साहित्य का इतिहास देखने में
प्रवृत्ति केंद्रित दृष्टि की प्रधानता के कारण देवेन्द्र का कथाकार बहुधा अलक्षित
रह जाता है । बेहतरीन कहानियों की संख्या प्रचुर होने के बावजूद मानदंड के मामले
में उनको अक्सर अनदेखा कर दिया गया है । इसके कारणों की शिनाख्त करने के साथ ही हम
उनको शरीक कर सकने वाली हिन्दी की कथा परम्परा को भी समझने का प्रयास करेंगे । साथ
ही इसमें उनकी विशेषता और उनके योगदान को भी देखने की कोशिश की जाएगी ।
देवेन्द्र की भाषा में काव्यात्मकता
है लेकिन यह काव्यात्मकता उदय प्रकाश की तरह यथार्थ को धुंधला करने के काम नहीं
आती । उनकी काव्यात्मकता में जीवन की विषम परिस्थितियों से उपजा तीखापन है । अक्सर
यह तीखापन मारक व्यंग्य का रूप ले लेता है । उदय प्रकाश तो घोषित तौर पर कवि के
साथ कथाकार हैं लेकिन देवेन्द्र के बारे में यह अल्पज्ञात है कि वे कहानियों की दुनिया
में आने से पहले छंदोबद्ध कविताओं के लेखक रहे थे । इस तरह उनका कथाकार
सिंहासनच्युत कवि कहा जा सकता है । उनकी एक मशहूर कहानी का शीर्षक ही है ‘शहर
कोतवाल की कविता’ । इस शीर्षक में व्यक्त विडम्बना को पहचानना बहुत मुश्किल नहीं
है । एकदम ही विपरीत समझे जाने वाले दो क्षेत्रों को इस शीर्षक में एक साथ अनायास
नहीं रखा गया है । कोई कवि ही कोतवाली के साथ कविता का वैषम्य पकड़ सकता है । इस
कहानी में कविता न केवल शीर्षक में है बल्कि सारी अफ़सरी हनक के बावजूद कोतवाल की
आत्महत्या का कारण बनती है । बहुत सारी जगहों पर भीषण और अत्यंत गहन भावनात्मक
अभिव्यक्तियों के लिए कविता की पंक्तियों का सीधे प्रयोग किया गया है । कविता इन
कहानियों के पात्रों के जीवन में बेहद खतरनाक भूमिका निभाती है । इसी तरह एक और कहानी का शीर्षक है
‘महाकाव्य का आखिरी नायक’ । जो लोग महाकाव्य की गरिमा और त्रासद उदात्तता से
परिचित नहीं उन्हें इस कहानी और शीर्षक के बीच का रिश्ता समझ ही नहीं आयेगा । समकालीन
कहानी में शायद ही किसी कथाकार की कहानियों में इस हद तक कविता मौजूद हो । आधुनिक
मुक्त छंद की कविता की क्षमता में ऐसा विश्वास कुछ हद तक आश्चर्यजनक है क्योंकि इस
दौर की कविता को जीवन से कटा हुआ बताने वालों की भी जमात कमजोर नहीं है । कहानियों
में कविता के प्रवेश का आकर्षण उनके यहां इतना प्रबल है कि ‘धर्मराज’ शीर्षक कहानी
में उनका मुख्य पात्र धर्मराज भीड़ में घिरा ‘मैथिलीशरण गुप्त की कविता होता है,
लेकिन अकेले होते ही अज्ञेय का गद्य बन जाता है’ । इसके बाद अज्ञेय के गद्य की
व्याख्या भी ‘मतलब के दर्शन से भरा, रहस्यमय और अबूझ’ । दोनों के बारे में
कहानीकार की राय से असहमत हुआ जा सकता है लेकिन इस फैसले से एक दौर के विद्रोही
भाव का पता जरूर चलता है । उस विद्रोह में सभी विद्रोहों की तरह थोड़ा अतिवाद भी था
।
युवा, कविता और विक्षोभ के जिक्र से
स्पष्ट है कि देवेन्द्र की कहानियों की प्रमुख कथावस्तु उच्च शिक्षा संस्थान हैं ।
इनमें भी हिंदी साहित्य के अध्ययन अध्यापन की दुनिया अर्थात हिंदी विभाग हैं । इन
शिक्षा संस्थानों से जिस तरह देश के स्वाधीनता आंदोलन का रिश्ता है उसी तरह हिंदी
की प्रतिष्ठा के साथ इन विभागों की खास तरह की केंद्रीयता जुड़ ही जाती है । ‘देवांगना’
