नकद भुगतान की ताकत और चलन के खात्मे से मुद्रा प्रणाली
को समाप्त किया जाएगा । श्रम-काल का यह मानक सिर्फ़ इस अर्थ में
समान होगा कि गणना का आधार समाज को प्रदत्त श्रम होगा लेकिन श्रम की अवधि और सघनता
के मामले में तो असमान ही होगा ।
साम्यवाद के प्रथम चरण की समाप्ति
के साथ ही साम्यवाद का दूसरा चरण क्रमश: प्रकट होगा
। इसमें पूंजीवाद के अवशेष लोगों की मानसिकता के साथ ही उनके आचरण से भी समाप्त हो
गए होंगे इसलिए सर्वहारा डिक्टेटरशिप की जरूरत नहीं रह जाएगी । पूंजीवाद द्वारा छोड़ी
गई तथा प्रथम चरण में कई गुना बढ़ाई गई समृद्धि के चलते यह समय सामग्री वस्तुओं की प्रचुरता
का समय होगा । बंजर जमीन में खेती शुरू हो गई होगी । कारखानों में काम करना सुखद हो
गया होगा । शिक्षा के पुनर्गठन के चलते सबको कारखाने और कक्षा में प्रशिक्षण दिया जा
रहा होगा । यह सब साम्यवाद की बुनियाद बनेगा । तो साम्यवाद कैसा होगा ? इस विषय को ओलमैन 6 विंदुओं के रूप में प्रस्तुत करते
हैं – 1) श्रम विभाजन खत्म हो गया होगा इसलिए जो जिस भी काम को
जरूरी समझेगा उसे करने में सक्षम होगा । 2) काम, उपभोग, और अवकाश के वक्त दूसरों के साथ और दूसरों के
लिए काम व्यक्ति के जीवन का ज्यादातर हिस्सा होगा । 3) जमीन से
लेकर समुद्र और भोजन तक सब कुछ सामाजिक स्वामित्व के मातहत होगा । 4) समूची दुनिया मनुष्य के मकसद के लिए सचेत तौर पर उत्पादित वस्तुओं से बनी होगी
। प्राकृतिक शक्तियों के ज्ञान और उन पर नियंत्रण के जरिए मनुष्य अपने भाग्य का निर्धारण
खुद ही करेगा । 5) लोगों की गतिविधियों को संगठित करने के लिए
बाहरी ताकत की जरूरत नहीं होगी । 6) राष्ट्र, नस्ल, धर्म, रिहायश, पेशा, वर्ग और परिवार पर आधारित सभी मानव विभाजन खत्म
हो जाएंगे । ओलमैन के मुताबिक ये सभी अलग अलग खंड नहीं बल्कि अखंड समग्र का निर्माण
करते हैं अर्थात ऐसा नहीं कि इनके प्रकटीकरण में कोई पूर्वापर क्रम होगा बल्कि ये एक
ही साथ सामने आएंगे और तभी सच्चे वर्गविहीन, शोषणमुक्त साम्यवादी समाज का जन्म होगा
जिसमें अलगाव का पूरी तरह से खात्मा हो जाएगा और मनुष्य को उसका मानवीय सार हासिल हो
जाएगा । इसी तरह मनुष्य का समाजीकरण और समाज का मानवीकरण होगा । मार्क्स की पूंजीवाद
की व्याख्या और उसके विश्लेषण का असली उद्देश्य उसके इसी वैपरीत्य की प्रस्तुति है
। अंत में ओलमैन तीन बातों को दिशा निर्देश की तरह कहते हैं- 1) पूंजीवाद की धारणा
सामाजिक संबंधों के अर्थ में बनानी होगी । 2) आज के पूंजीवाद की मार्क्सवादी व्याख्या
को परवर्ती उन्नीसवीं सदी के पूंजीवाद के मार्क्स के विश्लेषण से मिलाना होगा । 3)
साम्यवाद को अनिवार्य नहीं बल्कि वर्तमान के विकास की अंतर्निहित स्थितियों पर आधारित
संभावना के बतौर पेश करना होगा । वैसे भी साम्यवाद का विरोध उसे असंभव आदर्श कहकर ही
किया जाता है । साम्यवाद को पूंजीवाद का संभावित वारिस साबित करके उसे साकार करने में
मदद करने के लिए लोगों को समझाया जा सकता है ।
मार्क्सवाद और समाजवाद
इसके बाद महत्वपूर्ण किताब रणधीर सिंह की एक वृहदाकार
(तकरीबन 1100 पृष्ठों की) पुस्तक ‘क्राइसिस आफ़ सोशलिज्म’ थी जो 2006 में अजंता बुक्स इंटरनेशनल द्वारा प्रकाशित
हुई थी । इसमें एक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी द्वारा समाजवाद में संकट की बजाए समाजवाद
के संकट पर विचार किया गया था । भूमिका में लेखक ने स्वीकार किया है कि इस पुस्तक को
एक दशक पहले ही प्रकाशित हो जाना चाहिए था क्योंकि तब इस विषय पर बहस चल रही थी लेकिन
उस समय भी लेखक ने छिटपुट लेखों के जरिए वे बातें प्रस्तुत की थीं जो इसमें विस्तार
से दर्ज की गई हैं । पुस्तक के लिखने में हुई देरी की वजह बताते हुए उन्होंने लिखा
है कि उन्हें आशा थी कि कोई न कोई इस काम को ज्यादा तरतीब से करेगा और उनकी उम्मीद
पूरी हुई क्योंकि इसी बीच इस्तवान मेज़ारोस की किताब ‘बीयांड कैपिटल-टुवार्ड्स ए थियरी आफ़ ट्रांजीशन’ प्रकाशित हुई जिससे
उन्होंने काफी मदद ली । लेकिन यह रणधीर सिंह की विनम्रता है क्योंकि उनकी किताब का
स्वतंत्र महत्व है । मेज़ारोस के काम को हम थोड़ा रुककर देखेंगे ।
पुस्तक के शीर्षक से ही स्पष्ट है कि इसमें समाजवादी
निर्माण की समस्याओं पर मार्क्सवादी नजरिए से बात की गई है । इस बात पर जोर देना इसलिए
भी जरूरी है क्योंकि मार्क्सवाद के प्रति सहानुभूति जताने वाले ऐसे भी लोग पैदा हो
गए हैं जो किसी स्वप्निल मार्क्सवाद की रचना करके समाजवादी निर्माण के सभी प्रयासों
को मार्क्सवाद से विचलन साबित करने लगते हैं । किताब में बल्कि इस तरह के प्रयासों
का खंडन ही किया गया है शायद इसीलिए इसका उपशीर्षक ‘नोट्स इन डिफ़ेंस
आफ़ ए कमिटमेंट’ है यानी किताब एक प्रतिबद्धता के पक्ष में है
। किताब वैसे तो सोवियत संघ के पतन के शुरुआती प्रभाव के विवेचन से शुरू होती है लेकिन
इस किताब का दूसरा अध्याय ‘आफ़ मार्क्सिज्म आफ़ कार्ल मार्क्स’ पहले ही एक पुस्तिका
के रूप में छपा था इसलिए सबसे पहले वहीं से । अपनी बात वे यहाँ से शुरू करते हैं कि
सोवियत संघ के पतन को मार्क्सवादी सिद्धांत के एक विशिष्ट व्यवहार की असफलता के बतौर
देखा और समझा जाना चाहिए न कि इसे समाजवाद और पूँजीवाद के बीच जारी जंग का अंतिम समाधान
मान लेना चाहिए । इस बात पर लेखक ने इसलिए भी जोर दिया है क्योंकि रोज रोज सोवियत संघ
के पतन को समाजवाद या मार्क्सवाद की असफलता बताने के प्रचार के चलते क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं
और बुद्धिजीवियों में भ्रम और संदेह फैलता है । यहाँ तक कि जो लोग इसे सिद्धांत के
बतौर कारगर मानते थे वे भी सामाजिक प्रोजेक्ट के बतौर इसका कोई भविष्य स्वीकार नहीं
करते और सिद्धांत तथा व्यवहार के बीच ऐसी फाँक पैदा करने की कोशिश करने लगे जैसी फाँक
मार्क्सवाद में कभी थी ही नहीं ।
पुस्तक का मुख्य विषय न होने के बावजूद लेखक को
मार्क्सवाद पर विचार करना पड़ा । वे जोर देते हैं कि मार्क्स ने अन्य दार्शनिकों की
तरह चिंतन का कोई अंतिम ढाँचा नहीं निर्मित किया क्योंकि वे
‘दार्शनिक’ या ‘समाजशास्त्री’
होने की बजाए क्रांतिकारी थे । उनका सैद्धांतिक काम एक असमाप्त प्रोजेक्ट
है । अन्य विषयों (हेगेल के दर्शन, राजनीतिशास्त्र
या राज्य, द्वंद्ववाद या पद्धति) पर प्रस्तावित
काम की तो बात ही छोड़िए, खुद अर्थशास्त्र संबंधी काम में भी काफी
कुछ बकाया रह गया था जिसे कुछ हद तक एंगेल्स ने निपटाया । रणधीर सिंह के मुताबिक इसके
कारण भी मार्क्सवाद की ऐसी समझ बनती है मानो वह समाज को केवल आर्थिक नजरिए से देखता
हो । यहाँ तक कि उनके लेखन में सब कुछ एक ही तरह से महत्वपूर्ण नहीं है । उन्हें बहुत
सारा लेखन तात्कालिक दबाव में भी करना पड़ा था इसलिए उनके गंभीर काम को अलग से पहचानना
चाहिए । उनके चिंतन में विकास भी हुआ है इसलिए शुरुआती और बाद के कामों का महत्व एक
जैसा ही नहीं है । वे कहते हैं कि मार्क्स के चिंतन में अर्थशास्त्र से ज्यादा महत्वपूर्ण
राजनीति है । आर्थिक ढाँचे का विश्लेषण तो वे व्यवस्था के उस आधार को समझने के लिए
करते हैं जिसे क्रांतिकारी राजनीतिक व्यवहार के जरिए बदला जाना है । आर्थिक पहलू पर
मार्क्स के जोर को हेगेल के भाववादी दर्शन के विरुद्ध उनके संघर्ष के परिप्रेक्ष्य
में भी देखा जाना चाहिए । मार्क्स ने खुद ही अपनी सीमाओं को रेखांकित किया है । उनका
लेखन उन्नीसवीं सदी में और ‘दुनिया के एक छोटे से कोने-
यूरोप’ में हुआ । रूस के एक संपादक को लिखी चिट्ठी
में उन्होंने स्वीकार किया कि “‘पूँजी’ पश्चिमी यूरोप में पूँजीवाद की उत्पत्ति की मेरे द्वारा प्रस्तुत रूपरेखा है
।” वुल्फ़ ने जिस तरह पर्यावरणीय पहलू पर मार्क्स की कमी का संकेत
किया था उसी तरह रणधीर सिंह ने भी उसे रेखांकित किया है लेकिन उनका कहना है कि इन सबके
बावजूद एक भरपूर मार्क्सवादी सिद्धांत के बारे में सोचा जा सकता है ।
इस नाते रणधीर सिंह मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धांतो
को सूत्रबद्ध करते हुए कहते हैं कि भौतिकवाद और द्वंद्ववाद को जिस तरह मार्क्स और एंगेल्स
ने समझाया उसे ‘आधिकारिक’ ‘द्वंद्वात्मक
भौतिकवाद’ से अलग करके देखना होगा । इसके अनुसार यह दुनिया विकासमान
और परिवर्तनशील संदर्भों, संबंधों, अंतर्विरोधों
और प्रक्रियाओं का जटिल, बहुस्तरीय समुच्चय है जो अंतर्विरोधों
और टकरावों, अनेक बार अक्सर अंतर्विरोधी घटकों की अंत:क्रिया और आपसी निर्भरता के जरिए विकसित होती है । दुनिया के विकास की इस तस्वीर
में न सिर्फ़ परिमाणात्मक बदलाव बल्कि गुणात्मक छलांगें, रूपांतरण
और प्रतिरूपांतरण भी समाहित हो जाते हैं जिनमें यथार्थ संरक्षित रहता है और उसे अतिक्रमित
भी किया जाता है । मार्क्स का दर्शन पूँजीवाद के यथार्थ को इस तरह विश्लेषित करता है
कि वह हमें उसके आगे समाजवाद की ओर जाने की राह दिखाता है । मार्क्स की किताब
‘पूँजी’ उनकी पद्धति के प्रयोग का सबसे बेतरीन
नमूना है । इसमें वे आभास से यथार्थ की ओर, रूप से अंतर्वस्तु
की ओर, तात्कालिक बाहरी रिश्तों से गहरे अंदरूनी अंतर्संबंधों
की ओर जाते हैं और पूँजीवाद की ‘छिपी हुई संरचना’ और ‘आंतरिक मनोविज्ञान’ की खोज
करते हैं ताकि उसकी उत्पत्ति और कार्यपद्धति की व्याख्या की जा सके । उनकी पद्धति की
प्रामाणिकता इसी बात से सिद्ध है कि उनकी व्याख्या अब भी वैध बनी हुई है ।
ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या करते हुए रणधीर
सिंह बताते हैं कि ‘उत्पादन पद्धति को महज व्यक्तियों
के भौतिक अस्तित्व के पुनरुत्पादन के बतौर नहीं समझा जाना चाहिए । इसकी बजाए वह उनके
जीवन की अभिव्यक्ति का निश्चित रूप, उनकी खास तरह की जीवन पद्धति
है ।’ मार्क्स उत्पादन के सामाजिक संबंधों को ‘आधार’ मानते हैं और इस तरह ऐतिहासिक प्रक्रिया में वर्ग
संघर्ष की केंद्रीयता की प्रस्तावना कर देते हैं । ‘उत्पादन के
हालात के मालिकों का प्रत्यक्ष उत्पादकों के साथ सीधा संबंध---समूची सामाजिक संरचना की छुपी हुई बुनियाद, उसका गहनतम
रहस्य है ।’ वैसे तो सामाजिक जीवन और इतिहास की तथाकथित आर्थिक
व्याख्या प्लेटो से ही प्रचलित रही थी । मार्क्स की विशेषता यह है कि वे समाज और सामाजिक
संरचना को अलग अलग हिस्सों, कारकों, स्तरों
या उदाहरणों का जमाजोड़ या मिश्रण नहीं मानते थे । यह एक जटिल और विभेदीकृत
‘संपूर्णता’, विभिन्न हिस्सों की ऐतिहासिक रूप
से निर्मित आपसी निर्भरता है जिसमें से लंबे दिनों में एक हिस्से यानी अर्थतंत्र के
क्षेत्र के अंतर्विरोध को प्रमुखता प्राप्त होती है (प्रमुख या
संरचनागत अंतर्विरोध जिसके साथ ही विभिन्न हिस्सों के अंदरूनी और आपसी अंतर्विरोध भी
मौजूद होते हैं) । ये ही उसकी गति, उसके
ठोस रूप से अतिनिर्धारित ऐतिहासिक विकास के लिए जिम्मेदार होते हैं जिसमें संपूर्णता
हिस्सों के जरिए रूपायित और अभिव्यक्त होती है तथा हिस्से संपूर्ण की छाप का वहन और
प्रतिनिधित्व करते हुए भी अपनी अंतर्संबद्धता में वह खास किस्म की एकता बनाते हैं जिसे
एक खास समाज या सामाजिक संरचना कहा जा सकता है । निर्धारण का अर्थ मार्क्स की अपनी
सोच के हिसाब से विभिन्न प्रक्रियाओं के बीच संवाद अधिक महसूस होता है । इसके बावजूद
यह कहना ही होगा कि समाज में आर्थिक पहलू पर जोर ही वह चीज है जो मार्क्सवाद को पारंपरिक
समाजशास्त्र से अलगाती है ।
इसके बाद वे ऐतिहासिक भौतिकवाद के ही अंग के बतौर
वर्ग की धारणा का जिक्र करते हैं जो न केवल ऐतिहासिक प्रक्रियाओं की व्याख्या के लिए
जरूरी है बल्कि मानव मुक्ति की संभावना के लिए भी प्रासंगिक है । राजनीति की समझ के
लिए भी वर्ग संघर्ष के गतिविज्ञान पर पकड़ होनी चाहिए । क्रांतिकारी राजनीति के लिए
तो जरूरी है ही । लेकिन यह भी किसी किस्म के अपघटन से मुक्त धारणा है क्योंकि मार्क्स
पूँजीवाद के खात्मे के लिए सर्वहारा वर्ग के साथ अन्य विक्षुब्ध तबकों को भी एकताबद्ध
करने की बात करते हैं । क्रांतिकारी प्रक्रिया में किसानों या निम्न पूँजीपति वर्ग
की भूमिका के प्रसंग में यह बात मार्क्स के लेखन में एकाधिक जगहों पर दिखाई पड़ती है
। आप कह सकते हैं कि मार्क्स ने मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी भूमिका पर कुछ ज्यादा ही
जोर दिया था । कारण चाहे जो भी हों सही बात है कि यूरोप के मजदूर वर्ग से उन्हें जो
उम्मीदें थीं उन पर वह खरा नहीं उतरा लेकिन रूस की क्रांति ने मजदूर वर्ग में उनके
विश्वास की रक्षा की । मजदूर वर्ग की संरचना में काफी बदलाव आए । आर्थिक वैश्वीकरण
और तकनीकी बदलावों ने पूँजी की राजनीतिक ताकत में इजाफ़ा किया और मजदूर वर्ग को कमजोर
किया । इसके बावजूद सही बात तो यही है कि विश्व पूँजीवाद के साथ लड़ाई में मजदूर वर्ग
की निर्णायक भूमिका स्वीकार करनी होगी और समाजवाद में आज भी वास्तविक रुचि मजदूर वर्ग
ही ले रहा है । मार्क्स के मुताबिक पूँजीवाद के सताए हुए वर्ग ही समाजवाद के लिए संघर्ष
में अग्रणी भूमिका निभाएंगे । असल में मार्क्स के समूचे लेखन और चिंतन के केंद्र में
पूँजीवाद का आलोचनात्मक विश्लेषण है जिसके अनुसार उसका पूरी दुनिया में विस्तार होना
है, सारी दुनिया में पूँजी का प्रभुत्व होना है । आदिम
पूँजी संचय की प्रक्रिया के जरिए एक ओर अकूत ऐश्वर्य और दूसरी ओर चरम दरिद्रता के सृजन
का इसका संरचनागत तर्क अपने आपको सभी समाजों में व्यक्त करता है । इस विश्लेषण में
नैतिक रोष है, जन्म से लेकर विस्तार के समूचे दौर में उसके मानव
विरोधी होने को रेखांकित किया गया है, यहाँ तक कि उसको
‘बर्बर’ बताया गया है ।
यह बात सही है कि मार्क्स ने वृद्धि और विकास की
पूँजीवाद की क्षमता को कम करके आँका लेकिन उसकी कार्यपद्धति का उनका वर्णन आँख खोलने
वाला है । उनकी यह बात आज भी सही है कि पूँजीवाद सारत:
अतार्किक व्यवस्था है और इसका तार्किक निषेध समाजवाद ही है । अगर मार्क्सवाद
विज्ञान है तो क्रांति का विज्ञान है । यह केवल क्रांति की बात ही नहीं करता इसमें
क्रांति के प्रति निष्ठा भी शामिल हैं जो मार्क्स के अनुसार ‘स्वतंत्र मनुष्य के सम्मान के पक्ष में सभी दिलों का रूपांतरण और सभी हाथ उठाने
की क्रिया’ है । मार्क्स के लिए क्रांति दिल और दिमाग दोनों का
मसला है । वे ऐसे समाज का सपना देखते थे जहाँ ‘हरेक का स्वतंत्र
विकास सबके स्वतंत्र विकास की पूर्वशर्त’ होगा । आजकल मार्क्स
के इस सपने से उनके सिद्धांत को अलग करके उन्हें सामान्य मानववादी दार्शनिक में बदला
जा रहा है । सभी जानते हैं कि क्रांति के प्रति अपनी निष्ठा के चलते उन्हें जीवन भर
कष्ट उठाने पड़े । इसी निष्ठा के चलते उन्होंने फ़्रांस के मजदूरों को क्रांति शुरू न
करने की सलाह दी लेकिन जब क्रांति फूट पड़ी तो उसका खुलकर स्वागत किया । उन्होंने अराजक
विद्रोहियों की मुखालफ़त की लेकिन अपनी ही पार्टी के उन समाजवादियों की भी आलोचना की
जो ‘पुलिस की इजाजत की हदों में ही रहकर काम करते’ थे । अगर उन्होंने भूलें कीं तो उनकी भूलें ऐसे लोगों के निर्भूल होने से बेहतर
थीं जो बिना कुछ किए सभी आंदोलनों की भूलें गिनाते रहते हैं ।
मार्क्सवाद के बारे में इस आरंभिक पीठिका के बाद
वे यह बताते हैं कि एक हद तक ‘यूटोपियन’
होने के बावजूद मार्क्स कहीं भी भविष्य के समाज के बारे में कोई खाका
नहीं खींचते । वे यही कहते हैं कि उस समय के लोग उस समय की समस्याओं का समाधान करेंगे
। उन्होंने तो यह भी कहा कि ‘हमारे लिए साम्यवाद कोई ऐसा आदर्श
नहीं है जिसके अनुसार यथार्थ अपने आपको समायोजित करे ।’ उनके
मुताबिक समाजवाद किसी अध्ययन कक्ष में नहीं बनेगा बल्कि समाज की वास्तविक हलचलों या
ऐतिहासिक प्रक्रियाओं से उपजेगा । पूँजीवाद की मार्क्स की आलोचना का केंद्रीय तत्व
उत्पादकों से अतिरिक्त मूल्य का अधिग्रहण का तरीका है । इसलिए समाजवाद का मतलब महज
पूँजीवादी शोषण, अतिरिक्त मूल्य के अधिग्रहण से मुक्ति नहीं है
। यह सब जरूरी तो है लेकिन सब कुछ नहीं है । उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व का
खात्मा और उस पर सामाजिक स्वामित्व तो न्यूनतम शर्त है । इससे तो महज शुरुआत होनी होगी
। लेकिन इस नए समाज में भी पूँजीवादी व्यवस्था के ‘जन्म चिन्ह’
बने रहेंगे । उन्हें हल करना उनका कर्तव्य होगा जो उस व्यवस्था में होंगे
और मार्क्स को भरोसा था कि वे हमसे उन्नत होंगे क्योंकि हम तो वर्ग विभाजित समाज की
पैदाइश हैं । समाजवाद की ओर संक्रमण की समस्याओं पर भी मार्क्स ने बहुत ध्यान नहीं
दिया । एक बात लेकिन जरूर उनके लेखन से निकलकर आती है कि समाजवाद एक संक्रमणकालीन अवस्था
होगा जो मनुष्य को साम्यवाद की ओर ले जाएगा । वे इस बात पर बल देते हैं कि समाजवाद
को पूँजीवाद की तरह अलग किस्म का समाज नहीं मानना चाहिए । ऐसा समाज तो साम्यवाद ही
होगा । समाजवाद एक तरह से साम्यवाद की निचली मंजिल हो सकता है । उसे हरेक मामले में
पूँजीवाद से भिन्न होना होगा । उसके तहत संपत्ति संबंधों का आमूलचूल रूपांतरण होगा,
उत्पादन का मकसद निजी मुनाफ़ा नहीं होगा, अर्थतंत्र
पर सिर्फ़ कानूनी नहीं बल्कि वास्तविक सामाजिक नियंत्रण होगा, मानव कल्याण के लिए सामाजिक-भौतिक संसाधनों का जनवादी
तरीके से नियोजन होगा । मार्क्स की पूँजीवाद की आलोचना के पीछे मनुष्य के प्रति उनका
लगाव है इसलिए समाजवादी समाज को मनुष्य की क्षमता का भरपूर विकास कर सकने वाली व्यवस्था
होना होगा । पूँजीवाद मूलत: गलाकाट प्रतियोगिता पर आधारित समाज
है जो सिर्फ़ पूँजी के मालिकों के बीच ही नहीं होती वरन वह मनुष्य को भी उसकी अंतर्निहित
सामाजिकता के बावजूद लालची और ईर्ष्यालु बना देता है इसलिए इसके उलट समाजवाद को भाईचारा
का आधान बनना होगा । उसी व्यवस्था में मनुष्य सही तौर पर सामाजिक मनुष्य होगा । मनुष्य
अनिवार्यता की दुनिया से स्वतंत्रता की दुनिया की ओर प्रस्थान करेगा ।
समाजवाद की ओर यह संक्रमण दीर्घकालीन होगा । इस
दौरान के अर्थतंत्र को लेकर अगर मार्क्स ने महज कुछ सूत्र ही दिए तो राजनीतिक ढाँचे
को लेकर और भी कम कहा लेकिन एक पद ‘सर्वहारा की तानाशाही’
को लेकर बहुत विवाद हुए इसलिए उसके बारे में कुछ बातें रणधीर सिंह ने
कीं । पहली बात तो यह कि यह सारभूत सामाजिक अंतर्वस्तु के संबंध में दिया गया वक्तव्य
है, संक्रमणकालीन समाजवादी समाज में राजनीतिक सत्ता के वर्ग चरित्र
का स्पष्टीकरण है क्योंकि मार्क्स की नजर में लोकतांत्रिक रूप से गठित होने के बावजूद
बुर्जुआ समाज में राज्य ‘बुर्जुआ की तानाशाही’ ही है । यहाँ सर्वहारा तानाशाही को लोकतंत्र का विरोध नहीं समझना चाहिए बल्कि
बुर्जुआ तानाशाही का विरोध समझना चाहिए । वैसे भी मार्क्स ‘राज्य’
को ‘सरकारी मशीनरी’ से अलग
मानते थे । मार्क्स ने पेरिस कम्यून को इस तानाशाही का अग्रदूत माना है । तब आखिर पेरिस
कम्यून ने क्या किया था ? सार्वजनिक चुनाव में चुने हुए कम्यून
ने बुर्जुआजी का पुराना सैन्य-नौकरशाही की मशीनरी खत्म कर दी,
संसदवाद की जगह निर्वाचित निकायों के प्रतिनिधियों के लिए बाध्यकारी
राय जताने का जनता को अधिकार दिया और प्रभावी स्वशासन का विकल्प उपलब्ध कराया,
नियमित सेना और पुलिस को भंग कर दिया और इसकी जगह जनता को हथियारबंद
किया, नौकरशाही का खात्मा किया और सभी प्रशासनिक, न्यायिक, शैक्षिक और दीगर पदों पर सार्वभौमिक मताधिकार
के आधार पर निर्वाचित अधिकारियों की नियुक्ति का प्रावधान किया, मतदाताओं की माँग पर किसी भी समय उन्हें वापस बुलाने का नियम बनाया,
