2000 में पालग्रेव मैकमिलन से रोनाल्डो मुन्क लिखित ‘मार्क्स@2000: लेट मार्क्सिस्ट पर्सपेक्टिव्स’ का प्रकाशन हुआ । किताब न केवल अपने शीर्षक के नाते ध्यानाकर्षक है, बल्कि प्रकृति, विकास, मजदूर वर्ग, स्त्री प्रश्न, संस्कृति, राष्ट्रवाद और उत्तरआधुनिकता जैसे नये समय के सवालों के संदर्भ में मार्क्सवाद को देखने का गंभीर प्रयास भी करती है । भूमिका में लेखक ने बताया है कि किताब के शीर्षक से मार्क्स कंप्यूटर पर एशियाई शेरों के आर्थिक ढांचे के पतन या इंडोनेशिया के सामाजिक विस्फोट या डेनमार्क की आम हड़ताल के बारे में ताजा खबर देखते प्रतीत होते हैं । उन्हें यह सब आशा के अनुरूप ही लगता और उनका विश्लेषण भी वैसा ही तीक्ष्ण होता । कुछ बरस पहले मार्क्स की सदी के अंत की घोषणा करने में कोई समस्या नहीं थी । लगता था कुछ पुरातत्ववेत्ता पुरानी किताबों की दूकान से उनके विचारों को समझने की कोशिश कर रहे हैं । लेकिन अब तो मार्क्स के बिना भविष्य की कल्पना भी मुश्किल हो गई है । किताब का उद्देश्य इस समय के सवालों के संदर्भ में मार्क्स को जिन्दा करना है । इसके लिए लेखक का मानना है कि मार्क्सवाद को महज पूंजीवाद के संकटों और समस्याओं पर सोचने की जगह खुद की समस्याओं की भी छानबीन करनी चाहिए । किताब वर्तमान सवालों के परिप्रेक्ष्य को कभी निगाह से ओझल नहीं होने देती । इसी लिहाज से लेखक ने सबसे पहले मार्क्स की मृत्यु के दावों की परीक्षा की है और पाया कि अगर सही तरीके से देखा-समझा जाए तो मार्क्स अब भी जीवित और कारगर हैं । यही बात उनके सामाजिक जनवादी यूरोपीय अनुयायियों के बारे में नहीं कही जा सकती । मार्क्सवाद में सुधार करके सामाजिक जनवाद की जो धारा चलाई गई उसका जीवन 1980 के दशक में समाप्त हो गया । यूरोप में जो अन्य संशोधित रूप प्रस्तावित किए गए वे भी चल नहीं सके । इस हालत की परीक्षा के उपरांत आज के सवालों के साथ उनकी चिंताओं के संवाद को समझने की कोशिश अलग अलग अध्यायों में की गई है । उदाहरण के लिए पर्यावरण के सवाल को देखा जा सकता है । इसे बहुत सारे लोग मार्क्स का हरितीकरण भी कहते हैं ।
2000 में ही कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से जोनाथन ह्यूज की किताब ‘इकोलाजी ऐंड हिस्टारिकल मैटीरियलिज्म’ का प्रकाशन भी उस परंपरा के भीतर आता है जिसके तहत वर्तमान के सवालों के संदर्भ में मार्क्स के विचारों को देखने की कोशिश हो रही है । किताब की जड़ें लेखक के शोध प्रबंध में हैं । इसमें पर्यावरणवादियों की ओर से मार्क्सवाद पर लगाए जाने वाले ज्यादातर आरोपों का उत्तर देने की कोशिश की गई है । इसके लिए लेखक ने सबसे पहले इस तथ्य की ओर इशारा किया है कि मार्क्सवाद की बहुत प्रकार से व्याख्या हुई है इसलिए उसे एक जगह पर ठहरा हुआ मानना उचित नहीं है । इसी तरह से पर्यावरणवाद भी अनेक धाराओं में बंटा हुआ है । कुछ लोग मानवेतर प्रकृति की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करते हैं जबकि कुछ अन्य उसे उपकरण मात्र मानते हैं । इन विरोधों पर अधिक ध्यान देने की जगह लेखक ने पर्यावरणवादियों के तर्कों के बरक्स मार्क्सवाद की क्षमता को उजागर करने पर जोर दिया है । इस तरह लेखक के विश्लेषण का केंद्र मार्क्सवाद है न कि पर्यावरणिक चिंतन । इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि लेखक ने पारिस्थितिकी के समक्ष किसी अन्य विचारधारा की छानबीन की बनिस्बत मार्क्सवाद को खंगालने का फैसला किया । इस छानबीन में जिस एक और चीज से मदद मिली वह यह कि मार्क्सवाद के आधार पर स्थापित राजनीतिक संस्थान के पतन से मार्क्स के चिंतन को धार्मिक रीति से देखे जाने की सम्भावना कम रह गई है । उनके विचारों को खारिज करने की बजाए नई चुनौतियों के समक्ष उन्हें समझने से ही उनकी क्षमता का पता चलेगा । स्वस्थ वाद विवाद से ही राजनीतिक सोच की दुनिया में उनकी जगह तय होगी ।
इसी साल मंथली रिव्यू प्रेस से जान बेलामी फ़ास्टर की किताब ‘मार्क्स’ इकोलाजी: मैटीरियलिज्म ऐंड नेचर’ का प्रकाशन हुआ । शुरू में लेखक ने इसका नाम ‘मार्क्स ऐंड इकोलाजी’ रखने का निश्चय किया था लेकिन मार्क्स के बारे में समझ में बदलाव के चलते किताब का यह नाम रखा । आम तौर पर मार्क्स को पारिस्थितिकी विरोधी चिंतक माना जाता है लेकिन फ़ास्टर उनके लेखन से परिचित थे इसलिए इस तरह की आलोचना को गम्भीर नहीं समझते थे । फिर भी उन्हें लगता था कि मार्क्स के चिंतन में उनकी पारिस्थितिकीय अंतर्दृष्टि का दर्जा अव्वल नहीं है और आज की समस्याओं के लिहाज से उनका मूल्य कुछ खास नहीं है । इस बीच उनके एक विद्यार्थी ने उनका परिचय कृषि और उपजाऊ मिट्टी से जुड़े मार्क्स के लेखन से कराया तो उन्हें लगा कि मार्क्स को पारिस्थितिकी के लिहाज से महत्वपूर्ण मानना होगा । एक और साथी ने एंगेल्स की किताब ‘डायलेक्टिक्स आफ़ नेचर’ पढ़ने की सलाह दी तो कुछ और उत्साह बढ़ा । असल में लेखक का कहना है कि मार्क्स के बारे में लम्बे दिनों में बनी हमारी समझ उनके पारिस्थितिकीय चिंतन को ग्रहण करने में बाधा पैदा करती है । खुद लेखक मार्क्स के हेगेलीय पक्ष में दीक्षित थे जिसका विकास पश्चिमी बौद्धिक जगत में लूकाच से होते हुए नववाम तक आता है । इसमें दर्शन और राजनीतिक अर्थशास्त्र पर अधिक जोर दिया जाता है । इस बौद्धिक पृष्ठभूमि के चलते मार्क्स के प्रकृति संबंधी लेखन पर निगाह नहीं जाती थी । लूकाच और ग्राम्शी की परम्परा के चलते प्रकृति के विश्लेषण में द्वंद्वात्मक नजरिया अपनाने वालों से लेखक की दूरी बनी रही थी । वे राजनीति के क्षेत्र में भौतिकवाद के अनुप्रयोग से तो परिचित थे लेकिन विज्ञान में इसकी मौजूदगी से उतना घनिष्ठ परिचय नहीं था । यांत्रिक भौतिकवाद से मार्क्स ने संबंध विच्छेद जिस आधार पर किया था उसके बारे में गहरी जानकारी मार्क्सवादी परम्परा में भी कम ही है । इस दिशा में आगे बढ़ते ही उन्हें लगा कि मार्क्स की विश्वदृष्टि गहरे और व्यवस्थित रूप से पारिस्थितिकीय है और इसकी जड़ें उनके भौतिकवाद में हैं ।
2006 में ब्रिल प्रकाशन ने पाल बुर्केट लिखित ‘मार्क्सिज्म ऐंड इकोलाजिकल इकोनामिक्स: टुवर्ड ए रेड ऐंड ग्रीन पोलिटिकल इकोनामी’ शीर्षक किताब छापी । किताब का मकसद मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र और पारिस्थितिकीय अर्थशास्त्र के बीच संवाद स्थापित करना है । इसके लिए प्रकृति और आर्थिक मूल्य के बीच संबंध, प्रकृति के साथ पूंजी जैसा बरताव और टिकाऊ विकास की धारणा आदि पर विचार किया गया है । लेखक ने ऐसे तर्कों से परहेज किया है जिनसे मार्क्सवाद और पारिस्थितिकी के बीच बौद्धिक लेनदेन में बाधा आती है । उनको उम्मीद है कि इस किताब से दोनों के बीच संवाद में बढ़ोत्तरी होगी । साथ ही पारिस्थितिकीय अर्थशास्त्र की आलोचनात्मक समझ के लिए भी उन्हें यह किताब उपयोगी प्रतीत होती है । 2014 में हेमार्केट बुक्स से पाल बुर्केट की इस किताब के नए संस्करण का प्रकाशन हुआ । इसकी भूमिका जान बेलामी फ़ास्टर ने तो लिखी ही, खुद लेखक ने भी नया विषय प्रवेश लिखा है ।