और ‘रंगमंच पर थोड़ा रुककर’ जैसी कहानियों में इसके अपवाद हैं । ‘देवांगना’ शीर्षक कहानी
में हमारे समाज के सबसे अधिक किनारे कर दिये गये पात्रों की अत्यंत दारुण कथा है
तो ‘रंगमंच पर थोड़ा रुककर’ कहानी अपराधियों के जीवन में पाठक का प्रवेश कराती है ।
कहानियों की ऐसी विषयवस्तु ने ही शायद उनमें उच्च शिक्षा संस्थानों को आने से रोक
दिया होगा । ये शिक्षा संस्थान हिंदी भाषी समाज के भीतर अवस्थित हैं । इनके पतन की
कहानी ‘नालन्दा पर गिद्ध’ में बेहद मारक तीक्ष्णता के साथ आयी है । इसके अतिरिक्त
भी ‘अनुपस्थित’ शीर्षक कहानी में शिक्षा के उस सांस्थानिक पतन की झांकी देखने को
मिलती है जिसका विराट स्वरूप अब उजागर हुआ है । उनका एक पात्र कुलकर्णी है जो डीन
की कुर्सी पर काबिज है और उनके ही एक विद्यार्थी की नियुक्ति के लिए सिफारिश करने
वाले से कहते हैं कि ‘शिक्षक संघ होता था । कर्मचारी संघ था । और तो और तुम्हारा
छात्र संघ था । कुलपति लोग दबकर रहते थे ।--अब कुछ नहीं । हर पद का रेट तय है
।--दलाल लोग कुलपति होने लगे हैं’ । देवेन्द्र जिस समय की बात कर रहे हैं उस समय के मुकाबले उच्च शिक्षा के संस्थानों में न केवल भ्रष्टाचार बल्कि पदाधिकारियों की मनमानी और बढ़ी है । कहानी में आये इस वक्तव्य की खास बात यह है कि छात्र संघ, कर्मचारी संघ और शिक्षक संघ की ऐसी भी भूमिका हुआ करती थी इसकी ओर पाठक का ध्यान जाता है । अन्यथा समय तो इन संघों के भ्रष्ट होने की कथा सुनाने का है । आश्चर्य कि यह बात डीन के पद पर काबिज व्यक्ति के मुख से कहलवाई गयी है ।
कहानीकार के इस रुख के साथ ही उनका वह रुख भी कायम है जिसमें छात्र संघ के प्रति सामान्य तौर पर बनी धारणा की अभिव्यक्ति होती है ।‘नालन्दा पर गिद्ध’कहानी में वामपन्थी प्रत्याशी मार्क्सवादी लेनिनवादी विचारधारा का है और सशक्त उम्मीदवार बनकर उभर रहा था । उसकी विचारधारा से भी मजबूत पहचान उसकी जाति निकलती है । इसे वाणी देते हुए कहानी के पात्र आचार्य चूड़ामणि का कथन
है‘विचारधाराएं तो परिवर्तनशील होती हैं । उम्र और परिस्थिति
से निर्धारित । मूल सत्य तो जाति है’और इसी समझ के आधार
पर आर एस एस एस की राजपूत और भूमिहार लाबी ने वामपन्थी प्रत्याशी का समर्थन किया और
वह विजयी रहा । विडम्बना यह कि‘उसी पैनल का दूसरा हरिजन
प्रत्याशी मात्र पचासी वोट पाकर वीरान और बेजान पसरी सड़क पर अकेले क्रान्तिवाद-जिन्दाबाद चिल्लाता’जा रहा था । इस माहौल ने ज्ञान और विद्या के प्रति ऐसी हिकारत
को जन्म दिया है कि लेखक अध्यापकों की लिखी किताबों तक के बारे में बताते हुए उनकी
गुणवत्ता के मुकाबले रणनीति को ही देखता है‘शान्तिकाल के बीस वर्षों में इस विभाग से सिर्फ तीन पुस्तकों
का प्रकाशन हुआ था । इण्टरव्यू घोषित होने के बाद से पैंतालीसवीं पुस्तक की सूचना थी’। इन्हें भी लेखक अध्यापकों के विद्यार्थियों ने ही तैयार
किया था । हाल यह है कि पुस्तकालय की किताबों से सीधे सहायता लेकर भारतीय काव्यशास्त्र, समकालीन साहित्य की भूमिका, रीतिकाल का कलात्मक
योगदान, आदि-आदि ग्रन्थ तैयार किये
जा रहे थे । शिक्षा संस्थानों के समग्र पतन की यह तस्वीर आज भी दुर्भाग्यवश सच से बहुत
दूर नहीं है । हो सकता है ये शीर्षक बहुतेरे आकांक्षी अभ्यर्थियों के लिए सहायक साबित
हों!