उनकी तनख्वाह को अन्य श्रमिकों के बराबर घोषित किया, पुलिस और पादरियों के राजनीतिक प्रभाव को बंद किया । आगे की उसकी योजना विकेंद्रित
राजकीय व्यवस्था स्थापित करने की थी ताकि ‘राष्ट्र सच्चे मायनों
में एकताबद्ध हो सके और इसके लिए राजसत्ता को खत्म किया जाना था जो उस एकता का साकार
रूप होने का दावा करती थी लेकिन राष्ट्र से स्वतंत्र और ऊपर तथा उसका परजीवी अपशिष्ट
बनी हुई थी ।’ इसके अलावे कम्यून ने अपने सदस्यों के लिए ऐसे
कायदे बनाए जिससे वे भ्रष्टाचार न कर सकें । तो यही वह राजसत्ता का रूप था जिसे मार्क्स
मजदूरों की आदर्श सरकार मानते थे । यह क्रांति राज्य के विरुद्ध लक्षित थी । लेनिन
ने इसी के अनुकरण में ‘सारी सत्ता सोवियतों को’ नारा बुलंद किया था ।
समाजवाद के बारे में मार्क्स एंगेल्स के विचारों
को समझाने के बाद रणधीर सिंह एक विचार की परीक्षा करते हैं जिसके अनुसार रूस में जो
स्थापित हुआ और जिसकी नकल पूर्वी यूरोप के देशों में की गई वह समाजवाद था ही नहीं ।
इस सवाल पर वे आलोचकों से पूरी सहमति तो नहीं जताते लेकिन इस तथ्य को भी मंजूर करते
हैं कि विकृतियाँ बहुत ज्यादा थीं और ऐसे आरोपों के पीछे अवश्य ही प्रचुर अनुभव थे
लेकिन यह धारणा सच्ची वाम कतारों पर इस समय जो जिम्मेदारी आ पड़ी है उससे पीछा छुड़ाना
है क्योंकि उसे समाजवाद मानकर ही उसकी गलतियों का विश्लेषण किया जा सकता और उन्हें
सुधारा जा सकता है ।
समाजवादी निर्माण की एक सैद्धांतिक समस्या का जिक्र
करते हुए रणधीर सिंह कहते हैं कि पूँजीवाद के खात्मे के बाद भी बुर्जुआ विचारधारा और
सामाजिक अनुकूलनशीलता की ताकत को एक हद तक कम करके आँका गया अर्थात समाजवाद की स्थापना
और उसे टिकाए रखने की इच्छा के लिए जरूरी वैचारिक-सांस्कृतिक
संघर्ष का महत्व समझने में कमी रह गई । मार्क्स को तो उम्मीद थी कि क्रांति यूरोप के
विकसित देशों में पहले होगी लेकिन उन्हीं के लेखन में हमें ऐसे देशों में क्रांति की
संभावना भी दिखाई पड़ती है जहाँ आबादी में किसानों की बहुतायत है । वे किसान बहुल समाजों
में मजदूर किसान एकता की भी वकालत करते हैं । यह चिंतन पेरिस कम्यून के बाद विकसित
हुआ था । यही चीज इतिहास में उनके सिद्धांत के व्यावहारिक प्रयोग में सही साबित हुई
और क्रांतियों का गुरुत्व केंद्र पूरब की ओर चला आया । क्रांति की उनकी गौण धारणा ही
इतिहास में मुख्य धारणा बनी । उनके सिद्धांत के साथ इतिहास का यह खेल बाद की अनेक परेशानियों
की वजह बना । रूस में मजदूर वर्ग विकसित देशों के मजदूर वर्ग के मुकाबले पिछड़ा हुआ
था । रूस की क्रांति के बाद बोल्शेविकों को यूरोप में क्रांति के फूट पड़ने की आशा बहुत
दिनों तक बनी रही क्योंकि वे इसे रूसी क्रांति को टिकाए रखने के लिए जरूरी समझते थे
। लेकिन ऐसा न होने पर उन्हीं पर जिम्मेदारी आ पड़ी कि वे अपने ही देश में इसे आगे बढ़ाने
की कोशिश करें । रूसी समाजवाद की अनेक विकृतियों का संबंध घिराव की इस मजबूरी से भी
है । संगठन का लेनिनीय सिद्धांत ‘आत्मगत ताकतों का मार्क्सवादी
विज्ञान’ है और आज भी क्रांतिकारी संघर्ष की समस्याओं को हल करने
के लिए उपयोगी औजार बना हुआ है लेकिन इसमें संगठन में नेतृत्व की भूलों को सुधारने
का कोई संस्थाबद्ध ढाँचा मौजूद नहीं है इसलिए गलती के शुरू हो जाने के बाद उसके फ़ैसलों
को उलटने की गुंजाइश कम रह जाती है ।
मार्क्स के सिद्धांतों के
‘आर्थिक’ अभिग्रहण से भी समाजवाद के ढहने का संबंध
है इसको चिन्हित करते हुए वे लेनिन के बाद सोवियत संघ में समाजवाद को महज आर्थिक उपलब्धियों
तक सीमित करके देखने समझने के नजरिए का उल्लेख करते हैं । इसका उदाहरण वे मार्क्सवाद
की ऐसी ‘आधिकारिक’ व्याख्या को भी मानते
हैं जिसमें भौतिकवाद के तीन सिद्धांत, द्वंद्ववाद के चार नियम
और ऐतिहासिक भौतिकवाद के पाँच चरण होते थे । जबकि उनके मुताबिक मार्क्सवाद बहुत ही
खुला हुआ दर्शन है । यहाँ तक कि वह अपने सुधार की माँग भी आगामी पीढ़ियों से करता है
। इसी सिलसिले में वे कहते हैं कि नव सामाजिक आंदोलनों की चुनौती के समक्ष आज मार्क्सवाद
को समृद्ध करने की जिम्मेदारी आन पड़ी है क्योंकि इन आंदोलनों की सैद्धांतिकी मार्क्सवाद
विरोधी ‘उत्तर-आधुनिकता’ से निर्मित हुई है और ये कुल मिलाकर सुधारात्मक ही हैं ।
अन्य चीजों के अलावा रणधीर सिंह कुछ बेहद जरूरी
सैद्धांतिक सवाल उठाते हैं । समाजवादी प्रोजेक्ट के पतन से एक सवाल पैदा हुआ है जिसका
कोई सैद्धांतिक समाधान उन्हें मार्क्सवाद के भीतर नजर नहीं आता । अनुभव से दिखाई पड़ा
है कि सत्ता पर कब्जा हो जाने के बाद नए तरह से वर्ग निर्माण की प्रक्रिया शुरू होती
है । उनका कहना है कि रूसी और चीनी दोनों ही क्रांतियों के बाद लेनिन और माओ को यह
समस्या नजर आई और उन्होंने इसका समाधान खोजने की कोशिश की लेकिन दोनों के ही उत्तर
पार्टी ढाँचे के बाहर जाकर अंदर की समस्याओं को हल करने के समान हैं । यह बात माओ की
सांस्कृतिक क्रांति में और भी खुलकर व्यक्त होती है । जबकि समस्या यह थी कि संगठन के
भीतर ही आत्म सुधार का कोई कारगर तरीका खोजा जाए । उनके मुताबिक यह ऐसी समस्या है जिसका
समाधान अभी नहीं पाया जा सका है ।
इसके अलावा लेखक ने इसी सिलसिले में एक ऐसे पहलू
को उठाया है जिस पर आम तौर पर ध्यान नहीं दिया जाता । उनका कहना है कि परिस्थितियों
और व्यक्ति की भूमिकाओं में द्वंद्वात्मक रिश्ता होता है लेकिन मार्क्सवादी आम तौर
पर इसे परिस्थितियों की प्रमुखता में बदल देते हैं । क्रांति के बाद उस प्रक्रिया में
शामिल रहे नेताओं की उपस्थिति भी समस्याओं पर काबू पाने में बहुत मदद करती है । रूस
के संदर्भ में बोल्शेविक क्रांति के दौरान और बाद में चले गृह युद्ध में नेताओं की
पहली खेप का तकरीबन सफ़ाया हो गया था इसलिए स्तालिन तक तो नौकरशाही के विरुद्ध संघर्ष
दिखाई देता है लेकिन उनकी मृत्यु के बाद इन्हीं नौकरशाहों का सरकार पर पूरी तरह से
कब्जा हो गया । चीन के प्रसंग में भी यही परिघटना सामने आई ।
इस किताब की खासियत यह थी कि इसने प्रतिबद्ध वामपंथी
कार्यकर्ताओं को वाहियात किस्म की बातों को परे हटाकर सही मुद्दे को पहचानने में मदद
की जो घटनाओं की तीव्रता और दुश्मनों के ताबड़तोड़ हमलों के समक्ष कुछ हद तक किंकर्तव्यविमूढ़
हो गए थे । उस समय तो अनेक लोग यही कहने को महान आविष्कार समझ रहे थे कि मार्क्सवाद
में लोकतंत्र की गुंजाइश नहीं है इसलिए विपक्ष न होने से कम्युनिस्ट पार्टी को अपनी
गलतियों का पता नहीं चला । रणधीर सिंह ने ठीक ही मजाक उड़ाते हुए लिखा कि क्या इस कमी
को दूर करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी अपने को ही विभाजित करके विपक्ष बनाती
! इसी तरह जो लोग कह रहे थे कि पिछड़े देश में क्रांति होने से अथवा एक
ही देश में समाजवाद के निर्माण का निर्णय होने से विकृतियों का जन्म हुआ उनके तर्कों
को खारिज करते हुए वे कहते हैं कि यह सब विशेष ऐतिहासिक परिस्थितियों के प्रति रूसी
कम्युनिस्टों का उत्तर था जिसमें कोई बुनियादी खामी नहीं थी ।
पुरानी कहानी दोबारा
इसके बाद जिस किताब का जिक्र जरूरी है वह छपी तो
बहुत पहले थी लेकिन 2008 में आकार बुक्स ने फिर से
छापा है । किताब का नाम है ‘हाउ टु रीड कार्ल मार्क्स’
और लेखक अर्न्स्ट फ़िशर हैं । एक लंबी और बेहद उपयोगी भूमिका जान बेलामी
फ़ास्टर ने लिखी है । इस भूमिका का वैसे तो स्वतंत्र महत्व है लेकिन पूरी भूमिका के
अनुवाद की बजाए हम उसका सार प्रस्तुत करने तक अपने को सीमित रखेंगे । फ़ास्टर बताते
हैं कि फ़िशर दूसरे विश्व युद्ध के बाद गठित आस्ट्रिया की अस्थायी सरकार के शिक्षा मंत्री
रहे और अनेक वर्षों तक आस्ट्रिया की कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं में से एक रहे थे
। इसके बावजूद वे एक स्वतंत्र मार्क्सवादी बुद्धिजीवी की तरह ही रहे । अनेक बार तो
पार्टी अनुशासन की सीमा से बाहर निकलकर भी अपनी राय व्यक्त करते रहे थे ।
1968 में जब सोवियत संघ ने चेकोस्लोवाकिया पर हमला किया तो उसका विरोध
करने के चलते उन्हें पार्टी से 1969 में निकाल दिया गया था ।
फ़िशर की यह किताब सबसे पहले वियेना में छपी थी । इस भूमिका में वे मार्क्स के विचारों
के साथ उनके जमाने से अब तक जो बरताव किया गया है उसकी झाँकी भी प्रस्तुत करते हैं
ताकि इस माहौल के भीतर रखकर इस किताब के महत्व को समझा जा सके ।
सबसे पहले वे मार्क्स को पढ़ने की दिक्कतों का जिक्र
करते हैं और बताते हैं कि मार्क्स के लेखन की जटिलता के अलावे अगर आप वर्तमान समाज
के तर्कों को स्वीकार कर लेते हैं तो उनकी मान्यताओं को समझना मुश्किल होगा । दूसरी
कठिनाई यह है कि मार्क्स के विचारों के बारे में अधिकांश लेखन उनके विचारों को न केवल
विकृत करता है बल्कि तमाम तरह के दुष्प्रचार से प्रभावित भी है । वे मार्क्स के विरोधियों
के लिए सार्त्र का एक वाक्य उद्धृत करते हैं जिसके मुताबिक ज्यादातर आलोचना बात को
आगे ले जाने के बदले मार्क्स से पहले के विचारों को ही दोहराती है ।
आलोचनाओं का इतिहास वे शीत युद्ध से शुरू करते
हैं जिस दौरान उनके अनुसार सोवियत सत्ताओं और पश्चिमी दुनिया द्वारा एक ही तरह से मार्क्स
के विचारों को विकृत किया गया । पश्चिमी दुनिया के विकारों के उदाहरण के बतौर वे ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ के दो संस्करणों की
भूमिकाओं का जिक्र करते हैं जो क्रमशः 1955 में क्रोफ़्ट के क्लासिक
संस्करण की सैमुएल बीअर द्वारा तथा 1967 में पेंगुइन बुक्स संस्करण
की ए पी जे टेलर द्वारा लिखी हुई हैं । टेलर ने इस भूमिका से पहले भी एक किताब में
मार्क्स के बारे में लिखा था कि उनका सिद्धांत सामाजिक हितों के टकराव का समाधान सोच
विचार की बजाए हिंसा के जरिए निकालने की वकालत करता है और कि मार्क्स के अनुसार आदमी
का दिमाग सिर्फ़ बाहर के तथ्यों को दर्ज़ करता है । दोनों भूमिकाओं के लेखन से पहले ही
अपने मार्क्सवाद विरोधी विचारों को जाहिर कर चुके थे । दोनों ही अपनी भूमिकाओं की शुरुआत
इस दावे से करते हैं कि मार्क्सवाद धर्म है । इसके बाद उनके तर्क जुदा हो जाते हैं
लेकिन वे दोनों ऐतिहासिक भौतिकवाद का ऐसा रूप तैयार करते हैं जिसे आसानी से खारिज किया
जा सके । बीअर अपने पाठकों को सूचित करते हैं कि मार्क्स के विचार दो मान्यताओं पर
आधारित हैं- 1) आर्थिक निर्धारणवाद या यह विचार कि ‘समाज की आर्थिक संरचना—मानव इच्छा
और चिंतन से स्वतंत्र होकर विकसित होता है---(और)सामाजिक जीवन के अन्य क्षेत्रों में
घटने वाली घटनाओं को निर्धारित करता है’ । 2) यह विचार कि ‘इतिहास का क्रम अनिवार्यतः
हिंसक क्रांतियों से भरा हुआ है’ । बीअर के अनुसार मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद सामाजिक
अस्तित्व को ‘अलंघनीय नियमों’ में बाँध देता है । वे द्वंद्ववाद को ‘थीसिस- एंटी थीसिस-
सिंथीसिस’ के त्रिक में समझने का आग्रह करते हैं । मार्क्स के आर्थिक सिद्धांतों की
बुनियाद उनके अनुसार ‘मूल्य का श्रम सिद्धांत’ है जो कीमत के बारे में कुछ भी नहीं
बताता । वे ‘शोषण’ को नैतिक शब्दावली मानकर इसकी जगह पर ‘डकैती’ का विकल्प सुझाते हैं
। सबसे अधिक उनका गुस्सा मार्क्स के ‘गरीबी की बढ़ोत्तरी के सिद्धांत’ पर उतरता है ।
वे कहते हैं कि इसका मतलब मार्क्स के मुताबिक मजदूर ‘अधिक वेतन और काम के कम घंटों
की लड़ाई जीतने में अक्षम’ हैं । बीअर की आपत्ति यह है कि पूँजीवादी निज़ाम के पिछले
सौ सालों में मजदूर यह लड़ाई कई बार जीत चुके हैं । बेरोजगारी के बढ़ने के मार्क्स के
अंदेशे को बीअर युद्धोत्तर आर्थिक उछाल का हवाला देकर खारिज करते हैं हालाँकि बीअर
के मुकाबले मार्क्स ही सही साबित हो रहे हैं ।
बीअर की भूमिका के बाद वे टेलर की भूमिका के बारे
में बताते हैं जो बीअर की भूमिका के बारह साल बाद आई और इसकी आलोचना और भी निर्बंध
है । टेलर मार्क्स को महत्वोन्मादी बताते हैं क्योंकि उनके अनुसार मार्क्स हमेशा ही
अपने आपको दुनिया का बौद्धिक स्वामी समझते थे तब भी जब उन्हें कोई जानता नहीं था ।
इसके लिए वे द्वंद्ववादी पद्धति में उनके विश्वास का हवाला देते हैं जो उनकी नजर में
भी ‘थीसिस-एंटी थीसिस-सिंथीसिस’ का सरल त्रिस्तरीय ढाँचा था । इसके अनुसार
अंत में समाज ऐसी स्थिति में पहुँचेगा जहाँ बिना किसी टकराव के सभी लोग राजी खुशी रहेंगे
। उनका कहना है कि बगैर एक भी खोज किए मार्क्स अपने आपको ‘वैज्ञानिक’
कहते हैं । मार्क्स उनकी नजर में समाज के विकास की बजाए महज क्रांति
की बात करते हैं जो ‘तीक्ष्ण और तुरंत’ होगी । इतिहास का यह आलम है तो आर्थिक मामलात में तो और भी गड़बड़ी है । उनके
अनुसार मार्क्स अतिउत्पादन से पैदा संकट को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानते थे लेकिन यह
तो उस जमाने में सर्वमान्य ‘मूल्य के श्रम-सिद्धांत’ की उपज था । अब यह मान्यता शैक्षिक जगत में
अमान्य हो गई है । पूँजीवादी व्यवस्था के आर्थिक अंतर्विरोधों के बढ़ने की ‘भविष्यवाणी’ टेलर के अनुसार गलत साबित हो गई है । पूँजीपतियों
की समृद्धि की बढ़त के साथ ही सर्वहारा की समृद्धि भी बढ़ी है । आधुनिक पूँजीवादी व्यवस्था
मार्क्स के बताए पूँजीवाद की तरह नहीं रह गई है क्योंकि स्वामित्व और नियंत्रण में
अलगाव आया है । टेलर के मुताबिक मुनाफ़ा पूँजीवाद का एकमात्र चालक तो नहीं ही रह गया
है, प्रमुख चालक शक्ति भी नहीं है । टेलर कहते हैं कि मार्क्स
ने शांतिपूर्ण समाजवादी क्रांति की संभावना जताई थी लेकिन बाद में इसे छोड़ दिया । असल
में तो मार्क्स की असली प्रवृत्ति न केवल स्तालिन तक बल्कि हिटलर और मुसोलिनी तक ले
जाने वाली है ।
फ़ास्टर के अनुसार दुखद यह है कि सोवियत संघ द्वारा
प्रचारित मार्क्सवाद भी इसी तरह मार्क्स की आर्थिक-तकनीकी निर्धारणवादी
छवि पेश करता है । इसके विरोध में पश्चिमी जगत के मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों द्वारा
जो मार्क्सवाद विकसित किया गया वह वर्ग संघर्ष और ऐतिहासिक विकास की वास्तविक दुनिया
से दूर होने के कारण ज्यादा संरचनावादी था । लुई अल्थूसर ने क्लाड लेवी-स्त्रास के संरचनावाद से प्रेरणा लेकर ‘आधार अधिरचना’
को ऐसी संरचना में बदल दिया जिसमें मनुष्य की कर्ता के बतौर कोई भूमिका
ही नहीं रही । इसी को विश्लेषणात्मक मार्क्सवादियों ने आगे बढ़ाया है और सी ए कोहेन
ने दावा किया है कि विश्लेषणात्मक दर्शन के औजारों का इस्तेमाल करके आधार-अधिरचना के मुहावरे के विश्लेषण के जरिए मार्क्स के समूचे लेखन को व्याख्यायित
किया जा सकता है । अल्थूसर और कोहेन ने मार्क्स की रक्षा के नाम पर लिखी किताबों में
ये ढाँचे प्रस्तावित किए हैं । उत्तर मार्क्सवादी के नाम से जो आलोचक सामने आए हैं
उनका दावा तो मार्क्स के पार जाने का है लेकिन उनके तर्क उतने ही पुराने हैं जितना
खुद मार्क्सवाद । जब भी मार्क्सवादी आंदोलन में भाटा आया है ऐसे विचार कुकुरमुत्ते
की तरह प्रकट हो जाते हैं ।
असल में मार्क्स का निर्धारणवादी पाठ प्रथम विश्व
युद्ध से पहले ही दूसरे इंटरनेशनल में सामने आ चुका था । तब तक मार्क्स के लेखन का
आधा भी प्रकाशित नहीं हुआ था । बाद में प्रकाशित लेखन को असल में सबसे महत्वपूर्ण माना
गया है जो 1960-70 के दशकों में ही अंग्रेजी में
आ सका । इन्हीं में मार्क्स का मानवतावादी रूप उभरकर आया । इस लेखन का असर
1968 में चरम पर पहुँच गया । संयोग से उसी साल फ़िशर की यह किताब भी छपी
। किताब के इस संस्करण के परिशिष्ट में मार्क्स के दो लेखों ‘थीसिस आन फ़ायरबाख’ और ‘ए कंट्रीब्यूशन
टु द क्रिटीक आफ़ पालिटिकल इकोनामी’ की भूमिका से आधार-अधिरचना के मुहावरे के अलावा उनकी पद्धति के बारे में पाल स्वीज़ी का एक लेख
भी छापा गया है जो उनकी किताब ‘द थियरी आफ़ कैपिटलिस्ट डेवलपमेंट’
का एक हिस्सा है और बेहद उपयोगी है ।
इधर के दिनों में मार्क्सवाद पर जो भी सोच विचार
हो रहा है उसकी एक विशेषता मार्क्स के नजरिए में उनके मानववाद पर जोर को रेखांकित करना
है । रणधीर सिंह ने भी इस पहलू को उभारा । फ़िशर की इस किताब में मार्क्स के ही लेखन
से महत्वपूर्ण अंशों को चुनकर उनकी व्याख्या की गई है । पुस्तक का पहला अध्याय ही है-द ड्रीम आफ़ द होल मैन । स्पष्ट है कि मार्क्स के लेखन के उस हिस्से पर बल दिया
गया है जिसमें वे आधुनिक पूँजीवादी खंडित मनुष्य के बरक्स संपूर्ण मनुष्य के सपने को
समाजवादी समाज का लक्ष्य घोषित करते हैं । उनके मुताबिक अठारहवीं सदी में मनुष्य का
अपने आप से अलगाव समूचे यूरोप का बुनियादी अनुभव था । इसलिए अपने आपसे, अपनी प्रजाति से, आसपास की प्रकृति से मनुष्य के इस अलगाव
का खात्मा उस समय के सभी मानववादियों की साझी चिंता थी । उनमें रोमांटिक लोग भी शामिल
थे लेकिन समय बीतने के साथ कुछ लोग अतीत को चरम मुक्ति का समय मानकर उसका गुणगान करने
लगे जबकि अन्य भविष्य में मनुष्य के इस अलगाव के खात्मे का सपना सँजोए रहे ।
उनके अनुसार मनुष्य श्रम के जरिए ही अपने सार को
साकार करता है । लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था में यही श्रम,
श्रम विभाजन के हवाले हो जाता है । मार्क्स सामाजिक श्रम विभाजन और मैनुफ़ैक्चर
में श्रम विभाजन में फ़र्क करते हैं । सामाजिक श्रम विभाजन कृषि या उद्योग जैसा विभाजन
है । इसी के भीतर लिंग या आयु के हिसाब से हुआ विभाजन भी आता है । कबीलों के बीच युद्ध
में पराजित कबीले के लोगों को गुलाम बनाकर उनसे मेहनत कराने के चलते भी एक तरह का विभाजन
हो जाता है । इसी दौर में वस्तु विनिमय की प्रथा सामने आती है । इसके बाद मानसिक और
शारीरिक श्रम का अंतर आता है जिसका सबसे बड़ा रूप गाँव और शहर का विभाजन है । ये दोनों
ही श्रम विभाजन न सिर्फ़ मनुष्य के भीतर छिपी हुई संभावनाओं को साकार करते हैं बल्कि
खास तरह की मानसिक और शारीरिक अपंगता को भी जन्म देते हैं । शहर में उत्पादकों के गिल्ड
में भी अलग अलग गिल्डों के बीच का विभाजन बहुत कुछ प्राकृतिक ही होता है । शिल्पी जो
कुछ बनाता है उससे उसका अलगाव नहीं होता । वह कोई भी चीज पूरी ही बनाता है । लेकिन
मैनुफ़ैक्चर के आगे बढ़ने पर आधुनिक श्रम विभाजन नजर आना शुरू होता है । इसके पहले तक
औजार मनुष्य के आदेश मानता था लेकिन आधुनिक उद्योग तो मनुष्य को औजार का गुलाम बना
देता है ।
यहीं फ़िशर मार्क्स की एक और बात को रेखांकित करते
हैं । उनके मुताबिक भौतिक जीवन मानव अस्तित्व का आधार है न कि उसका उद्देश्य । श्रम
अगर आनंद की बजाए भरण पोषण का ही साधन बनकर रह जाता है तो यह मनुष्य की प्रकृति का
विरोध है । जब मार्क्स कहते हैं कि मनुष्य के समक्ष आर्थिक स्थितियाँ ऐतिहासिक विकास
के एक चरण की बजाए शाश्वत नियम की तरह पेश आती हैं तो वे इन पर विजय पाने की माँग कर
रहे होते हैं । वे चाहते हैं कि आर्थिक नियमों के अधीन मनुष्य न रहे बल्कि ये नियम
ही परस्पर संबद्ध व्यक्तियों से बनी हुई मानवता के अधीन लाए जाने चाहिए । इस तरह श्रम
विभाजन से उत्पादन के साधनों और उत्पाद पर निजी मालिकाना,
उत्पादक पर उत्पाद की बरतरी, राज्य, चर्च, कानून जैसी संस्थाओं से व्यक्ति का पराई चीजों
की तरह सामना होना आदि पैदा होते हैं और फिर ये ही मिलकर अलगाव नामक स्थिति को जन्म
देते हैं । अलगाव के समाज में मनुष्य का अन्य व्यक्तियों के साथ वैसा रिश्ता नहीं रह