जोएल कोवेल की किताब ‘द एनेमी आफ़ नेचर: द एंड आफ़ कैपिटलिज्म आर द एंड आफ़ द वर्ल्ड?’ का प्रकाशन ज़ेड बुक्स से मूल रूप से 2002 में हुआ था, फिर 2007 में इसका नवीकृत और विस्तारित संस्करण प्रकाशित हुआ । असल में पर्यावरण के सवाल पर मार्क्सवाद का हस्तक्षेप इस रूप में हुआ है कि पूंजीवाद की आलोचना का पर्यावरण विनाशक पहलू भी मुखर हुआ है । नए संस्करण की भूमिका में लेखक ने बताया है कि बार बार सबूत मिलने के बावजूद वैश्विक तापवृद्धि की सच्चाई को लोग स्वीकार नहीं करना चाहते हैं । लेखक का कहना है कि सच्चाई जानने से दुनिया के बारे में हमें स्पष्टता और परिभाषा प्राप्त होती है । इससे बाहरी ताकतों पर हमारी निर्भरता खत्म होती है । अगर यह भयानक हुई तो इससे जूझने की सामूहिक शक्ति पैदा होती है । इससे यह आशा उपजती है कि हम अपने भविष्य का निर्माण स्वयं कर सकते हैं । पूंजीवादी व्यवस्था जिस अंधकार में हमें रखना चाहती है उस अज्ञात भय के मुकाबले यह स्पष्टता मुक्तिकारी हो सकती है । इसी आदर्श के लिए यह किताब लिखी गई है । सिद्ध है कि सर्वविजयी पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली ही प्रकृति का सबसे बड़ा दुश्मन है ।
2010 में मंथली रिव्यू प्रेस से जान बेलामी फ़ास्टर, ब्रेट क्लार्क और रिचर्ड यार्क की किताब ‘द इकोलाजिकल रिफ़्ट: कैपिटलिज्म’स वार आन द अर्थ’ का प्रकाशन हुआ । किताब इस बात पर जोर देती है कि प्रकृति और मनुष्य के बीच टूट पैदा हो चुकी है । देखा जाए तो सम्पूर्ण विश्व अविभाज्य एकत्व है । मनुष्य और प्रकृति एक दूसरे पर जीवन हेतु निर्भर हैं । इन दोनों के बीच अलगाव का सबसे बड़ा कारण वर्तमान पूंजीवादी समाज है । इसके बावजूद पर्यावरणिक समस्या के अधिकांश विश्लेषणों में धरती या जीवन या मानवता को बचाने की चिंता कम उस पूंजीवाद को बचाने की चिंता अधिक नजर आती है जो पर्यावरण की समस्याओं की जड़ है । संसार के विनाश की सम्भावना से उतना परेशानी नहीं महसूस होती जितनी औद्योगिक पूंजीवाद के विनाश की सम्भावना से होती है । लोग चाहते हैं कि वैश्विक तापवृद्धि में कमी तो आए लेकिन उसके लिए जिम्मेदार जीवन शैली को बदले बिना ही ऐसा हो । मूल बात यह है कि औद्योगिक पूंजीवाद का सातत्य असम्भव है क्योंकि इसने हमेशा उसी जमीन को बरबाद किया है जिस पर कच्चे माल के लिए इसे निर्भर रहना पड़ता है । अगर यह रहता है तो जमीन या हवा या पानी का शोषण करता ही रहेगा । इनको बचाने के लिए औद्योगिक पूंजीवाद को नष्ट करना होगा । किताब को लिखने का मकसद धरती की हत्यारी व्यवस्था से अलग वैकल्पिक रास्ते की खोज करना है ।
लेखक अपने आपको पर्यावरणिक समाजशास्त्री कहते हैं और मानते हैं कि इस विद्या का जन्म धरती के समक्ष उपस्थित इस संकट के चलते हुआ है । इस हालिया अनुशासन के भीतर दो दृष्टियां मौजूद हैं ।
