2023 में
पेंग्विन प्रेस से मार्टिन वोल्फ़ की किताब ‘द क्राइसिस आफ़ डेमोक्रेटिक कैपिटलिज्म’
का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि जैसे जैसे दुनिया उनके सामने उजागर होती गयी,
वैसे वैसे उनके विचार बदलते गये । जड़ विचार रहना अच्छी बात नहीं होती । इसके
बावजूद उनके मूल्य नहीं बदले । माता-पिता हिटलर के कारण निर्वासित शरणार्थी थे ।
उनके कारण ही लोकतंत्र के प्रति उनकी निष्ठा अचल रही । साथ ही नागरिकता,
स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आजादी, तार्किकता और सत्य की प्राथमिकता में भी उनका
यकीन कायम रहा । चौथे खम्भे की भूमिका इन मूल्यों की सेवा करना है । इन मूल्यों के
साथ ही वे इस सदी की तीसरी दहाई में पहुंचे हैं । पचासी साल की उम्र में उन्हें एक
चक्र पूरा हुआ महसूस हो रहा है जिसमें उनके माता पिता भी शामिल हैं । लेखक के पिता
के जन्म के साथ इसकी शुरुआत हुई । तब तक उद्योगीकरण, शहरीकरण, वर्ग संघर्ष,
राष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद, नस्लभेद और महाशक्तियों के आपसी टकराव को काफी समय गुजर
चुका था । चार साल बाद प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हो गया । यूरोप की स्थिरता समाप्त हो
गयी । माता का जन्म विश्वयुद्ध के खात्मे के दो महीने पहले हुआ था । तब रूसी
क्रांति को संपन्न हुए नौ महीने ही बीते थे । बादशाहों को गद्दी छोड़नी पड़ी और
यूरोपीय साम्राज्य ढह गये । नयी दुनिया की बेहतरी का भरोसा भी बहुत दिन कायम न रह
सका । मुद्रा स्फीति और कुछ सुधार के उपरांत महामंदी आयी, स्वर्णमान खत्म हो गया,
जर्मनी में हिटलर का उदय हुआ, स्पेनी गृहयुद्ध और फिर दूसरा विश्वयुद्ध । पिता ने
जर्मनी छोड़ दिया । माता भी नाना-नानी के साथ भाग निकलीं । दोनों की मुलाकात 1942
में लंदन में हुई । एक साल बाद शादी हुई और तीन साल बाद जाकर लेखक का जन्म हुआ ।
उनका पालन पोषण ब्रिटेन में ही हुआ । पूरा परिवार लाखों परिवारों की तरह आफत के
दौर का उत्पाद बना । बहुत मुश्किल से ये सभी लोग उस आफत से बाहर निकलने या बचने
में कामयाब रहे । शेष रिश्तेदार इतने भाग्यशाली नहीं रहे ।
इस पूरे
माहौल ने लेखक में निराशा को जन्म दिया । इसके कारण उनको जीवन के मुश्किल दौर में
भी खुशी खोजने की धुन सवार हुई । दूसरे कि उनको आशावाद से बहुत धोखे मिले । सबसे
ताजा धोखा वित्त के प्रबंधकों की बुद्धिमत्ता और निर्वाचकों की समझदारी के मामले
में मिला । उनके माता पिता भी निराशावादी रहे थे । पिता को वियेना में नाटक लिखने
से जो मानदेय मिला उसके सहारे वे अमेरिका की राह में लंदन चले आये । दादा मछली
मारने के व्यवसाय में थे और जर्मन आक्रमण के समय समुद्र के रास्ते परिवार समेत
निकल आये । चाहते तो थे कि रिश्तेदार भी आयें लेकिन रिश्तेदारों को सुधार की आशा
थी । इस तरह दादा की निराशा ने उन्हें बचा लिया । इस पारिवारिक इतिहास के कारण
उन्हें सभ्यता की भंगुरता का आभास रहा है । कोई भी जानकार यहूदी इस सच से इनकार
नहीं कर सकता । मनुष्य बेवकूफी, क्रूरता और विध्वंस की राह पर फिसल जाते रहे हैं ।
वे कबीलाई ढंग से अपने और बाहरी के बीच भेद बरतने की आदत के शिकार हो जाते हैं । इसके
बाद वे जिसे बाहरी मानते हैं उनका बिना किसी संकोच के संहार भी कर देते हैं । इसी
वजह से लेखक ने शांति, स्थिरता और आजादी को कभी स्थायी नहीं समझा और जो लोग इस
धोखे में रहते हैं उनकी समझ पर तरस खाते रहे । लंदन का जीवन अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण
रहा । माता पिता का निधन 1993 और 1997 में हो गया । उनके बचपन और जवानी के दिनों
के मुकाबले बाद की दुनिया बेहतर रही । लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण दुनिया में उनके
भरोसे की विजय हुई । यूरोप पर से तानाशाही का खतरा टल गया लगता था । लोकतंत्र
विजयी हुआ था । मध्य और पूर्वी यूरोप के समाजवादी शासन लौह दीवार से बाहर निकल रहे
थे । यूरोप का फिर से एकीकरण हो रहा था । रूस के भी लोकतंत्र और व्यक्ति की आजादी
