Wednesday, April 27, 2011

बिहारी कौन हैं


मैं जब विश्वविद्यालय आया तो बताया गया कि भोजपुरी बोलने से यहाँ कोई दिक्कत न होगी । जो भी हिंदी भाषी हैं वे असल में भोजपुरी भाषी हैं । इनकी संख्या इस क्षेत्र में 35% है । मुझे अपने पूर्वजों पर गर्व हो आया । एन डी टी वी का त्रिनिडाड पर कार्यक्रम देखकर इसमें बढ़ोत्तरी ही हुई । लोग कहाँ से कहाँ चले गये ! एक वासुदेव पांडे को उनके जन्मस्थान का पता चल गया पर लाखों वासुदेव पांडे अपने मूल भूल गये हैं । 75 साल की बुढ़िया बढ़िया अंग्रेजी बोल रही थी और भोजपुरी गीत गा रही थी । फिजी से एक वामपंथी छात्रनेता आया था तो उसने बताया कि अगर कोई अमेरिका जानेवाला हो तो किसी को कोई खास रुचि नहीं होती है । लेकिन अगर कोई भारत आनेवाला हो तो उसके यहाँ पंद्रह दिन पहले से लोग मिलने के लिये आने लगते हैं । मारीशस से सरिता बूधू आई थीं तो विवाह के गीत भोजपुरी में गाकर सुना रही थीं । यहाँ के भोजपुरी भाषी सलेटी बांगला और भोजपुरी मिलाकर बोलते हैं । इनमें से अधिकांश लोग उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाकों से 1840 के दशक में चाय बागानों में काम करने के लिये गिरमिटिया की तरह लाये गये थे । वेस्ट इंडीज, अफ़्रीका और उत्तर पूर्व में जब इतने बड़े पैमाने पर लोगों का निष्क्रमण हुआ तो भी 1857 क्यों हुआ ? इसका मतलब उस समय कोई भारी विपत्ति आई रही होगी अन्यथा कृषि से जुड़े लोग इतनी आसानी से अनजान जगहों पर नहीं जाते । क्या जाने आसानी से गये या अफ़्रीका के काले लोगों की तरह जबरदस्ती ले जाये गये !

जब चीन से चाय की आवक बंद हो गयी तो अंग्रेजों को चाय के वैकल्पिक स्रोतों की जरूरत महसूस हुई । तब चाय असम की पहाड़ियों पर घास की तरह उगा करती थी । लोग बुखार होने पर इसका काढ़ा बनाकर पीते थे । अंग्रेजों ने चाय की खेती के लिये इस जगह को मुफ़ीद समझा और पुराने स्वाद के लोभ में चीन से चाय का पौधा लाकर डिब्रूगढ़ में लगाया । पौधा विदेश में पनपने से इनकार कर बैठा । निराश होकर स्थानीय चाय की खेती शुरू की गयी । स्थानीय लोगों ने चाय बागानों में काम करना मंजूर न किया । वजह यहाँ का वातावरण था । सुबह तो जल्दी होती ही है धूप भी काफ़ी तीखी होती है । अफ़ीम का व्यापार जब चीन से होता था तो इस क्षेत्र के लोगों को वह काफ़ी खिलायी गयी थी । तबसे आलस्य यहाँ का स्थायी भाव हो गया है । मनुष्य तो मनुष्य पशुओं को भी सड़क से हटाने में मोटरों के हार्न काम नहीं आते । बहरहाल जैसा कि कहा जाता है भोजपुरी दरबान कुत्ते की तरह भरोसेमंद होता है इसलिये भोजपुरी भाषी जनता प्रतिकूल परिस्थितियों में भी इन बागानों में बाड़े में बंद पशुओं की तरह रहकर काम करती रही ।

अगर आपने एलेक्स हेली का उपन्यास रूट्स पढ़ा हो तो इनके हालात का कुछ कुछ अंदाजा लगा सकते हैं । घर की याद तो आती थी लेकिन वह याद ही रह सकती थी । मालिक जाने न देता था । 1920-21 के दौरान गांधी जी के असहयोग आंदोलन को चाय बागान के मजदूरों ने घर लौटने का संकेत समझा और झुंड के झुंड घर की ओर चल दिये । तब हाथियों से उनकी रिहायशों को नष्ट करके और हजारों को गिरफ़्तार तथा दो सौ लोगों की जान लेकर इस विद्रोह पर काबू पाया गया । इसके बाद कोई ऐसा प्रयास तो नहीं हुआ लेकिन जिन लोगों की स्थिति कुछ सुधर गयी थी वे एकाध बार घर गये । घर जाने पर और वहाँ के हालात देखकर लौटने की इच्छा मारी गयी ।