2010 में ही हेमार्केट बुक्स से क्रिस विलियम्स की किताब ‘इकोलाजी ऐंड सोशलिज्म: सोल्यूशंस टु कैपिटलिस्ट इकोलाजिकल क्राइसिस’ का प्रकाशन हुआ । किताब के मुखपृष्ठ पर ही ‘सिस्टम चेन्ज, नाट क्लाइमेट चेन्ज’ लिखा हुआ एक बैनर है जो किताब के मुख्य तर्क को अच्छी तरह से व्यक्त करता है ।
2010 में प्लूटो प्रेस से डेरेक वाल की किताब ‘द राइज आफ़ द ग्रीन लेफ़्ट: इनसाइड द वर्ल्डवाइड इकोसोशलिस्ट मूवमेंट’ का प्रकाशन हुआ । किताब की भूमिका ह्यूगो ब्लांको ने लिखी है । किताब पूंजीवाद और पर्यावरण के बीच के असमाधेय अंतर्विरोध को उजागर करने के लिए लिखी गई है ।
2011 में नेशन बुक्स से क्रिश्चियन परेन्ती की किताब ‘ट्रापिक आफ़ केआस: क्लाइमेट चेंज ऐंड द न्यू जियोग्राफी आफ़ वायलेन्स’ का प्रकाशन हुआ । किताब पर्यावरणिक बदलावों को युद्धों के नए दौर से जोड़ती है और इस मामले को देखने का नया नजरिया देती है ।
2011 में ही मंथली रिव्यू प्रेस से फ़्रेड मैगडाफ़ और जान बेलामी फ़ास्टर की किताब ‘ह्वाट एवरी एनवाइरनमेंटलिस्ट नीड्स टु नो एबाउट कैपिटलिज्म: ए सिटिजेन्स गाइड टु कैपिटलिज्म ऐंड द इन्वाइरनमेंट’ का प्रकाशन हुआ । शीर्षक से ही साफ है कि इस मसले पर यह किताब सुबोध तरीके से समझाने के लिए लिखी गई है । असल में पर्यावरण के सवाल पर आंदोलन करने वाले लोग बहुत दिनों तक मार्क्सवादियों से दूरी बरतते रहे क्योंकि वे पूंजीवाद के साथ सीधा टकराव नहीं चाहते थे और पूंजीवादी सरकारों से उन्हें उम्मीद थी तथा दबाव समूह के रूप में ही काम करने में उनकी दिलचस्पी थी । किताब इन दोनों के बीच संवाद पैदा करने और साझा जमीन खोजने के मकसद से लिखी गई है ।
2012 में पालग्रेव मैकमिलन से कार्ल बाग्स की किताब ‘इकोलाजी ऐंड रेवोल्यूशन: ग्लोबल क्राइसिस ऐंड द पोलिटिकल चैलेन्ज’ का प्रकाशन हुआ । इसकी प्रस्तावना माइकेल परान्ती ने लिखी है । उनका कहना है कि साठ के दशक में जब पर्यावरणिक आंदोलन उफान पर था तो राजनीतिक प्रभाव और संपत्ति की सत्ता के सवालों के प्रति उदासीनता बरत रहा था । उसे पर्यावरण की मुख्य समस्या प्रदूषण ही प्रतीत होती थी और इसलिए नदियों, झीलों और जमीन की सफाई के अभियान चलाना उसे अपना कर्तव्य महसूस होता था । उस समय भी कुछ लोगों को पर्यावरण की बर्बादी और मुनाफ़े के लिए कारपोरेट की लूट के बीच संबंध दिखाई पड़ता था । उन्हें यकीन था कि पर्यावरण की रक्षा करने वालों को बड़े कारपोरेट घरानों और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने वालों से लड़ना पड़ेगा । फिर भी पर्यावरणवादी उनकी बात नहीं सुनना चाहते थे । उनकी कार्यसूची में समाजवाद शामिल नहीं था । वे कहते थे कि कम्यूनिस्ट पार्टी शासित देशों में भी पर्यावरण का क्षरण हो रहा है इसलिए इस मसले पर वामपंथी बोलने लायक नहीं हैं । दूसरी ओर वामपंथी लोग भी कहते थे कि पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने के उनके संघर्ष में एक सामाजिक सांस्कृतिक मुद्दा जोड़ने की जरूरत नहीं है । उस जमाने में यदि यह किताब उपलब्ध होती तो इनके बीच संवाद हो सकता था ।