जाता जैसा दो मनुष्यों के बीच होता है बल्कि उनके बीच मालिक मजदूर, शोषक शोषित, मातहत कमांडर, भिखारी
दयावान जैसा आपसी रिश्ता बन जाता है । काम की प्रक्रिया में होने वाला श्रम विभाजन
मनुष्य को उसकी मनुष्यता से विलग कर देता है । सबसे आगे बढ़कर सामाजिक श्रम विभाजन में
एक व्यक्ति तो वस्तुओं, औजारों, उत्पाद
आदि का मालिक बन जाता है जबकि दूसरा इतना अकिंचन हो जाता है कि अपना शरीर छोड़कर उसके
पास कुछ नहीं रह जाता और उसे भी बेचना पड़ता है । ऐसा माहौल व्यक्तियों की प्रतिभा को
विकास का अवसर देने वाले किसी भी उत्पादक समाज के बनने की संभावना खत्म कर देता है
। फ़िशर के मुताबिक अलगाव की समस्या जीवन भर मार्क्स के सोच विचार का विषय बनी रही ।
अपने अंतिम ग्रंथ पूँजी के तीसरे खंड में मार्क्स अलगाव के खात्मे की संभावना ऐसी स्थिति
में देखते हैं जहाँ मनुष्य जरूरत के लिए उत्पादन के फंदे से बाहर निकल जाए ।
वस्तुओं के संसार की कीमत बढ़ने के साथ साथ मानव
संसार की कीमत घटने लगती है । वस्तु आखिर है क्या ? वह जो हमारी
किसी जरूरत को पूरा करती हो । यही चीज उसका उपयोग मूल्य है । उसका उपयोग मूल्य तभी
साकार होता है जब उसका उपभोग हो । यह मूल्य ही विनिमय मूल्य का भी आधार होता है । उपयोग
मूल्य के बतौर वस्तुएँ अतुलनीय होती हैं । लेकिन माल के बतौर, उनका विनिमय मूल्य उनमें एक साझी चीज की माँग करता है । विनिमय की दुनिया में
वस्तु अपनी गुणवत्ता खो देती है और महज मात्रा में बदल जाती है । वस्तुएँ निश्चित मात्रा
की श्रमशक्ति का साकार रूप हो जाती हैं, उनके भीतर मानव श्रम
अमूर्त रहता है । माल के भीतर उत्पादन की सामाजिक प्रकृति और उत्पादक की आभासी
‘स्वतंत्रता’ मूर्तिमान रहती है क्योंकि वह चाहे
या न चाहे उसे कच्चे माल और मजदूर, मजदूर की औसत उत्पादकता,
माँग और पूर्ति, उपभोक्ता की जरूरतों और उसकी क्रय
क्षमता- संक्षेप में सब कुछ के लिए समग्र समाज पर निर्भर रहना
पड़ता है । इस तरह माल सर्वावेशी सामाजिक उत्पादन की दुनिया में ‘निजी अर्थतंत्र’ के आंतरिक अंतर्विरोध का साकारीकरण हो
जाता है । जैसे धार्मिक जगत में मनुष्य के दिमाग से पैदा हुई चीजें उससे आज़ाद होकर
सजीव हो जाती हैं, एक दूसरे से और मानव जाति से रिश्ता बनाने
लगती हैं उसी तरह मालों की दुनिया में मनुष्य के हाथ से बनी चीजें भी हो जाती हैं ।
विनिमय की दुनिया में मनुष्यों के बीच तो भौतिक संबंध बनते हैं लेकिन वस्तुओं में सामाजिक
संबंध बनते हैं । कोई एक वस्तु अपने मालिक के अनजाने ही सामाजिक हो जाती है । आज मुनाफ़ा
कमाती है तो कल घाटा उठाती है, इसकी कीमत में चढ़ाव उतार आता है,
कहीं और काम की कोई नई उत्पादक पद्धति लागू होने से इसका मूल्य कम हो
जाता है, जब इसके मुकाबले कोई नहीं होता तो इसको फुसलाया जाता
है और जब बहुत हो तो खारिज हो जाती है, संकट या युद्ध को जन्म
देना तो इसके बाएँ हाथ का खेल है, जिसके पास यह होती है उसे इसका
नशा रहता है ।
फ़िशर ने वर्ग और वर्ग संघर्ष की धारणा के सिलसिले
में कुछ नई बातें कहने की कोशिश की । इस मसले पर वे अपनी बात यहाँ से शुरू करते हैं
कि मार्क्स वर्ग या वर्ग संघर्ष की धारणा के खोजकर्ता या आविष्कारक नहीं थे । वे इस
सिद्धांत में मार्क्स के योगदान को निम्नलिखित बातों में देखते हैं
:
1 किसी वर्ग की विशेषताओं को निर्धारित
करने की कोशिश ।
2 वर्गों की उत्पत्ति का विश्लेषण ।
3 इस तथ्य की पहचान कि किसी निश्चित समय
पर किसी वर्ग के हित उत्पादक शक्तियों के विकास और नई सामाजिक संरचना
के प्रति उसकी रुझान के मेल में होते हैं जबकि अन्य वर्ग स्थापित पारंपरिक व्यवस्था की रक्षा इसलिए करते हैं
क्योंकि वह उनके हितों के मेल में होती है ।
4 यह यकीन कि सर्वहारा अंतिम वर्ग है
और उसकी मुक्ति के लिए जरूरी है कि सभी वर्गों का खात्मा हो और वर्गविहीन समाज की स्थापना
हो ।
सामाजिक श्रम विभाजन के चलते तमाम तरह के पेशा
आधारित समूहों का जन्म हुआ और फिर लंबे दिनों में जटिल प्रक्रिया के तहत इन समूहों
से वर्गों का विकास हुआ । वे कहते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र में इस सवाल
पर थोड़ी सरलता दिखाई पड़ती है जिसमें आगे चलकर परिष्कार किया गया ताकि समाज की जटिलता
को समेटा जा सके और सर्वाधिक महत्वपूर्ण वर्गों की विशेषताओं को परिभाषित किया जा सके
। वर्ग कठोर या अपरिवर्तनीय नहीं होते न ही अनादि हैं बल्कि ऐतिहासिक प्रक्रिया की
उपज होते हैं । वर्ग साझा विशेष हितों के लिए, जिन्हें
‘सामान्य’ हित के रूप में स्थापित किया जा चुका
होता है, अपने विरोधी साझा विशेष हितों के विरुद्ध लड़ाई के क्रम
में पैदा होते हैं, वर्ग के रूप में उनके गठन के लिए यह जरूरी
होता है, इसी लड़ाई के क्रम में जनता के विभिन्न तबके गठित हो
रहे उस वर्ग की ओर खिंच आते हैं और उसमें समाहित हो जाते हैं, इस प्रक्रिया में बने वर्ग निरंतर गतिमान रहते, अनेक
टुकड़ों में बँटते रहते और नई स्थितियों में फिर एकताबद्ध होते रहते हैं, वर्गीय हित व्यक्तियों से कमोबेश स्वतंत्र हैसियत बना लेते हैं, विरोधी हित से उनकी शत्रुता बार बार बनती बिगड़ती रहती है । इस तरह वर्ग लगातार
गतिमान, संगठित और पुनर्संगठित होते रहते हैं । पूँजीपति और सर्वहारा
इसी तरह लंबी प्रक्रिया में गठित वर्ग हैं । मार्क्स पूँजी के तीसरे खंड के बावनवें
अध्याय में इस समस्या को उठाते हैं लेकिन उसे पूरा करने से पहले ही उनकी मृत्यु हो
गई लेकिन इस अधूरी पांडुलिपि में भी मार्क्स दो नहीं तीन बड़े सामाजिक वर्गों की उपस्थिति
चिन्हित करते हैं : पगारजीवी श्रमिक, पूँजीपति
और जमींदार जो आय और आय के स्रोतों के मुताबिक एक दूसरे से अलग होते हैं अर्थात पगार,
मुनाफ़ा और जमीन का किराया ।
इसके बाद फ़िशर लुई बोनापार्त की अठारहवीं ब्रूमेर
में मार्क्स द्वारा राजनीतिक हलचल के बीच प्रकट होने वाली वर्ग की विशेषताओं का चित्रण
करते हैं जिसमें सिर्फ़ विरोधी ही नहीं मध्यवर्ती तबकों की भी भूमिका को रेखांकित किया
गया है । इसी किताब में मार्क्स ने लिखा था कि वर्ग संघर्ष का सर्वोच्च रूप राजनीतिक
पार्टियों के बीच का संघर्ष है । वे बताते हैं कि मार्क्स के विश्लेषण के मुताबिक किसी
व्यक्ति की आय या जीवन पद्धति सिर्फ़ उसका ‘क्लास इन इटसेल्फ़’
बताती है । महत्वपूर्ण बात है कि वर्गों का निर्माण वर्ग संघर्ष के दौरान
होता है । इस संघर्ष के जरिए ही वह समाजैतिहासिक ताकत बनता है । साफ है कि दो विशाल
वर्गों में समाज का अधिकाधिक विभाजन एक प्रक्रिया है लेकिन इसका मतलब मध्यवर्ती वर्गों
की अनुपस्थिति नहीं है । यहाँ तक कि मार्क्स पूँजीपति वर्ग में भी बौद्धिकों को अलगाते
हैं तभी उनके एक हिस्से के टूटकर मजदूर वर्ग के साथ खड़ा होने की संभावना देखते हैं
।
इसके बाद ऐतिहासिक भौतिकवाद संबंधी अध्याय में
वे सबसे पहले व्यक्तियों की संपत्ति (इंडिविडुअल प्रापर्टी)
और व्यक्तिगत संपत्ति (प्राइवेट प्रापर्टी)
में मार्क्स द्वारा किए हुए भेद का उल्लेख करते हैं । इसमें पहले का
मतलब व्यक्तिगत उपभोग के लिए उपलब्ध संपत्ति है तो दूसरे का मतलब ऐसी संपत्ति को निजी
बनाना है जो सारत: सामाजिक होती है । यह भेद वे इस बात पर जोर
देने के लिए करते हैं कि पूँजीवाद लोगों की व्यक्तिगत संपत्ति से उन्हें बेदखल करके
निजी संपत्ति का निर्माण करता है । इसी आधार पर क्रांति के बाद की स्थिति के लिए उनका
यह कथन जायज सिद्ध होता है ‘बेदखल करने वालों को बेदखल कर दिया
जाता है (एक्सप्राप्रिएटर्स आर एक्सप्राप्रिएटेड)।’
इसी प्रसंग में ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र
की आलोचना में योगदान’ की प्रसिद्ध भूमिका को उद्धृत करने के
बाद वे स्वीकार करते हैं कि इसके यांत्रिक अतिसरलीकरण की गुंजाइश है और ऐसा हुआ भी
है । अपूर्व द्वंद्ववादी होने के बावजूद मार्क्स कहीं कहीं यह भ्रम पैदा करने का मौका
देते हैं कि मानो इतिहास की संचालक शक्ति मनुष्य नहीं बल्कि श्रम के औजार, मशीन और वस्तुओं की दुनिया है । यही आलोचना आगे चलकर हम टेरी ईगलटन के लेखन
में पाएँगे । इस तरह की धारणाओं को वे हेगेल और डार्विन का असर मानते हैं । हालाँकि
वे ‘पावर्टी आफ़ फिलासफी’ से यह भी उद्धृत
करते हैं कि ‘उत्पादन के सभी औजारों में सबसे शक्तिशाली उत्पादक
शक्ति खुद क्रांतिकारी वर्ग होता है ।’ साथ ही ‘होली फ़ेमिली’ से उद्धरण देकर साबित करते हैं कि मार्क्स
के लिए इतिहास और कुछ नहीं जीवित मनुष्यों द्वारा अपने मकसद को पाने के लिए किया गया
काम है । आखिरकार मार्क्स महज चिंतक नहीं मजदूर आंदोलन के नेता भी थे इसलिए वे समाजवाद
के लिए सामाजिक ताकतों को संगठित करने का महत्व भी जानते थे । इसीलिए मार्क्स जब नियमों
की बात करते हैं तो उन्हें प्रवृत्तियों की तरह समझा जाना चाहिए ।
फ़िशर का कहना है कि विकास के तथाकथित नियमों की
तरह ही आधार अधिरचना का संबंध भी यांत्रिक तरीके से समझा गया है । असल में बौद्धिक
उत्पाद भौतिक उत्पादन की तरह नहीं होता बल्कि उसके साथ और उससे निरंतर अंत:क्रिया में होता है । किसी भी समय शासकों के विचार उस समय के प्रभावी विचार
होते हैं लेकिन वे ही एकमात्र विचार नहीं होते । मार्क्स बार बार इस बात पर जोर देते
हैं कि किसी भी समाज में उसके नाश के बीज निहित रहते हैं । नया समाज पुराने के नकार
के बतौर ही पैदा होता है । प्रभावी विचारों के साथ ही साथ विरोधी प्रतिगामी या अग्रगामी
विचार भी मौजूद होते हैं और वर्ग संघर्ष केवल आर्थिक नहीं बल्कि राजनीतिक और बौद्धिक
लड़ाई भी होता है । चेतना भी सही, गलत और भ्रामक होती है । ठोस
स्थितियों के विश्लेषण में हमेशा ही मार्क्स चेतना और सामाजिक अस्तित्व की अंत:क्रिया का चित्रण करते हैं । मार्क्स के मुताबिक ‘लोग
अपने इतिहास का निर्माण करते हैं, लेकिन वे अपनी मर्जी के अनुसार
उसका निर्माण नहीं करते; वे अपनी चुनी हुई परिस्थितियों में उसका
निर्माण नहीं करते, बल्कि ऐसा उन्हें अतीत से प्राप्त,
प्रदत्त और मौजूद स्थितियों से सीधे टकराते हुए करना पड़ता है ।’
किताब के अंत में फ़िशर भविष्य के लिए मार्क्सवाद
की चार रोचक धाराओं का जिक्र करते हैं:
1 मार्क्सवाद को ऐसा वैज्ञानिक विश्व
दृष्टिकोण समझना जिसे इतिहास की द्वंद्वात्मक व्याख्या के लिए लागू किया जा सकता है
। यह धारणा मार्क्स की बनिस्बत एंगेल्स के विचारों से ज्यादा प्रभावित है लेकिन एंगेल्स
की इस बात को भी ध्यान में रखती है कि हरेक नई खोज के साथ भौतिकवाद को भी बदलना होगा
। इसके चलते एंगेल्स के भी विचारों की फिर से परीक्षा हो रही है, उनकी सामान्यताओं
को दुरुस्त किया जा रहा है और आधुनिक विज्ञान की कुछेक महत्वपूर्ण खोजों को गैर मार्क्सवादी
साबित करने वाले प्रतिबंधों को ढीला किया जा रहा है ।
2 ‘मनुष्य के दर्शन’ के रूप में मार्क्सवाद की
परिकल्पना जिसमें अलगाव को बुनियादी धारणा माना जाए । आजकल ज्यादातर मार्क्सवाद का
विकास इसी दिशा में हो रहा है ।
3 संरचनावाद से प्रभावित होकर मार्क्स के लेखन
को भाषा और मिथ के विश्लेषण के लायक बनाना । यह विकास मार्क्सवाद को अकादमिक बनाने
की ओर ले गया ।
4 इतिहास और राजनीतिक पहल के अध्ययन के लिए वैज्ञानिक
पद्धति के बतौर उसे विकसित करना । तीसरी दुनिया के देशों में अधिकतर मार्क्सवाद का
विकास इसी लक्ष्य की ओर अग्रसर है ।
लैटिन अमेरिकी देशों की हलचल
कनाडा के मार्क्सवादी लेबोविट्ज की किताब
‘द सोशलिस्ट अल्टरनेटिव : रीयल ह्यूमन डेवलपमेंट’
अकार बुक्स से छपी 2010 में लेकिन इनकी महत्वपूर्ण
किताब ‘बीयांड कैपिटल’ का दूसरा संस्करण
2003 में ही छप गया था । लेबोविट्ज की एक विशेषता यह भी है कि वे मेजारोस
की मान्यताओं को सरल भाषा में सुबोध ढंग से प्रस्तुत करते हैं ।
लेबोविट्ज की ‘बीयांड कैपिटल’
की शुरुआत इस सवाल से होती है कि आखिर इक्कीसवीं सदी के पूँजीवाद को
समझने के लिए उन्नीसवीं सदी के लेखक को क्यों देखा जाए । उत्तर देते हुए वे बताते हैं
कि मार्क्सवाद असल में महज आर्थिक सिद्धांत नहीं हैं । मार्क्सवादी हरेक प्रकार के
ऐसे समाज का विरोध करते हैं जो शोषण पर आधारित है और इसीलिए मनुष्य के संपूर्ण विकास
में बाधक है । वे पूँजीवाद का विरोध इसलिए करते हैं क्योंकि इस समाज में फ़ैसले मनुष्य
की जरूरत के आधार पर नहीं बल्कि निजी मुनाफ़े को ध्यान में रखकर किए जाते हैं । मनुष्य
और संसाधनों का पूरा इस्तेमाल नहीं हो पाता क्योंकि उन्हें मनुष्य की जरूरत के अनुसार
संयोजित ही नहीं किया जाता । मानव अस्तित्व की बुनियादी शर्त, प्राकृतिक पर्यावरण को निजी मुनाफ़े के लिए नष्ट कर दिया जाता है । ऐसे समाज
में न्याय की बात बेमानी है जिसमें उत्पादन के साधनों का स्वामित्व एक बड़ी आबादी को
अमानवीय हालात में काम करने के लिए मजबूर कर देता है । यहाँ तक कि जनता को लिंग,
नस्ल और राष्ट्रीयता आदि के आधार पर इसीलिए बाँटा जाता है क्योंकि अन्यथा
लोगों के बीच आपसी सहयोग पूँजी के लिए फ़ायदेमंद नहीं होगा ।
दूसरी बात यह कि मार्क्स ने पूँजीवाद के गति विज्ञान
का अब तक का सर्वोत्तम अध्ययन किया था तो आज हम जब पूँजीवाद के गहरे संकट से रूबरू
हैं उन्हें जानना बहुत ही जरूरी है । पूँजीवाद के लिए माल और मुद्रा के साथ ही ऐसे
श्रमिक की जरूरत होती है जो अपना श्रम बेचे, वह श्रम जो
उसके शरीर में ही अवस्थित है । दूसरे कि इस श्रम को खरीदने वाला पूँजीपति हो । इसके
लिए श्रमिक को आज़ाद होना चाहिए । उसका अपने शरीर में निहित इस ताकत पर इतना अधिकार
होना चाहिए कि वह इसके मालिक के बतौर इसे बेच सके । उसे उत्पादन के सभी साधनों से भी
आज़ाद होना चाहिए ताकि उसके पास अपना शरीर छोड़कर बेचने के लिए और कुछ भी न हो । तीसरी
बात कि पूँजीपति को उस श्रम का बाकायदे अधिग्रहण करना चाहिए । पहले भी बाज़ार के जरिए
खरीद बिक्री हुआ करती थी लेकिन श्रम शक्ति की बिक्री की खासियत यह है कि जिस चीज का
शोषण होना है वह उसके मालिक से अलग कोई वस्तु नहीं होती । इसलिए इसकी बिक्री के साथ
ही मजदूर एक तरह से अपने ही शरीर पर अपना अधिकार बेच देता है । मतलब यह भी निकला कि
खरीदारी के वक्त उसे सशरीर मौजूद रहना होता है । खरीदार यानी पूँजीपति भी इसकी खरीदारी
निजी उपभोग के लिए नहीं करता । उसकी रुचि इससे पैदा होने वाले अतिरिक्त मूल्य में होती
है । सिर्फ़ अतिरिक्त मूल्य के लिए ही वह श्रम शक्ति को खरीदता है । यह अतिरिक्त मूल्य
उत्पादन के क्षेत्र में पैदा होता है । उत्पादित होने वाली वस्तु भी श्रम पर अधिकार
के चलते उसके खरीदार की ही संपत्ति हो जाती है । अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन और अधिग्रहण
ऐसी कहानी है जो मार्क्स के पाठक आम तौर पर जानते हैं । इसके लिए पूँजीपति काम के घंटे
या उत्पादकता बढ़ाता है जिससे निरपेक्ष अतिरिक्त मूल्य का सृजन होता है । लेकिन मार्क्स
निरपेक्ष अतिरिक्त मूल्य का ही उद्घाटन नहीं करते बल्कि वे सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य
का भी रहस्योद्घाटन करते हैं । अपने एक लेख ‘कलेक्टिव वर्कर’
में लेबोविट्ज ने इस पहलू पर जोर दिया है क्योंकि काम के घंटे या उत्पादकता
बढ़ाकर जो मुनाफ़ा पूँजीपति कमाता है उसका अन्याय तो प्रत्यक्ष है लेकिन ऐसा न करने से
भी जो अतिरिक्त मूल्य पैदा होता है वह सबकी नजर में नहीं आता ।
लेबोविट्ज के अनुसार पूँजीवाद की मार्क्स की आलोचना
सिर्फ़ कम या ज्यादा वेतन की नहीं बल्कि स्वयं मजदूरी की है । अगर मजदूर काम के घंटे
कम करवाकर मजदूरी में बढ़ोत्तरी करवा लें तो भी मार्क्स की आलोचना खत्म नहीं हो जाएगी
। अतिरिक्त मूल्य का हरेक कतरा मार्क्स की नजर में चोरी है । सवाल गुलामी का है उसके
रूप का नहीं । मार्क्स के लिए पूँजीवाद में सुधार का कोई माने मतलब नहीं,
पूँजीवाद का खात्मा ही एकमात्र विकल्प है । चूँकि यह अंतर्दृष्टि आंदोलनों
से अपने आप नहीं उपजती इसलिए पूँजी के तर्क के पार जाने के लिए ‘पूँजी’ का अध्ययन जरूरी है । इसके बगैर यही धारणा बनी
रहती है कि मजदूर ने खास मात्रा में अपना श्रम बेचा और इसीलिए शोषण भी सही मजदूरी न
मिलने में दिखाई पड़ता है । मार्क्स का जोर पूँजीवाद में सुधार पर नहीं बल्कि उसके निषेध
और विनाश पर है ।
लेबोविट्ज कहते हैं कि मार्क्स का ग्रंथ ‘पूँजी’ एकतरफ़ा तौर पर महज पूँजी को सक्रिय दिखाता है
और इसके दूसरे पहलू अर्थात मजदूर की स्वतंत्र सक्रियता को उजागर नहीं करता । इसके बरक्स
वे मार्क्स के पहले इंटरनेशनल के भाषण से ‘मजदूर वर्ग के राजनीतिक
अर्थशास्त्र’ की धारणा को ले आते हैं और मार्क्स के एक सपने का
जिक्र करते हैं जिसको आजकल बहुत से विद्वान उद्धृत करते हैं । वह है- आपस में जुड़े हुए उत्पादकों का ऐसा समाज जिसमें सामाजिक संपदा, श्रमशक्ति के खरीदारों को प्राप्त होने की बजाए स्वाधीन तौर पर परस्पर संबद्ध
व्यक्तियों द्वारा नियोजित की जाती है जो “सामुदायिक उद्देश्यों
के लिए और सामाजिक जरूरत” के मुताबिक उत्पादन करते हैं ।
अपने एक लेख ‘स्पेक्टर आफ़
सोशलिज्म फ़ार द 21 सेंचुरी’ में लेबोविट्ज
समाजवाद को तीन चीजों का समुच्चय मानते हैं ।
1- उत्पादन के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व:
यह चीज राजकीय स्वामित्व से अलग है । इसके लिए गहन लोकतांत्रिकता की
जरूरत है जिसमें जनता, उत्पादकों और समाज के सदस्य के बतौर हमारे
सामाजिक श्रम के परिणामों के उपयोग के बारे में निर्णय लेगी । सामाजिक संपत्ति की उनकी
धारणा में अतीत के संचित श्रम की केंद्रीयता है जिसमें औजार और कौशल शामिल हैं । अतीत
का यह संचित श्रम हमें मुफ़्त मिलता है और इसी के साथ सहयोग के उपहार को जोड़ देने से
सामाजिक उत्पादक शक्ति प्राप्त होती है । इसी सामाजिक विरासत के लिए लड़ाई एक तरह से
वर्ग संघर्ष है । पूँजीवाद इसी विरासत से मनुष्य को अलग करता है और उसे पूँजी में बदलकर
हथिया लेता है । इसको वापस हासिल करना और जीवित सामाजिक श्रम तथा अतीत के सामाजिक श्रम
को संयुक्त करना समाजवाद के लिए आवश्यक है ।
2- मजदूरों द्वारा उत्पादन का संगठन:
मजदूरों द्वारा संगठित उत्पादन से उत्पादकों के बीच नए रिश्तों की बुनियाद
पड़ती है जो सहयोग और एकजुटता के होते हैं । इसके लिए मजदूरों को काम की जगह पर चिंतन
और कर्म को आपस में जोड़ने की क्षमता विकसित करनी होगी । इससे उनमें निर्णय लेने का
आत्म विश्वास आता है ।
3- सामुदायिक जरूरतों और उद्देश्यों की
संतुष्टि: यह बात मानव परिवार के सदस्यों के बतौर हमारी जरूरतों
और हमारी साझा मानवता को मान्यता देने पर आधारित है । इसके लिए स्वार्थ से ऊपर उठने
और समुदाय तथा समाज के बारे में सोचने के महत्व पर जोर देना होगा । जब तक हम निजी लाभ
के लिए उत्पादन करते हैं तब तक दूसरों को प्रतिद्वंद्वी या ग्राहक ही समझते हैं यानी
दुश्मन या अपने मकसद को पूरा करने का साधन और इसी कारण एक दूसरे से अलग थलग और एकांगी
बने रहते हैं । समाजवाद के आरंभिक त्रिक का यह पहलू आचरण में भिन्नता को मानकर एकता
स्थापित करने पर बल देता है । इस तरह हम जनता में एकजुटता का निर्माण तो करते ही हैं
अपने को भी अलग तरीके से उत्पादित करते हैं ।
एक लेख ‘द इंपोर्टेंस
आफ़ सोशलिस्ट एकाउनटेंसी’ में वे मेजारोस की एक नई धारणा ले आते
हैं । उनका कहना है कि नया समाजवादी समाज बनाने के लिए नई धारणाओं का निर्माण करना
होगा । ये नई धारणाएँ पूँजी की तार्किकता के मुकाबले सामाजिक तार्किकता की स्थापना
