Wednesday, July 20, 2011

उपन्यास के सवाल पर एक बहस


साहित्य की महत्वपूर्ण विधाओं की दुनिया में उपन्यास सबसे नया है । संभवत: इसीलिए इसे 'नावेल' कहा गया । जीवन की समग्रता को समेटने वाली अन्य सृजनात्मक विधाओं में जहाँ श्रव्य माध्यमों का भी सहारा लिया जाता है वहीं उपन्यास में मुद्रित शब्द ही एकमात्र माध्यम होते हैं । गद्य आधारित विधा होने के कारण सांगीतिक विधान भी इससे छिन जाता है । अपनी इस अंतर्निहित सीमा के बावजूद उपन्यास नाटक या फ़िल्म जैसी महाकाव्यात्मक प्रस्तुति में सक्षम होता है । यह ऐसी विधा है जो अब तक असंख्य प्रयोगों को अनुमति देती और पचाती आ रही है । इसने उपन्यास को ऐसी विविधता दी है कि कोई सर्वमान्य परिभाषा मुश्किल हो जाती है । प्रत्येक नई कृति पुरानी धारणा के लिए चुनौती पैदा कर देती है ।

आलोचना जगत में एक परिभाषा को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त है- 'उपन्यास मध्यवर्ग का महाकाव्य है ।' यह परिभाषा प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक हेगेल ने दी थी । ध्यान देने की बात यह है कि यह परिभाषा साहित्यिक विधाओं की पुरानी परिभाषाओं की तरह बाहरी रूपाकार पर ध्यान नहीं देती बल्कि काल, आधार और अंतर्य पर जोर देती है । इसमें मध्यवर्ग थोड़ा भ्रामक है । हेगेल के समय मध्यवर्ग का उस अर्थ में प्रयोग नहीं होता था जिस अर्थ में आज होता है । तब इसका अर्थ 'बुर्जुआजी' था । उन्हें 'बर्गर' भी कहा जाता था । ग्रामीण जागीरदारों और भूदासों से भरे कृषक समुदाय की दुनिया के बाहर शहरों के उदय से यह नया वर्ग आया था । इस वर्ग का उदय पूँजीवाद के उदय से जुड़ा हुआ था । इस अर्थ में हम कह सकते हैं कि उपन्यास पूँजीवाद के दौर का महाकाव्य है । पूँजीवाद के उदय से जुड़ी कुछेक परिघटनाओं ने उपन्यास का रूप तय किया ।

एक तो है व्यक्ति का उदय । पूँजीपति वर्ग ने अपने लिए स्वतंत्र कामगार जुटाने के क्रम में सामुदायिक जीवन को नष्ट किया । व्यक्तिवाद की इस असलियत को ई एच कार ने 'इतिहास क्या है?' में व्यक्त किया है । बहरहाल आधुनिक काल का यह व्यक्ति सामुदायिक जीवन के मनुष्य से भिन्न था । महाकाव्य के सामाजिक आधार को व्याख्यायित करते हुए गोर्की ने 'व्यक्तित्व का विघटन' में बताया है कि महाकाव्यों के नायक महाबलशाली होते थे क्योंकि समुदाय के किसी एक व्यक्ति की शक्ति समूचे समुदाय की सामूहिक शक्ति के बराबर होती थी । मृतक व्यक्ति की अनुपस्थिति के अहसास से सबसे पहले 'वह' सर्वनाम पैदा हुआ होगा । इसी प्रसंग में राल्फ़ फ़ाक्स की टिप्पणी पर भी ध्यान देना उचित होगा । वे बताते हैं कि महाकाव्यों के चरित्र आम तौर पर दैवी शक्तियों से संघर्ष करते थे । आधुनिक समाज में व्यक्ति की लड़ाई दैवी शक्तियों से नहीं बल्कि मनुष्यों से ही है । अपने जीवन के लिए मनुष्य को अब अपने आस पास के समाज से ही संघर्ष करना पड़ता है पहले की तरह प्राकृतिक शक्तियों से नहीं जिन्हें दैवी शक्तियों के जरिए प्रतीकायित किया जाता था । कुल मिलाकर इसी स्थिति ने 'व्यक्तिवाद' को जन्म दिया । व्यक्तिवाद ने उपन्यास को चरित्र दिए और उन चरित्रों को विश्वसनीय बनाने के लिए ऐसे नाम रखे गए जो आस पास दिखाई पड़ते थे ।

