2025
में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से रोहित डे और ओर्नित सानी की किताब ‘असेम्बलिंग
इंडिया’ज कनस्टीच्यूशन: ए न्यू डेमोक्रेटिक हिस्ट्री’ का प्रकाशन हुआ । लेखकों का कहना है
कि इस किताब में संवैधानिक राजनीति की समृद्ध दुनिया की यात्रा है । साथ ही देश के
संविधान को आकार देने वाली कल्पना की भी जांच परख की गयी है । इस अनकही कहानी को कहने
में छह साल लगे और यह समय लेखकों को प्रेरक प्रतीत हुआ । दोनों ही अपनी अपनी किताबों
के लिए भारत के संविधान निर्माण की अभिलेखीय सामग्री छान रहे थे और इसी क्रम में यह
किताब उनकी संयुक्त लेखन योजना में शामिल होती चली गयी । इसका लेखन कोरोना
के दौरान हुआ । किताब में आये नाम उसी रूप में रखे गये हैं जिस रूप में वे
दस्तावेज में मिले । सामाजिक समूहों के उन नामों का इस्तेमाल हुआ है जो नाम ये
समूह अपने आपको देते हैं । संविधान सभा की बहसों में वक्ता के साथ बहस की तारीख का
उल्लेख हुआ है । किताब की शुरुआत मई 1947 में बंगाल में पद्मा नदी के बीच बसे
लोगों द्वारा संविधान सभा को लिखे एक पत्र से हुई है जिसमें परिस्थिति के अस्थिर
होने की चिंताकुल सूचना दी गयी है । इस इलाके में मशालची समुदाय के लोग रहते थे और
नदी की तेज धारा द्वीपों की मिट्टी को लगातार ही इधर से उधर करती रहती थी लेकिन जब
चिट्ठी लिखी जा रही थी तो नदी की धारा के मुकाबले विभाजन के हालात ने अस्थिरता को
जन्म दिया था । वे लोग बनने वाली प्रतिनिधि सभाओं में अपना अलग प्रतिनिधित्व चाहते
थे ताकि उनकी सांस्कृतिक विशेषता पूरी तरह सुरक्षित रह सके । विभाजन की घोषणा के
बस दो हफ़्ते पहले यह पत्र लिखा गया था । उस समय मशालची समुदाय सचमुच अस्थिर था ।
नदी की धारा में बदलाव के साथ उनके निवास के जिले भी बदल जाया करते थे । उन्हें भय
था कि सीमा उनके सिर पर से गुजरेगी । वे लोग इस्लाम में विश्वास करते थे लेकिन
मुस्लिम लोग उन्हें अपना अंग नहीं मानते थे । इसके चलते वे राजनीतिक और आर्थिक रूप
से अपंग महसूस करते थे । आजादी के मौके पर उन्हें लगा कि इस समय उनकी स्थिति सही
और निश्चित हो सकती है । नये राष्ट्र के निर्माण के इस अवसर पर उन्हें अपनी पहचान
को उभारने की आशा पैदा हुई । इस तरह के बहुतेरे अन्य समूह भी थे जो संविधान
निर्माण को इस नये काम के लिए सही मौका समझ रहे थे । उन्हें अपने भविष्य के
सुनिश्चित होने की उम्मीद संविधान से पैदा हुई ।
उसके
निर्माण की कहानी को दिल्ली और लंदन तक ही आम तौर पर सीमित रखा जाता है । इस
प्रचलित कहानी के अनुसार 9 दिसम्बर 1946
को संविधान सभा की बैठक के साथ इस प्रक्रिया की शुरुआत हुई । सभा में 205 सदस्य थे
जिनमें दस स्त्रियां थीं । वातावरण में उत्साह और अनिश्चय था । इसके मुताबिक
मुट्ठी भर समझदार लोगों ने देश को दूरदृष्टि और उदारता के साथ यह बहुमूल्य उपहार
प्रदान किया । निर्वाचित सदस्य प्रत्यक्ष चुनाव से नहीं आये थे । वे 1935 के