2014 में मार्टिन एम्पसन की किताब ‘लैंड ऐंड लेबर: मार्क्सिज्म, इकोलाजी एंड ह्यूमन हिस्ट्री’ का प्रकाशन बुकमार्क्स पब्लिकेशन से हुआ । भूमिका में लेखक का कहना है कि आगामी कुछेक दशकों में तय हो जाएगा कि मानव प्रजाति इस धरती पर जी सकेगी या नहीं । इसमें कोई संदेह नहीं रह गया है कि तापमान में बढ़ोत्तरी हो रही है । जीवन पद्धति में अगर बुनियादी बदलाव नहीं किए जाते तो औद्योगिक युग के आरम्भ से ही पर्यावरण पर जो असर मानव गतिविधियों का पड़ रहा है उससे जलवायु में विनाशकारी बदलाव आने तय हैं । इसकी निश्चित तारीख बताना संभव नहीं लेकिन कार्बन उत्सर्जन में कटौती में होने वाली देरी से वह दिन नजदीक आता जा रहा है । जलवायु के बदलावों की समझ तो बढ़ी है लेकिन उसे रोकने के लिए कुछ ठोस होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा । इसके लिए आयोजित संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठकें भी निष्फल साबित हुई हैं । ये सम्मेलन राजनीतिक लड़ाई के मैदान बन गए हैं । उत्सर्जन में कटौती के समझौते को दफ़नाने की कोशिश विकसित देश कर रहे हैं । समस्या यह नहीं है कि राजनेता कुछ करना नहीं चाहते या उत्सर्जन में कटौती के लिए मुफ़ीद तकनीक नहीं है । असल समस्या पूंजीवाद है । पर्यावरणिक संकट से निपटने में पूंजीवाद की अक्षमता को समझने के लिए हमें मानव समाज और प्रकृति के रिश्तों के गति विज्ञान को समझना होगा । मनुष्य ने प्रकृति में शुरू से बदलाव किए । उसने फल बटोरे, शिकार किए, उपकरण बनाए, पेड़ काटे और फसलें उगाईं । जब से उसने खेती की शुरुआत की तबसे इसके लिए बड़े पैमाने पर जंगल काटे । इन सबके मुकाबले पूंजीवादी प्रणाली बेहद नई है । कुछ सौ सालों में ही यह पूंजीवाद दुनिया भर में फैल गया और इसने मानव समाज तथा धरती को बदल दिया । पूंजीवाद में उत्पादक शक्तियों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई फलस्वरूप प्रकृति को बदलने की हमारी क्षमता भी बढ़ी । इससे पारिस्थितिकीय और पर्यावरणिक प्रणालियों के लिए खतरा पैदा हो गया है । पूंजीवाद ऐसी व्यवस्था है जो चोटी के मुट्ठी भर लोगों को फायदा पहुंचाती है । वैसे मानव इतिहास में सामाजिक विषमता कोई नई बात नहीं, पूंजीवाद की खासियत इसका उत्पादन का तरीका है । संपदा के संचय के लिए पागलपन इसकी चालक शक्ति है । इसी के चलते पूंजीवाद इतना विध्वंसक हो जाता है ।
2014 में सिमोन & शूस्टर से नाओमी क्लीन की किताब ‘दिस चेंजेज एवरीथिंग: कैपिटलिज्म वर्सस द क्लाइमेट’ का प्रकाशन हुआ । किताब की शुरुआत एक कहानी से होती है जिसमें 2012 में वाशिंगटन में गरमी के चलते वहां से चलनेवाले एक हवाई जहाज की उड़ान स्थगित करनी पड़ी क्योंकि उसके पहिए चार इंच पिघले हुए कोलतार में धंसे थे । विमान में सवार पैंतीस यात्रियों को उतारकर उसे खींचकर निकालने की कोशिश हुई लेकिन सम्भव नहीं हो सका । तीन घंटे बाद क्रेन की सहायता से उसे बाहर निकालकर रवाना किया गया । इस घटना की रपटों में कहीं जलवायु परिवर्तन का नाम नहीं लिया गया जबकि इस बढ़ी हुई गर्मी को जलवायु परिवर्तन का ही लक्षण मानना उचित होगा । यह बदलाव जीवाश्म ईंधन को जलाने के कारण आ रहा है । जीवाश्म ईंधन धरती के भीतर से निकाले हुए ईंधन को कहते हैं । धरती के नीचे दबाव और तापमान के अलग अलग स्तरों पर कोयला, डीजल-पेट्रोल और गैस आदि होते हैं जिन्हें खुदाई करके निकाला जाता है । यह ईंधन धरती के नीचे हजारों साल तमाम चीजों के दबे रहने के बाद स्वाभाविक प्रक्रिया में पैदा होता है ।