चूँकि व्यक्ति को समाज में अपनी जगह बनाने के लिए समाज में निरंतर संघर्षरत रहना पड़ता है इसलिए उपन्यास की कथा में समय की जो धारणा प्रकट हुई वह 'ऐतिहासिक समय' था । इसके विपरीत महाकाव्यों में वर्णित समय 'पौराणिक समय' था । इसी के साथ यह अंतर भी ध्यातव्य है कि महाकाव्य का स्रोत जहाँ स्मृति है वहीं उपन्यास का स्रोत ज्ञान है । महाकाव्य में जहाँ पाठक को विख्यात कथा की काव्यात्मक प्रस्तुति का साक्षी होना होता था वहीं उपन्यास की कथावस्तु नवीन और अज्ञात होने के कारण औत्सुक्य का तत्व उसमें आवश्यक होता था । इसीलिए महाकाव्य में अतीत का वर्णन होता है लेकिन उपन्यास में वर्तमान का । ऐतिहासिक उपन्यासों को भी ध्यान से देखें तो अतीत को देखने नजरिया लेखक के वर्तमान का होता है । इसी वर्तमान को हम ऐतिहासिक समय कह रहे हैं । कहने की जरूरत नहीं कि ऐतिहासिक समय की धारणा में कार्यकारणत्व निहित था । इसने उपन्यास को उस कथा प्रवाह का ढाँचा दिया जो चरित्रों के क्रिया व्यापार से संचालित होता था । इस तरह उपन्यास 'नियति से संचालित मानव परिस्थिति' को बदलने के मानवीय प्रयास की गाथा बना । यह प्रयास ही उपन्यास के घटना प्रवाह का संचालक होता था । इस संघर्ष में मनुष्य को किसी दैवी शक्ति का आशीर्वाद प्राप्त नहीं होता था । इसलिए उसे अपनी ही अंतर्निहित शक्तियों को काम में लगाना पड़ता था । पात्रों की स्थापना इसी क्रम में होती थी ।

साफ है कि यह घटनाक्रम चूँकि एक संघर्ष का वर्णन होता था इसलिए वह आलोचना से बच नहीं सकता था । सामंती समाज के भीतर उपन्यास को पूँजीवाद की शुरुआती क्रांतिकारिता का वाहक होने के नाते आलोचना के धर्म और परिवर्तनकामी उद्देश्य से संचालित होना ही था ।

अब तक की बातचीत से स्पष्ट है कि उपन्यास की कोई भी धारणा उसकी अंतर्वस्तु पर ही बल देती है । इसी के कारण वह विभिन्न अनुशासनों की सीमाओं को छूता चलता है । समाजशास्त्र और इतिहास जैसे अनुशासन पहले भी उपन्यासों की सहायता से किसी खास दौर की सामाजिक संरचना और मनोरचना को समझने की कोशिश करते रहे हैं । कारण यह कि काल का स्पष्ट निर्देश न होने के बावजूद उपन्यास घटनाक्रम के वर्णन में अपने दौर के न सिर्फ़ निशानात छोड़ जाता है बल्कि ढेर सारी घटनाओं के भीतर से किसी विशेष घटनाक्रम का वह चुनाव करता है । जिस घटनाक्रम का चुनाव उपन्यास करता है वह अपनी प्रातिनिधिकता के कारण ही उस समय विशेष का एक हद तक प्रामाणिक दस्तावेज बन जाता है । इधर के दिनों में इतिहास के भीतर की मनोरचना पर जोर देने के चलते उपन्यास को इतिहास का स्थानापन्न भी समझा जाने लगा है किंतु दोनों अनुशासनों में एक बुनियादी फ़र्क है- इतिहास जहाँ अधिक वैज्ञानिक तरीके से किसी खास दौर में कार्यरत सामाजिक प्रक्रियाओं की जाँच पड़ताल करता है वहीं साहित्य कभी कभी आकस्मिकता का सहारा लेते हुए भी व्यक्तियों के भीतर सामाजिक आलोचना की छाप को प्रस्तुत करता है ।

यूरोप में अपने उदय और विकास के इन्हीं जन्मचिन्हों के साथ जब उपन्यास भारत में आया तो यहाँ के बौद्धिक जगत ने पश्चिम के अन्य उपयोगी साधनों मसलन छापाखाना के साथ साथ इसे भी हाथों हाथ उठाया । मैं विशेष रूप से हिंदी साहित्य के वातावरण से परिचित हूँ इसलिए उसी की मार्फ़त इस पर विचार करूँगा । उपन्यास की भारतीयता के कुल शोरगुल के बावजूद सच्चाई यही है कि सामाजिक यथार्थवाद की धारा ने उपन्यास को भारत की कथा कहने में सक्षम बनाया । यहाँ प्रेमचंद के जरिए दो बातों की ओर ध्यान दिलाना जरूरी है । एक तो है उनकी 'आदर्शोन्मुख यथार्थवाद' की धारणा और दूसरी उनके उपन्यासों की विषय वस्तु ।