की राह में आने की उम्मीद नजर आ रही थी । फ़्रांसिसी क्रांति से लेकर बीसवीं सदी तक
के वैचारिक, राजनीतिक और आर्थिक विभाजन समाप्त होते नजर आ रहे थे ।
बाद की
घटनाओं ने साबित किया कि ये उम्मीदें बेबुनियाद थीं । उदार वित्तीय व्यवस्था
अस्थिर साबित हुई । एशियाई वित्तीय संकट के दौरान लेखक को इसका भान हुआ । हालिया
वित्तीय संकट और महामंदी के बाद तो यह पूरी तरह सिद्ध हो गया । विश्व अर्थतंत्र
अस्थिरता को जन्म देने वाले असंतुलन का स्रोत हो गया । वित्तीय अस्थिरता का कारण
था कि विभिन्न देशों के बीच पूंजी प्रवाह को काबू में रखने वाली अंतर्राष्ट्रीय
मुद्रा व्यवस्था अपनी जिम्मेदारी निभाने में अक्षम हो गयी । यह वित्तीय अस्थिरता
पश्चिमी अर्थतंत्र की एकमात्र विफलता नहीं थी । इसके साथ विषमता में बढ़ोत्तरी भी
लगी हुई थी । निजी जीवन में असुरक्षा बोध घर कर गया था और आर्थिक वृद्धि की रफ़्तार
सुस्त पड़ गयी थी । व्यापारिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, राजनीतिक और प्रशासनिक शासक
कुलीनों की इस विफलता ने जनता की निगाह में उन्हें अविश्वसनीय बना दिया ।
राजनीति की
दुनिया में भी इसी तरह के बड़े बदलाव आये । 2001 में 11 सितम्बर को अमेरिका में हुए
हमलों ने सबको सकते में डाल दिया । इसके बाद अफ़गानिस्तान और इराक में युद्ध हुए ।
दूसरी ओर वैश्वीकरण की आर्थिक सफलता के साथ ही चीन और कुछ हद तक भारत का उभार हुआ
। इसके कारण राजनीतिक और आर्थिक शक्ति संतुलन में बदलाव आया । अब उसकी धुरी
अमेरिका और पश्चिम से खिसककर पूरब की ओर जाने लगी । विश्व राजनीति में इसके साथ ही
एक अन्य बदलाव भी आ रहा था । इक्कीसवीं सदी के आगे बढ़ने के साथ उदार लोकतंत्र की
जगह अनुदार लोकतंत्र या गालबजाऊ तानाशाही का विस्तार होने लगा । ये तानाशाह पुराने
तानाशाहों से अलग थे । इनमें लोकलुभावनवाद था । इनका उभार न केवल नये लोकतांत्रिक
देशों में हुआ बल्कि संसार के बड़े और पुराने लोकतांत्रिक देश भी इसकी चपेट में आ
गये । इन्होंने अपने देशों की अंतर्राष्ट्रीय विश्वसनीयता को भारी नुकसान पहुंचाया
और पश्चिम की श्रेष्ठता को मटियामेट कर दिया । राजनीति के प्रति उनके गालबजाऊ रुख
ने कानून के शासन को धूलधूसरित कर दिया, सत्य के प्रति निष्ठा को कमजोर किया और
सारे अंतर्राष्ट्रीय समझौतों की ऐसी तैसी कर दी । इन्हीं बातों को उदार लोकतंत्र
का लक्षण माना जाता था । पूर्ण मनमानी ही शायद इनका लक्ष्य था ।
लेखक को आज
की चुनौतियों की तुलना बीसवीं सदी के पूर्वार्ध की चुनौतियों से करना उचित लगता है
। उस समय भी विश्व का शक्ति संतुलन इंग्लैंड और फ़्रांस से खिसककर जर्मनी और
अमेरिका की ओर जा रहा था जैसे आज वह अमेरिका से चीन की ओर खिसक रहा है । उस समय भी
विश्वयुद्ध, स्पेनी एनफ़्लुएंजा, भारी मुद्रास्फीति और महामंदी की शक्ल में बड़े
संकट आये थे । इस समय उसी तरह कोरोना और यूक्रेन युद्ध जैसे संकट आये । उस समय
जर्मनी, इटली और स्पेन में लोकतंत्र का खात्मा और तानाशाही का उभार हुआ था । इस
समय भी विकासशील देशों और पहले के समाजवादी देशों में यह प्रवृत्ति नजर आ रही है ।
इस बार लोकतंत्र का खात्मा उन भी देशों में हो रहा है (अमेरिका में ट्रम्प और
इंग्लैंड में ब्रेक्सिट) जो बीसवीं सदी में लोकतंत्र का झंडा उठाये हुए थे । इस
समय तो परमाणु युद्ध और जलवायु संकट की ऐसी हालत है जिसके बारे में 1980 दशक से
पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी । लेखक को अपनी पीढ़ी के बारे में लगता है कि
उन्हें बीसवीं सदी के इन हालात का अंदाजा नहीं होगा लेकिन उनके माता पिता को अतीत
की प्रतिध्वनि अवश्य सुनायी पड़ी होगी । रूसी साम्राज्य की फिर से स्थापना की चाह
में उन्हें हिटलर द्वारा सभी जर्मन भाषी यूरोपीयों को एक ही शासन के मातहत लाने की
इच्छा की अनुगूंज महसूस हुई होगी । इसी नये समय को समझने के क्रम में इस किताब का
लेखन हुआ है ।
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