2014 में ही पालग्रेव मैकमिलन से साल्वातोर एंगेल-डी माउरो की किताब ‘इकोलाजी, स्वायल्स, ऐंड द लेफ़्ट: ऐन इको-सोशल अप्रोच’ का प्रकाशन हुआ । भूमिका में लेखक का कहना है कि जीवभौतिकी की किसी भी प्रक्रिया के अध्ययन को वाम हलकों में रुचि के साथ नहीं देखा जाता है जबकि यह विद्या पर्याप्त राजनीतिक है । अलग बात है कि उसकी राजनीति वस्तुनिष्ठता के परदे में छिपी रहती है । इसीलिए इसे पूंजीवाद समर्थक माना जाता है । फिर भी कुछ वैज्ञानिक अवश्य ऐसे रहे हैं जो वामपंथी तो नहीं लेकिन वाम समर्थक माने जा सकते हैं । ऐसे ही लोगों की प्रेरणा से लेखक को जमीन का अध्ययन करने में रुचि पैदा हुई । उनको लगता है कि आज के हालात किसी भी समतामूलक विकल्प की संभावना की इजाजत नहीं देते ।
2014 में वर्सो से अलफ़्रेड श्मिड्ट की 1962 में छपी जर्मन किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘द कान्सेप्ट आफ़ नेचर इन मार्क्स’ का प्रकाशन हुआ । अनुवाद बेन फ़ाक्स ने किया है । किताब का लेखन होर्खाइमर और अडोर्नो के निर्देशन में शोधग्रंथ के रूप में 1957 से 1960 के बीच हुआ था ।
2014 में न्यू कम्पास प्रेस से ब्रायन टोकर की किताब ‘टुवर्ड क्लाइमेट जस्टिस: पर्सपेक्टिव्स आन द क्लाइमेट क्राइसिस ऐंड सोशल चेन्ज’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि वैश्विक तापवृद्धि मानव गतिविधि के चलते हो तो रही है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि इसके लिए हम सब समान रूप से जिम्मेदार हैं । इसके लिए उद्योगीकृत विकसित देश अधिक जिम्मेदार हैं । असल में जीवाश्म ईंधन के प्रचुर इस्तेमाल से ही तकनीकी सम्पदा अर्जित की और वैश्विक प्रभुत्व कायम किया है । विडम्बना यह है कि इससे पैदा जलवायु संकट का असर अविकसित देशों की जनता को भुगतना होगा । जिन लोगों ने पर्यावरण को दूषित करने में सबसे कम योगदान किया है उन पर ही मौसम के उलटफेर और समुद्र के बढ़ते जलस्तर की मार सबसे बुरी पड़ेगी और इसको झेलने की तकनीकी तैयारी भी उनकी ही सबसे कम होगी । इसलिए जलवायु संकट की चुनौती सामान्य रूप से समूचे समाज के समक्ष तो है, इसके साथ सामाजिक न्याय का सवाल भी जुड़ गया है । यह तो भारी अन्याय है कि जो लोग संकट के लिए सबसे कम जिम्मेदार हैं उन्हें ही इसकी मार सबसे अधिक झेलनी होगी । आगामी वर्षों में पारिस्थितिकी आंदोलन के सामने वैश्विक तापवृद्धि और सामाजिक न्याय की लड़ाई सबसे कठिन मुद्दा होगा ।
2015 में वर्सो से मैकेंज़ी वार्क की किताब ‘मोलेक्यूलर रेड: थियरी फ़ार द एंथ्रोपोसीन’ का प्रकाशन हुआ । विज्ञान की दुनिया में एंथ्रोपोसीन नामक शब्द का प्रयोग धरती के इतिहास में एक नए युग के आगमन को व्यक्त करने के लिए हो रहा है । किताब में चिंता जाहिर की गई है कि संसार की प्रत्येक वस्तु इस कदर उपभोग्य बना दी गई है कि पृथ्वी नामक इस ग्रह की सीमाओं में हमारी उपभोक्ता जरूरतों की संतुष्टि सम्भव नहीं प्रतीत होती । इस अर्थ में यह प्राक-इतिहास का अंत है ।