करेंगी । इस सिलसिले में वे मेजारोस की ‘समाजवादी एकाउनटेंसी’
की धारणा का जिक्र करते हैं जो पूँजी के तर्क में निहित ‘एकाउनटिंग और एडमिनिस्ट्रेशन’ के बरक्स प्रस्तावित किया
गया है । इसमें पूँजीवादी व्यवस्था के परिमाण पर जोर के विपरीत गुण पर जोर दिया जाना
चाहिए और उत्पादन का लक्ष्य जरूरतों की सीधी संतुष्टि होना चाहिए । इसका दूसरा पैमाना
स्वतंत्र समय होना चाहिए जिसे मनुष्य अपने आपको साकार करने के लिए रचनात्मक तरीके से
इस्तेमाल करेगा और अनिवार्य श्रम के समय की तानाशाही से आज़ादी हासिल करेगा । इस तरह
समाजवादी लेखा जोखा अनिवार्य श्रम समय के निषेध पर आधारित होगा । ‘इतिहास में आगे चलकर स्वतंत्र समय का उत्पादन मुक्ति की अनिवार्य शर्त होगा
।’ यह पूँजीवाद की इस स्थिति के विरोध में होगा जहाँ समय ही सब
कुछ होता है, मनुष्य कुछ नहीं होता । समाजवादी लेखा की धारणा
की जरूरत पूँजीवादी लेखा और सक्षमता की पूँजीवादी धारणा को तोड़ने के लिए है । स्वतंत्र
समय मानव विकास और व्यवहार से जुड़ा हुआ है इसलिए समाजवादी लेखा की धारणा यहाँ आकर परिस्थिति
को बदलने के साथ ही खुद को बदलने के क्रांतिकारी आचरण से मिल जाती है । इस तरह यह मानव
क्षमता में विकास को भी समाहित करती है । जहाँ पूँजीवादी लेखा उत्पादन के समय को ध्यान
में रखता है और मानव क्षमता का मूल्यांकन प्रति इकाई वस्तुओं के उत्पादन में लगे मानव
श्रम के हिसाब से करता
है वहीं समाजवादी लेखा मनुष्य के लिए आवश्यक निवेश के आधार पर श्रमिक की क्षमता में
विकास का आकलन करता है ।
आज का समाजवाद
हंगरी के मार्क्सवादी चिंतक इस्तवान मेजारोस फ़िलहाल
सबसे महत्वपूर्ण माने जाते हैं । उनकी किताब ‘बीयांड कैपिटल’
की चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं । किताब का पहला और दूसरा खंड इंग्लैंड
में 1995 में मर्लिन प्रेस से छपा था । फिर अमेरिका में मंथली
रिव्यू प्रेस से छपा । भारत में 2000 में के पी बागची ने उसे
छापा । पहला खंड है ‘द अनकंट्रोलेबिलिटी आफ़ कैपिटल एंड इट्स क्रिटिक’
जिसमें वे पूँजी की अराजकता का विश्लेषण करते हैं । दूसरा खंड
‘कनफ़्रंटिंग द स्ट्रक्चरल क्राइसिस आफ़ द कैपिटल सिस्टम’ है जिसमें वे पूँजी के वर्तमान संरचनात्मक संकट को व्याख्यायित करते हैं ।
मेजारोस के अर्थशास्त्र संबंधी लेखन को भी पढ़ते हुए ध्यान रखना पड़ता है कि उनका मूल
क्षेत्र दर्शन है और इस क्षेत्र की ओर उनका आना वर्तमान समस्याओं को समझने समझाने के
क्रम में हुआ है ।
उनकी सबसे बड़ी विशेषता है कुछ नई धारणाओं का उपयोग
जिनसे परिचय के बगैर उनके लेखन को समझना मुश्किल है । मसलन वे पूँजीवाद
(कैपिटलिज्म) की बजाए पूँजी (कैपिटल) शब्द का प्रयोग बेहतर समझते हैं और दोनों के
बीच फ़र्क बताने के लिए यह कहते हैं कि मार्क्स ने अपने ग्रंथ का नाम ‘पूँजी’ यूँ ही नहीं रखा था । ‘बीयांड
कैपिटल’ की भूमिका में उन्होंने बुर्जुआ नेताओं, खासकर मार्गरेट थैचर द्वारा टिना (देयर इज नो अल्टरनेटिव)
तथा उन्हीं नेताओं द्वारा राजनीति को ‘आर्ट आफ़
पासिबल’ बताने के बीच निहित अंतर्विरोध को रेखांकित किया है ।
इसी भूमिका में उन्होंने किताब के शीर्षक के तीन अर्थ बताए हैं-
1- मार्क्स ने खुद ही ‘पूँजी’ लिखते हुए इसका मतलब स्पष्ट किया था जिसका अर्थ
है सिर्फ़ पूँजीवाद के परे नहीं बल्कि पूँजी के ही परे जाना ।
2 मार्क्स द्वारा ‘पूँजी’ के पहले खंड और उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित शेष
दो खंडों तथा ग्रुंड्रीस और थियरीज आफ़ सरप्लस वैल्यू के भी परे जाना क्योंकि ये सभी
उनकी मूल परियोजना के शुरुआती दौर तक ही पहुँचे थे और उनके द्वारा सोचे गए काम को पूरी
तरह प्रतिबिंबित नहीं करते ।
3 मार्क्सीय परियोजना के भी परे जाना
क्योंकि यह उन्नीसवीं सदी के माल उत्पादक समाज के वैश्विक उत्थान की परिस्थितियों को
ही व्यक्त करती है और बीसवीं सदी में उसका जो रूप उभर कर सामने आया वह उनके सैद्धांतिक
विश्लेषण से बाहर रहा ।
उनके अनुसार पूँजीवाद,
पूँजी की मौजूदगी का महज एक रूप है । पूँजीवाद के खात्मे के साथ ही पूँजी
का अंत नहीं होता । इसे समाजवाद के लिए संघर्ष से जोड़ते हुए वे कहते हैं कि समाजवाद
का काम पूँजी के प्रभुत्व का खात्मा है । इस प्रभुत्व को व्यक्त करने के लिए वे इसे
सोशल मेटाबोलिक रिप्रोडक्शन की व्यवस्था कहते हैं जिसका मतलब ऐसी व्यवस्था है जो सामाजिक
रूप से चयापचय की ऐसी प्रणाली बना लेती है जो अपने आप इसका पुनरुत्पादन करती रहे ।
इसे ही वे मार्क्स द्वारा प्रयुक्त पद आवयविक प्रणाली (आर्गेनिक
सिस्टम) कहते हैं । पूँजी का यह प्रभुत्व मेजारोस के मुताबिक
महज पिछली तीन सदियों के दौरान सामान्य माल उत्पादन की व्यवस्था के रूप में सामने आया
है । इसने मनुष्य को ‘अनिवार्य श्रम शक्ति’ के बतौर महज ‘उत्पादन की लागत’ में बदल कर जिंदा श्रमिक को भी ‘विक्रेय माल’
बना देता है । मनुष्यों में आपस में अथवा प्रकृति के साथ उसकी उत्पादक
अंत:क्रिया के पुराने रूप उपयोग के लिए उत्पादन की ओर लक्षित
होते थे जिसमें कुछ हद तक आत्म निर्भरता होती थी लेकिन पूँजी का आंतरिक तर्क किसी भी
मात्रा में न समा सकने वाली मानव आवश्यकताओं तक महदूद रह ही नहीं सकता था । अंत में
पूँजीवाद ने आत्म निर्भरता के इसी आधार का नाश करके उपयोग को गणनीय और अनंत
‘विनिमय मूल्य’ की पूजा परक अपरिहार्यता के अधीन
कर दिया । इसने अपने आपको ऐसी लौह प्रणाली के रूप में पेश किया जिससे पार पाना संभव
नहीं दिखाई देता । लेकिन पूँजीवाद की जिंदगी ही अबाध विस्तार की जरूरतों को अनिवार्यतः
पूरा करने पर निर्भर है जिसके कारण इसके सामने अनेक ऐतिहासिक सीमाबद्धताएँ प्रकट होती
हैं । इन्हीं सीमाओं को ध्यान में रखते हुए बीसवीं सदी में इसकी अतृप्त लिप्सा पर रोक
लगाने की असफल कोशिशें की गईं । इनसे बस एक तरह का मिश्रण ही हो सका कोई संरचनागत समाधान
नहीं निकला बल्कि पूँजी लगातार संकटों में ही फँसती गई और इन अवरोधों से उसके अनेक
अंतर्विरोध भी सामने आए ।
पूँजीवाद मूलत: विस्तारोन्मुखी
और संचयवृत्तियुक्त होता है इसलिए मनुष्य की जरूरतों को संतुष्ट करना इसका ध्येय ही
नहीं होता । इसमें पूँजी का विस्तार अपने आप में एक मकसद हो जाता है और इसलिए इस व्यवस्था
का निरंतर पुनरुत्पादन इसकी मजबूरी बन जाती है । श्रम से इसकी शत्रुता जन्मजात होती
है और निर्णय की प्रक्रिया में श्रमिक की कोई भागीदारी इसके लिए असह्य होती है । चूँकि
यह शत्रुता संरचनागत है इसलिए इस व्यवस्था में सुधार या इस पर कोई नियंत्रण असंभव है
। सामाजिक जनवाद के सुधारवाद का दिवाला यूँ ही नहीं निकला । सुधारवाद के अंत ने सीधे
समाजवाद के लिए क्रांतिकारी आक्रामकता का रास्ता खोल दिया है । सुधारवाद की राजनीति
प्रमुख रूप से बुर्जुआ संसदीय सीमाओं के भीतर चलती थी इसलिए इसका एक मतलब संसद के बाहर
क्रांतिकारी सक्रियता को ब्ढ़ाना भी है ।
पूँजी की व्यवस्था में तीन अंतर्विरोध मौजूद होते
हैं-
1) उत्पादन और उसके नियंत्रण के बीच,2)
उत्पादन और उपभोग के बीच, और 3) उत्पादन और उत्पादित वस्तुओं के वितरण के बीच ।
इन अंतर्विरोधों के चलते विघटनकारी और केंद्रापसारी
वृत्ति इसका गुण होती है । इसी वृत्ति को काबू में रखने के लिए राष्ट्र राज्य की संस्था
खोजी गई लेकिन वह भी इसे नियंत्रित करने में असफल ही रही है । यह समाधान तात्कालिक
था इसका पता इसी बात से चलता है कि आजकल हरेक समस्या का समाधान वैश्वीकरण नामक जादू
की छड़ी में खोजा जा रहा है । सच तो यह है कि अपनी शुरुआत से ही यह व्यवस्था वैश्विक
रही है । इसे पूरी तरह से खत्म करने के लक्ष्य का पहला चरण पूँजीवाद की पराजय है ।
उनका कहना है कि जिन्हें समाजवादी क्रांति कहा गया वे दरअसल इसी काम को पूरा कर सकी
थीं । वे उत्तर पूँजीवादी समाज की ही रचना कर सकी थीं जिसे समाजवाद की ओर जाना था लेकिन
इसे ही समाजवादी क्रांति मान लेने से समाजवादी कार्यभार शुरू ही नहीं हो सका ।
इस खंड के पहले ही अध्याय में वे कहते हैं कि हेगेल
की आलोचनात्मक धार को फिर से अर्जित किया जाना चाहिए । अपने जीवन में ही हेगेल सत्ता
के लिए असुविधाजनक हो गए थे, मरने के बाद तो उन्हें
व्यावहारिक रूप से दफ़ना ही दिया गया । इसके लिए वे कहते हैं कि हेगेल की महान उपलब्धियों
को ग्रहण करते हुए भी पूँजी को अनादि अनंत की तरह पेश करने के उनके काम की क्रांतिकारी
आलोचना करनी होगी । मार्क्स की धारणाओं को समझने के लिए हेगेल को पुनःप्राप्त करने
की इस कोशिश की वे तीन वजहें बताते हैं । पहली कि 1840 दशक में
मार्क्स के बौद्धिक निर्माण के समय की राजनीतिक और दार्शनिक बहसों के चलते ऐसा करना
अपरिहार्य है । असल में 1841 में बर्लिन विश्वविद्यालय में मार्क्स
और किर्केगाद ने साथ साथ शेलिंग के हेगेल विरोधी व्याख्यान सुने लेकिन दोनों ने राह
अलग अलग अपनाई । उस समय का माहौल ही ऐसा था कि आपको हेगेल के समर्थन या विरोध में खड़ा
होना ही पड़ता । दूसरी वजह उनके अनुसार यह है कि जर्मन बुर्जुआ द्वारा हेगेल को पूरी
तरह से खत्म कर देने की कोशिश के मद्दे नजर उनकी उपलब्धियों को विकसित करना जरूरी था
। हेगेल का समर्थन करते हुए भी मार्क्स ने उनकी समस्याओं को समझा और उसका आलोचनात्मक
सार सुरक्षित रखते हुए भी उसका क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए सकारात्मक निषेध किया ।
मजेदार बात यह है कि हेगेल का विरोध न सिर्फ़ पूँजीवाद ने किया जिसने ही जरूरत पड़ने
पर उन्हें स्थापित किया था और जरूरत खत्म हो जाने पर उन्हें दफ़ना दिया बल्कि समाजवादी
आंदोलन में भी उनके स्वीकार अस्वीकार से इसके उतार चढ़ाव का गहरा रिश्ता रहा है । बर्नस्टाइन
के नेतृत्व में हेगेल के द्वंद्ववाद के मुकाबले कांट के विधेयवाद का उत्थान हुआ और
दूसरे इंटरनेशनल के सामाजिक जनवाद की राजनीति के पतन तक इसका बोलबाला रहा । असल में
हेगेल का दर्शन महत्तर सामाजिक टकरावों के बीच मूलत: विकसित हुआ
था और बाद के दिनों में हेगेल द्वारा ही अनुदारवादी समायोजनों के बावजूद संक्रमण की
गतिमयता के निशान कभी खत्म नहीं किए जा सके । यहाँ तक कि सोवियत संघ में नौकरशाही के
उत्थान के साथ हेगेल के साथ एक तरह का नकारात्मक भाव जोड़ने की कोशिश हुई । तीसरी वजह
यह है कि वास्तव में 1848 के क्रांतिकारी माहौल में हेगेल बुर्जुआ
वर्ग के लिए लज्जा का विषय हो गए थे और मार्क्सवाद तथा उनके दर्शन के बीच के संपर्कों
पर परदा डालना संभव नहीं रह गया था ।
बाद के चिंतकों में वे लुकाच की इसीलिए प्रशंसा
करते हैं क्योंकि उन्होंने हेगेल को अपनाने की कोशिश की थी । लुकाच की प्रासंगिकता
मेजारोस के मुताबिक इसलिए भी बढ़ गई है क्योंकि सोवियत संघ के बीसवीं सदी में उभरे अंतर्विरोधों
के चलते इसकी आलोचनाओं को दोबारा गंभरता से देखने की जरूरत पड़ी है । इस नाते उन्हें
’हिस्ट्री एंड क्लास कांशसनेस’ ऐसा काम लगता है
जो सोवियत संघ के जन्म के साथ जुड़ी ऐतिहासिक परिस्थितियों और बाद में हुए राजनीतिक
बौद्धिक विकासों के मामले में उसकी समस्याओं की निशानदेही करता है । मेजारोस के अनुसार
इस किताब की चर्चा के कारण निम्नांकित हैं-
1 पहली बड़ी समाजवादी क्रांति
‘जंजीर की सबसे कमजोर कड़ी’ में हुई । इससे अनेक
सैद्धांतिक सवाल जुड़े हुए हैं । आधिकारिक सोवियत साहित्य में इसे सकारात्मक अर्थ में
पेश किया जाता है जबकि लुकाच ने इस शब्दावली का प्रयोग रूस के समाजार्थिक ढाँचे के
अत्यधिक पिछड़ेपन पर जोर देने के लिए किया । ध्यातव्य है कि सोवियत समाज की बाद में
सामने आने वाली ज्यादातर समस्याओं की जड़ें रूस के इस हालात में हैं । यहाँ हमें क्रांति
के बाद उपजे समाज के अंतर्विरोधों और उसके बारे में दार्शनिक सूत्रीकरण के बीच जीवंत
संबंध की पहचान मिलती है ।
2 चूँकि लुकाच पश्चिम की असफल क्रांतियों
में से एक के भागीदार रहे थे इसलिए इस किताब में अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में
भी क्रांति की गारंटी करने वाले तत्वों की तलाश मिलती है ।
3 हंगरी की क्रांति की असफलता से उन्होंने
कुछेक निष्कर्ष निकाले थे जिनमें पार्टी का नौकरशाहीकरण एक मुद्दा है हालाँकि उन्होंने
इसे सिर्फ़ नेतृत्व की मसीहाई भाषा में चिन्हित किया लेकिन बाद में रूस में आई विकृतियों
के प्रसंग में इसका महत्व स्पष्ट हुआ ।
4 उन्होंने रूसी क्रांति के प्रभाव से
बुर्जुआ बुद्धिजीवियों के कम्युनिस्ट आंदोलन में आगमन से पैदा होने वाली समस्याओं को
भी उठाया । ये लोग अपने साथ अपना एजेंडा और मकसद लेकर आए थे । हालाँकि बाद में इस विंदु
पर अतिरिक्त जोर देकर पश्चिमी मार्क्सवाद की कोटि भी निर्मित की गई लेकिन उसका उद्देश्य
लुकाच जैसे बुद्धिजीवियों को मार्क्सवाद से बाहर साबित करके उनके प्रयासों का फ़ातिहा
पढ़ना था ।
मेजारोस ने नव सामाजिक आंदोलनों का परिप्रेक्ष्य
भी मार्क्सवाद के संदर्भ में उठाया है । पर्यावरण आंदोलन के संदर्भ से वे बताते हैं
कि पूँजीवादी विकास के शुरुआती दिनों में उसके अनेक नकारात्मक पहलुओं और प्रवृत्तियों
को थोड़ा अनदेखा किया जा सकता था । लेकिन आज उनकी अनदेखी धरती के विनाश की कीमत पर ही
संभव है । इसी पृष्ठभूमि में तमाम तरह के पर्यावरणवादी आंदोलन उभरे । पूँजीवादी देशों
में सुधारोन्मुख ग्रीन पार्टियों के रूप में ये आंदोलन राजनीति में भी जगह बनाने की
कोशिश करते हैं । वे पर्यावरण के विनाश से चिंतित व्यक्तियों को आकर्षित करते हैं लेकिन
इसके समाजार्थिक कारणों को अपरिभाषित छोड़ देते हैं । ऐसा उन्होंने शायद व्यापक चुनावी
आधार बनाने के लिए किया लेकिन आरंभिक सफलता के बाद जिस तेजी से वे हाशिए पर पहुँच गईं
उससे साबित होता है कि पर्यावरण के विनाश के उनके नेताओं द्वारा सोचे गए करणों से अधिक
गहरे कारण हैं । असल में आज न केवल विकास के साथ जुड़े हुए खतरे अभूतपूर्व रूप से बढ़
गए हैं बल्कि विश्व पूँजी की व्यवस्था के अंतर्विरोध ही पूरी तरह से परिपक्व हो गए
हैं और ये खतरे इस तरह समूची धरती को अपनी जद में ले चुके हैं कि उनका कोई आंशिक समाधान
सोचना संभव नहीं रह गया है ।
जिस नई धारणा की चर्चा फ़ास्टर ने पूँजी की चरम
सीमाओं की सक्रियता के नाम से किया है उससे संबंधित अध्याय में वे पूँजी के वर्तमान
संकट के प्रसंग में चार मुद्दों पर बात करना जरूरी समझते हैं जिन्हें वे एक दूसरे से
अलग नहीं मानते बल्कि कहते हैं कि उनमें से हरेक बड़े अंतर्विरोधों का केंद्रविंदु है
लेकिन ये सभी मिलकर ही एक दूसरे की मारकता को भीषण बना देते हैं । भूमंडलीय पूँजी और
राष्ट्र राज्य की सीमाओं के बीच का विरोध कम से कम तीन बुनियादी अंतर्विरोधों से जुड़ा
हुआ है- इजारेदारी और प्रतियोगिता के बीच,
श्रम की प्रक्रिया के अधिकाधिक समाजीकरण और उसके उत्पाद के भेदभावपरक
अधिग्रहण के बीच तथा अबाध रूप से बढ़ते वैश्विक श्रम विभाजन और असमान रूप से विकासशील
पूँजी की वैश्विक व्यवस्था के निरंतर बदलते शक्ति केंद्रों द्वारा प्रभुता स्थापित
करने की कोशिशों के बीच । इन सबसे मिलकर पैदा हुई बेरोजगारी की समस्या ने विश्व पूँजी
व्यवस्था के अंतर्विरोधों और शत्रुताओं को सर्वाधिक विस्फोटक रूप दे दिया है ।
पहले खंड के तेरहवें अध्याय में वे राज्य को उखाड़
फेंकने के समाजवादी कार्यभार के प्रसंग में राज्य के बारे में मार्क्स के राजनीतिक
सिद्धांत के मुख्य तत्वों को विंदुवार बताते हैं । यह वर्णन बहुत कुछ पूर्व समाजवादी
शासनों के कटु अनुभवों से प्रभावित है इसलिए एक तरह का आदर्शवाद भी इसमें मौजूद है
।
1 समूचे समाज के क्रांतिकारी रूपांतरण
के जरिए राज्य का अतिक्रमण करना होगा न कि किसी सरकारी आदेश या तमाम राजनीतिक/प्रशासनिक उपायों के जरिए इसे उखाड़ा जाएगा ।
2 आगामी क्रांति को अगर समाजार्थिक शोषण
की सीमाओं में ही कैद होकर नहीं रह जाना है तो उसे केवल राजनीतिक होने की बजाए सामाजिक
क्रांति होना होगा ।
3 अतीत की राजनीतिक क्रांतियों ने आंशिकता
और सार्विकता के बीच जिस अंतर्विरोध को पैदा किया था तथा ‘नागरिक
समाज’ के प्रभावी तबकों के पक्ष में सामाजिक सार्विकता को राजनीतिक
आंशिकता के अधीन कर दिया था सामाजिक क्रांति उस अंतर्विरोध को ही खत्म कर देती है ।
4 मुक्ति का सामाजिक अभिकर्ता सर्वहारा
इसीलिए होता है क्योंकि पूँजीवादी समाज के शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोधों की परिपक्वता
के चलते वह सामाजिक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के किए बाध्य होता है और वह अपने आपको
समाज पर नई शासक आंशिकता के रूप में थोपने में अक्षम होता है ।
5 राजनीतिक और सामाजिक/आर्थिक संघर्ष द्वंद्वात्मक रूप से एकताबद्ध होते हैं और इसीलिए सामाजिक/
आर्थिक पहलू की उपेक्षा राजनीतिक पहलू को उसके यथार्थ से वंचित कर देती
है ।
6 समाजवादी कदमों के लिए वस्तुगत परिस्थितियों
की गैर मौजूदगी में राजनीतिक सत्ता पर अपरिपक्व अवस्था में कब्जा हो जाने पर आप विरोधी
की ही नीतियों को लागू करने लगते हैं ।
7 कोई भी सफल सामाजिक क्रांति स्थानीय
या राष्ट्रीय ही नहीं होगी । राजनीतिक क्रांति ही अपनी आंशिकता के चलते इन सीमाओं तक
महदूद रह सकती है । इसके विपरीत उसे वैश्विक होना होगा यानी राज्य का अतिक्रमण भी वैश्विक
स्तर पर करना होगा ।
किताब का दूसरा खंड ज्यादा मजेदार है जिसमें वे
पूँजीवाद के मिथकों को एक एक कर ध्वस्त करते हैं । इसमें कुछ ऐसे लेख भी संकलित कर
दिए गए हैं जो हालिया प्रश्नों को लेकर लिखे गए हैं । इसका पहला अध्याय संपदा के उत्पादन तथा उत्पादन की
समृद्धि का विवेचन करता है । इसमें वे वास्तविक जरूरतों की अनदेखी करके उत्पादन में
बढ़ोत्तरी करने की पूँजीवादी रवायत के मुकाबले उन जरूरतों की दृष्टि से मनुष्य की उत्पादक
क्षमताओं के विकास का वैकल्पिक नजरिया अपनाने की सलाह देते हैं क्योंकि जरूरत और संपदा-उत्पादन में संबंध विच्छेद विकसित और सुविधा संपन्न पूँजीवादी देशों में भी
नहीं चल पा रहा व्यापक मानवता की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की तो बात ही छोड़िए
। उत्पादन का वर्तमान उद्देश्य जैसा है वैसा ही सदा से नहीं रहा इस बात के समर्थन में
वे मार्क्स को उद्धृत करते हैं जिनके मुताबिक प्राचीन काल में उत्पादन का लक्ष्य संपदा
बटोरना नहीं था, बल्कि मानव जीवन उत्पादन का लक्ष्य था । वह स्थिति
आज के विपरीत थी जब मानव जीवन का उद्देश्य उत्पादन हो गया है और उत्पादन का लक्ष्य
संपदा हो गई है । इस बदलाव के लिए उपयोग मूल्य को विनिमय मूल्य से अलगाना और उसके अधीन
लाना जरूरी था । मेजारोस संपदा के उत्पादन के बरक्स उत्पादन की समृद्धि पर जोर देते
हैं । इसके बाद वे बताते हैं कि पूँजीवाद असल में बरबादी को बढ़ावा देता है । इसका उदाहरण
‘यूज एंड थ्रो’ की संस्कृति है । अब टिकाऊ चीजों
को बनाना उसका लक्ष्य नहीं रह गया है । यहाँ तक कि गुणवत्ता वाली चीजें बनाने के मुकाबले
उसका जोर उत्पादन की मात्रा पर होता है । मेजारोस के अनुसार पूँजीवाद उपयोग में निरंतर
गिरावट को जन्म देता है । उपयोग की घटती हुई दर पूँजीवादी उत्पादन और उपभोग के सभी
बुनियादी पहलुओं, वस्तुओं और सेवाओं, कारखाना
और मशीनरी तथा श्रम शक्ति पर नकारात्मक प्रभाव डालती है । इसका ज्वलंत उदाहरण सैन्य
औद्योगिक परिक्षेत्र है ।
मार्क्स ने कहा था कि पूँजी जीवंत अंतर्विरोध है
इसलिए हमें इसके साथ जुड़ी किसी भी प्रवृत्ति पर सोचते समय उसकी विपरीत प्रवृत्ति को