इसके लिये आपको विस्थापन के एक और पहलू पर निगाह डालनी होगी । जब ये लोग वतनबदर हुए थे तब तक शायद निचली जातियों में पदनाम अपनाकर श्रेष्ठता का अनुकरण करने का रिवाज शुरू नहीं हुआ था । नाम पूछने पर पेशे के साथ मूलनाम बताते रहे होंगे । जहाँ से आये थे वहाँ तो बाद में पदनाम अपनाये गये लेकिन यहाँ ऐसी कोई जरूरत नहीं महसूस हुई । इसलिये अब भी यहाँ के लोगों के नाम के साथ लोहार, धोबी, कुर्मी, कोइरी ( जो बांगला की प्रकृति के कारण बदलकर कैरी हो गया है ), ग्वाला, नुनिया ( नोनिया ) आदि पदनाम चलते हैं । अंग्रेजों और असमीया लोगों के लिये ये शब्द सामाजिक पदानुक्रम के द्योतक नहीं थे । जब ये लोग कभी लौटकर घर जाते तो उन्हें सामाजिक पदानुक्रम का बोध होता । इसलिये एकाध बार के बाद कभी गये ही नहीं । अब धीरे धीरे मूल स्थानों की स्मृति धुँधली पड़ने लगी है । इन्हें यहाँ के सरकारी कागजों में टी ट्राइब कहा जाता है । फ़िलहाल अनुसूचित जनजाति में शामिल किये जाने की माँग इनके भीतर जोर पकड़ रही है । असम के चूतिया ( सुटिया ), अहोम आदि ऐसे ही माँगकर्ताओं के साथ इनकी भी माँग शामिल कर ली जाती है ।

चाय बागान की समस्याओं को समझने के लिये अर्थतंत्र में आये बदलावों पर निगाह डालनी होगी । पहले व्यापार संबंधी समझौते द्विपक्षी हुआ करते थे । फ़िर गैट नामक बहुपक्षी समझौता वार्ताओं का दौर चला । तर्क दिया गया कि दोतरफ़ा समझौते में मोलतोल की गुंजायश कम होती है, बहुपक्षी समझौते में हमारी ताकत बढ़ जायेगी । लेकिन ताकत की ऐसी बढ़ोत्तरी हुई कि मारीशस जैसा गन्ना उत्पादक देश भी मंदी के चलते सूचना प्रौद्योगिकी पर जोर दे रहा है । भारत की ताकत में जब इजाफ़ा हुआ तो गेहूँ, कपास, नारियल, हल्दी उत्पादक एक के बाद एक आत्महत्याएँ करने लगे । सबको अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रतिद्वन्दता की वेदी पर शहीद होना पड़ा । चाय की कीमतों में भी इसी प्रतिद्वन्दता के कारण कमी आई और मालिकों को वाजिब मजदूरी देने में दिक्कत आने लगी । मेरे आने के कुछ ही दिनों बाद असम के किसी मंत्री के बेटे रूपक गोगोइ की हत्या गोलाघाट स्थित चाय फ़ैक्टरी में 250 मजदूरों ने सामूहिक रूप से कर दी । पता चला मजदूरों को 6 महीने से वेतन नहीं मिला था । मालिक ने मैनेजर के जरिये समझौता वार्ता का संदेश भेजा था और कहलाया था कि एक महीने के वेतन का तत्काल भुगतान कर दिया जायेगा । वार्ता में मालिक वादे से मुकर गया और महज एक हफ़्ते के वेतन के लिये राजी हुआ । नतीजतन मजदूर भड़क गये । उन्होंने मालिक को पीटते पिटते मार डाला और लाश को जला दिया । सभी 250 मजदूर थाने गये और अपराध स्वीकारते हुए गिरफ़्तारी दी । पुलिस की समस्या यह कि उसकी सूचना के मुताबिक मुख्य अभियुक्त 73 थे । अगला काम इस भीड़ में से 73 लोगों को अलगाना था । थोड़े दिनों बाद एक और मालिक की हत्या हुइ । खबर आई कि मैनेजर चाय बागान छोड़कर भाग रहे हैं । उन्हें मजदूरों का गुस्सा जो सहना पड़ता । हरेक चाय बागान में पुलिस की तैनाती की गयी । चाय बागान के मजदूर कांग्रेस के परंपरागत समर्थक रहे हैं । धीरे धीरे वे कांग्रेस के पंजे से बाहर आ रहे हैं । इस उद्योग में दबाव इतना अधिक है कि अभी हाल में पश्चिम बंगाल में चाय बागानों में बारह दिन चली हड़ताल के बाद न्यूनतम मजदूरी में कुल दो रुपये की बढ़ोत्तरी पर ही वामपंथी यूनियनों को हड़ताल वापस लेनी पड़ी । हाल में प्रकाशित एक समाचार के मुताबिक चाय बागानों में हरेक साल औसतन एक हजार लोग बुखार, पेचिश, आंत्रशोथ जैसी बीमारियों से मर जाते हैं ।

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