2024
में कैननगेट से एस तेमेलकुरान की किताब ‘हाउ टु लूज ए कंट्री: द 7 स्टेप्स फ़्राम
डेमोक्रेसी टु फ़ासिज्म’ के नये संस्करण का प्रकाशन हुआ । इसे सबसे पहले 1919 में
4थ एस्टेट से छापा गया था । लेखिका ने पाठकों के नाम पत्र के रूप में इस संस्करण
की नयी प्रस्तावना लिखी है । शीर्षक में लोकतंत्र और फ़ासीवाद होने से किताब बहुत
अच्छी होने की उम्मीद नहीं रह जाती । लेखिका ने बताया है कि इस किताब में जिस
रास्ते का उन्होंने वर्णन किया है उस पर चलकर पाठक का देश भी गुम हो जा सकता है ।
ऐसा होने से बचाने की जिम्मेदारी पाठक की ही है । उनका कहना है कि इतिहास के शुरू
से ही मनुष्य तीन तरह की अक्षमता से ग्रस्त रहा है । जब कभी राजनीतिक आपदा से देश
को बचाना होता है तो हम सभी देर से जागते हैं । यह आदत बेहद मारक साबित हुई है ।
खतरे की आहट सुनने का समय आने पर हम बहरे हो जाते हैं । दिमाग की किसी गड़बड़ी के
कारण बुरी खबर को हम अनसुना कर देते हैं और खबरची का गला दबाकर दिमागी सुकून हासिल
करते हैं । समस्या पैदा होने पर हमें यकीन रहता है कि कोई न कोई कुछ करेगा । बाद
में लगता है कि वह कोई तो हमें होना था । इसलिए हमें दस्तावेजी इतिहास पसंग आता है
। इन सब बातों के जानने के बावजूद हममें से ही कुछ लोग भविष्य की बात करना बंद
नहीं करते । इसकी भी तीन वजहें हैं । खतरे का संकेत मिलने पर चुप रहना मुश्किल
होता है क्योंकि अन्यथा हम पागल हो सकते हैं । सच को उजागर होना चाहिए । हम मानकर
चलते हैं कि शब्दों की ताकत से मूर्खता का इलाज सम्भव है । हालांकि अक्सर इसका
नतीजा खूनखराबे में निकलता है । इसके पीछे कहीं न कहीं यकीन रहता है कि एक न एक
दिन मनुष्य अपनी गलतियों से सीखेगा तथा अपने राजनीतिक और नैतिक पतन का विरोध करने
में देर नहीं करेगा ।
2016
में ही लेखिका को तुर्की छोड़कर यूरोप जाना पड़ा था । तब उन्होंने लोगों को बताया कि
जो कुछ दुनिया में होना शुरू हुआ है वह सब तुर्की में हो चुका है । तब ट्रम्प को
मजाक की चीज समझा जाता था और ब्रेक्सिट को भी हल्के में लिया जा रहा था । उस समय
विश्व राजनीति में जो पागलपन चालू हुआ था वह ऐसा विश्वव्यापी प्रयोग लगता था जिसके
करने वाले किसी अन्य ग्रह के प्राणी लगते थे जो मानो सर्वाधिक हास्यास्पद
राजनेताओं को झेलने की मनुष्य की क्षमता की परीक्षा कर रहे हों । उस समय लेखिका ने
सात ऐसे वैश्विक रास्ते महसूस किये जिनसे होकर बहुतेरे देश फ़ासीवाद की गिरफ़्त में
आ रहे हैं और यह मजाक की बात नहीं लगी । इन रास्तों का एक आंतरिक तर्क था और इस
परिघटना की कार्यपद्धति को पहचाना जा सकता था । उन्हें लगा कि अगर ज्यादातर लोग
इसके तरीके को जान लें और तदनुसार कार्यवाही करें तो इस खतरे को रोका जा सकता है ।
समस्या
यह थी कि तब इस खतरे को बहुत कम ही लोग लेखिका की तरह फ़ासीवाद कहने को तैयार थे ।
