Sunday, May 25, 2025

आलोचना की सामाजिकता

 

            

                                

जिस क्रियापद से लोचन बनता है उसी से आलोचना भी । इसका मतलब कि आलोचना के लिए देखने की शक्ति होनी चाहिए । मनुष्य की सभी ज्ञानेंद्रियों में देखने की क्षमता का सबसे अधिक मान है । इसीलिए अन्य सभी क्रियाओं के साथ भी देखना लग जाता है । छूकर, चखकर, सूंघकर और सुनकर भी देखा जाता है । तात्पर्य कि आलोचना के लिए देखने की आजादी जरूरी है । देखने की इस क्रिया की प्रामाणिकता के संदर्भ में कहा ही जाता है कि कानों सुनी के मुकाबले आंखों देखी अधिक भरोसेमंद होती है । कबीर ने तो इसे कागद की लेखी से भी अधिक विश्वसनीय ठहराया है । देखने में केवल आंख सक्रिय नहीं होती बल्कि उसके साथ दिमाग भी सक्रिय रहता है । अन्यथा वैज्ञानिक सत्य यह है कि आंख किसी भी वस्तु की तस्वीर को परदे पर उलटा दिखाती है, दिमाग उसे सीधा करता है । मतलब कि देखने के लिए आंख के साथ दिमाग की आजादी भी जरूरी है । दिमाग ही वह चीज है जो मनुष्य को अन्य प्राणियों से भिन्न कर देता है । इसी दिमाग की वजह से सामूहिक अनुभव को भाषा में कूटबद्ध करने की क्षमता का विकास हुआ जिसने इस सृष्टि में मनुष्य को विशेष बना दिया । इस दिमागदार जीव की विशेषता यही है कि वह किसी के आदेश को मानने की जगह दिमाग का इस्तेमाल करके कोई भी काम करने का फैसला लेता है । दिमाग का सबसे महत्वपूर्ण काम है सोचना इसलिए आलोचना के लिए न केवल देखने बल्कि सोचने की आजादी भी जरूरी है । इस क्षमता के कारण ही मनुष्य में यह विशेषता पैदा होती है प्रत्येक मनुष्य भिन्न हो जाता है । मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना का तात्पर्य यही है कि प्रत्येक मनुष्य को अपनी बुद्धि से संचालित होना चाहिए । मानव समाज में अभिमत की यह विविधता और उसका आदर ही एक हद तक लोकतंत्र की निशानी मानी जाती है । कहने का अर्थ कि आलोचना को फलने फूलने के लिए समाज में लोकतांत्रिक माहौल का होना जरूरी है । लोकतंत्र को बहुमत का शासन कहना सही नहीं है । भिन्नता के आदर का अर्थ विचार की दुनिया में अल्पसंख्यक का सम्मान है । सत्य का निर्णय किसी बहुमत से नहीं किया जा सकता । बहुधा देखा गया कि किसी खास दौर में जिन विचारों को विध्वंसक माना जाता था और इसीलिए जिनके समर्थक बहुत कम थे वे ही आगे चलकर सही साबित हुए । इसका अर्थ कि जो तथ्य सत्य के रूप में आज लोकप्रिय है उसका उलटा तथ्य आगामी समय में सत्य हो सकता है । इसलिए सुधार और संशोधन के लिए प्रस्तुत रहना भी आलोचना की विशेषता है ।     