2016 में ब्रिल से जान बेलामी फ़ास्टर और पाल बुर्केट की किताब ‘मार्क्स ऐंड द अर्थ: ऐन एन्टी-क्रिटीक’ का प्रकाशन हुआ । किताब में रयान विशार्ट का संपादकीय सहयोग है । लेखकों ने किताब के शुरू में ही बताया है कि रोजा लक्जेमबर्ग के मुताबिक मार्क्स के वैज्ञानिक लेखन की उपलब्धि के कुछ जरूरी पहलू तत्कालीन समाजवादी आंदोलन की तात्कालिक भागमभाग में उपेक्षित रह गए थे और जैसे जैसे पूंजीवादी व्यवस्था के ऐतिहासिक अंतर्विरोध परिपक्व होंगे वैसे वैसे ये पहलू खुलकर सामने आएंगे । रोजा की यह भविष्यवाणी मार्क्स के पारिस्थितिकीय चिंतन के प्रसंग में पूरी तरह सही साबित हो रही है ।
2016 में ही पी एम प्रेस से जेसन डब्ल्यू मूर के संपादन में ‘एंथ्रोपोसीन आर कैपिटलोसीन?: नेचर, हिस्ट्री, ऐंड द क्राइसिस आफ़ कैपिटलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । संपादक की भूमिका के अतिरिक्त किताब में तीन भाग हैं । पहले भाग में धरती के वर्तमान संकट की अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त एंथ्रोपोसीन नामक शब्द की समस्याओं पर दो लेखों के सहारे विचार किया गया है । दूसरे भाग के तीन लेखों में पूंजी और धरती के आपसी रिश्तों को परखा गया है जिनके तहत धरती के संसाधनों को पूंजी, सस्ता माल समझकर दूह लेती है । तीसरे भाग के दो लेखों में संस्कृति और राजनीतिक पारिस्थितिकी के संदर्भ में धरती और पूंजी के वर्तमान संकट पर विचार किया गया है ।
2016 में वर्सो से इयान आंगुस की किताब ‘फ़ेसिंग द एन्थ्रोपोसीन: फ़ासिल कैपिटलिज्म ऐंड द क्राइसिस आफ़ द अर्थ सिस्टम’ का प्रकाशन हुआ । किताब की भूमिका जान बेलामी फ़ास्टर ने लिखी है । भूमिका में उन्होंने पर्यावरण के लिए होने वाले आंदोलन के इतिहास का जायजा लिया है । द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब धरती की सतह पर परमाणु बम का परीक्षण किया गया तो वैज्ञानिकों ने इसका घनघोर विरोध किया । 1962 में राचेल कारसन की किताब साइलेन्ट स्प्रिंग के प्रकाशन के बाद इस आंदोलन में काफी व्यापकता आई । इसके बाद सोवियत संघ और अमेरिका के वैज्ञानिकों ने दुनिया भर में तापमान में ऐसी तेज वृद्धि की चेतावनी दी जिसमें दुबारा कमी आने की कोई आशा नहीं थी । इस किताब में धरती की जलवायु और उसके तापमान में मानवजन्य अपरिवर्तनीय बदलावों और उन बदलावों की प्रतिक्रिया में चलने वाले पर्यावरण के आंदोलनों के द्वंद्वात्मक संबंध की छानबीन की गई है । आंगुस ने मनुष्य और प्रकृति के बीच अंत:क्रिया के नए उदीयमान स्तर के बतौर एन्थ्रोपोसीन का चित्रण किया है और बताया है कि इसके कारण ही पारिस्थितिकी की नई कल्पना की जरूरत पैदा हुई है । लगता है कि विज्ञान में एन्थ्रोपोसीन को खासकर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के समय से ही जोड़कर देखा जाएगा । हालांकि इसकी शुरुआत के निशान औद्योगिक क्रान्ति से ही मिलने लगते हैं । इस धारणा का उभार पूरी तरह से पृथ्वी प्रणाली की वैज्ञानिक सोच के साथ हुआ है । इसे पूंजीवाद, उद्योगीकरण, उपनिवेशीकरण और जीवाश्म ईंधन के उपयोग के साथ मनुष्य और पर्यावरण के बीच संबंध में बदलाव से भी जोड़कर देखा जाता है ।
2016 में वर्सो से क्रिस्ताफ़ बोनुइल और ज्यां-बापतिस्ते फ़्रेसोज़ की स्पेनी में 2013 में छपी किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘द शाक आफ़ द एन्थ्रोपोसीन: द अर्थ, हिस्ट्री ऐंड अस’ का प्रकाशन हुआ । अनुवाद डेविड फ़ेर्नबाख ने किया है । लेखक का कहना है