इंडिया ऐक्ट के आधार पर धार्मिक, सामुदायिक और पेशेवर चुनिंदा निर्वाचकों द्वारा
1946 में चुने गये विधान मंडलों के प्रतिनिधि थे । सभा ने 26 नवम्बर 1949 को
संविधान अंगीकृत किया और 26 जनवरी 1950 को इसे लागू माना गया । माना जाता है कि
इसी दौरान (1946 से 1949 के बीच ) वह सब कुछ घटित हुआ जिसके कारण संविधान को उसका
मौजूदा रूप मिला । इसे समझने के लिए इस दौरान हुई घनघोर बहसों के दस्तावेज खंगाले
जाते हैं । इस तरह समूचा भारतीय संविधान चुनिंदा लोगों की आपसी रजामंदी की उपज बनकर
रह जाता है । कुछ विचार गिनाये जाते हैं जिन्होंने इसका बुनियादी ढांचा तैयार किया
। इस समझदारी में संविधान औपनिवेशिक अतीत से बिलगाव की जगह उसकी निरंतरता में नजर
आता है । संविधान निर्माण की इस कहानी के मुकाबले इस किताब में वैकल्पिक कहानी
सुनायी गयी है । इसके मुताबिक संविधान का निर्माण सभा के बंद कमरे के भीतर नहीं
उसके बाहर बनाया गया । इसमें देश के विस्तृत भूगोल और उसके भी परे की तरह तरह की
सामाजिक ताकतों ने भाग लिया । समूचे महाद्वीप में संविधान निर्माण की बहुमुखी और
समानांतर प्रक्रियाओं की मौजूदगी को इस किताब में देखा और समझा गया है । यह
प्रक्रिया हिमालय की लाहौल स्पीति से लेकर दक्षिण भारत के सुदूर इलाकों समेत बंगाल
के चटगांव और सौराष्ट्र तथा स्टाकहोम और कैलिफ़ोर्निया के प्रवासी भारतीयों में चल
रही थी । इन जगहों के रहने वाले ये सभी लोग अपने अपने सामाजिक जीवन और अनुभवों के
आधार पर भविष्य के अपने संविधान को प्रभावित कर रहे थे । यह अद्भुत प्रक्रिया सभा
की बहसों के साथ साथ नीचे से चल रही थी । अंदर की घनघोर बहसों के दस्तावेज तो इसके
सामने कुछ भी नहीं हैं । सभा के बाहर जनता में जो हलचल थी उसके दस्तावेज अंदर की
बहसों के दस गुना हैं ।
भविष्य
के संविधान निर्माण को देश के लोगों ने अपनी बहसों के जरिए युद्ध के मैदान में बदल
दिया था । इसी प्रक्रिया ने इतने लचीले संविधान को जन्म दिया । औपचारिक कानूनी
प्रक्रिया के इतर संविधान बनने की यह जीवंत प्रक्रिया संविधान के परवर्ती ग्रहण,
वैधता और दीर्घजीवन के लिए महत्वपूर्ण साबित हुई । इसके निर्माण में भागीदारी की
वजह से आम लोग इस पर अपना अधिकार समझ सके । उनके इस बोध ने भारत में लोकतंत्र के
वास्तविक जीवन को आकार दिया । देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के सामने जो भी जटिल
और कठिन चुनौती आयी उस पर पार पाने में संविधान पर जनता के इस अधिकार भाव ने बहुत
बड़ी मदद की । औपनिवेशिक शासन की समाप्ति और संविधान लिखे जाने के बीच की अवधि में
लोग और भूभाग में भारी अनिश्चितता रही । विभाजन के फैसले के छह महीने पहले ही सभा
ने अपना कामकाज शुरू किया था । इसमें कांग्रेस का दबदबा था । दूसरा बड़ा दल मुस्लिम
लीग का था लेकिन उन्होंने कार्यवाही में हिस्सा नहीं लिया । 550 देसी रियासतें
अंग्रेजी राज का हिस्सा नहीं थीं और औपनिवेशिक शासन के खात्मे के साथ संप्रभु हो
जाने वाली थीं । उनका भविष्य भी तय नहीं था । उनके कब्जे में लगभग आधा देश था ।