देखने की क्रिया के साथ दिमाग के इस सहकार के चलते ही दिमाग की गड़बड़ी से सही बात नजर नहीं आती इसलिए दृष्टिभ्रम फैलाने वाली ताकतें दिमाग में गड़बड़ी पैदा करने की कोशिश करती हैं । संचार माध्यमों के आगमन के साथ यथार्थ की व्याप्ति हुई तो साथ ही उसकी लोकप्रियता और विश्वसनीयता को देखते हुए निहित स्वार्थों द्वारा उसके इस्तेमाल की परिघटना भी पैदा हुई । संचार के मशहूर अमेरिकी विद्वान नोम चोम्सकी ने इसे मैनुफ़ैक्चर्ड कनसेन्सस का नाम दिया । उनका मानना था कि यथार्थ को इस समय संचार माध्यमों के ही जरिए देखा जा रहा है इसलिए वे अपनी प्रस्तुति के बल पर पाठकों या दर्शकों के बीच सर्वसम्मति बना लेते हैं । इसकी ताकत सबको इराक युद्ध के समय पता चली जब केवल मीडिया प्रचार के बल पर अमेरिका ने सद्दाम हुसैन के देश में जनसंहार के हथियारों का जखीरा होने का विश्वास जनता को दिला दिया था । अब तो मीडिया की यह क्षमता इस हद तक बढ़ गयी है कि उसके प्रचार की प्रभुता के लिए ‘उत्तर सत्य’ की एक नयी धारणा  बनानी पड़ी है । दुनिया भर में झूठ को फैलाने का इतना सुनियोजित तंत्र खड़ा हो गया है कि अनेक टेलीविजन चैनल युद्ध के समय वास्तविक युद्ध की जीवंत तस्वीर दिखाने के नाम पर वीडियो गेम तक निर्लज्जता के साथ चला दे रहे हैं । दर्शक के भीतर इस तरह का भ्रम पैदा करने की प्रक्रिया के लिए ‘गैसलाइटिंग’ नामक शब्द की खोज की गयी है । इसी तरह की एक प्रक्रिया फिलहाल राजनेता अपना रहे हैं जिसे सर्वोच्च न्यायालय के जज ने ‘डागह्विसलिंग’ का नाम दिया । इसमें कानून की अवहेलना से बचने के लिए सांकेतिक और द्विअर्थी भाषा का प्रयोग किया जाता है । सिद्ध है कि आलोचना के लिए आवश्यक जानकारी पर कुहासा छाया हुआ है ।

न केवल समस्या स्रोत के स्तर पर पैदा हुई है बल्कि असहमति और आलोचना के प्रति सहज स्वीकार या खुद में सुधार हेतु उसका स्वागत भी क्षरित हुआ है । कहने की जरूरत नहीं कि कोई भी सामाजिक सुधार आलोचना के स्वागत के अभाव में सम्भव नहीं है । ‘जातिभेद का विनाश’ में अंबेडकर ने इस पहलू पर खासा ध्यान दिया है । उनका कहना था कि बहुधा सरकार की आलोचना के मुकाबले समाज की आलोचना कठिन होती है । इस मामले में अपने भीतर की कमी का पता हमें तब चलता है जब हम किसी अन्य को भिन्न और विकसित देखते हैं । अर्थ कि सुधार और आलोचना के लिए आत्ममुग्धता विष के समान है । राष्ट्र, समाज और साहित्य-तीनों के मामले में यही सच है । यदि हम अपने आपको सबसे उन्नत समझते रहेंगे तो आलोचना से हमारी भावना आहत होने लगती है । कहने की जरूरत नहीं कि यह समय भावनाओं के आहत होने का समय है । पहली बार हो रहा है कि आलोचना का साहस करने वालों की जुबान पर पाबंदी के पक्ष में वह देश और सरकार है जो आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है । पाबंदियों की आलोचना से प्रेरणा लेकर जिस देश की मेधा ने तमाम भाषाओं में ज्ञान के प्रसार और भाव के उद्बोधन का प्रयास किया वहां दुखद रूप से सरकार में काबिज लोगों की आलोचना पर एक लोक गायिका पर थाने में थोक के भाव रपट लिखायी जा रही है । भाषा की रचनात्मकता को समझने के पैमाने का ऐसा पतन हुआ है कि सर्वोच्च न्यायालय ने एक अध्यापक की भाषा की जांच के लिए पुलिस के आला अफ़सरों का दल नियुक्त करने का फैसला किया ।