जब भी वे इस शब्द का खुला प्रयोग करती थीं तो बौद्धिक समुदाय उनसे इतना जल्दी न
करने का आग्रह करता था । उनका कहना है कि कोई भी स्थापित व्यवस्था इसी तरह अपनी
रक्षा का उपाय करती है । 2019 में किताब के छपने के समय बौद्धिक समूह को खतरा
महसूस तो होने लगा था फिर भी व्यवस्था में सुधार का आधारहीन आत्मविश्वास बरकरार था
। यह वैचारिक भ्रम अब भी कायम है कि पश्चिमी लोकतंत्र बहुत हद तक परिपक्व हैं ।
उदार लोकतंत्र की बचकानी बीमारियों से उनकी सेहत में बहुत अंतर नहीं पड़ेगा । ऐसा
होना केवल तुर्की या भारत जैसे परिधि के देशों में सम्भव है । उसके बाद जो हुआ उसे
बताने की जरूरत नहीं । जिसे दक्षिणपंथी पापुलिज्म कहा जा रहा था वह नासूर की शक्ल
ले चुका है । ट्रम्प अब प्रमुख राजनेता है और यूरोप अंधकार के मुहाने पर खड़ा है ।
बीमारी अर्जेन्टिना में भी पहुंच गयी है । इन सबके ऊपर गाज़ा का जनसंहार पूरी
दुनिया के सामने जारी है ।
किताब
के पहली बार छपने के बाद से लेखिका को अनेक भाषाओं में सोशल मीडिया में एक ही तरह
की बातें देखने में आती रही हैं । सभी कहते हैं कि उनके देश में भी यही सब हो रहा
है इसलिए किताब देखें । दुर्भाग्य से ऐसा कहने वालों का बहुमत नहीं बन सका है ।
लोकतंत्र को बचाने के लिए जितना कम प्रयास हो रहा है वह समस्या की गम्भीरता को
देखते हुए बेहद नाकाफी है । उन्होंने देखा कि विगत पांच सालों में मुख्य धारा के
बुद्धिजीवियों और मध्यमार्गी राजनेताओं में लोकतंत्र को बचाने के लिए बहुत ऊंचे
स्तर की बहसें आयोजित हुईं लेकिन ये लेखिका को अधिकतर अपनी झेंप मिटाने की कोशिश
ही महसूस हुईं । वे भी इनमें से बहुत सारी बहसों में शरीक थीं इसलिए उनको मालूम है
कि उनमें व्यवस्था की उस समस्या को स्वीकार ही नहीं किया जाता जिसने इस राक्षस को
पैदा किया है । अगर मान भी लिया तो वे खुद को इतना ज्ञानी और गम्भीर समझते हैं कि
जनता के राजनीतिक फैसलों में उनकी राय न लिये जाने की शिकायत रहती है । आज की
दुनिया में तमाम वैज्ञानिक भी कोरोना के दौरान जनता को टीका लगवाने और मास्क पहनने
के लिए नहीं समझा सके थे जबकि तमाम झक्की लोग भांति भांति के दैवी षड़यंत्र की
कहानियों पर लाखों अंधभक्तों का विश्वास अर्जित कर सके थे । जो लोग राजनीतिक
केंद्र को बचाना चाहते थे या लोगों को उनके सहजबोध की ओर लौटाना चाहते थे उनकी हालत
चंद मुट्ठी भर समर्थकों को उपदेश देने वालों जैसी रह गयी । दूसरी ओर जनमत संग्रह
से पता चल रहा था कि दक्षिणपंथी पापुलिज्म का कुछ देर मजा लेने के बाद लोग खुशी
खुशी फ़ासीवाद के गड्ढे में गिर रहे हैं । उसके बाद से सर्वत्र जनता लोकतंत्र से
मुख मोड़ रही है । दुखद रूप से उनके सामने कोई चारा भी तो नहीं है ।
लेखिका
को लगता है कि लोकतंत्र की वर्तमान हालत दिखावे से अधिक नहीं रह गयी है । मानवता
के सबसे गम्भीर वादे, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को भद्दे मजाक में बदल दिया