भी ध्यान में रखना चाहिए । मसलन पूँजी की एकाधिकारी प्रवृत्ति का विरोध प्रतियोगिता
से होता है, केंद्रीकरण का विरोध बिखराव से, अंतर्राष्ट्रीकरण का राष्ट्रवाद और क्षेत्रीय
विशिष्टता से तथा संतुलन का विरोध संतुलन-भंग से होता
है । यह भी दिमाग में रखना होगा कि पूँजी की व्यवस्था का विकास असमान होता है इसलिए
ये सभी प्रवृत्तियाँ और प्रति प्रवृत्तियाँ एक साथ सभी देशों में नहीं भी प्रकट हो
सकती हैं ।
पूँजीवाद ने एक समय मुक्त प्रतियोगिता से जन्म
लिया था लेकिन प्रतियोगिता के विध्वंसक होने पर उसे ‘संगठित पूँजीवाद’
की शक्ल दी गई । इसका अर्थ संकट का खत्मा नहीं था लेकिन कुछ मार्क्सवादी
विचारकों में भ्रम फैलाने में यह बदलाव कामयाब रहा । फ़्रैंकफ़ुर्त स्कूल के विचारकों
ने इसे ही एक नई संरचना मान लिया और मजदूरों को समाहित कर लेने की व्यवस्था की क्षमता
को बढ़ा-चढ़ाकर आँकने लगे ।
मार्क्स की पूँजी संबंधी समूची परियोजना की एक
झलक देने के लिए मेजारोस ग्रुंड्रीस से एक लंबा उद्धरण देते हैं जिसके मुताबिक
‘बुर्जुआ समाज उत्पादन का सबसे विकसित और सबसे जटिल ऐतिहासिक संगठन है
। जिन कोटियों के जरिए इसके रिश्तों को व्यक्त किया जाता है, इसकी संरचना को समझा जाता है वे उन सभी लुप्तप्राय समाजों की संरचनाओं और उत्पादन
संबंधों को समझने की अंतर्दृष्टि प्रदान करती हैं जिनके ध्वंसावशेषों और तत्वों से
यह निर्मित हुआ है, जिनके कुछेक अविजित अवशेष अब भी इसके साथ
लगे लिपटे हुए हैं, जिनके छिपे मानी इसमें पूरी तरह प्रकट हुए
हैं ।’ इसके आधार पर वे नतीजा निकालते हैं कि मार्क्स का इरादा
सिर्फ़ ‘पूँजीवादी उत्पादन’ की कमियों की
गणना करना नहीं था । वे मानव समाज को उन परिस्थितियों से बाहर निकालना चाहते थे जिनमें
मनुष्य की जरूरतों की संतुष्टि को ‘पूँजी के उत्पादन’
के अधीन कर दिया गया था ।
किताब के तकरीबन अंत में मेजारोस ने लिखा है कि
वर्तमान दौर समाजवाद के लिए रक्षात्मक की बजाए आक्रामक रणनीति का है । इस दौर की शुरुआत
की बात करते हुए इसे वे पूँजी के संरचनागत संकट से जोड़ते हैं और इस संकट के लक्षण गिनाते
हुए बताते हैं कि 1) यह सार्वभौमिक है, उत्पादन की किसी विशेष शाखा तक महदूद नहीं है 2) इसका
प्रभाव क्षेत्र सचमुच भूमंडलीय है, किसी देश विशेष तक सीमित नहीं
है 3) यह दीर्घकालीन, निरंतर, स्थायी है, पहले के संकटों की तरह चक्रीय नहीं है
4) इसका प्रकटीकरण रेंगने की गति से हो रहा है, नाटकीय विस्फोट या भहराव की तरह नहीं । वे इसकी शुरुआत 1960 दशक के अंत से मानते हुए तीन घटनाओं का उल्लेख करते हैं जिनमें यह संकट फूट
पड़ा था । 1) वियतनाम युद्ध में पराजय के साथ अमेरिकी प्रत्यक्ष
आक्रामक दखलंदाजी का खात्मा । 2) मई 1968 में फ़्रांस और अन्य ‘विकसित’ पूँजीवादी
केंद्रों में लोगों का ‘व्यवस्था’ के प्रति
विक्षोभ का प्रकट होना । 3) चेकोस्लोवाकिया और पोलैंड जैसे उत्तर
औद्योगिक मुल्कों में सुधार की कोशिशों का दमन जिनके जरिए पूँजी के संरचनागत संकट की
संपूर्णता का अंदाजा लगा । मेजारोस का कहना है कि इन घटनाओं के जरिए उन परिघटनाओं का
पता चलता है जो तब से आज तक की तमाम घटनाओं के पीछे कार्यरत रही हैं और वे हैं-
1) ‘महानगरीय’ या विकसित पूँजीवादी देशों के अल्पविकसित
देशों के साथ शोषण के संबंध एकतरफ़ा तौर पर निर्धारित होने की बजाए परस्पर निर्भरता
से संचालित होने लगे । 2) पश्चिमी पूँजीवादी देशों के अंदरूनी
और आपसी अंतर्विरोध और समस्याओं का उभार तेज हो गया । 3) ‘वस्तुत:
मौजूद समाजवाद’ के उत्तर औद्योगिक देशों और समाजों
के संकट आपसी विवादों के जरिए प्रकट होने लगे ।
समाजवादी आक्रामकता के दौर की राजनीतिक कार्यवाही
के लिहाज से वे कहते हैं कि ‘अर्थतंत्र की पुनर्संरचना’
तक अपने आपको सीमित रखने की रणनीति पर दोबारा सोचना चाहिए और उसकी जगह
वर्तमान संदर्भ में ‘राजनीति के क्रांतिकारी पुनर्गठन’
के कार्यभार पर बल देना चाहिए । इस लिहाज से गैर-संसदीय कार्यवाही का अपार महत्व है । सच्ची समाजवादी ‘आर्थिक पुनर्संरचना’ की अनिवार्य पूर्वशर्त ‘राजनीति का जनोन्मुखी पुनर्गठन’ है ।
मेजारोस का कहना है कि मार्क्स ने पूँजी के दो
मूल्य बताए थे- उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य । पूँजीवाद
असल में विनिमय मूल्य की प्रभुता से जुड़ा हुआ है । जबकि मनुष्य की जरूरतें उपयोग मूल्य
से जुड़ी हुई हैं इसलिए लेन देन के क्षेत्र में उपयोग मूल्य के विस्तार से पूँजीवाद
कमजोर होता है । इसी तत्व को लेबोविट्ज लैटिन अमेरिकी देशों के समाजवादी प्रयोगों में
फलीभूत होता हुआ पाते हैं और इसी को वे 21वीं सदी के समाजवाद
की संज्ञा देते हैं जो बीसवीं सदी के प्रयोगों से भिन्न है । यही तर्क बहुत कुछ जिजैक
का भी है जो ‘अकुपाई वाल स्ट्रीट’ आंदोलन
के बाद खासे चर्चित हुए हैं । वे पूँजी के वर्तमान संकट का कारण विनियम मूल्य की बेलगाम
बढ़ोत्तरी में देखते हैं ।
ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि रणधीर सिंह द्वारा
अपनी किताब मेजारोस को समर्पित करने के बावजूद मेजारोस से उनके सैद्धांतिक विरोध सतही
नहीं बल्कि बहुत कुछ बुनियादी हैं । इसकी जड़ दोनों के अनुभव की दुनिया अलग होने में
निहित है । रणधीर सिंह तीसरी दुनिया के एक देश में समाजवादी आंदोलन के विकास से जुड़े
हुए हैं और यह चीज उनकी सैद्धांतिकी को ठोस जमीन देती है जबकि मेजारोस के लेखन में
अमेरिका में उनकी रिहायश और 1956 में हंगरी पर
सोवियत हमले की अनुगूँजें सुनी जा सकती हैं ।
मेजारोस की दूसरी महत्वपूर्ण किताब
‘द चैलेंज एंड बर्डेन आफ़ हिस्टारिकल टाइम’ मंथली
रिव्यू प्रेस से 2008 में छपी और भारत में इसका प्रकाशन
2009 में अकार बुक्स ने किया । इस किताब का उपशीर्षक ‘सोशलिज्म इन ट्वेंटी फ़र्स्ट सेंचुरी’ है । भूमिका जान
बेलामी फ़ास्टर ने लिखी है जिसमें वे बताते हैं कि मेजारोस की सैद्धांतिक अंतर्दृष्टि
आज लैटिन अमेरिकी देशों में जारी परिवर्तन के नायकों की वजह से एक भौतिक शक्ति में
बदल चुकी है । वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज द्वारा उनकी खुलेआम प्रशंसा को
अनेक अखबारों और पत्रिकाओं ने प्रमुखता से प्रकाशित किया । मेजारोस प्रसिद्ध मार्क्सवादी
चिंतक जार्ज लुकाच के शिष्य रहे । 1956 में रूसी आक्रमण के बाद
उन्होंने हंगरी छोड़ दिया और अमेरिका में दर्शन के प्रोफ़ेसर बने और मार्क्स,
लुकाच और सार्त्र पर किताबें लिखीं । 1971 के इर्द
गिर्द उन्होंने पूँजी के वैश्विक संकट का सवाल उठाया तथा दर्शन संबंधी काम को किनारे
करके इस विषय पर लिखना शुरू किया । फ़ास्टर ने उनके सैद्धांतिक अवदान की चर्चा करते
हुए उनके द्वारा प्रयुक्त पदों की नवीनता का जिक्र किया है । उनमें से कुछेक का जिक्र
हम पहले कर चुके हैं । एक अन्य धारणा ‘पूँजी की चरम सीमाओं की
सक्रियता’ है जो वर्तमान संकट का बड़ा कारण है । वे मेजारोस द्वारा
सोवियत संघ को उत्तर पूँजीवादी समाज मानने को भी उनका योगदान मानते हैं जो पूँजी की
संपूर्ण व्यवस्था को खत्म न कर सका । ध्यातव्य है कि मेजारोस ऐसा किसी जिम्मेदारी से
पीछा छुड़ाने के लिए नहीं बल्कि बेहतर समाजवाद के निर्माण का कार्यभार स्पष्ट करने के
लिए करते हैं । वे उनका यह योगदान भी स्वीकार करते हैं कि मेजारोस पूँजी के पूरी तरह
से खात्मे की ऐतिहासिक स्थितियों का विवरण देते हैं और सामाजिक अवयव के नियंत्रण की
वैकल्पिक व्यवस्था प्रस्तावित करते हैं जिसकी जड़ें ‘सारवान समानता’
में होंगी । भूमिका में मेजारोस की किताब ‘बीयांड
कैपिटल’ को मार्क्सीय आलोचना का फलक चौड़ा करने वाला कहा गया है
क्योंकि इसमें मानव मुक्ति की मजबूत स्त्रीवादी और पर्यावरणिक धारणाओं को पूँजी की
सत्ता के निषेध का अविभाज्य घटक बनाया गया है ।
डेविड हार्वे द्वारा
‘पूँजी’ का अध्ययन
2010 में वर्सो द्वारा प्रकाशित डेविड
हार्वे की किताब ‘ए कंपएनियन टु मार्क्स’ कैपिटल’ का जिक्र किए बगैर यह लेख अधूरा ही रहेगा । इस
प्रसंग में खास बात यह है कि मार्क्स-एंगेल्स ने ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ की भूमिका में इस किताब
की लोकप्रियता को संबंधित देश में मजदूर आंदोलन की स्थिति से जोड़कर देखने का प्रस्ताव
किया था और हाब्सबाम ने भी इसी तरीके का इस्तेमाल किया है लेकिन इस नए दौर में विभिन्न
देशों और भाषाओं में मार्क्स की ‘पूँजी’ के पहले खंड के अनुवादों और अध्ययनों की भरमार हुई है । इन अनुवादों की लोकप्रियता
का एक कारण पूंजी का वर्तमान संकट तो है ही, इसके अलावा सोवियत
संघ के पतन के बाद जवान हो रही पीढ़ी द्वारा मार्क्स को दोबारा समझने की चाहत भी है
। उदाहरण के लिए 2008 में ‘पूँजी’
के पहले खंड का फ़ारसी अनुवाद हसन मुर्तज़ावी ने किया । छपने के कुछ ही
दिनों के भीतर इसकी 3000 प्रतियाँ बिक गईं । इस अनुवाद की भूमिका
में उन्होंने इसके पहले 1973 में इराज इस्कंदरी द्वारा किए गए
अनुवाद की कमियां बताईं और अपने अनुवाद के लिए ‘पूंजी’
के उस फ़्रांसिसी अनुवाद का भी सहारा लिया जिसे मार्क्स ने खुद देखा और
जर्मन पाठ के मुकाबले बेहतर बताया था । इस अनुवाद की मार्फ़त ईरानी वाम की अनेक बहसें
भी खुल और हल होने की दिशा में आगे बढ़ी हैं । असल में मेगा को संपादित/प्रकाशित करने के नूतन कोशिशों ने मार्क्स-एंगेल्स के
मूल लेखन के अनेक नए पहलू उजागर किए हैं । हार्वे के काम को इस संदर्भ में भी देखा
जाना चाहिए । डेविड हार्वे मूलत: भूगोलवेत्ता हैं और शहरों पर अपने अध्ययन के क्रम
में वे सामाजिक विषयों की ओर आए और फिर मार्क्सवाद का व्यवस्थित अध्ययन किया । रुचिपूर्वक
वे हरेक साल मार्क्स की ‘पूँजी’ पर अनौपचारिक व्याख्यान देते रहे । यह किताब विद्यार्थियों
के लिए ‘पूँजी’ पर दिए गए उनके व्याख्यानों
का सुसंपादित संकलन है । किताब में ‘पूँजी’ के सिर्फ़ पहले खंड का सांगोपांग अध्ययन किया गया है शायद इसके पीछे यह आग्रह
भी रहा हो कि मार्क्स चूँकि पहला खंड ही अपने जीवन में पूरा कर सके थे इसलिए उसी में
उनकी अंतर्दृष्टि सबसे प्रामाणिक रूप से व्यक्त हुई होगी । अपनी किताब को वे महज कंपैनियन
इसलिए भी कहते हैं क्योंकि उनका मकसद विद्यार्थियों की रुचि मूल पुस्तक पढ़ने में जगाना
था । लेखक की कोशिश अति सरलीकरण से बचते हुए पुस्तक को सुबोध बनाना है इसीलिए लेखक
ने व्याख्या संबंधी विवादों को छोड़ दिया है । लेकिन ऐसा भी नहीं कि यह कोई निस्संग
व्याख्या है बल्कि विभिन्न तरह के लोगों को लगभग चालीस बरस तक समझाने के क्रम में उपजी
है । लेखक शुरुआत माल और विनिमय संबंधी पहले अध्याय से करता है । लेखक हमारा ध्यान
सबसे पहले प्रथम वाक्य की ओर खींचता है और बताता है कि इस वाक्य में दो बार
‘प्रकट’ आता है । एक बार यह कि ‘जिन समाजों में पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली व्याप्त है वहाँ सामाजिक संपदा
‘मालों के विशाल संचय के रूप में प्रकट होती है’ और दूसरी बार यह कि ‘एक माल उसके प्राथमिक रूप के बतौर
प्रकट होता है ।’ लेखक इस बात पर जोर देता है कि ‘प्रकट’ होना और ‘होना’ एक ही नहीं है । यह शब्द मार्क्स की पूरी किताब में अनेक बार आया है जिसका
मतलब है कि उनके मुताबिक जो ऊपर से दिखाई दे रहा है उसके नीचे कुछ चल रहा है जो असली
है । दूसरी बात यह कि मार्क्स सिर्फ़ पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली पर विचार करना चाहते
हैं । ये दोनों बातें आगे की बातों को समझने के लिए ध्यान में रखना जरूरी है । माल
से बात शुरू करने का लाभ यह है कि सब लोग उसके संपर्क में रोज आते हैं ।
मrर्क्स की
‘पूँजी’ ऐसी किताब है जिसमें दार्शनिकों,
अर्थशास्त्रियों, नृतत्वशास्त्रियों, पत्रकारों और राजनीति वैज्ञानिकों के साथ ही तमाम साहित्यकार, परीकथाएँ और मिथक आते रहते हैं । किताब के रूप में इसे पढ़ना अलग तरह का अनुभव
है क्योंकि खंडित उद्धरणों से वृहत्तर तर्क के भीतर उनकी अवस्थिति समझ में नहीं आती
। सभी तरह के अनुशासनों में दीक्षित लोग इसमें भिन्न अर्थ निकालते हैं क्योंकि यह इतने
भिन्न किस्म के स्रोतों की ओर आपका ध्यान ले जाती है । इन स्रोतों को मार्क्स आलोचनात्मक
विश्लेषण की धारा से जोड़ते हैं । आलोचनात्मक विश्लेषण का अर्थ पहले के सोच विचार को
एकत्र कर उसे नए ज्ञान में बदल देना है । इस किताब में जो धाराएँ मौजूद हैं वे हैं
सत्रहवीं से उन्नीसवीं सदी तक मुख्य रूप से इंग्लैंड में विकसित राजनीतिक अर्थशास्त्र
की धारा, दार्शनिक गवेषणा की धारा जो ग्रीक दार्शनिकों से शुरू
होकर हेगेल तक आती है और इन्हीं के साथ तीसरी धारा काल्पनिक समाजवादियों की धारा है
।
मार्क्स अपनी किताब की समस्याओं के प्रति सचेत
थे और भूमिकाओं में उन्होंने इनकी चर्चा की । फ़्रांसिसी संस्करण की भूमिका में उन्होंने
स्वीकार किया कि अगर इसे धारावाहिक रूप से छापा जाए तो मजदूर वर्ग के लिए अच्छा होगा
लेकिन उन्होंने सावधान भी किया कि इससे पुस्तक की समग्रता को एकबारगी ग्रहण करने में
असुविधा होगी । इस किताब में मार्क्स का मकसद राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना के जरिए
पूँजीवाद की कार्यपद्धति को उद्घाटित करना था । इस लिहाज से उन्होंने दूसरे संस्करण
की भूमिका में लिखा कि ‘प्रस्तुति का रूप गवेषणा की पद्धति
से अलग होना ही चाहिए । गवेषणा के दौरान विस्तार से सामग्री एकत्र करके उसके विकास
के अलग अलग रूपों का विश्लेषण किया जाता है, उनके आपसी संबंधों
की छानबीन की जाती है । इस काम के खत्म होने के बाद ही उस विकास की प्रस्तुति संभव
होती है ।’ मार्क्स की गवेषणा में यथार्थ की अनुभूति तथा उस अनुभूति
का राजनीतिक अर्थशास्त्रियों, दार्शनिकों और उपन्यासकारों द्वारा
वर्णन आता है । इसके बाद वे समस्त सामग्री की गहन आलोचना करते हैं ताकि उस यथार्थ की
कार्यपद्धति को स्पष्ट करने वाली कुछ सरल किंतु जोरदार धारणाओं को खोज सकें । आम तौर
पर मार्क्स किसी परिघटना को समझने के लिए गहरी धारणाओं के निर्माण के लिए उनके सतही
आभास के विश्लेषण से शुरुआत करते हैं । इसके बाद सतह के नीचे उतरकर असल में कार्यरत
शक्तियों को उद्घाटित करते हैं ।
मार्क्स की इस किताब को पढ़ते हुए उनकी धारणाओं
को लेकर पहले उलझन होती है कि आखिर ये धारणाएँ आ कहाँ से रही हैं लेकिन धीरे धीरे आप
मूल्य और वस्तु पूजा जैसी धारणाओं को समझना शुरू कर देते हैं । दिक्कत यह है कि किताब
के खत्म होने पर पूरा तर्क समझ में आता है इसीलिए लेखक का सुझाव है कि एक बार आद्यंत
खत्म कर लेने के बाद दोबारा पढ़ने से यह किताब मज़ा देती है । खासकर शुरू के तीन अध्याय
तो बिना कुछ समझ में आए ही बीत जाते हैं । इसके बाद के अध्यायों में ही पता चलता है
कि उनके द्वारा निर्मित धारणाओं का उपयोग क्या है ।
मार्क्स माल की धारणा से शुरू करते हैं । उनके
लेखन को देखते हुए उम्मीद बनती है कि बात वर्ग संघर्ष से शुरू होनी चाहिए थी लेकिन
तीन सौ पन्नों से पहले इस तरह की कोई बात ही नहीं शुरू होती । या फिर मुद्रा से ही
शुरू करते । खुद मार्क्स पहले मुद्रा से ही शुरू करना चाहते थे लेकिन अध्ययन के बाद
उन्हें लगा कि पहले मुद्रा की व्याख्या करना जरूरी है । श्रम से भी तो शुरू कर सकते
थे? कुछ कागजों से पता चलता है कि बीस तीस सालों तक
वे इस समस्या से जूझते रहे थे कि शुरू कहाँ से करें । अंत में उन्होंने माल से शुरू
किया और इसकी कोई वजह भी नहीं बताई है । मार्क्स ने जिस धारणात्मक औजार का निर्माण
किया है वह सिर्फ़ ‘पूँजी’ के पहले खंड के
लिए नहीं बल्कि अपने समूचे विश्लेषण के लिए बनाया है ।
अगर आप पूँजीवादी उत्पादन पद्धति को समझना चाहते
हैं तो तीनों खंड देखने होंगे और फिर भी एक बात ध्यान में रखना होगा कि जितनी बातें
उनके दिमाग में थीं उनका महज आठवाँ हिस्सा ही वे लिख सके थे । अपनी किताब की पूरी योजना
उन्होंने कुछ इस तरह बनाई थी-1) सामान्य,
अमूर्त निर्धारक जो कमोबेश सभी सामाजिक रूपों में लागू होते हैं—2)
वे कोटियाँ जो बुर्जुआ समाज की आंतरिक संरचना की बनावट हैं और जिन पर
बुनियादी वर्ग आधारित हैं । पूँजी, पगारजीवी श्रम, भू संपदा । उनका अंतस्संबंध । शहर और देहात । तीन बड़े सामाजिक वर्ग । उनके
बीच लेन देन । वितरण । उधारी व्यवस्था (निजी) । राज्य के रूप में बुर्जुआ समाज का संकेंद्रण । उसका अपने साथ संबंध ।
‘अनुत्पादक’ वर्ग । कराधान । सरकारी कर्ज़ । सार्वजनिक
उधारी । जनसंख्या । उपनिवेश । उत्प्रवास । 4) उत्पादन का अंतर्राष्ट्रीय
संबंध । अंतर्राष्ट्रीय श्रम विभाजन । अंतर्राष्ट्रीय विनिमय । निर्यात और आयात । विनिमय
की दर । 5) विश्व बाज़ार और संकट । मार्क्स अपनी इस परियोजना को
पूरा नहीं कर सके । इनमें से ज्यादातर की समझदारी पूँजीवादी उत्पादन को समझने के लिए
बेहद जरूरी है । आप देख सकते हैं कि किताब के पहले खंड में मार्क्स पूँजीवादी उत्पादन
पद्धति को सिर्फ़ उत्पादन के नजरिए से समझते हैं । दूसरे खंड (अपूर्ण) में विनिमय संबंधों का परिप्रेक्ष्य अपनाया गया
है । तीसरे खंड (अपूर्ण) में पूँजीवाद के
बुनियादी अंतर्विरोधों के उत्पाद के बतौर प्रथमत: संकट-निर्माण पर ध्यान केंद्रित किया गया है । उसके बाद ब्याज, वित्त पूँजी पर मुनाफ़ा, जमीन का किराया, व्यापारिक पूँजी पर मुनाफ़ा, कराधान आदि के रूप में अधिशेष
का वितरण पर विचार किया गया है ।
मार्क्स की पद्धति द्वंद्ववादी थी जिसे उनके मुताबिक
आर्थिक मुद्दों पर पहले लागू नहीं किया गया था । अब दिक्कत यह है कि अगर आप किसी खास
अनुशासन में गहरे धँसे हुए हैं तो संभावना ज्यादा इस बात की है कि द्वंद्ववादी पद्धति
का इस्तेमाल आपके लिए मुश्किल होगा । द्वंद्ववाद के मुताबिक प्रत्येक वस्तु गति में
होती है । मार्क्स भी महज श्रम की नहीं बल्कि श्रम की प्रक्रिया की बात करते हैं ।
पूँजी भी कोई स्थिर वस्तु नहीं बल्कि गतिमान प्रक्रिया है । जब वितरण रुक जाता है तो
मूल्य गायब हो जाता है और पूरी व्यवस्था भहरा जाती है । उनकी किताब में अक्सर वस्तुओं
की बजाए उनके आपसी संबंधों का जिक्र दिखाई पड़ता है । आज की तारीख में
‘पूँजी’ के अध्ययन की एक और समस्या है । पिछले
तीस सालों से जो नव- उदारवादी प्रतिक्रांतिकारी धारा विश्व पूँजीवाद
के क्षेत्र में प्रबल रही है उसने उन स्थितियों को और मजबूत किया है जिन्हें मार्क्स
ने 1850-60 के दशक में इंग्लैंड में विखंडित किया था ।
बात दोबारा माल से ही शुरू करते हैं । मालों का
व्यापार बाज़ार में होता है । सवाल खड़ा होता है कि आखिर यह आर्थिक लेन देन कैसा है ।
माल मनुष्य के किसी न किसी अभाव, जरूरत या इच्छा को पूरा करता है । यह हमसे बाहर मौजूद
कोई वस्तु होती है जिसे हम अधिग्रहित करते और अपनाते हैं । मार्क्स तुरंत ही घोषित
करते हैं कि उन्हें उन जरूरतों की प्रकृति से कोई लेना देना नहीं, उन्हें इससे भी कोई
मतलब नहीं कि ये पेट से उपजती हैं या दिमाग से । उन्हें सिर्फ़ इससे मतलब है कि लोग
उन्हें खरीदते हैं और इस काम का रिश्ता इस बात से है कि लोग जिंदा कैसे रहते हैं ।
अब माल तो लाखों हैं जिन्हें मात्रा या गुण के हिसाब से हजारों तरह से वर्गीकृत किया
जा सकता है । लेकिन वे इस विविधता को एक किनारे धकेलकर उनको उनके सामान्य गुण में बदलते
हैं जिसे वे उपयोगिता के बतौर व्याख्यायित करते हैं । वस्तु का यह ‘उपयोग मूल्य’ उनके
समूचे चिंतन में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । मार्क्स ने कहा था कि सामाजिक