आलोचना के प्रति सरकार और समाज की इसी असहिष्णुता के कारण आलोचकों को भाषा की सृजनात्मकता का सहारा लेना पड़ता है । इससे ही उन साहित्यिक उपकरणों का जन्म होता है जिन्हें हम कौशल के नाम से जानते हैं कथा साहित्य के सभी लेखक अपनी रचनाओं में जिन पात्रों को गढ़ते हैं उनका आधार कोई असली व्यक्ति होता है फिर भी धोखा देने के लिए वे कोई अन्य नाम रखते हैं और प्रयास करते हैं कि उसकी पहचान स्पष्ट हो सके कथन भंगिमा में भी व्यंग्य या अन्योक्ति जैसे साधनों का सहारा इसी कारण लिया जाता है साहित्य के अध्येता आम तौर पर लेखक के इस कौशल को समझकर उसकी प्रशंसा करते रहे हैं इसके लिए पहली बारडाग ह्विसलिंगजैसा आरोप लगाया गया है ब्रिटिश शासन में भी यदि दंडाधिकारी इस बात को समझते तो आधुनिक भारतीय भाषाओं का अधिकांश साहित्य लिखा ही नहीं जा सकता था या अगर लिख भी गया होता तो उसे प्रकाश में लाना मुश्किल होता अब तो यह समझना किसी के लिए भी कठिन नहीं कि क्यों उस समय के अधिकांश पत्रकारों को पत्रिकाओं की जमानत देनी पड़ती थी बहुधा केवल धन और प्रतिष्ठा की बल्कि जान की कीमत चुकाकर भी उन साहित्यकारों ने केवल रचनात्मक लेखन किया बल्कि उस लेखन में मौजूद प्रतिरोध को रेखांकित भी किया आलोचना का प्राथमिक दायित्व यही है कि अगर साहित्य की उस विशेष सृजनात्मक सीटी को लक्षित कुत्ते सही तरीके से सुन या समझ नहीं सके तो उसे स्पष्ट कर दिया जाय

स्पष्ट है कि साहित्यिक विधा के बतौर आलोचना का जीवन शासन और समाज में लोकतांत्रिक वातावरण पर निर्भर है इस वातावरण की मौजूदगी स्वाभाविक रूप से नहीं होती इसलिए ही उसे अर्जित करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है शायद आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे ही आनंद की साधनावस्था कहा था और प्रयत्न के सौंदर्य की प्रतिष्ठा को रचना के साहित्यिक मूल्यांकन का आधार भी इसी कारण प्रस्तावित किया था स्वयं उनके लिखेहिंदी साहित्य का इतिहासके बारे में स्वाधीनता आंदोलन के क्रांतिकारी बौद्धिक भगवान दास माहौर ने बताया है कि उसमें आधुनिक काल के विभिन्न चरण असल में स्वाधीनता संग्राम के विकास को दर्शाते हैं माहौर जी की किताब का नाम भी संयोग से1857 के स्वाधीनता संग्राम का हिन्दी साहित्य पर प्रभावहै   हिंदी आलोचना की सबसे जबर्दस्त उठान स्वाधीनता संग्राम के साथ अकारण नहीं जुड़ी हुई है

जिस समय को हम हिंदी आलोचना के लिए सबसे बेहतर कहते हैं उसके बारे में थोड़ी और बात करना जरूरी है जिन आचार्य रामचंद्र शुक्ल का हमने अभी उल्लेख किया उनका समय छायावाद का है और उन्हें छायावाद का विरोधी मानने का चलन है छायावाद को आम तौर पर कवियों से जोड़कर सीमित किया जाता रहा है सच तो यह है कि छायावाद के चारों कवियों के गद्य में श्रेष्ठ आलोचना के तत्व हैं उनकी संगत में रखकर ही आचार्य शुक्ल को अच्छी तरह समझा जा सकता है केवल इतना बल्कि प्रगतिशील साहित्य का आरम्भ भी हमें छायावाद से ही मानना होगा प्रलेस के स्थापना सम्मेलन के अध्यक्ष प्रेमचंद का लेखन 1936 में शुरू नहीं हुआ था, उनके लेखन की शुरुआत छायावाद के साथ हुई थी । इस समृद्ध विरासत की बुनियाद पर प्रगतिशील आलोचना की इमारत खड़ी हूई । प्रगतिशील कवियों में नागार्जुन, केदार, त्रिलोचन, मुक्तिबोध और शमशेर ने कविता के साथ भरपूर आलोचना भी लिखी ।