सभा में उनके 93 प्रतिनिधि थे जिनके चुने जाने में जनता की कोई भूमिका नहीं थी ।
आदिवासी इलाकों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं हुआ था और उनका भविष्य भी तय नहीं था ।
अंग्रेजी राज की सार्वजनिक संस्थाओं, प्रांतीय विधानमंडलों, न्यायपालिका और
नौकरशाही का भी भविष्य कोई बहुत निश्चित नहीं था । उनमें काम करने वाले भारतीय थे
और उन्हें नये संवैधानिक व्यवस्था के मातहत लाया जाना था । दरिद्रता, अशिक्षा और
सामाजिक भेदभाव की मौजूदगी इस अनिश्चयता को और भी भयावह बना रही थी ।
देश की सीमा भी निर्धारित नहीं थी और जिन पर यह संविधान लागू होना था उनकी नागरिकता भी तरल बनी हुई थी । सबसे बड़ी बात कि औपनिवेशिक शासन की सुविधा के लिए बनी संस्थाओं को आजाद देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिहाज से कैसे ढाला जाय । लोगों को मालूम था कि इन सवालों पर संविधान जो भी तय करेगा उसका सीधा असर उनके जीवन पर पड़ेगा इसलिए उन्होंने इस प्रक्रिया में जिम्मेदार उत्साह के साथ भाग लिया । संविधान की भाषा में ही उन्होंने अपने संघर्षों और आकांक्षाओं को व्यक्त करना शुरू किया । उनकी मांगें जातिगत, वर्गगत, लैंगिक, धार्मिक और भाषाई सरोकारों से उपजी थीं । उनकी राजनीति संविधान निर्माण की प्रक्रिया से जुड़ गयी और वे संविधान के लेखन में अप्रत्यक्ष तौर पर शामिल हुए और इस तरह संविधान को अनौपचारिक जीवन मिला । उनके लिए यह पूरी प्रक्रिया औपनिवेशिक संविधान सुधार से पूरी तरह अलग थी । यह संविधान उनका अपना होना था । उनकी बहुतेरी बातें सुनी नहीं गयीं लेकिन संविधान निर्माण के साथ उनकी इस संलग्नता ने तय कर दिया कि भारत का संविधान किताब तक ही कभी सीमित नहीं रहेगा । संविधान निर्माण की इस प्रक्रिया ने ऐसी राजनीति और संवैधानिक भाषा को जन्म दिया जो भारत की बहुलतावादी राजनीति में समायी हुई है । आज भी कानून की चारदीवारी के बाहर चलने वाली संवैधानिक राजनीति उसी भाषा से संचालित होती है ।
लेखकों ने सफाई देते हुए कहा कि उनका मतलब यह नहीं कि संविधान बनने की प्रक्रिया ने सार्वजनिक रुचि जगा दी, न ही यह कि नये संविधान की उम्मीद ने सभा की चारदीवारी के बाहर संविधान से संलग्नता पैदा कर दी । इसकी जगह वे नया परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करना चाहते हैं जिसमें घटनाक्रम इस तरह नजर आये कि 1946 से शासकीय संस्थाओं और व्यापक विविधतापूर्ण जनता की संविधान के साथ सक्रिय संलग्नता ने संविधान निर्माण की प्रक्रिया को अब तक प्रभावित किया है । जो संविधान लिखा गया उसे प्रभावित करने में सफलता को पैमाना बनाने से लोकप्रिय संवैधानिक राजनीति को, खासकर उसमें होने वाले संशोधन और व्याख्या की प्रक्रिया को समझना मुश्किल होगा । 1950 में अगर लोग संविधान के लेखन को प्रभावित नहीं भी कर सके तो आगामी दशकों में उसके संशोधन और व्याख्या पर तो इसका असर जरूर रहा ।