विज्ञानों में प्रयोगशाला की सुविधा न होने से हमें अमूर्तन का सहारा लेना पड़ता है
। आप देख सकते हैं कि कैसे भिन्न भिन्न वस्तुओं के भीतर से उन्होंने अमूर्तन के जरिए
‘उपयोग मूल्य’ प्राप्त किया । लेकिन जिस तरह के
समाज का वर्णन मार्क्स कर रहे थे यानी पूँजीवादी समाज उसमें माल, विनिमय मूल्य के भी भौतिक वाहक होते हैं । हार्वे हमसे वाहक शब्द पर गौर करने
को कहते हैं क्योंकि किसी चीज का वाहक होना और वही चीज होने में फ़र्क है । अब मार्क्स
एक नई धारणा से हमारा परिचय कराना चाहते हैं ।
जब हम बाज़ार में विनिमय की प्रक्रिया को देखते
हैं तो नाना वस्तुओं के बीच विनिमय की नाना दरें और देश काल की भिन्नता होने से एक
ही वस्तु की अलग अलग विनिमय दरें दिखाई पड़ती हैं । इसलिए पहली नजर में लगता है कि विनिमय
दरें ‘कुछ कुछ सांयोगिक और शुद्ध रूप से सापेक्षिक’
हैं । इससे प्रकट होता है कि ‘अंतर्निहित मूल्य,
यानी ऐसा विनिमय मूल्य जो वस्तु के साथ अभेद्य रूप से जुड़ा हुआ,
उसमें अंतर्निहित है, का विचार आत्म-विरोधी प्रतीत’ होता है । यहाँ आकर वे कहते हैं कि भिन्न
भिन्न वस्तुओं में आपसी विनिमय के लिए जरूरी है कि वे किसी अन्य वस्तु से तुलनीय हों
। ‘उपयोग मूल्य के रूप में वस्तुएँ एक दूसरे से गुणात्मक तौर
पर अलग होती हैं जबकि विनिमय मूल्य के रूप में उनमें सिर्फ़ मात्रा का भेद हो सकता है
और उपयोग मूल्य का एक कण भी बचा नहीं रहता ।’ वस्तुओं की विनिमेयता
उनके उपयोग मूल्य पर निर्भर नहीं होती । अब उस तीसरे तत्व का प्रवेश होता है जो इन
वस्तुओं के बीच साझा है और वह है कि ये सभी ‘श्रम का उत्पाद’
हैं । मतलब सभी वस्तुएँ अपने उत्पादन में लगे मानव श्रम का वाहक होती
हैं । इसके बाद वे पूछते हैं कि आखिर किस तरह का श्रम उनमें साकार हुआ है । यह ठोस-श्रम यानी श्रम-काल तो हो नहीं सकता क्योंकि तब वही वस्तु
अधिक कीमती होगी जिसके उत्पादन में ज्यादा समय लगेगा । लोग फिर उस वस्तु को खरीदेंगे
जिसे कम समय में बनाया गया होगा । इस समस्या को हल करने के लिए वे मानव श्रम का भी
अमूर्तन करते हैं । मूल्य फिर क्या हुआ ? माल में ‘साकार—या—वस्तूकृत—अमूर्त मानव श्रम ।’ तो यह अमूर्त मानव श्रम है श्रम-शक्ति अर्थात समाज की ‘समूची श्रम-शक्ति जो मालों की दुनिया में साकार’ होती है ।
इस धारणा में वैश्विक पूँजीवाद की धारणा शामिल
है जिसको उन्होंने ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’
में पूरी तरह से उद्घाटित किया था । आज का वैश्वीकरण तो उनके समय नहीं
था लेकिन वे पूँजीवादी उत्पादन पद्धति की विश्वव्यापी उपस्थिति को भविष्य में साकार
होता देख रहे थे । इसी के आधार पर उन्होंने मूल्य को ‘सामाजिक रूप से अनिवार्य श्रम-काल’
के बतौर परिभाषित किया । जिन्होंने रिकार्डो का लेखन देखा है वे समझेंगे कि मार्क्स
‘सामाजिक रूप से अनिवार्य श्रम-काल’ की धारणा के अलावे ज्यादातर उन्हीं का अनुसरण कर
रहे थे लेकिन यह छोटी सी बात बहुत बड़ा फ़र्क पैदा कर देती है क्योंकि तुरंत ही सवाल
पैदा होता है कि सामाजिक रूप से अनिवार्य क्या है और उसे तय कौन करता है । मार्क्स
इसका कोई जवाब तो नहीं देते लेकिन पूरी किताब में यह विषय समाया हुआ है । पूँजीवादी
उत्पादन पद्धति में आखिर कौन सी सामाजिक अनिवार्यताएँ नत्थी हैं ? यह हार्वे को बड़ा सवाल लगता है और अनिवार्यताओं के विकल्प खोजने के लिए प्रेरित
करता है । मूल्य स्थिर नहीं होता बल्कि तकनीक और उत्पादकता में क्रांति होने पर वे
बदलते रहते हैं ।
तकनीक और उत्पादकता के साथ ही वे अन्य कारकों की
चर्चा भी करते हैं । इसमें शामिल हैं ‘मजदूरों के कौशल का
औसत स्तर, विज्ञान के विकास और उसके तकनीकी प्रयोग का स्तर,
उत्पादन प्रक्रिया का सामाजिक संगठन, उत्पादन के
साधनों का विस्तार और प्रभाव और प्राकृतिक पर्यावरण की स्थितियाँ ।’ इनकी गणना करना मार्क्स का मकसद नहीं है बल्कि वे महज इस तथ्य पर जोर देना
चाहते हैं कि वस्तु का मूल्य स्थिर नहीं होता वरन अनेक कारकों से प्रभावित होता रहता
है ।
यहाँ आकर मार्क्स के तर्क में एक पेंच पैदा होता
है । वे उपयोग मूल्य की ओर दोबारा लौटते हैं और कहते हैं कि
‘मूल्य बने बगैर भी कोई वस्तु उपयोग मूल्य हो सकती है ।’ हम साँस लेते हैं लेकिन हवा को बोतल में बंद कर अब तक उसे खरीद-बेच नहीं सके हैं । वे यह भी जोड़ते हैं कि ‘माल बने बगैर
भी मानव श्रम का कोई उत्पाद उपयोगी हो सकता है ।’ घरेलू अर्थतंत्र
में बहुत कुछ माल उत्पादन से बाहर उत्पादित किया जाता है । इसलिए पूँजीवादी उत्पादन
पद्धति में सिर्फ़ उपयोग मूल्य नहीं बल्कि दूसरों के लिए उपयोग मूल्य का उत्पादित होना
जरूरी है जिसे बाज़ार की मार्फ़त दूसरों तक पहुँचना होता है । मतलब कि माल में उपयोग
मूल्य और विनिमय मूल्य होते हैं लेकिन विनिमय मूल्य में निहित ‘मूल्य’ के साकार होने के लिए उसमें उपयोग मूल्य का होना
जरूरी है ।
इसके बाद हार्वे अनुभाग
2 की व्याख्या शुरू करते हैं और बताते हैं कि इसमें मार्क्स अनेक जटिल
सूत्रों को उठाते हैं और उन्हें महत्वपूर्ण कहकर आपको समझने के लिए आमंत्रित करते हैं
। मार्क्स लिखते हैं ‘उपयोग मूल्य दो तत्वों का संश्रय होता है,
प्रकृति द्वारा प्रदत्त सामग्री और श्रम ।’ इसलिए
मनुष्य जब उत्पादनरत होता है तो प्रकृति के नियमों के अनुसार ही आगे बढ़ सकता है । हार्वे
का यह अध्ययन एक हद तक ‘पूँजी’ के प्रति
उस आकर्षण का प्रमाण है जो अनेक आर्थिक और अर्थेतर कारणों से पैदा हुआ है । तकरीबन
348 पृष्ठों की इस किताब के कुछेक शुरुआती अंशों का सार हमने महज बानगी
के लिए पेश किया है । कुछ हद तक इस व्याख्या में फ़्रांसिस ह्वीन की जीवनी में संकेतित
पद्धति का उपयोग किया गया है और कुछ विनिमय मूल्य की प्रभुता की मार्क्स द्वारा की
गई पहचान और उससे पैदा होने वाले संकट के आभास के बारे में मार्क्स के विश्लेषण पर
जोर के बढ़ने का संकेत है । स्थान की कमी के कारण हम इस विवेचन को आगे विस्तार देने
में असमर्थ हैं ।
बढ़ता दबदबा
टेरी ईगलटन की किताब
‘व्हाई मार्क्स वाज राइट’ येल यूनिवर्सिटी से
2011 में प्रकाशित हुई है । पुस्तक का प्रारूप लोकप्रिय किस्म का है
और लेखक का इरादा भी आम तौर पर मार्क्सवाद के बारे में प्रचारित भ्रमों का बहुत ही
सरल सहज भाषा में खंडन निराकरण है । भूमिका में ईगलटन लिखते हैं कि पूरी किताब एक झटके
में इस सवाल के इर्द गिर्द लिखी गई है कि अगर मार्क्सवाद पर लगाए गए सारे आरोप गलत
निकले तो? लेकिन लेखक में मार्क्स के प्रति कोई श्रद्धाभाव नहीं
है । हम सभी जानते हैं कि उन्होंने मार्क्सवाद से शुरू तो किया लेकिन फिर पश्चिम में
जो भी वैचारिकी चली उसके साथ हेल मेल भी किया । उनकी यह किताब भी मार्क्सवाद के बढ़ते
हुए प्रभाव का सूचक है ।
ईगलटन सबसे पहले इस आपत्ति पर विचार करते हैं कि
मार्क्सवाद औद्योगिक पूँजीवादी समाज की समस्याओं से जुड़ा हुआ था लेकिन अब दुनिया बदल
चुकी है इसलिए इस उत्तर औद्योगिक दुनिया में मार्क्सवाद की प्रासंगिकता समाप्त हो गई
है । जवाब देते हुए वे कहते हैं कि अगर ऐसा हो जाए तो मार्क्सवादियों से अधिक कोई भी
खुश नहीं होगा । मार्क्सवाद तो बहुत कुछ चिकित्सा के पेशे की तरह है जिसका मकसद अपनी
ही जरूरत को खत्म करना है । मार्क्सवाद को तभी तक रहना है जब तक उसका विरोधी अर्थात
पूँजीवाद है । उनका कहना है कि आज पूँजीवाद खत्म होने की बजाए और भी आक्रामक होकर सामने
आया है । जहाँ तक पूँजीवाद का रूप बदलने की बात है मार्क्स भी इस बात को जानते थे कि
यह अत्यंत परिवर्तनशील है । मार्क्सवाद ने ही इसके अलग अलग रूपों-
व्यापारी, खेतिहर, औद्योगिक,
इजारेदार, महाजनी- आदि को
पहचाना और अलगाया था । जो पूँजीवाद आज अधिकाधिक अपने शुरुआती रूप में लौटता जा रहा
है उसी के समर्थक इसे बदलाव साबित करने पर तुले हुए हैं । हुआ दरअसल यह है कि
70 और 80 के दशक में पूँजीवाद ने अपना रूप बदला
था और पारंपरिक औद्योगिक उत्पादन की जगह उपभोक्तावाद, संचार,
सूचना प्रौद्योगिकी और सेवा क्षेत्र की उत्तर औद्योगिक संस्कृति सामने
आई । लेकिन मार्क्सवादियों के पीछे हटने या पाला बदलने का कारण पूँजीवाद के रूप का
बदलाव नहीं बल्कि उसके खात्मे की कल्पित असंभाव्यता थी । उनका कहना है कि आज के पूँजीवाद
की आक्रामकता का कारण पूँजी की दुश्चिंता है । यह आत्मविश्वास के कारण नहीं बल्कि भयजनित
प्रतिक्रिया है । इसके पीछे दूसरे विश्व युद्ध के बाद आए उछाल का खत्म होना है । इसी
भय के कारण पूँजी हलका भी विरोध बर्दाश्त नहीं कर पा रही है । पूँजी की इस नई आक्रामकता
के साथ वाम की निराशा ही मार्क्सवाद के अप्रासंगिक होने की घोषणाओं का मूल कारण है
। आज की तारीख में मार्क्सवाद को बीते समय की बात कहना ऐसे ही है जैसे आग लगाने वालों
की ताकत का मुकाबला न कर पाने के कारण आग बुझाने की व्यवस्था को बेकार कह देना ।
इसके बाद वे दूसरे आरोप की चर्चा करते हैं कि चलिए
सिद्धांत तो ठीक है लेकिन व्यवहार ने बेकार की हिंसा को बढ़ावा दिया है । इसके उत्तर
में वे आधुनिक समय के युद्धों की हिंसा को सामने रखकर बताते हैं कि उनके मुकाबले समाजवादी
देशों की हिंसा कुछ भी नहीं रही है । जैसे पूँजीवाद तमाम खून खराबे के बावजूद अनेक
सकारात्मक उपलब्धियों के लिए जाना जाता है वैसे ही समाजवादी समाजों की भी अपनी कमियों
के बावजूद उल्लेखनीय उपलब्धियाँ रही हैं । सोवियत रूस में लोकतंत्र की कमी को उन परिस्थितियों
में देखा जाना चाहिए जो क्रांति के तत्काल बाद पैदा हुईं । लेकिन समाजवाद ने इससे सीख
भी ली है और पूँजीवाद की ताकत को पहचानते हुए बाज़ार समाजवाद जैसी चीज विकसित करने की
कोशिशें जारी हैं । हालांकि उनकी खूबियों खामियों की चर्चा भी होती है लेकिन महत्वपूर्ण
बात नई दिशा में आगे जाने का खुलापन है । इसके बाद विस्तार से वे इस तरह के प्रयोगों
में लोकतंत्र की संभावना पर विचार करते हैं ।
तीसरे आरोप की चर्चा करते हुए वे मार्क्सवाद को
निर्धारणवादी साबित करने की कोशिश का जिक्र करते हैं । इसका उत्तर देते हुए वे बताते
हैं कि मार्क्स की ज्यादातर मान्यताओं का उत्स उनसे पहले के चिंतकों में मौजूद है ।
वर्ग संघर्ष की धारणा के साथ उत्पादन संबंध को जोड़कर सामाजिक परिवर्तन का एक खाका प्रस्तुत
करना उनका मौलिक योगदान कहा जा सकता है और इसी पर निर्धारणवाद का आरोप भी लगा है ।
लेकिन खुद मार्क्सवादियों ने इस पर सवाल उठाए हैं । इस मामले में द्वंद्वात्मकता पर
जोर देने के बावजूद वे कुछ हद तक इस आरोप को स्वीकार करते हैं लेकिन दूसरे तरह से मार्क्स
के सोचने को भी रेखांकित करते चलते हैं । उनका कहना है कि हालाँकि मार्क्स सामाजिक
परिवर्तन में उत्पादक शक्तियों की प्रधान भूमिका
देखते हैं लेकिन उत्पादन संबंधों की भूमिका को भी पूरी तरह खारिज नहीं करते
। ईगलटन के मुताबिक मार्क्स अनेक मामलों में सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में सचेतन
कारक के बतौर मनुष्य की पहचान भी कराते हैं । वे यह भी बताते हैं कि मार्क्स के तईं
इतिहास एकरेखीय तरीके से नहीं आगे बढ़ता बल्कि उनके चिंतन में पर्याप्त जटिलता को समाहित
करने की गुंजाइश है ।
चौथे आरोप की चर्चा वे इस रूप में करते हैं कि
मार्क्स के सपनों का साम्यवाद मनुष्य की प्रकृति को अनदेखा करके गढ़ा गया है । मनुष्य
स्वार्थी, संग्रही, आक्रामक और स्पर्धा करने वाला प्राणी होता है । इस बात को भुलाकर
मार्क्स साम्यवाद का सपना बुनते हैं । इस आरोप को ईगलटन सिरे से खारिज करते हैं और
बताते हैं कि असल में तो मार्क्स पर यह आरोप ज्यादा सही होगा कि वे भविष्य की कोई समग्र
रूपरेखा नहीं खींचते । भविष्य को लेकर अटकल न लगाने की मार्क्स की आदत के पीछे ईगलटन
एक सचेत कोशिश देखते हैं और वह यह कि ऐसा करने से वर्तमान में करणीय के प्रति उत्साह
खत्म हो जाएगा । वे कहते हैं कि भविष्यकथन मार्क्सवादियों का नहीं पूँजीवाद के समर्थकों
का पेशा है जो आपके धन की सुरक्षा की गारंटी लिए फिरते हैं । असल में मार्क्स के जमाने
में ढेर सारे लोग भविष्य के प्रति अगाध आशा से भरी भविष्यवाणी किया करते थे क्योंकि
उन्हें लगता था कि दुनिया को तर्क की ताकत से बदला जा सकता है लेकिन मार्क्स के लिए
यह काम वर्तमान के ठोस संघर्षों के जरिए होना था । वे मानते थे कि वर्तमान में ही वे
शक्तियाँ होती हैं जो भविष्य का निर्माण करती हैं । मजदूर आंदोलन का काम उन शक्तियों
को मुक्त करना है ।
पाँचवें आरोप की चर्चा करते हुए वे मार्क्सवाद
द्वारा हरेक समस्या को आर्थिक साबित करने के आरोप का उल्लेख करते हैं । मार्क्स के
विरोधी कहते हैं कि कला, धर्म, राजनीति,
कानून, नैतिकता, युद्ध आदि
को अर्थिक व्यवस्था का प्रतिबिंब माना गया है और इस तरह मार्क्स जिस पूँजीवाद का विरोध
कर रहे थे उसी के तर्क से ग्रस्त दिखाई पड़ते हैं । इसके बारे में जवाब देते हुए ईगलटन
कहते हैं कि आर्थिक पहलू तो इतना स्पष्ट है कि कोई इसमें कैसे संदेह कर सकता है
! कुछ भी करने से पहले मनुष्य को खाना-पीना होता
है । ‘जर्मन आइडियोलाजी’ में मार्क्स लिखते
हैं कि पहला ऐतिहासिक कार्य हमारी भौतिक जरूरतों को पूरा करने के साधनों का उत्पादन
है, इसके बाद ही कोई और काम किया जा सकता है । संस्कृति का आधार
श्रम है । भौतिक उत्पादन के बिना कोई सभ्यता संभव नहीं । लेकिन मार्क्सवाद इतना ही
नहीं है । वह कहता है कि इसी से अंतत: सभ्यता का स्वभाव तय होता
है । वैसे भी मार्क्स के विरोधी इससे इनकार नहीं करते बस वे अपघटन पर आपत्ति प्रकट
करते हैं । वे निर्धारकों की बहुलता पर जोर देते हैं । लेकिन क्या इस बहुलता के भीतर
किसी एक की प्रधानता नहीं होती ? इसको मानने से कारकों की बहुलता
खंडित नहीं होती । माना जा सकता है कि कोई परिघटना बहुत से कारकों का परिणाम होती है
लेकिन उन सबको समान रूप से महत्वपूर्ण मान पाना मुश्किल है । आपत्ति असल में किसी एक
की प्रधानता पर नहीं बल्कि प्रत्येक प्रसंग में एक ही कारक की प्रधानता पर है । इतिहास
में पैटर्न की मौजूदगी से किसी को कैसे इनकार हो सकता है ? मसलन
यूँ ही तो नहीं हुआ कि फ़ासीवाद एक ही समय समूचे यूरोप में उदित हुआ । यह सही नहीं कि
मार्क्स के लिए इतिहास का महावृत्तांत प्रगति का है बल्कि अगर है भी तो तकलीफ और कष्ट
का है । असल में मार्क्स के लेखन में अन्य तमाम चीजों को आर्थिक रूप में अपघटित नहीं
किया गया है बल्कि राजनीति, संस्कृति, विचार,
विज्ञान, विचार और सामाजिक अस्तित्व का स्वतंत्र
इतिहास है, वे महज अर्थतंत्र की छायाएँ नहीं बल्कि उस पर भी प्रभाव
डालने में समर्थ तत्व हैं । ‘आधार’ और
‘अधिरचना’ के बीच एकतरफ़ा संपर्क नहीं होता बल्कि
पारस्परिकता होती है । बात यह है कि मनुष्य जिस तरह अपने भौतिक जीवन का उत्पादन करते
हैं वह उनके द्वारा सृजित सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी संस्थाओं का रूप तय करता है । ‘निर्धारित’
का अर्थ यहाँ सीमा निश्चित करना है ।
उत्पादन पद्धति सीधे खास तरह की राजनीति,
संस्कृति या विचारधारा को पैदा नहीं करती, न ही
एक ही तरह के विचारों को जन्म देती है । अगर ऐसा होता तो पूँजीवादी दौर में मार्क्सवाद
का जन्म ही असंभव होता । यह कहना ठीक नहीं कि मार्क्स इतिहास की आर्थिक व्याख्या पेश
करते हैं । इसके बजाए उनके अनुसार इतिहास की चालक शक्ति वर्ग और वर्ग संघर्ष हैं जो
मार्क्स के लेखन में आर्थिक से ज्यादा सामाजिक कोटि हैं । मार्क्स ‘सामाजिक’ उत्पादन संबंधों और ‘सामाजिक’
क्रांति की बात करते हैं । सामाजिक कोटि के रूप में वर्ग के निर्धारण
में रीति रिवाज, परंपरा, सामाजिक संस्थाएँ,
मूल्य मान्यता और सोचने की आदतें शामिल हैं । वे राजनीतिक परिघटना भी
हैं । मार्क्स के लेखन से यह भी संकेत मिलता है कि जिस वर्ग का कोई राजनीतिक प्रतिनिधित्व
नहीं वह सही मायने में वर्ग ही नहीं है । वर्ग के वर्ग सचेत होने में कानूनी,
सामाजिक, सांस्कृतिक और वैचारिक प्रक्रियाएँ मदद
करती हैं । असल में तो मार्क्स की पूरी लड़ाई मनुष्य को महज आर्थिक बना देने वाली व्यवस्था
से है । इसीलिए उनकी कल्पना के समाज में इतनी प्रचुरता होनी है कि मनुष्य को हर वक्त
धन के बारे में न सोचना पड़े ।
छठें आरोप को वे यह कहकर सूत्रबद्ध करते हैं कि
विरोधियों के अनुसार मार्क्स परम भौतिकवादी थे । उनके लिए मानवता की आध्यात्मिक उपलब्धियों
का कोई मूल्य नहीं था । धर्म को तो उन्होंने खारिज ही कर दिया था । इस तरह उनके चिंतन
में ही स्तालिन अथवा परवर्ती कम्युनिस्ट शासकों के अत्याचारों के बीज निहित हैं । इसका
उत्तर देते हुए ईगलटन कहते हैं कि मार्क्स इसके बारे में बहुत चिंतित नहीं थे कि दुनिया
भौतिक तत्व से बनी है या आत्मा से । असल में तो वे मानते थे कि अमूर्त सरल और निर्गुण
होता है जबकि ठोस समृद्ध और जटिल । अठारहवीं सदी के ज्ञानोदय के भौतिकवादी चिंतकों
के लिए अलबत्ता मनुष्य भौतिक दुनिया का यांत्रिक हिस्सा था । मार्क्स इस तरह की सोच
को छद्म चेतना मानते थे क्योंकि यह मनुष्यों को निष्क्रिय स्थिति में डाल देता था ।
उनके दिमाग खाली स्लेट समझे जाते थे जिन पर बाहरी दुनिया के इंद्रिय संवेदन की छाप
पड़नी थी और इसी से उसकी वैचारिक दुनिया का निर्माण होना था । मार्क्स ने इस किस्म के
भौतिकवाद से नाता तोड़ा और नए किस्म का भौतिकवाद विकसित किया । उन्होंने मनुष्य को निष्क्रिय
मानने वाले भौतिकवाद के मुकाबले उसे सक्रिय तत्व मानकर अपनी बात शुरू की । उनके मुताबिक
मनुष्य अपने आस पास के वातावरण को बदलने के क्रम में खुद को भी बदलता जाता है । बहुसंख्यक
लोगों की सामूहिक व्यावहारिक गतिविधि के जरिए ही हमारे जीवन को शासित करने वाले विचारों
को बदला जा सकता है । मार्क्स के लिए हमारे चिंतन के विषय हमारी ही गतिविधि से बनी
दुनिया है । उनके लिए मनुष्य का भौतिक अर्थात शरीर और उसका चिंतन उतने अलग नहीं थे
। मनुष्य की यह विशेषता है कि उसमें भौतिक और आध्यात्मिक को अलगाना संभव नहीं । आखिर
हमारा मस्तिष्क मांस का एक लोथड़ा भी है । मनुष्य की चेतना को समझने के लिए उसके सार्वजनिक
व्यवहार के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं होता ।
सातवाँ संभव आरोप उनके मुताबिक यह हो सकता है कि
वर्ग की कोटि बेहद पुरानी पड़ गई है । यहाँ तक कि जिस मजदूर वर्ग को उन्होंने क्रांति
और समाजवाद का पुरस्कर्ता माना था उसका भी रूप इतना बदल चुका है कि आज वह मार्क्स की
नजर से देखने पर पहचान में ही नहीं आता । इसके उत्तर में ईगलटन बताते हैं कि मार्क्सवाद
वर्ग को महज शैली, हैसियत, आय,
उच्चारण, पेशा आदि के आधार पर नहीं परिभाषित करता
। यह इससे तय होता है कि किसी विशेष उत्पादन पद्धति में आप कहाँ खड़े हैं । मजदूर वर्ग
के विलोप की कथा बहुत दिनों से सुनाई पड़ती रही है । वर्गों के संघटक तत्व हमेशा से
बदलते रहे हैं । वैसे भी पूँजीवाद विरोधों को धूमिल करता है, पुराने विभाजनों को मिटाकर नए मिश्रित रूपों को जन्म देता है, सिर्फ़ शोषण के मामले में वह समानतावादी होता है । असल में समाजवाद से भी अधिक
समता माल उत्पादन में होती है । मार्क्स इसी समरूपता के खिलाफ़ थे । आश्चर्य नहीं कि
विकसित पूँजीवाद वर्गविहीनता का धोखा देता है । हालाँकि सबको पता है कि खाई लगातार
चौड़ी हो रही है । मार्क्स के लिए मजदूर वर्ग का महत्व यह था कि वह पूँजीवादी व्यवस्था