बहुत सारे कुपढ़ लोग प्रगतिशील आलोचना की ताकत को सांस्थानिकता तक सीमित समझकर मानते हैं कि शिक्षा केंद्रों को बरबाद करके इसे समाप्त किया जा सकता है । इससे पहले उन्हें लगता था कि इस आलोचना को विदेशी सहायता मिलती रहती है लेकिन उन्होंने देखा कि सोवियत संघ के खात्मे के पैंतीस साल बाद भी उस पर कोई असर नहीं पड़ा तो यह नया तरीका निकाला । असल में हिंदी की प्रगतिशील आलोचना का गहरा रिश्ता हिंदी क्षेत्र के उस 1857 के स्वाधीनता संग्राम से है जिसका असर हिंदी साहित्य की मुख्य धारा को धर्म निरपेक्ष और जन पक्षधर बनाये हुए है । इसी की वजह से अब भी हिंदी की दुनिया में सत्ता संस्कृति की चाटुकारिता को मान्यता नहीं मिल सकी है । जिन्हें उर्दू से हिंदी को मुक्त करने में ही हिंदी की भलाई महसूस होती है उन्हें नहीं मालूम कि हिंदी शब्द ही उर्दू है इसलिए भी गालिब को हिंदी जुबान से प्रेम था ।

हिंदी साहित्य की दुनिया में आलोचना को जो प्रमुखता प्राप्त है उसका बड़ा कारण प्रगतिशील आलोचना है । अन्य भारतीय भाषाओं की बहुतेरी विशेषताओं की मौजूदगी के बावजूद तथ्य यही है कि आलोचना का जैसा विकास और महत्व हिंदी में है उस तरह किसी दूसरी भारतीय भाषा में नहीं है । हिंदी की ऐसी ही विशेषता हमें भक्ति साहित्य में नजर आती है जब पूरब, पश्चिम और दक्षिण से उठी वैचारिक धाराओं का सम्मिलन हिंदी के भीतर हो गया । उपन्यास के मामले में भी देर से शुरू करने के बावजूद तेजी से बढ़कर हिंदी ने अपना विशेष स्थान बना लिया था । भारतीय भाषाओं की बात छोड़िए दुनिया की बहुत कम ही भाषाएं हैं जिनमें साहित्यिक आलोचना को ऐसा सम्मान हासिल है । प्रगतिशील आलोचना ने साहित्य की जो समझ बनायी उसके कारण हिंदी साहित्य के भीतर अंतरअनुशासनिकता सहज ही प्रविष्ट हुई और इसके कारण हिंदी साहित्य का सामान्य विद्यार्थी भी समाज विज्ञान और विचार की दुनिया में दखल रखता है । उसे यह बोध हिंदी के प्रमुख आलोचक रामचंद्र शुक्ल के साथ राहुल सांकृत्यायन जैसे प्रकांड लेखक और विद्वान के साथ ही प्रमुख प्रगतिशील आलोचक रामविलास शर्मा के लेखन से आसानी से मिल जाता है । इन तीनों ही विद्वानों की सबसे बड़ी खूबी साहित्य की समझ को व्यापकता प्रदान करना है । उदाहरण के लिए इन लेखकों की किताबों के शीर्षक ही देखना पर्याप्त होगा ।