जिस हिंदीभाषी समाज में ये संस्थान हैं उस समाज के साथ गांव अभिन्न रूप से संबद्ध हैं । उपनिवेशवाद के
विरोध के क्रम में गांवों के प्रति आम तौर पर थोड़ा रूमानी नजरिया हिंदी की विशेषता
रही है । इस मामले में देवेन्द्र शेष लोगों से बहुत अलग रुख अपनाते हैं ।
युवा और उच्च शिक्षा संस्थानों के
केंद्र में आने से प्रेम भी केंद्रीयता प्राप्त कर लेता है । हिंदी भाषी समाज में
प्रेमी जोड़ों की हालत किसी से छिपी नहीं है । उनके साथ बरती जाने वाली समूची
क्रूरता बहुत गहराई के साथ इन कहानियों में व्यक्त हुई है । इस विषयवस्तु की
प्रमुखता के लिए यही तथ्य जानना पर्याप्त है कि उनकी दो कहानियों ‘एक खाली दिन’ और
‘सपने के भीतर’ के नायक और नायिका सत्तो और शांतनु ही हैं । समान स्त्री पुरुष
चरित्रों को लेकर दो कहानियों की रचना भी उनकी प्रिय विषयवस्तु का सबूत देती है ।
प्रेम के साथ ही देवेंद्र अपनी कहानियों में देह संबंध के सवाल पर भी बहुधा विचार
करते हैं । इस मामले में वे प्रेम की थोड़ी रूमानी धारणा के शिकार भी लगते हैं ।
‘क्षमा करो हे वत्स!’ में उनका स्वयं कथन है ‘स्त्री और पुरुष के बीच आकर्षण और
फिर प्रेम एक स्वाभाविक गुण है । शारीरिक सम्बन्धों का उच्चतम रूप प्राप्त करने के
बाद यह प्रेम समाजोन्मुख होने लगता है । हमारी विवाह संस्थाओं में इस स्वाभाविक
प्रक्रिया का ही विरोध है । वहां शारीरिक सम्बन्ध पहली रात बन जाते हैं । बाद के
दिनों में तरह-तरह के समझौते करते हुए हम प्रेम पैदा करने की कोशिश करते हैं । वे
सुखी और सफल लोग हैं जो प्रेम पैदा कर लेते हैं’ । लेखक ने यह स्वयं कथन अपने
वैवाहिक प्रेम की असफलता के बारे में किया है । जो व्यापक यथार्थ है उसकी कुरूपता
को उजागर करते हुए वे लिखते हैं ‘गांव में लोग पत्नियों को बैल की तरह पीटते हैं
और रात के अंधेरे में चुपके से दस मिनट के लिए उनके पास जाते हैं और कुत्ते की तरह
सम्भोग करके फिर दरवाजे की अपनी चारपाई पर आकर सो जाते हैं’ । इस सामाजिक यथार्थ
ने नैतिक पाखंड को जन्म दिया है ‘घूस, भ्रष्टाचार, मक्कारी, दूसरे की जमीन हड़प कर
जाना आदि आदि हमारे समाज का स्वीकृत यथार्थ है । ये सब हमारे चरित्र को प्रभावित
नहीं करते । सिर्फ कमर के नीचे का गोपनीय हिस्सा अस्पृश्य रहकर हमारे चरित्र को
तेजस्वी बनाता है’ । निष्कर्ष कि ‘एक मांस पिण्ड निर्धारित करता है हमारे चरित्र
को’ । लेखक ने अपनी प्रतिक्रिया को इस तरह व्यक्त किया है ‘नैतिकता के इन भारतीय
और अमानवीय मानदण्डों पर मैंने समूचे बलगम को खंखारकर थूक दिया’ ।
उनका विक्षोभ अक्सर व्यंग्य के सहारे
अभिव्यक्त होता है । यह लगभग उनका स्थायी भाव है । इसकी सफलता से वे इतना अभीभूत
हैं कि परिवर्तन के प्रयासों को भी इसका शिकार बना लेते हैं । हिंदी की आधुनिक
कहानी के इतिहास में क्रांतिकारियों का मजाक उड़ाने वाली कहानियों की लम्बी परम्परा
है । देवेन्द्र की कहानी ‘क्रान्ति की तलाश’ भी इसी धारा का अंग बनकर रह गयी है ।
इस तरह की कहानियों को आचार्य शुक्ल की शब्दावली में सांप्रदायिक साहित्य कहा जा
सकता है । अगर पाठक को ठोस संदर्भ न मालूम हो तो रेणु की ‘आत्मसाक्षी’ या काशीनाथ
सिंह की ‘लाल किले का बाज’ को सराहना मुश्किल है । इस कहानी
का जिक्र इसलिए जरूरी है कि उनकी अन्य कहानियों के भी विद्रोही पात्रों की आदर्श
भाषा प्रकाश की उद्धत भाषा का अनुगमन करती है ।
गांव के प्रति रूमानी नजरिये का
प्रतिकार उनकी कहानी ‘क्षमा करो हे वत्स!’ में सबसे अधिक मिलता है । कहानी न केवल
सच्ची घटना का आभास देती है बल्कि सच है भी । कथावाचक के पुत्र का अपहरण हुआ और
उसके अवशेष किसी खेत में मिले । उनके इस दुख में शामिल होने की जगह लोग भुना रहे
थे । लेखक की टिप्पणी है ‘गांवों के सामाजिक ढांचे के भीतर निरंकुशता और
स्वार्थपरता रोम-रोम में रची-बसी होती है’ । कहने की जरूरत नहीं कि भारत के गांव की यह आलोचना जातिप्रथा के दंश को भोगने वालों के अनुभव से पूरी तरह अलग है ।
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