गया था । जीवन की हकीकत आर्थिक प्रणाली में व्यक्त होती है और उसने इन तीनों को
निगल लिया था । सच्ची समानता की बात करना गुनाह था, स्वतंत्रता मांगने लायक भी बची
नहीं रह गयी थी । बंधुत्व से सबके मनोरंजन में बाधा पड़ने की आशंका थी । मतदान
अलबत्ता कर सकते थे । कुछ कहना हो तो उसके लिए गैर सरकारी संगठनों का रास्ता खुला
था । लोकतंत्र तो वैसे भी हकीकत नहीं बन सका था, अब नवउदारवादी अर्थव्यवस्था से
जुड़कर वह अपने आदर्शों से और भी दूर हो गया । उसकी इस हालत को हम सबके सामने
मानवता की असली अवस्था के रूप में परोसा जा रहा था । इस व्यवस्था में दसियों साल
बिता लेने के बाद जनता को उस व्यवस्था में भरोसा ही नहीं रह गया था जो उनकी
असुरक्षा को दूर करने का हक भी नहीं दे रही थी । लोग जब इस मजाक से ऊब गये तो उनका
गुस्सा जायज था । समस्या यह है कि दक्षिणपंथी झूठे प्रचार के असर में लोग असली
दुश्मन की जगह लोकतंत्र, स्त्री, आजादी और प्रवासियों के विरुद्ध खड़े हो गये हैं ।
नफ़रत में वे अपनी असुरक्षा का इलाज खोज रहे हैं । नफ़रत ने उस खाली जगह को भरा है
जो राजनीति की दुनिया से गायब हो चुके लोकतांत्रिक आदर्शों के कारण खाली हुई है ।
नवउदारवाद के प्रभुत्व की वजह से दुनिया भर के लोग सच सुन ही नहीं सके थे ।
लोकतंत्र ने नहीं, उसके अभाव ने उन्हें धोखा दिया है । समानता, न्याय और सम्मान के
अभाव ने व्यवस्था के दुश्मन को जन्म दिया है । इस दुश्चक्र से जूझने के लिए लेखिका
तीन कामों की सलाह देती हैं । सच को उजागर किया जाए, जनता में भरोसा रखा जाए और
विफल होने पर बेहतर समझ दिखाई जाए ।
वे
अब भी अपने लिखे के असर के बारे मे सोचती हैं । इसीलिए यह किताब उन्होंने अपनी एक किताब
की निरंतरता में लिखी । वह किताब हृदयहीन दुनिया में एकजुटता के बारे में थी । मार्क्स
ने कहा था कि धर्म हृदयहीन दुनिया का हृदय है । लेखिका ने राहनीति के केंद्र में हृदय
को स्थापित करने को सोचा । ऐसा हृदय जो वर्तमान व्यवस्था में मनुष्यों को सभ्यता और
सम्मान लायक समझे । हम सब आत्मकेंद्रित स्वार्थी पुतले मात्र नहीं हैं जो गलाकाट प्रतियोगिता
के कारण ही सक्रिय रहते हों । अगर हमारी राजनीतिक स्थिति के बारे में गहराई से सोचा
जाए तो पता लगेगा कि मनुष्य की नैतिकता के बारे में ऊपर बताई गयी मान्यता का भी इससे
घनिष्ठ रिश्ता है । समस्या चूंकि गहरी है इसलिए इधर उधर कुछ छोटा मोटा सुधार कर लेने
से ही लोकतंत्र स्वस्थ नहीं हो जाएगा । इसके लिए आमूल बदलाव की राजनीतिक इच्छाशक्ति
की जरूरत है । इसके लिए होने वाले संघर्ष में लेखिका ने पाठकों का भी साथ चाहा है ।
इस पागलपन में मनुष्यता में यकीन कायम रखना कठिन है लेकिन उनके अनुसार यह करना ही पड़ेगा
। अन्यथा कोई रास्ता नहीं है ।
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