उपन्यास के साथ यथार्थवाद का गहरा संबंध है । आयन वाट ने 'उपन्यास का उदय' में इस तथ्य को भी पुनर्जागरण की चेतना से जोड़कर देखा है । निर्मल वर्मा को भले यथार्थवाद भारतीय संवेदना को प्रकट करने में अक्षम प्रतीत हुआ हो पर रामचंद्र शुक्ल ने 1910 में ही 'उपन्यास' शीर्षक जो लेख लिखा था उसमें यह समझ और इसका स्वीकार दिखाई पड़ता है । वे लिखते हैं- '---उच्च श्रेणी के उपन्यासों में वर्णित छोटी छोटी घटनाओं पर यदि विचार किया जाय तो जान पड़ेगा कि वे यथार्थ में सृष्टि के असंख्य और अपरिमित व्यापारों से छाँटे हुए नमूने हैं ।---सामाजिक उपन्यास जिन जिन चरित्रों को सामने लाते हैं वे या तो ऐसे हैं जो सामाजिक व्यापारों के औसत में अथवा जिनका होना मानव प्रवृत्ति की चरम सीमा पर संभव है ।' प्रेमचंद के कथन का जो तात्पर्य था उसे शुक्ल जी ने इस लेख में पूर्वाभासित किया है- 'कहीं पर ये उपन्यास यह दिखलाते हैं कि समाज को कैसा होना चाहिए । ये कहीं से उन असंख्य व्यापारों में से, जिनसे हम घिरे हैं, कुछ एक को ऐसे स्थान पर लाकर अड़ा देते हैं जहाँ से हम उनका यथार्थ रूप और सृष्टि के बीच उनका संबंध दृष्टि गड़ाकर देख सकते हैं । और कहीं उन संभावनाओं की सूचना देते हैं जिनसे यह मनुष्य जीवन देव जीवन और यह धराधाम स्वर्गधाम हो सकता है ।' शुक्ल जी ने इसी तरह की बातें हिंदी साहित्य का इतिहास में भी लिखीं- 'समाज जो रूप पकड़ रहा है उसके भिन्न भिन्न वर्गों में जो प्रवृत्तियाँ उत्पन्न हो रही हैं उपन्यास उनका विस्तृत प्रत्यक्षीकरण ही नहीं करते आवश्यकतानुसार उनके ठीक विन्यास, सुधार अथवा निराकरण की प्रवृत्ति भी उत्पन्न कर सकते हैं ।'

इस पूर्वपीठिका पर हम प्रेमचंद की धारणा को अच्छी तरह समझ सकते हैं । ऐसा लगता है कि उस समय 'प्रकृत यथार्थवाद' को ही यथार्थवाद समझा जाता था । प्रेमचंद के लेख 'उपन्यास' में यथार्थवाद की यही धारणा है- 'यथार्थवादी अनुभव की बेड़ियों में जकड़ा होता है और चूँकि संसार में बुरे चरित्रों की प्रधानता है, यहाँ तक कि उज्ज्वल से उज्ज्वल चरित्रों में भी कुछ न कुछ दाग धब्बे रहते हैं, इसलिए यथार्थवाद हमारी दुर्बलताओं, हमारी विषमताओं और क्रूरताओं का नग्न चित्र होता है ।' आज यह पढ़कर आश्चर्य होता है कि उस समय प्रेमचंद को यथार्थवादी नहीं आदर्शवादी समझा जाता था । ऐसा उस समय प्रचलित यथार्थवाद की धारणा के कारण था । प्रेमचंद ने लिखा है- 'इसलिए हम वही उपन्यास उच्च कोटि का समझते हैं जहाँ यथार्थवाद और आदर्शवाद का समन्वय हो गया हो । उसे आप आदर्शोन्मुख यथार्थवाद कह सकते हैं ।' जैनेंद्र को लिखी चिट्ठी में भी इसी पहलू पर जोर है- 'यथार्थवादी हममें से कोई भी नहीं है । हममें से कोई भी जीवन को उसके यथार्थ रूप में नहीं दिखाता बल्कि उसके वांछित रूप में ही दिखाता है । मैं नग्न यथार्थवाद का प्रेमी भी नहीं हूँ ।'