संविधान निर्माण की इस तरह की कहानी सुनाने के क्रम में लेखकों ने उसके विकास के कालक्रम में उलटफेर किया और संविधान तथा कानून के स्रोतों को बहुलता प्रदान की । इसका निर्माण चुनिंदा दूरदर्शी लोगों की जगह जनता के बीच जारी संवाद से होता हुआ नजर आता है । इस क्रम में लेखकों ने अब तक उपेक्षित कुछ नयी ताकतों पर ध्यान दिया है लेकिन इससे ही इसका निर्माण लोकतांत्रिक नहीं हो जाता । उन्होंने बस यह कहा है कि भारतीय जनता संवैधानिक भाषा में पारंगत हुई और उसने अपनी बात सुनाने की कोशिश की । उन्होंने अपने अधिकारों पर बल दिया और इससे लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया में थोड़ी तेजी आयी ।
लेखकों का कहना है कि हाल के दिनों में संवैधानिकता को लोकतांत्रिक राजनीति के रास्ते की रुकावट कहा जा रहा है । इस मत के अनुसार बदलाव को कानूनी घेरे या बहुत हुआ तो संशोधन तक ही सीमित रखा जा रहा है । हमारे देश में संविधान बनने के साथ इतनी गहरी राजनीतिक संलग्नता रही है कि लोकतांत्रिक राजनीति के साथ संविधान अभिन्न हो गया है । संविधान का पहला मसौदा तैयार होने से पहले अप्रैल 1947 में ही सार्वभौमिक मताधिकार मंजूर कर लिया गया । अगले ही साल से मतदाता सूची के निर्माण का काम भी शुरू हो गया । इस तरह सरकार बनाने में सबके बराबर अधिकार की बात संवैधानिक राजनीति के साथ नाभिनालबद्ध हो गयी । नये लोकतांत्रिक यथार्थ को अंग्रेजी राज के समय बनी प्रातिनिधिक संस्थाओं के साथ जोड़ लिया गया । उस समय तक संविधान बनाने का ऐसा अनुभव किसी देश के पास नहीं था । भारत में संविधान से लोकतंत्र नहीं आया । संविधान की उम्मीद के साथ देश की राजनीति का लोकतंत्रीकरण हुआ
संविधान के सिलसिले में अधिकांश लेखन संविधान सभा की बहसों और संविधान के पाठ पर केंद्रित रहता है । उनमें मान लिया जाता है कि संवैधानिक राजनीति का विस्तार भारत के लोगों की कल्पना, रुचि और क्षमता के बाहर की बात थी और वे इस प्रक्रिया से पूरी तरह उदासीन थे । लोकतंत्र के बारे में कहा जाता है कि भारत के लोगों को अहसास नहीं था कि उन्हें क्या मिला है । कुछ लोग यह भी कहते हैं कि संविधान निर्माण से आम जनता दूर थी और संविधान बनाने वालों के लिए जनता के लोग अमूर्त थे । फिलहाल तो यह भी कहा जा रहा है कि संविधान देश की जनता के ठोस अनुभवों से रहित था और उसमें विदेशी गंध बहुत अधिक थी । उसकी भाषा भी आम जनता के लिए अबूझ है । इन मान्यताओं से संविधान बनने की प्रक्रिया में रुचि तो नहीं ही पैदा होती, यह धारणा भी बनती है कि संविधान तो भारत की निरक्षर और अलोकतांत्रिक जनता को लोकतंत्र की शिक्षा देने का माध्यम था । इसके उलट इस किताब के लेखकों को लगता है कि बहुतेरे भारतीय संविधान के जरिये प्राप्त होने वाली लोकतांत्रिकता के बारे में सजग थे । व्यवस्था में बदलाव की उम्मीद के आधार पर उन्होंने अपनी मांग उठाने के लिए संगठित होना शुरू कर दिया और इसी प्रक्रिया में संविधान का अनुवाद अपने लिए सुबोध भाषा में किया । उन्होंने संविधान सभा को चुनौती दी और नये विचार प्रस्तुत किये । इस क्रम में उन्होंने सभा के सदस्यों को शिक्षित किया और संविधान पर अपना दावा ठोंका । इस तरह उन्होंने संविधान का अनुपनिवेशन किया ।