हिंदी की प्रगतिशील आलोचना ने समूचे आधुनिक हिंदी साहित्य को उपनिवेशवाद विरोधी स्वाधीनता आंदोलन की चेतना से अनुप्राणित बताया और उसके साहित्यिक सौंदर्य की बुनियाद इस चेतना में निहित दिखाया । इस समय हिंदी साहित्य की इस धारणा को बल देकर स्पष्ट करने की जरूरत है क्योंकि एक सांसद ने देश की स्वतंत्रता का वर्ष 2014 घोषित किया तो शासक दल को वैचारिक दिशा देने वाले संगठन के मुखिया ने इसे दस साल आगे खिसकाकर 2024 कर दिया । हिंदी साहित्य की उपनिवेशवाद विरोध की भावना और समझ को उसकी आधुनिकता का आधार बताकर प्रगतिशील आलोचना ने साहित्य की अत्यंत मौलिक भूमिका उजागर की । उपनिवेशवाद द्वारा हमारे देश के बारे में निर्मित समझ पर सवाल उठाकर प्रगतिशील आलोचकों ने देश को एकताबद्ध करने में स्वाधीनता आंदोलन की भूमिका को सामने रखा । इससे हिंदी भाषा की भी नयी सामाजिक भूमिका सामने आयी और उसके संस्कृत मूल की जगह उसके लोक स्वरूप की प्रतिष्ठा हुई । साहित्य की इस तरह की समझ ने उसके आलोचक के लिए ज्ञानानुशासनों से परिचय आवश्यक बना दिया । इस आलोचना ने हिंदी की आधुनिक साहित्यिक रचनात्मकता को उजागर करने के साथ ही उसकी परम्परा का भी उत्खनन किया । अतीत के साहित्य में सामंतवाद विरोध उसकी जन पक्षधरता का पैमाना बन गया । इसने संस्कृत साहित्य की भी नयी समझ बनाने में मदद की ।   

कहने की जरूरत नहीं कि परम्परा के सवाल को आलोचना में प्रमुखता प्रदान करने का समूचा श्रेय प्रगतिशील आलोचना को जाता है । इस तरह उसने अपना ऐतिहासिक औचित्य साबित किया । प्रगतिशील आलोचना की बनायी इसी चेतना के सहारे आज की विद्रोही दलित चेतना अपनी परम्परा को बुद्ध और कबीर तक ले जाती है । दुनिया के सभी देशों में विद्रोही धाराओं को अपने समाजों के विद्रोही अतीत से प्रेरणा लेते देखा जाता है । हिंदी में प्रगतिशील आलोचना ने इस रणनीति को मौलिक ऊंचाई दी । कुछ समय के लिए हिंदी आलोचना में प्रगति विरोध का भी दबदबा कायम हुआ लेकिन फिर से 1960 के बाद नक्सलबाड़ी विद्रोह से उपजी चेतना के उभार ने उसे प्रासंगिक बना दिया । उसकी इस मजबूत विरासत के कारण ही हाल के अस्मितापरक विमर्शात्मक लेखन में भी अगर एक धारा का सारा जोर प्रगतिशील साहित्य लेखन के निषेध से अपनी जगह बनाने पर है तो एक दूसरी धारा भी कोई कम प्रबल नहीं है जो प्रगतिशील साहित्य के साथ रचनात्मक संवाद विकसित करने पर जोर देती है ।

हिंदी आलोचना की जड़ हमारे देश के स्वाधीनता संग्राम की साम्राज्यवाद विरोधी चेतना में है । हमारे देश की स्वतंत्र संप्रभुतासंपन्न पहचान भी उसी चेतना से उपजी है । जब जब देश के शासक इस संप्रभुता से समझौता करके गुलामी की राह पर बढ़ना चाहते हैं तब तब वे आलोचना को दबाने की चेष्टा करते हैं और उस समय देश की जनता की यह चेतना पुनर्नवा होकर आलोचना को नया मार्ग अपनाने की प्रेरणा देती है । जिस साम्राज्य में सूरज नहीं डूबता था उससे लड़कर जो आलोचना विकसित हुई है उसे कुछ संस्थानों या तथाकथित विदेशी विचारों पर ही निर्भर समझने की भूल बेवकूफाना है । उसको देश की जनता की रचनात्मक क्षमता से प्राणवायु मिलती रही है इसलिए शिक्षण संस्थानों और लोकतांत्रिक आचरण पर तमाम हमले के बावजूद शिक्षार्थी युवकों और युवतियों के वंचित समुदायों में हिंदी साहित्य की जो भी समझ लोकप्रिय है उसकी मूल प्रकृति आलोचनात्मक और आजादी की पक्षधर बनी हुई है ।                                                                                                              

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