के भीतर मौजूद होता है, उसकी कार्यपद्धति को अच्छी तरह समझता
है, राजनीतिक रूप से कुशल और सचेत समूह के बतौर संगठित कर दिया
गया है, उसके सफल संचालन के लिए अपरिहार्य है लेकिन उसे बरबाद
करने में ही उसका हित है । इसलिए वही उसे हस्तगत करके उसकी उपलब्धियों का सबके फ़ायदे
के लिए इस्तेमाल कर सकता है । मजदूर वर्ग में मार्क्स का यकीन लोकतंत्र के प्रति उनकी
गहन निष्ठा से उपजा था । मजदूर वर्ग को वे सार्वभौमिक मुक्ति का नायक मानते थे । वर्ग
पर मार्क्स का जोर वर्ग की समाप्ति के लिए है । लेकिन इस काम को मजदूर वर्ग अकेले नहीं
कर सकता । उसे अन्य वर्गों के साथ संश्रय बनाना पड़ता है । ध्यान देने की बात है कि
प्रोलेतेरियत शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा में ऐसी महिलाओं के लिए प्रयुक्त शब्द से
हुई है जो संतान पैदा करके ही राज्य की सेवा करती थीं । आज भी वे ही सबसे अधिक उत्पीड़ित
हैं । इसी मायने में डेविड हार्वे कहते हैं कि आज दुनिया में सर्वहारा की तादाद अभूतपूर्व
रूप से बढ़ गई है । मार्क्स के लिए सर्वहारा का मतलब सभी ऐसे लोगों से था जो पूँजीपति
के हाथों अपनी श्रमशक्ति बेचने के लिए मजबूर होते हैं । इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि
सर्वहारा वे हैं जिन्हें पूँजीवादी व्यवस्था के पतन से सबसे अधिक फ़ायदा होता है । मजदूर
वर्ग के खात्मे की घोषणा पहली बार नहीं हो रही है । सेवा, सूचना
और संचार क्षेत्र के विस्तार को इसका लक्षण कहा जाता है लेकिन हम देख रहे हैं कि इनसे
पूँजीवाद के बुनियादी चरित्र में कोई बदलाव आने की बजाए वह मजबूत ही हो रहा है ।
उनके अनुसार मार्क्स पर आठवाँ आरोप हिंसा को बढ़ावा
देने का लगाया जा सकता है । इसी अर्थ में मार्क्सवाद और लोकतंत्र में तालमेल बैठना
असंभव बताया जाता है । सही है कि क्रांति का विचार ही हिंसा और अराजकता की तस्वीर पैदा
करता है । इसके विरोध में समाज सुधार की कल्पना की जाती है जो शांतिपूर्ण और क्रमिक
दिखाई पड़ता है लेकिन अनेक समाज सुधार आंदोलन भी हिंसक रहे हैं । उसी तरह अनेक क्रांतियाँ
भी उतनी हिंसक नहीं रही हैं । हिंसा तो प्रतिरोध की तीव्रता के कारण होती है । मार्क्सवादियों
की नजर में किसी क्रांति की गहराई का पैमाना हिंसा नहीं होता । राजनीतिक सत्ता पर कब्जे
की कार्यवाही तात्कालिक मामला हो सकती है लेकिन क्रांति आम तौर पर दीर्घकालीन प्रक्रिया
होती है जिसमें वैचारिक संघर्ष ज्यादा बड़ी भूमिका निभाता है ।
मार्क्सवाद पर जिस नवें आरोप की कल्पना की जा सकती
है वह यह कि वह कठोर राज्य की वकालत करता है । निजी संपत्ति को खत्म करने के बाद समाजवादी
क्रांतिकारी तानाशाहों की तरह आचरण शुरू कर देंगे । वे लोगों की निजी स्वतंत्रता का
अपहरण कर लेंगे । क्रांति के बाद स्थापित शासनों में ऐसा देखा भी गया है । इस विश्वास
का कोई आधार नहीं है कि भविष्य में वे भिन्न व्यवहार करेंगे । उदार लोकतंत्र में खामियों
के बावजूद वह तानाशाही से बेहतर है । उत्तर देते हुए ईगलटन कहते हैं कि मार्क्स तो
राज्य के ही विरोधी थे । उन्होंने ऐसे समय का सपना देखा था जब राज्य का लोप हो जाएगा
। मार्क्स के विरोधी उनके सपने की खिल्ली उड़ा सकते है लेकिन उन पर तानाशाही को प्रोत्साहित
करने का आरोप नहीं लगा सकते । असल में उनका सपना पूरी तरह हवाई नहीं था । साम्यवादी
समाज में केंद्रीय प्रशासन के अर्थों में राज्य के विलोप की बात उनके कथन का सही अर्थ
नहीं प्रतीत होती । किसी भी आधुनिक जटिल संस्कृति में उसकी जरूरत रहेगी । वे तो राज्य
के हिंसा के औजार के बतौर इस्तेमाल के विरोधी लगते हैं । ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ में उन्होंने कहा कि
साम्यवाद में सार्वजनिक सत्ता का चरित्र राजनीतिक नहीं रहेगा । मार्क्स के समय ढेर
सारे अराजकतावादी लोग थे लेकिन उनसे अलग मार्क्स ने कहा कि शायद इसी ऊपर बताए गए अर्थ
में राज्य ओझल हो जाएगा । गायब होगा सत्ता का वह अंग जो सामाजिक दमन और एक वर्ग पर
दूसरे वर्ग के शासन का उपकरण है । राज्य को मार्क्स निस्संग नहीं समझते और मानते हैं
कि सामाजिक हितों के टकराव में वह पक्षपात करता है । खासकर पूँजी और श्रम के टकराव
में तो उसकी पक्षधरता खुलकर सामने आ जाती है । राज्य आम तौर पर प्रचलित सामाजिक व्यवस्था
में बदलाव की कोशिशों के विरुद्ध उसे सुरक्षा प्रदान करता है । अगर सामाजिक व्यवस्था
अन्यायपूर्ण है तो राज्य भी अन्याय का साथ देता है । राज्य के हिंसक होने में शायद
ही किसी को संदेह होगा मार्क्स तो बस यह बताते हैं कि यह हिंसा किसकी सेवा में की जाती
है । मार्क्स राज्य के बारे में इस मिथक को ध्वस्त करना चाहते थे कि वह शांति और सहयोग
को बढ़ावा देता है । राज्य को वे एक पृथक्कीकृत सत्ता मानते थे जो मनुष्य से अलग होकर
उसके नाम पर उसके भाग्य का फ़ैसला करती है । मार्क्स खुद लोकतंत्रवादी थे और इसी नाते
राज्य के तानाशाही तरीके के विरोध में थे । वैसे भी संसदीय लोकतंत्र, लोकतंत्र की छाया ही होता है । लोकतंत्र को वे महज सांसदों की संपत्ति बनाने
की बजाए उसे समूचे समाज और उसकी संस्थाओं में समाया हुआ देखना चाहते थे । वे इसे आर्थिक
और राजनीतिक क्षेत्र तक विस्तारित करना चाहते थे । उनका कहना था कि राज्य को अल्पसंख्या
का बहुसंख्या पर शासन होने की बजाए नागरिकों द्वारा अपने आप पर शासन का तरीका होना
चाहिए । मार्क्स का मानना था कि राज्य नागरिक समाज से अलग हो गया है और दोनों के बीच
विरोध पैदा हो गया है । इसी विरोध को खत्म करना और राज्य को समाज के निकट ले आना मार्क्स
का लक्ष्य था । इसी को वे लोकतंत्र कहते और समझते थे जो उनके मुताबिक समाजवाद में अपनी
पूर्णता में प्रकट होगा ।
दसवें आरोप के बतौर वे इस राय का उल्लेख करते हैं
कि पिछले चालीस बरसों के सारे क्रांतिकारी आंदोलन मार्क्सवाद की हद से बाहर हुए हैं
। नारीवाद, पर्यावरण के आंदोलन, समलिंगी आंदोलन, पशुओं के अधिकार आंदोलन, वैश्वीकरण विरोधी आंदोलन, शांति आंदोलन आदि वर्ग की कोटि
से बाहर गए और उन्होंने नई राजनीतिक सक्रियता को जन्म दिया । वाम धारा तो है लेकिन
वह उत्तर वर्गीय उत्तर औद्योगिक संसार के लिहाज से चल रहा है । इसका जवाब देते हुए
ईगलटन कहते हैं कि नए दौर का सबसे मजबूत आंदोलन तो पूँजीवाद के विरुद्ध खड़ा हुआ है,
उसे मार्क्सवाद से विच्छिन्न कैसे माना जा सकता है । जहाँ तक नारीवादी
आंदोलन के साथ मार्क्सवाद का संबंध है यह बहुत सीधा सादा नहीं रहा है । अगर कुछ पुरुष
मार्क्सवादियों ने स्त्री प्रश्न को सिरे से नकारा है तो कुछ अन्य ने इसे अपनी सैद्धांतिकी
में शामिल करने की कोशिश भी की है । कुल मिलाकर नारीवाद में मार्क्सवाद का योगदान महत्वपूर्ण
रहा है । इसी वजह से अनेक नारीवादियों ने माना कि पूँजीवाद की समाप्ति के बिना नारी
मुक्ति नहीं हो सकती । अन्य अब भी इस विश्वास पर कायम हैं कि शायद पूँजीवाद स्त्री
उत्पीड़न का खात्मा कर देगा । हालाँकि पूँजीवाद के स्वभाव में ही मार्क्स स्त्री उत्पीड़न
नहीं देखते लेकिन पितृसत्ता और वर्गीय सत्ता एक दूसरे के साथ इस कदर जुड़े हुए हैं कि
एक की समाप्ति के बगैर दूसरे की समाप्ति की कल्पना मुश्किल नजर आती है । एंगेल्स की
किताब ‘परिवार, निजी संपत्ति और राजसत्ता
का उदय’ स्त्री आंदोलन का जरूरी पाठ बनी हुई है । क्रांति के
बाद रूसी बोल्शेविकों ने स्त्री मुक्ति के सवाल को पूरी गंभीरता से उठाया और हल करने
की कोशिश की । नारीवादी सवालों की तरह ही उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों में मार्क्सवादियों
की भागीदारी सिद्धांत और व्यवहार के लिहाज से अतुलनीय रही है । सांस्कृतिक,
लैंगिक, भाषाई, भिन्नता,
अस्मिता आदि के सवाल राजसत्ता, भौतिक विषमता,
श्रम के शोषण, साम्राज्यवादी लूट, जन राजनीतिक प्रतिरोध और क्रांतिकारी रूपांतरण से जुड़े हुए हैं । अगर आप एक
से दूसरे को जुदा करेंगे तो सैद्धांतिक भ्रम के अलावा कुछ भी हासिल नहीं होगा ।
चढ़ाव उतार का जायजा
2011 में ही एरिक हाब्सबाम की ‘एबैकस’ से विशालकाय किताब ‘हाउ
टु चेंज द वर्ल्ड’ प्रकाशित हुई । पुस्तक का उपशीर्षक है
‘टेल्स आफ़ मार्क्स एंड मार्क्सिज्म’ । साफ है कि
इसमें मार्क्स और मार्क्सवाद की कहानी कही गई है । कुल दो खंडों की इस किताब के पहले
खंड में मार्क्स और एंगेल्स के लेखन की विशेषताओं को आठ अध्यायों में विवेचित किया
गया है । दूसरे खंड के आठ अध्यायों में मार्क्स एंगेल्स की मृत्यु के बाद की मार्क्सवाद
की विकास यात्रा को निरूपित किया गया है । इसमें 1956 से
2009 तक लेखक द्वारा मार्क्सवाद के सिलसिले में लिखे लेखों को कुछ को
थोड़ा बदलकर, कुछ को विस्तारित करके शामिल किया गया है । इसमें
मार्क्स-एंगेल्स और मार्क्सवाद की शास्त्रीय परंपरा के लेखकों
के अलावे सिर्फ़ ग्राम्शी को शामिल किया गया है । पुस्तक को पढ़ते हुए यह तथ्य दिमाग
में रखना उपयोगी होगा कि वे मार्क्सवाद की लेनिनीय और चीनी परंपरा के प्रति थोड़ा ज्यादा
ही आलोचनात्मक रवैया रखते हैं ।
पुस्तक के पहले अध्याय
‘मार्क्स टुडे’ में वे आज के दौर में मार्क्स की
लोकप्रियता की एक वजह यह मानते हैं कि सोवियत संघ के आधिकारिक मार्क्सवाद के अंत ने
मार्क्स को लेनिनवाद और लेनिन की प्रेरणा से बने समाजवादी निजामों के साथ जुड़ाव से
मुक्त कर दिया और इस बात की गुंजाइश बनी कि आज की दुनिया के प्रसंग में मार्क्स की
प्रासंगिकता को नई नजर से देखा परखा जाए । दूसरी वजह उनके अनुसार यह है कि
1990 के दशक में उभरने वाली वैश्विक पूँजीवादी दुनिया बहुत कुछ कम्युनिस्ट
घोषणापत्र में पूर्वाशयित दुनिया की तरह नजर आई । यह चीज घोषणापत्र की 150वीं वर्षगाँठ के समय ही दिखाई पड़ने लगी थी क्योंकि उसी समय वैश्विक अर्थव्यवस्था
में नाटकीय उथल पुथल शुरू हुई थी । उनका कहना है कि निश्चय ही इक्कीसवीं सदी के मार्क्स
बीसवीं सदी के मार्क्स से अलग होंगे । पिछली सदी में मार्क्स की जो छवि बनी उसमें तीन
तत्वों का योग था । पहला कि जिन मुल्कों में क्रांति एजेंडे पर थी और जिनमें नहीं थी
वे अलग अलग थे । इसी से दूसरी चीज यह बनी कि मार्क्स की विरासत दो हिस्सों में बँट
गई- सामाजिक-जनवादी और सुधारवादी विरासत
तथा रूसी क्रांति से बनी क्रांतिकारी विरासत । तीसरी चीज यानी 1914 से 1940 के बीच उन्नीसवीं सदी के पूँजीवाद और बुर्जुआ
समाज के विघटन से यह बात और भी उजागर हुई । तब लगा था कि पूँजीवाद शायद इस झटके से
उबर नहीं पाएगा । वह उबरा तो लेकिन पुराने रूप में नहीं । दूसरी ओर सोवियत संघ में
जो समाजवाद स्थापित हुआ वह अजेय लगता था । लेकिन ऐसी धारणा बनी कि उत्पादक शक्तियों
का पूँजीवाद के मुकाबले तीव्र विकास ही समाजवाद की बरतरी साबित करेगा जो मार्क्स ने
शायद नहीं सोचा था । मार्क्स ने यह नहीं कहा था कि पूँजीवाद उत्पादक शक्तियों का विकास
करने में अक्षम हो गया है इसलिए खत्म हो जाएगा बल्कि उनके अनुसार अति उत्पादन से पैदा
पूँजीवाद का आवर्ती संकट अर्थतंत्र को नहीं चला पाएगा और असमाधेय सामाजिक संकटों को
जन्म देगा । सामाजिक उत्पादन के परवर्ती अर्थतंत्र को जन्म देना पूँजीवाद के बस की
बात नहीं, ऐसा समाजवाद के तहत ही हो पाएगा । अब बीसवीं सदी का
यह समाजवादी ‘माडल’ खत्म हो चुका है और
दोबारा उसकी वापसी संभव नहीं है ।
फिर भी लेख के अंत में वे बताते हैं कि अनेक मामलों
में मार्क्सवादी विश्लेषण अब भी प्रासंगिक है । पहला तो पूँजीवादी आर्थिक विकास की
अबाध वैश्विक गति और अपने सामने आने वाली किसी भी चीज का नाश,
भले ही वह इनसे कभी लाभान्वित हुआ हो मसलन परिवार का ढाँचा । दूसरे पूँजीवादी
विकास के क्रम में आंतरिक ‘अंतर्विरोधों’ का जन्म जिसमें अनंत तनाव और तात्कालिक समाधान, वृद्धि
के साथ जुड़े हुए संकट और बदलाव, अधिकाधिक वैश्विक होते अर्थतंत्र
में भयावह केंद्रीकरण शामिल हैं । पुस्तक का दूसरा लेख मार्क्स से पहले के समाजवादियों
से उनके संबंध को बताता है । इसके बाद मार्क्स के चिंतन में राजनीति की महत्ता बताने
के बाद अलग अलग अध्यायों में उनकी और एंगेल्स की पुस्तकों- कंडीशन
आफ़ वर्किंग क्लास इन इंग्लैंड, कम्युनिस्ट मेनिफ़ेस्टो,
ग्रुंड्रीस आदि की व्याख्या करने के बाद मार्क्स-एंगेल्स के लेखन के प्रकाशन और संपादन की हालत का वर्णन किया गया है । कह सकते
हैं कि किताब का पहला खंड बाद में वर्णित मार्क्सवाद के विकास की पूर्वपीठिका के बतौर
लिखा गया है । पुस्तक का दूसरा खंड ‘मार्क्सिज्म’ के नाम से संकलित है और इसमें विभिन्न दौरों में मार्क्सवाद की उठती गिरती
किस्मत पर प्रकाश डाला गया है ।
कहानी की शुरुआत से पहले ही यह साफ कर देना होगा
कि इन दौरों में जहाँ पहला दौर 1880 से 1914 का है वहीं दूसरा दौर सीधे 1929 से
1945 का है । बीच का 1914 से 1929 तक का दौर, हो सकता है, बिना किसी कारण के छोड़ दिया गया हो लेकिन लेनिन के बाद सोवियत संघ और अन्य
मुल्कों में हो रहे विकास के प्रति लेखक की अरुचि की झलक भी इससे मिलती है । उनके वर्णन
में तीसरा दौर 1945 से 1983 तक का है । इसके बाद का उतार का दौर 1983 से 2000 तक का
है ।
दूसरे खंड की शुरुआत वे इस बात से करते हैं कि
मार्क्स के समर्थन और विरोध में इतना कुछ लिखा जा चुका और लिखा जा रहा है कि मौलिकता
का दावा करने वाली ढेर सारी किताबों में पुराने तर्कों का ही दोहराव नजर आता है । उनका
कहना है कि शुरू में मार्क्स को पूरी तरह से खारिज करने की प्रवृत्ति नहीं थी बल्कि
शैक्षिक जगत के लोग भी कुछ क्षेत्रों में उनके योगदान को मान्यता देते थे । वह तो जबसे
उनके सिद्धांतों को अमलीजामा पहनाने की कोशिशें शुरू हुईं तबसे समर्थन और विरोध दोनों
ही नई ऊँचाई पर जा पहुँचे ।
1880 से 1914 के बीच मार्क्सवाद के प्रभाव का विवरण
देते हुए हाब्सबाम इस बात से शुरू करते हैं कि आम तौर पर मार्क्सवाद के समर्थक इतिहासकार
जब मार्क्सवाद का इतिहास लिखने बैठते हैं तो सबसे पहले मार्क्सवादियों और गैर मार्क्सवादियों
के बीच अंतर करते हैं और गैर मार्क्सवादियों को उसमें से निकाल बाहर करते हैं जबकि
उनके अनुसार मार्क्स, फ़्रायड और डार्विन की तरह ही आधुनिक दुनिया की आम संस्कृति में
समाए हुए हैं इसके बावजूद कि मार्क्सवाद के प्रभाव का गहरा रिश्ता मार्क्सवादी आंदोलनों
से रहा है । यह प्रभाव दूसरे इंटरनेशनल के दिनों से ही महसूस होना शुरू हो गया था ।
1880 और 1890 दशक के दौरान मार्क्स के नाम से जुड़े
समाजवादी और मजदूर आंदोलनों का विस्तार हुआ और उसी के साथ इन आंदोलनों के भीतर और बाहर
मार्क्स के सिद्धांतों का प्रभाव भी बढ़ा । आंदोलन के भीतर अन्य वामपंथी विचारधाराओं
से मार्क्सवाद को होड़ करनी पड़ी और अनेक देशों में वह प्रमुख विचार के रूप में स्थापित
हुआ । आंदोलनों से बाहर यह प्रभाव कुछ अर्ध और पूर्व मार्क्सवादियों पर दिखाई पड़ा ।
उनमें से मशहूर नाम इटली में क्रोचे, रूस में स्त्रूवे,
जर्मनी में सोमबार्ट तथा शैक्षिक जगत के बाहर बर्नार्ड शा आदि हैं ।
इसी समय वह प्रवृत्ति भी दिखाई पड़ी जिसके तहत अनेक लोग मार्क्सवाद से अपना नाता तो
नहीं तोड़ते थे लेकिन धीरे धीरे जिसे वे ‘जड़सूत्रवाद’ कहते थे उससे दूर चले जाते और उन्हें ही बाद में ‘संशोधनवादी’
बुद्धिजीवी कहा गया । मार्क्स के विचारों का प्रसार इस दौर में मुख्य
रूप से यूरोप और प्रवासी यूरोपीयों में दिखाई पड़ता है । भारत में बंगाल के जो क्रांतिकारी
1914 से पहले सक्रिय थे वे बाद में मार्क्सवादी बने । हालाँकि यह दौर
मुश्किल से तीस बरसों का है फिर भी हाब्सबाम ने इसे तीन चरणों में बाँटा है । पहला
चरण इंटरनेशनल की स्थापना के बाद के पाँच छह बरसों का है जिसमें मार्क्सोन्मुखी समाजवादी
और लेबर पार्टियों का जन्म और विस्तार हुआ । इनका जन्म एक तरह से अप्रत्याशित रूप से
विभिन्न देशों के राजनीतिक पटल पर हुआ और मई दिवस जैसे कार्यक्रमों के जरिए उनकी अंतर्राष्ट्रीय
उपस्थिति भी महसूस हुई । पूँजीवाद संकट में था और मजदूर वर्ग में उसके विनाश की आशा
पैदा हुई । इसी दौर में 1891 में जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी
ने आधिकारिक रूप से मार्क्सवाद से अपने को जोड़ा । दूसरा चरण 1895 के बाद का है जब विश्व पूँजीवाद का प्रसार होने लगा । इस चरण में जन समाजवादी
मजदूर आंदोलनों की बढ़त जारी रही लेकिन इसी समय राष्ट्रीय आधार पर इस आंदोलन में विभाजन
भी दिखाई पड़े । 1905 से 1917 तक रूसी क्रांति
की प्रक्रिया तीसरा चरण है ।
मार्क्सवाद के विकास का दूसरा दौर फ़ासीवाद के विरोध
से निर्मित है जिसे 1929 से 1945 तक लेखक ने माना है । इस दौर में पश्चिमी यूरोप और अंग्रेजी भाषी इलाकों में
मार्क्सवाद गंभीर बौद्धिक ताकत के रूप में उभरा । बहरहाल 1920 में क्रांति की लहर के सुस्त पड़ते ही तीसरे इंटरनेशनल का मार्क्सवाद पश्चिमी
बौद्धिकों के लिए उतना आकर्षक नहीं रह गया । उसके मुकाबले त्रात्सकीवाद का ज्यादा आकर्षण
दिखाई पड़ा लेकिन इसका वास्तविक आंदोलन की दुनिया में कोई खास दखल नहीं बना । कम्युनिस्ट
पार्टियाँ ज्यादातर तीसरे इंटरनेशनल से प्रभावित थीं और उनके बुद्धिजीवी सदस्य इस स्थिति
से असहज महसूस करते थे । इसी कारण पश्चिम में मार्क्सवाद का विकास बहुत कुछ उसकी मुख्य
परंपरा से हटकर हुआ । सिर्फ़ साहित्य और कला के क्षेत्र में एक तरह का वामपंथी अंतर्राष्ट्रीय
सहकार मौजूद रहा क्योंकि उसमें सैद्धांतिक प्रश्नों से इतर उस समय के आंदोलनों के प्रति
भावनात्मक प्रतिबद्धता अभिव्यक्त हुई । इस क्षेत्र में ‘आधुनिकता’
को लेकर बहस में आधिकारिक वाम के सामने बौद्धिकों ने समर्पण नहीं किया
। अपनी देशी बौद्धिकता से कटे बगैर ये बुद्धिजीवी अंतर्राष्ट्रीय वाम संस्कृति के सहभागी
बने । फ़ासीवाद विरोध एक ऐसा विंदु था जिसने दुनिया भर में वामपंथी लेखकों कलाकारों
को एकजुट किया और उनकी स्वीकार्यता बढ़ाई । इसका बड़ा कारण इस दौर की महामंदी
(1929-1933) भी थी । पूँजीवादी संकट के मुकाबले नियोजित समाजवादी उद्योगीकरण
ने सोवियत संघ की लोकप्रियता में इजाफ़ा किया और हिटलर को लेकर पूँजीवादी मुल्कों के
संदिग्ध रुख के मुकाबले उसकी पराजय में रूस की भूमिका ने तो और भी बड़े पैमाने पर उसके
प्रशंसक पैदा किए । 1936 में स्पेनी गणतंत्र के समर्थन में उठी
लहर न होती तो वह लड़ाई अनजानी ही रह जाती । फ़ासीवाद के विरोध में कम्युनिस्टों की अग्रणी
भूमिका ने उन्हें विश्व शांति आंदोलन में अगुआ बना दिया । इसी दौर में मार्क्सवाद का
प्रसार पिछड़े मुल्कों खासकर चीन और भारत में हुआ जो आगामी विकास के लिहाज से महत्वपूर्ण
था ।
मार्क्सवाद के प्रभाव का तीसरा दौर हाब्सबाम के
अनुसार 1945 से 1983 तक
है । इस दौर के आते आते अधिकांश यूरोप में समाजवादी और मजदूर आंदोलनों में मार्क्स
के विचार सबसे बड़े प्रेरणा स्रोत हो गए और लेनिन तथा रूसी क्रांति की मार्फ़त बीसवीं
सदी की सामाजिक क्रांतियों के लिए चीन से पेरू तक अंतर्राष्ट्रीय दिशा निर्देशक हो
गए । दुनिया की एक तिहाई आबादी उन देशों में रहती थी जिनकी सरकारें मार्क्स के विचारों
को अपना आधिकारिक मत घोषित करती थीं । इसके अलावा बाकी दुनिया में राजनीतिक आंदोलनों
के जरिए ढेर सारे लोग मार्क्सवाद से जुड़े हुए थे । मानवता को प्रभावित करने के मामले
में यह हैसियत पहले सिर्फ़ महान धर्मों के संस्थापकों को प्राप्त थी । इस क्रम में उनके