यथार्थवाद संबंधी प्रेमचंद की धारणाओं पर विचार करने के बाद राम कृपाल पांडे ने अपने लेख 'प्रेमचंद और हिंदी का मार्क्सवादी सौंदर्य चिंतन' में सही निष्कर्ष निकाला है- 'मेरा दृढ़ मत है कि अगर आदर्शवाद को उसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि के साथ सही मायने में भावनावाद के अर्थ में ग्रहण किया जाय तो प्रेमचंद को आदर्शवादी या आदर्शोन्मुख यथार्थवादी कहना बिलकुल गलत है । और अगर आदर्शवाद को महज सुलक्ष्यवाद या सदुद्देश्यवाद के साधारण अर्थ में ग्रहण किया जाय तो उन्हें आदर्शोन्मुख यथार्थवादी कहना ठीक होगा । स्वयं प्रेमचंद ने आदर्शवाद को सदुद्देश्यवाद के साधारण अर्थ में ग्रहण किया है ।' इससे आगे बढ़कर यह भी कहा जा सकता है, और ऐसा कहना उनके उपन्यासों का विश्लेषण करने पर अतिकथन नहीं लगेगा, कि उनका 'आदर्शोन्मुख यथार्थवाद' वस्तुत: 'आलोचनात्मक यथार्थवाद' की धारणा के अधिक निकट है । जिन विदेशी उपन्यासकारों (डिकेंस, तोलस्तोय, गोर्की) को पसंदीदा लेखकों के बतौर उन्होंने गिनाया है उससे भी यही प्रमाणित होता है ।

यूरोप से उपन्यास की जो परंपरा भारत आई उसमें सामंतवाद की आलोचना का तत्व तो था किंतु भारतीय अनुभव ने आलोचना के क्षेत्र विस्तार की जरूरत पैदा कर दी । प्रेमचंद को साम्राज्यवाद और सामंतवाद के विचित्र गँठजोड़ का सामना करना पड़ा । उनकी कृतियों में सामंती उत्पीड़न और उसे संरक्षण देने वाले अंग्रेजी राज दोनों की मुखर आलोचना दिखाई पड़ती है । न सिर्फ़ इतना बल्कि कांग्रेस के मध्यवर्गीय नेतृत्व में जो स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था उसकी भी सीमाओं को वे देख रहे थे । शुरुआती उपन्यासों में अवश्य उस समय मौजूद विकल्पों के प्रति मोह दिखाई पड़ता है लेकिन 'रंगभूमि' के बाद उन्हें इन तथाकथित आश्रमों से कोई मोह नहीं रह गया ।

नामवर सिंह ने प्रेमचंद की विशिष्टता को रेखांकित करते हुए किसान समुदाय की व्यथा के चित्रण पर जोर दिया है । ऐसा संभवत: उन्होंने यूरोपीय उपन्यासों से प्रेमचंद का पार्थक्य बताने के लिए किया है । मेरा विनम्र निवेदन है कि प्रेमचंद महज किसान समुदाय और ग्रामीण जीवन के रचनाकार नहीं थे अन्यथा इसका रोमांटिक आदर्शीकरण उनमें अवश्य पाया जाता । वे भारत में औपनिवेशिक शासन के कारण आए समाजार्थिक परिवर्तनों के कथाकार थे । उनके गाँव समग्र सामाजिक आर्थिक औपनिवेशिक बुनावट के बीच अवस्थित हैं । उन्हें औपनिवेशिक शासन से मुक्ति की आकांक्षा तो थी ही उपनिवेशोत्तर भारत की भी चिंता थी । प्रेमचंद के उपन्यासों की कथाभूमि और उपन्यासों के पात्रों की गतिमान वर्गीय संरचना की दृष्टि अब भी कोई बेहतर अध्ययन नहीं हुआ है ।

प्रेमचंद द्वारा निर्मित इस ठोस जमीन पर हमें हिंदी उपन्यास के आगामी विकास को देखना चाहिए । दुख के साथ कहना पड़ता है कि कुल विविधता के बावजूद हिंदी उपन्यास सचमुच मध्यवर्ग का महाकाव्य तो नहीं उसका आदर्शीकरण और रुदन बनकर रह गया । अनेक लेखकों को प्रेमचंद की परंपरा में घोषित किया गया लेकिन समकालीन जीवन की वैसी भरी पूरी समझ से संपन्न परिवर्तन की वैसी बेचैनी से उत्पन्न वैसी तीखी आलोचना वाला उपन्यास हिंदी में नजर नहीं आया । इसे समकालीन माहौल से मेरी अपेक्षा के बतौर ही ग्रहण किया जाय ।

1 comment:

  1. पिछला एवं यह दोनों लेख संग्रहणीय तथा ज्ञानवर्धक हैं।

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