कि हमारा समय इसी नाम से पुकारा जाना चाहिए । इसे मनुष्य की शक्ति और अक्षमता
दोनों का नमूना कहा जा सकता है । शक्ति इस अर्थ में कि पृथ्वी पर सभी बदलाव अब हम
मनुष्यों के कारण हो रहे हैं और अक्षमता इस अर्थ में कि इसे रोकना हमारे लिए संभव
नहीं रह गया है । भविष्य की दुनिया का तापमान अधिक होगा, प्राकृतिक आपदाएं अधिक होंगी, बर्फ कम होती जाएगी, समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा और जलवायु बेकाबू
होगी । यह केवल पर्यावरणिक संकट नहीं, बल्कि मानव जन्य भूगर्भीय क्रांति है । औद्योगिक क्रांति के उन्नायकों ने
बेझिझक इसे जन्म दिया था । अब इससे आंख चुराकर नहीं, बल्कि इसकी सचाई को स्वीकार करके ही आगे की
राह निकाली जा सकती है ।
2017 में मंथली रिव्यू प्रेस से कोहेइ सैतो की 2016 में जर्मन में छपी किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘कार्ल मार्क्स’ इकोसोशलिज्म: कैपिटलिज्म, नेचर, ऐंड द अनफ़िनिश्ड क्रिटीक आफ़ पोलिटिकल इकोनामी’ का प्रकाशन हुआ । मेगा से इस किताब में भरपूर मदद ली गई है । लेखक का कहना है कि बहुत दिनों तक मार्क्स की पारिस्थितिकी के बारे में सोचना भी विरोधाभासी समझा जाता । ढेर सारे मार्क्स के अनुयायी भी मानते थे कि असीम आर्थिक और तकनीकी विकास को मार्क्स इतिहास की स्वाभाविक गति समझते थे और प्रकृति पर कब्जे के पक्ष में थे । ऐसी किसी भी समझ के आधार पर पारिस्थितिकीय सवालों पर सोचा नहीं जा सकता । 1970 दशक मे पश्चिमी देशों में मानव सभ्यता के लिए पर्यावरणिक खतरे नजर आने लगे और इसी के साथ प्रकृति पर कब्जे का पक्षधर होने के लिए उदीयमान पर्यावरण आंदोलन की ओर से मार्क्स की घनघोर आलोचना भी शुरू हुई । आलोचकों का कहना था कि प्रकृति पर मनुष्य के कब्जे के जरिए विकास में अपने इसी यकीन के चलते औद्योगिक उत्पादन और उपभोग के साथ जुड़ी तकनीक में निहित विध्वंसक क्षमता की उन्होंने उपेक्षा की ।
2017 में मंथली रिव्यू प्रेस से फ़्रेड मैगडाफ़ और क्रिस विलियम्स की किताब ‘क्रीएटिंग ऐन इकोलाजिकल सोसाइटी: टुवर्ड ए रेवोल्यूशनरी ट्रान्सफ़ार्मेशन’ का प्रकाशन हुआ । इस किताब की
भूमिका जान बेलामी फ़ास्टर ने लिखी है । इसमें उनका कहना है कि पारिस्थितिकी और
अर्थशास्त्र के लिए इस्तेमाल होने वाले शब्दों का मूल ग्रीक भाषा का एक ही शब्द है
। इसलिए पारिस्थितिकी को प्रकृति का अर्थशास्त्र भी कहा जा सकता है । लेकिन सबसे
बड़ी बात कि ग्रीक साहित्य से भी पर्यावरणीय संकट के बारे में बहुत कुछ जाना जा
सकता है । इसमें प्रकृति और समाज के बीच दूरी पैदा होने का कारण व्यापारिक मौद्रिक
अर्थतंत्र को बताया गया है । इस अर्थतंत्र के आगमन के बाद संपत्ति की आकांक्षा तो
असीम हो गई लेकिन संसार की प्राकृतिक सीमाओं से उसका टकराव होता रहा । यह टकराव
ग्रीक लेखकों की रचनाओं में अक्सर प्रकट हुआ है । मिडास का मिथक भी इसी विडम्बना
को व्यक्त करता है । एक और मिथक में राजा जब अपने महल के निर्माण के लिए पेड़ कटवा
देता है तो पेड़ की आत्मा दंड देने के लिए उसके भीतर संपत्ति और उपभोग की अनंत तृषा
का प्रवेश करा देती है । प्रकृति और संसार से सब कुछ वसूल कर लेने की उसकी प्यास
आखिरकार उसे अपनी पुत्री को भी बेच देने के लिए बाध्य करती है ।
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