विचारों में काफी बदलाव भी किए गए लेकिन उनके मूल निश्चय ही मार्क्स के चिंतन में मौजूद
थे । मजे की बात यह है कि उनके नाम पर स्थापित सभी शासन उदार लोकतंत्र के विपरीत लक्षणों
से युक्त थे । लेकिन मानवता के इतिहास में यह कोई नई बात नहीं है । बदलाव के सभी प्रस्तोताओं
के विचार समय के साथ बदलते हैं । कहने की जरूरत नहीं कि इसाइयत या इस्लाम के नाम पर
चल रहे शासन इनके विचारों से कितना दूर हैं । आज के एडम स्मिथ भी 1776 के एडम स्मिथ नहीं हैं । मार्क्स के विचारों का यह दबदबा सौ सालों के व्यापक
आंदोलनों का नतीजा है । उनके विचारों का यह प्रभाव पूर्व सामाजिक जनवादी पार्टियों
द्वारा उनके प्रभाव से इनकार, सोवियत संघ की बदनामी और स्तालिन
के विरुद्ध रूस में ही शासन द्वारा संचालित अभियान के बावजूद बना हुआ है । मार्क्सवाद
की इस स्थिति के तीन संभव कारण वे गिनाते हैं । पहला कि मार्क्स की मृत्यु के बाद से
ही यह यथास्थिति के लिए खतरनाक मजबूत राजनीतिक आंदोलनों के साथ और 1917 के बाद खतरनाक मानी जाने वाले सत्ताओं के साथ किसी न किसी तरह से जुड़ा रहा
है । दूसरे कि मार्क्सवाद यथास्थिति का विरोध करते हुए भी एक बौद्धिक आंदोलन रहा है
और 1970 दशक के बाद यथास्थिति का विरोध करके उसकी जगह
‘नया’ समाज या कोई आदर्श ‘पुराना’ समाज बनाने का सपना देखने वाले सभी ‘समाजवाद’ को ही अपना लक्ष्य घोषित करते रहे हैं । पुराने
काल्पनिक समाजवादों में से कोई भी मार्क्स की मृत्यु के एक साल बाद नहीं बचा रह गया
था इसलिए समाजवाद की कोई भी आलोचना मार्क्सवाद की ही आलोचना मानी जाने लगी । तीसरा
कारण बीसवीं सदी में बुद्धिजीवियों में इसके प्रति जबर्दस्त आकर्षण रहा है । उच्च शिक्षा
में बढ़ोत्तरी के साथ इनकी संख्या अभूतपूर्व रूप से बढ़ती गई और उनमें थोक के भाव मार्क्सवादी
हुए । बहरहाल 1945 के बाद पचीस सालों तक तीन परिघटनाओं का मार्क्सवाद
संबंधी बहस पर प्रभाव रहा है-
1) 1956 के बाद सोवियत संघ और अन्य समाजवादी
देशों के बीच के रिश्ते 2) ‘तीसरी दुनिया’ और खासकर लैटिन अमेरिकी देशों की घटनाएँ और 3) 1960 दशक
के अंतिम दिनों में औद्योगिक देशों के छात्रों की हड़तालें और उनका राजनीतिक रूप से
क्रांतिकारी रुख पकड़ना ।
इसी दौर में रूस की घटती लोकप्रियता के बरक्स चीन
खासकर माओ का प्रभाव बढ़ा । क्रमश: क्रांति का गुरुत्व
केंद्र ‘अल्प विकसित देशों’ या
‘तीसरी दुनिया’ की ओर खिसकता गया । इन देशों का
समाजवाद में रूपांतरण सैद्धांतिक रूप से भी ज्यादा बड़ा सवाल बनता गया । इस दौर में
पहले के दोनों दौरों की तरह कोई अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट केंद्र नहीं उभरा ।
तीसरा दौर वे 1983 से
2000 तक मानते हैं जब उनके मुताबिक मार्क्सवाद में उतार आया हालाँकि
सदी के अंतिम छोर पर उन्हें फिर से एक उभार दिखाई दे रहा है । असल में जो हुआ उसके
लक्षण 1980 दशक में ही दिखाई देने लगे थे जब पूर्वी यूरोप के
समाजवादी शासनों में संकट प्रकट होने लगे और चीन ने राह बदलनी शुरू की । हालाँकि रूस
पर इनकी निर्भरता इतनी अधिक थी कि सोवियत संघ में कम्युनिस्ट पार्टी का शासन ढहते ही
पूर्वी यूरोप के मुल्कों में ताश के पत्तों की तरह शासन बिखरने लगे और चीनी शासन को
रूस के प्रभाव से कोई सहानुभूति नहीं थी फिर भी पूरी दुनिया के वामपंथियों को इससे
झटका लगा क्योंकि समाजवाद के निर्माण का यही एकमात्र गंभीर प्रयास था । वह पूँजीवाद
के पुराने और नए केंद्रों की शक्ति को प्रतिसंतुलित करने वाली महाशक्ति था । उसके बाद
तो जनाधार वाले वे ही शासन बचे जो ‘तीसरी दुनिया’ में थे ।
मंदी ने दी नई ताकत
उसके बाद तो अमेरिका में खड़े हुए
‘अकुपाई वाल स्ट्रीट’ आंदोलन के साथ ही ढेर सारे
लोग मार्क्सवाद की ओर खिंचे आ रहे हैं । मसलन 2012 में डेविड हार्वे की किताब ‘रेबेल
सिटीज’ प्रकाशित हुई है जिसमें यूरोप, अमेरिका और दुनिया के अन्य तमाम बड़े शहरों में
फूट पड़ने वाले आंदोलनों के नगर आधारित होने के मद्दे नजर शहर के क्रांतिकारी महत्व
को समझाने की कोशिश की गई है । हमारे देश में उद्योगीकरण के बाद मजदूर आंदोलन तो जरूर
शहर केंद्रित रहे लेकिन नए दौर में बढ़ते हुए नगरीकरण की पृष्ठभूमि में इस परिघटना पर
भी ध्यान दिया जाना चाहिए ।
हाल के दिनों में मार्क्सवाद की ओर रुझान को देखते
हुए एक फ़्रांसिसी मार्क्सवादी एलेन बादू ने इस समय को मार्क्सवाद के उभार का तीसरा
दौर कहा है । इसके पहले के प्रथम दौर को वे 1792 में फ़्रांसिसी गणतंत्र की स्थापना
से लेकर 1871 में पेरिस कम्यून के पतन तक मानते हैं । दूसरा दौर 1917 की रूसी क्रांति
से शुरू होकर 1976 में चीन में माओ की सांस्कृतिक क्रांति के खात्मे तक चला था । नई
पीढ़ी के लोगों को बदलाव की प्रक्रिया को तमाम किस्म के आंदोलनों के क्षणिक उभार के
आगे स्थायी प्रतिरोध की ओर ले जाने का रास्ता मार्क्सवाद के भीतर नजर आ रहा है ।
हाल के दिनों में चीन में क्लासिकीय मार्क्सवाद
के अध्ययन की ओर रुझान दिखाई पड़ा है । सेंट्रल कंपाइलेशन एंड ट्रांसलेशन ब्यूरो के
अध्येता यांग जिन्हाई द्वारा अगस्त 2006 में लिखे
‘इंट्रोडक्शन टु मार्क्सिज्म रिसर्च इन चाइना’ शीर्षक लेख में विस्तार से इन गतिविधियों का जिक्र किया गया है । वे बताते
हैं कि पहले मार्क्सवाद को तीन हिस्सों में देखा जाता था- दर्शन,
राजनीतिक अर्थशास्त्र और वैज्ञानिक समाजवाद ताकि इसे पढ़ने और पढ़ाने में
सुभीता हो । अब ऐसा महसूस किया जा रहा है कि इस तरह देखने से इन तीनों के बीच का संबंध
स्पष्ट नहीं हो पाता था । अब बुनियादी चिंतकों की एकल चिंतन प्रक्रिया की पहचान पर
जोर दिया जा रहा है । मार्क्सवाद के स्रोतों के सवाल पर भी महसूस किया जा रहा है कि
जर्मन दर्शन, ब्रिटिश राजनीतिक अर्थशास्त्र तथा फ़्रांसिसी समाजवाद के अलावा आधुनिक
पाश्चात्य मानववाद और प्राचीन ग्रीक दार्शनिक चिंतन को शामिल किया जाना चाहिए । ऐतिहासिक
भौतिकवाद के तहत भूमंडलीकरण और समाजवाद की प्रकृति पर भी विचार होना चाहिए । मूल्य
का श्रम सिद्धांत, अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत, स्वामित्व के रूप और हरेक को काम के
अनुसार देय की धारणाओं पर भी चर्चा हो रही है । सत्ताधारी पार्टी होने के नाते समाजवादी
निर्माण का सवाल भी मार्क्स और लेनिन के लेखन को दोबारा देखकर समझने की जरूरत बढ़ रही
है । इसके अलावा पूरब के पिछड़े देशों के सामाजिक विकास के बारे में मार्क्स की धारणा
को फिर से देखा परखा जा रहा है । व्यक्ति के विकास के सवाल पर मार्क्सवादी नजरिए को
भी गंभीरता से समझने की कोशिश की जा रही है तथा व्यक्तिगत विकास और सामाजिक विकास के
आपसी रिश्तों को परखा जा रहा है । संतुलित सामाजिक विकास खासकर व्यक्ति, समाज और प्रकृति
के संतुलित विकास के बारे में एंगेल्स की ‘डायलेक्टिक्स आफ़ नेचर’ में व्यक्त धारणा
को नई चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है । साफ है कि इन चिंताओं पर चीन
के हालात की छाया है यानी सत्ताधारी पार्टी होने और पूंजीवाद के इस नए दौर में उसके
साथ रिश्ते और समाजवादी निर्माण जैसे मुद्दे विशेष रूप से उभर रहे हैं । बहरहाल नए
दौर में मार्क्सवाद के विकास की प्रक्रिया में एशियाई हस्तक्षेप का एक रूप अगर चीन
की ओर से यह योजनाबद्ध प्रयास है तो एक और चीज की ओर ध्यान देना जरूरी है । मेगा यानी
मार्क्स-एंगेल्स समग्र के संपादन-प्रकाशन
के लिए अध्येताओं का जो समूह गठित किया गया है उसमें जापान से भी कुछ अध्येताओं को
शामिल किया गया है । याद दिलाने की जरूरत नहीं कि पश्चिमी दुनिया की हलचलों का साथ
एशिया से जापान देता आया है चाहे मामला उद्योगीकरण का हो या फ़ासीवाद का । यह जरूर है
कि फ़िलहाल जापान का योगदान व्यावहारिक से अधिक अकादमिक ही दिखाई दे रहा है । चीन में
कम्युनिस्ट आंदोलन और मार्क्सवाद के प्रसार का अध्ययन करने वाले लोगों ने इसमें मार्क्स-एंगेल्स के लेखन के जापानी अनुवादों और जापानी मार्क्सवादी विद्वानों के योगदान
का उल्लेख किया है । हाल में जापानी विद्वानों के लेखन का एक संग्रह 2006 में हिरोशी उचिदा के संपादन में रटलेज से ‘मार्क्स फ़ार
21 सेंचुरी’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है । पूंजी
के फ़ारसी अनुवाद की उपयोगिता का जिक्र हमने पहले किया है । कुल मिलाकर यूरोप के बाहर
लैटिन अमेरिकी देशों के प्रयोग और ये एशियाई हस्तक्षेप नए दौर की विशेष संभावनाओं का
संकेत दे रहे हैं ।
नए दौर में मार्क्सवाद के विकास की हालत के सिलसिले
में अमरीकी विचारक रिचार्ड लेविन्स ने मार्च 1913 में लिखित
और अगस्त 1913 में बोल्शेविक मंथली मैगज़ीन में प्रकाशित
‘कांटिनियुइंग सोर्सेज आफ़ मार्क्सिज्म’ शीर्षक
लेख में लिखा है कि ‘1913 में लेनिन ने मार्क्सवाद के तीन बौद्धिक
स्रोतों का उल्लेख किया था: जर्मन दर्शन, ब्रिटिश राजनीतिक अर्थशास्त्र और फ़्रांसिसी काल्पनिक समाजवाद---लेकिन यह प्रक्रिया वहीं खत्म नहीं हुई । मार्क्सवाद हरेक युग के सर्वाधिक
विकसित, मुक्तिकारी विचारों से सीखते हुए आगे बढ़ता रहा है । मैं
यहां मार्क्सवाद को समृद्ध करने वाले चार स्रोतों को चिन्हित करना चाहता हूं
: पर्यावरण, नारीवाद, राष्ट्रीय/नस्ली संघर्ष और शांतिवाद ।’ इसके बाद वे इन चारों आंदोलनों
के सैद्धांतिक योगदान की परीक्षा करते हैं । उनका कहना है कि लेकिन ये विचार मार्क्स
के पूर्ववर्ती तीनों विचारों से अलग तरीके से मार्क्सवाद से जुड़ते हैं । ये नए विचार
मार्क्सवाद के बाहर से आए हैं लेकिन यह बाहर भी ऐसी जगह है जिस पर मार्क्सवाद का असर
है । इसीलिए इन विचारों का स्वागत भी हुआ और प्रतिरोध भी हुआ । वे कहते हैं कि अब तक
इन्हें राजनीतिक सहयोगी के बतौर ही देखा गया है लेकिन लेविन्स इनका महत्व सिद्धांत
के क्षेत्र में भी मानने पर जोर देना चाहते हैं ।
पर्यावरणवाद के सिलसिले में वे बताते हैं कि मार्क्सवाद
में पूंजीवाद की आलोचना के बतौर प्रारंभिक उद्योगीकरण के चलते प्रकृति का विनाश,
शहर और देहात के बीच जैविकीय अलगाव, शहरों और समूची
पृथ्वी का प्रदूषण जैसी बातें उठाई और शामिल की गई थीं । जीवन और समाज के द्वंद्वात्मक
नजरिए में मानवता और प्रकृति की अविभाज्यता अंतर्निहित है । लेकिन बाद में मार्क्सवाद
के भीतर जैसे जैसे सत्ता केंद्रित चिंतन हावी हुआ वैसे वैसे इसे रोजगार सृजन में बाधा
के बतौर देखा जाने लगा । इसको शहरी मध्य वर्ग तक सीमित बुर्जुआ अय्याशी भी समझा गया
। सारी मानवता की चिंता को वर्ग संघर्ष से ध्यान भटकाने वाला माना गया । पशु जगत के
प्रति चिंता को मनुष्य की समस्याओं की अनदेखी कहा गया । लेकिन इस असहजता के बावजूद
अनेक मार्क्सवादी इस आंदोलन के साथ जुड़े रहे । सोवियत संघ में तो नहीं, लेकिन जिन तीसरी दुनिया के मुल्कों में तथाकथित विकास औपनिवेशिक सत्ता की देखरेख
में हुआ था वहां मार्क्सवादी ‘विकास’ के
लिए पर्यावरण के विनाश को महसूस करते थे और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का ही अंग पर्यावरण
की रक्षा भी मानते थे । क्यूबा में तो विकास का ऐसा रास्ता अख्तियार करने की कोशिश
की गई जो पर्यावरण को नुकसान न पहुंचाए ।
नारीवाद का सवाल इससे अधिक गंभीर है । वे कहते
हैं कि वैसे तो एंगेल्स की किताब ‘परिवार, निजी संपत्ति राजसत्ता का उदय’ में कहा कि किसी भी समाज
का निर्माण तात्कालिक जीवन के उत्पादन और पुनरुत्पादन के संबंधों पर होता है लेकिन
आगे चलकर ध्यान में सिर्फ़ उत्पादन रह गया पुनरुत्पादन का तत्व विश्लेषण से गायब हो
गया । बुर्जुआ नारीवाद के उभार को बहाना बनाकर स्त्री-प्रश्न
को वर्गीय एकता को तोड़ने वाला समझा जाने लगा । लेकिन 40 के दशक
में वामपंथी नारीवदियों का एक मजबूत समूह उभरा जिसने वर्ग, लिंग
और नस्ल के तिहरे उत्पीड़न का सवाल उठाया । इन तीनों के विरुद्ध संघर्ष में एक ही तरह
की रणनीति अपनानी पड़ती है । नस्लवाद का खात्मा नस्ल की छद्म-शारीरिक
कोटि के खात्मे पर निर्भर है, लिंग आधारित उत्पीड़न भी लिंगीय
ऊंच-नीच की धारणा के खात्मे पर निर्भर है, वर्गीय शोषण भी वर्ग-समाज के उन्मूलन पर निर्भर है ।
नारीवाद ने श्रम, पुनरुत्पादन और यौनिकता, सामाजिक प्रक्रिया, विचारधारा और संगठन के मामले में
मार्क्सवाद को समृद्ध किया है । इसके बाद विंदुवार वे एक एक तत्व की शिनाख्त करते हैं-1)
स्त्रियां शायद दुनिया का अधिकांश काम करती हैं लेकिन उन्हें आदर्श श्रमिक
नहीं माना जाता । प्रत्येक समाज में उनका काम उत्पादन और पुनरुत्पादन के बीच बंटा होता
है । इसी बंटवारे के तरीके से ज्यादातर उनकी सामाजिक हैसियत तय होती है । पुनरुत्पादन
में महज गर्भ धारण नहीं आता, इसमें उत्पादक आबादी की देखरेख संबंधी
सारे काम आ जाते हैं, 2) अनेक उद्योगों में वे उजरती मजदूर होती
हैं, घर, रेस्त्रां, होटल आदि में काम करती हैं, घर और खेत में बिना पगार
के मेहनत करती हैं, 3) किसी भी समाज की निजी जिंदगी सामाजिक उत्पाद
होती है, जो असमानता स्त्रियों पर वर्ग समाज थोपता है वह घर में
व्यक्त होती है इसीलिए वाम नारीवाद ने नारा दिया ‘पर्सनल इज पालिटिकल’;
घर और वाम राजनीतिक आंदोलन में लिंग आधारित भेदभाव ने संघर्ष को कमजोर
किया, प्रतिभा को बरबाद किया और सार्वजनिक दुनिया में उत्पीड़न
को पुनरुत्पादित किया इसीलिए इस भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष आंदोलन और समाजवाद के निर्माण
का अखंड घटक है; नारीवाद के प्रति अपनी निष्ठा से वापसी पूंजीवाद
की ओर वापसी है,4) पुरुष प्रभुत्व की नारीवादी आलोचना समाज और
संगठन में पितृसत्तात्मक संरचनाओं की आलोचना तक विस्तारित हुई; इसमें थोड़ी अराजक संवेदना का पुट भी था; इस बात पर जोर
दिया गया कि बहस में सभी भाग लें और सफलता का मापदंड भागीदारों की तथा उनकी क्षमता
की बढ़ोत्तरी को माना गया,5) यौन संबंधों में असमानता और दुराचार
को परीक्षा का विषय बनाया गया, यौन क्रिया में नर-नारी दोनों की भागीदारी के बावजूद इसमें असमान शक्ति संबंध जाहिर होते हैं,
यौनिकता के सवाल पर होने वाले आंदोलनों की अगुआई स्त्रियों ने की,6)
नारीवाद एक ही किस्म का नहीं है, मुख्य रूप से
मध्यवर्गीय नारीवाद है लेकिन उसी के साथ काले लोगों के नारीवादी संगठन हैं जो गोरे
नारीवाद की सार्विक उपस्थिति को प्रश्नांकित करते हैं, वाम के
लोग नस्ल, वर्ग और लिंग आधारित उत्पीड़न की एकता की बात करते हैं,7)
घरेलू उत्पादन का आर्थिक पहलू होने के बावजूद वह माल उत्पादन नहीं होता,
इसमें श्रम विशिष्टता का प्रवेश नहीं हुआ है, उत्पादन
के औजार अभी उत्पादक से अलग नहीं हुए हैं इसलिए ‘विनिमय के लिए
उत्पादन’ का प्रवेश कराने की जबरिया कोशिश के विरुद्ध संघर्ष
में स्त्रियां आम तौर पर आगे रहती हैं ।
इसके बाद राष्ट्रीय और नस्ली संघर्षों पर वे बात
करते हैं । उनका कहना है कि मार्क्सवादी लोग अक्सर जनता को जोड़ने वाली वर्गेतर कोटियों
की अनदेखी यह कहकर करते हैं कि ये जनता की एकता को तोड़ती हैं । हालांकि ये विभाजनकारी
तो हैं लेकिन कई बार उत्पीड़न के विरुद्ध जनता को गोलबंद करने में मदद भी करती हैं ।
इसमें खासकर राष्ट्रवाद के सवाल पर हमें दुहरा रुख अपनाना चाहिए । आक्रामक राष्ट्रवाद
का विरोध करते हुए भी उत्पीड़ितों के रक्षात्मक राष्ट्रवाद का साथ देना होगा । इसी तरह
काले लोगों की नस्ली एकता नस्ली भेदभाव के विरुद्ध लड़ाई में मददगार होती है । इन कोटियों
की अंततः समाप्ति के लक्ष्य को आज उनकी अनुपस्थिति नहीं मान लेना चाहिए । इसके लिए
मार्क्सवाद के बारे में यह नजरिया भी बदलना होगा कि गैर-पूंजीवादी समाज बौद्धिक रूप से पिछड़े होते हैं इसलिए उनकी जगह पूंजीवाद का
आना विकास है । यह सवाल सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के विरोध से भी जुड़ा हुआ है जिसमें
एक द्वंद्वात्मक नजरिया अपनाना होगा ।
शांतिवाद और अहिंसा एक ही बात नहीं है । शांतिवाद
निष्क्रियता नहीं है बल्कि विरोध का एक दूसरा तरीका है । शांतिवादियों से सीखने की
बात यह भी है कि कुछ लोगों की प्रतिबद्धता व्यापक लोगों को गोलबंद करती है इसलिए आंदोलन
की ताकत संख्याबल से नहीं उसकी नैतिक श्रेष्ठता से आंकनी होगी । उन्होंने तो नहीं कहा
है लेकिन सैन्य औद्योगिक परिक्षेत्र का निर्माण तथा युद्धों में पूंजीवादी हथियार उत्पादक
साम्राज्यवाद के हित की ओर मार्क्सवादियों का ध्यान एक हद तक शांतिवादियों की वजह से
भी गया है । लेविन्स कहते हैं कि इन सबको जोड़कर ही मार्क्सवाद
‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ में वर्णित
‘समग्र आंदोलन’ बन सकता है ।
हम देख रहे हैं कि यूरोप के कुछ देशों में नए तरह
की वामपंथी राजनीति के उभार के कारण भी संगठन और आंदोलन के मामले में फिर से सुधारवादी
और संघवादी आवाजें सुनाई पड़ने लगी हैं । अनेक लोग जो पूंजीवाद के विरोध की उत्तर-आधुनिक धारा के साथ चले गए थे वे भी नए उत्साह के साथ वापसी कर रहे हैं लेकिन
स्वभावत: अपने नए और भ्रामक सूत्रीकरणों के साथ । इसीलिए दोबारा
सावधानी के साथ अपने को मार्क्सवादी कहने वालों के प्रति नए सिरे से आलोचनात्मक नजरिया
अपनाने की जरूरत है ।
संदर्भ ग्रंथ सूची
इस लेख को लिखने में निम्नांकित किताबों का सहारा
लिया गया है:
1 एजाज़ अहमद, इन
थियरी, 1994, वर्सो, लंदन न्यूयार्क
2 अंतोनियो नेग्री और माइकेल हार्ट,
एंपायर, 2000, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस
3 फ़्रांसिस ह्वीन, कार्ल मार्क्स: ए लाइफ़,2000,नार्टन,
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4 लियोनार्ड वुल्फ़, ह्वाई रीड मार्क्स टुडे, 2002,आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी
प्रेस
5 रणधीर सिंह, क्राइसिस
आफ़ सोशलिज्म, 2006, अजंता बुक्स इंटरनेशनल, दिल्ली और कनाडा
6 अर्न्स्ट फ़िशर, हाउ टु रीड कार्ल मार्क्स, 2008, आकार बुक्स,
दिल्ली
7 माइकेल ए लेबोविट्ज, द सोशलिस्ट अल्टरनेटिव: रीयल ह्यूमन डेवलपमेंट,
2010,आकार बुक्स, दिल्ली
8 माइकेल ए लेबोविट्ज, बीयांड कैपिटल, 2003, पालग्रेव मैकमिलन, न्यूयार्क
9 इस्तवान मेजारोस, बीयांड कैपिटल, खंड 1 और
2, 2000, के पी बागची, कोलकाता
10 इस्तवान मेजारोस, द चैलेंज एंड बर्डेन आफ़ हिस्टारिकल टाइम, 2009, आकार
बुक्स, दिल्ली
11 डेविड हार्वे, ए कंपेनियन टु मार्क्स’ कैपिटल, 2010, वर्सो, लंदन न्यूयार्क
12 टेरी ईगलटन, ह्वाई मार्क्स वाज राइट, 2011, येल यूनिवर्सिटी प्रेस
13 एरिक हाब्सबाम, हाउ टु चेंज द वर्ल्ड, 2011, एबैकस
14 बर्तेल ओलमैन, डांस आफ़ डायलेक्टिक: स्टेप्स इन मार्क्स’ मेथड, 2003, यूनिवर्सिटी आफ़ इलिनोइस प्रेस
15 बर्तेल ओलमैन, मार्क्सिज्म: ऐन अनकामन
इंट्रोडक्शन, 1990, स्टर्लिंग पब्लिशिंग प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली
इन किताबों के अलावे जिन बीसियों उल्लिखित-अनुल्लिखित लेखों का उपयोग किया गया है उनके संदर्भों का जिक्र असंभव है ।
कार्ल मार्क्स-फ़्रेडरिक एंगेल्स
की जिन किताबों का उपयोग किया गया है वे हैं:
1 कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र,
प्रगति प्रकाशन
2 राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में
एक योगदान, प्रगति प्रकाशन
3 पूँजी खंड 1, प्रगति प्रकाशन
4 लुई बोनापार्त की अठारहवीं ब्रूमेर,
प्रगति प्रकाशन
5 आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियाँ
1848, प्रगति प्रकाशन