संविधान बनाने की प्रक्रिया के स्थापित वर्णन में सभा की बहसों के अतिरिक्त बहसों के महत्वपूर्ण हिस्सों पर ध्यान नहीं दिया जाता । संविधान का लेखन तीन साल में हुआ जबकि सभा केवल एक साल तक बहस हेतु बैठी । इसके बाद की अवधि में लाखों लोगों ने जिस तरह जीवंत बहसें कीं उनका जिक्र संविधान निर्माण के प्रसंग में नहीं होता । संविधान निर्माण की प्रक्रिया की जितनी सूक्ष्म निगरानी देश की जनता ने की उसे भी इसे बनाने की प्रक्रिया के बाहर समझा जाता है । इस निगरानी ने अप्रत्याशित नतीजों को जन्म दिया । सभा के सचिवालय को जितने ज्ञापन मिले उन्हें सुरक्षित रखना भी मुश्किल हो गया । जिन दो सालों में सभा की बैठकें नहीं हुईं उस दौरान सभा के सदस्य देश और दुनिया के तमाम लोगों के साथ संवादरत रहे । इन तीनों साल जनता एकत्र होकर मांगें करती रही और संविधान की कमियां भी जताती रही । संविधान बनने की प्रक्रिया के साथ जनता का यह जुड़ाव और उनकी सक्रियता इस बात की इजाजत नहीं देती कि भारत के संविधान संबंधी बहसों को किसी भी स्तर पर समाप्त मान लिया जाय ।
किताब में संविधान के सिलसिले में देसी रियासतों, कबीलाई इलाकों के साथ अंग्रेजी संस्थानों के भीतर चलने वाली बहसों को भी जगह दी गयी है । अब तक इनकी उपेक्षा हुई है । ऐसा करने से आधा भूभाग और तिहाई आबादी नजरों से ओझल रही है । लेखकों के मुताबिक देसी रियासतों और कबीलाई इलाकों की घटनाओं की भूमिका संविधान बनने म बहुत महत्वपूर्ण रही हैं । इसी तरह प्रांतीय विधानमंडलों, नगरपालिकाओं, न्यायपालिका और नौकरशाही के भीतर चलने वाली बहसों भी देखी गयी हैं । इनके आधार पर भी बहुतेरे संवैधानिक कदम उठाये गये और उनकी विरासत अब तक बनी हुई है ।
इसके लेखकों में से ओर्नित सानी ने सार्वभौमिक मताधिकार के आधार पर 1947 से 1950 के बीच बनी पहली मतदाता सूची का अध्ययन किया है । उनका कहना है कि भारत जैसे भेदभावपूर्ण समाज में सरकार गठन हेतु प्रक्रिया की समता को संस्थाबद्ध करना संविधान के लेखन से पहले ही संपन्न हुआ और इसने देश के लोकतंत्र को जनता के लिए सार्थक और विश्वसनीय कहानी बना दिया । मतदाता सूची में नाम जुड़वाने के लिए संघर्ष ने संविधान के बनने से पहले ही उसे ठोस शक्ल दे दी । इसी तरह रोहित डे ने संविधान के अध्ययन के क्रम में पाया कि वेश्या या कसाई जैसे समाज के अत्यंत हाशिए के समुदायों ने भी नयी सरकार के नियमों से अपनी रक्षा के लिए संविधान का सहारा लिया था । इस तरह संविधान ने देश के लोगों के दैनन्दिन को बहुत गहाराई से बदला और इस बदलाव की अगुआई अल्पसंख्यक समूहों ने की । दोनों लेखकों के पहले के इन अध्ययनों को इस किताब ने आगे बढ़ाया है ।
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