हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में पटना से छपने वाले जनमत का खास स्थान है । इसका प्रकाशन साप्ताहिक
होता था । हिंदी में इससे पहले भी दिनमान और रविवार जैसे साप्ताहिक छपे थे लेकिन
उनके पीछे पूंजी के कोई न कोई घराने थे । जनमत के साथ ऐसा कुछ भी नहीं था ।
इसका प्रकाशन अस्सी के दशक में शुरू
हुआ । पटना के बाद नब्बे के दशक में इसे दिल्ली लाया गया । इसके बाद इलाहाबाद से
इसका प्रकाशन जारी है । इसे किसी क्षेत्र या विषय विशेष के साथ जोड़ना बहुत ही
मुश्किल है । राजनीतिक और वैचारिक टिप्पणियों के साथ ही साहित्य भी इसमें प्रचुरता
के साथ मौजूद रहा है । इसी कारण इसके पाठक भी मिले जुले रहे । शुरू में संपादन
महेश्वर के हाथ रहा और रामजी राय उनके साथ रहे । दिल्ली आने पर रामजी राय और कुछ
समय बृजबिहारी पांडे ने संपादन संभाला तथा इलाहाबाद जाने के बाद भी रामजी राय के
साथ अन्य लोग संपादन में रहे ।
किसी भी पत्रिका के बारे में प्रतियों
की संख्या, प्रकाशित सामग्री और उसके वितरण की व्यवस्था आदि की बातें अधिक होती
हैं । जनमत के इस पहलू की खूबियों के अतिरिक्त उसकी अंदरूनी व्यवस्था का जिक्र
जरूरी है ताकि बाहर प्रकट होने वाली ऊर्जा के नाभिक और उसमें कार्यरत तत्वों का भी
कुछ अनुमान लगाया जा सके । इसके प्रकाशन की शुरुआत में ही इलाहाबाद से चंद्रभूषण,
इरफ़ान और प्रमोद सिंह पटना जाकर इसमें अपनी जिम्मेदारी निभाने लगे थे । प्रमोद
सिंह मुख्य रूप से कला पक्ष देखते थे । उसमें इरफ़ान का भी दखल हुआ करता था और कुछ
बेहद अछूते सांस्कृतिक विषयों पर उनके लेख भी बेहद दृष्टिसंपन्न होते थे । चंद्रभूषण
ने जमीनी रिपोर्टिंग में महारत हासिल की । कुछ समय उन्होंने दिल्ली से भी लिखने
लिखवाने का काम किया । भाकपा माले के प्रसन्न कुमार चौधरी ने भी इसमें नियमित लिखा
।
बिहार में भाकपामाले के नेतृत्व में
संचालित किसान आंदोलन में लगे जन समुदाय और कार्यकर्ताओं की चेतना का विस्तार करने
में इस पत्रिका ने अभूतपूर्व भूमिका निभायी । पार्टी के नेताओं की यह कल्पना
जबर्दस्त थी । किसान आंदोलन के आधार पर व्यापक लोकतांत्रिक तबके से जुड़ने की इस
योजना के तहत इंडियन पीपुल्स फ़्रंट का निर्माण हो चुका था । उस समय राजीव गांधी के
नेतृत्व में देश नये तरह के माहौल में दाखिल हुआ । कंप्यूटर और रंगीन टेलीविजन ने बड़े
पैमाने पर प्रवेश शुरू किया था । विरोध की ताकतों की उपस्थिति बेहद कम थी । याद
दिलाने की जरूरत नहीं कि पंजाब के हालात के कारण प्रेस की आजादी का गला घोंटने
वाला जो अध्यादेश आया उसकी मुखालफ़त बिहार में सबसे अधिक हुई और उसके विरोध में
किसान आंदोलन से जुड़े लोग भी शामिल रहते थे । खुद किसान आंदोलन ने भी अपनी छवि को
देश पर कामगारों के दावे के रूप में पेश किया । तब जनमत के लेख अमेरिका के सट्टा
बाजार में भारी गिरावट से लेकर हिंदी सिनेमा में प्यार के उत्थान तक पर होते थे ।
साथ ही टेलीविजन पर धार्मिक सीरियलों के प्रसारण से लेकर जमीनी संघर्ष तक की खबरें
हुआ करती थीं । इनके लेखन की कोशिश के साथ उपर्युक्त समूची टीम लगी रहती थी ।
इन सबके बीच लगातार बातचीत से लिखे
का परिमार्जन होता था । एक समुदाय ऐसा था जो बीच बीच में घूम फिर कर आ जाया करता
था । कुछ और थे जो प्रूफ़ संशोधन से लेकर पैकिंग और डाक से भेजने के काम से जुड़े थे
। ये लोग निर्धारित तिथियों को अपनी सेवा देते थे । इनके अलावे एक समूह ऐसा था जो
लगातार एक ही किराये के अथवा विधायक निवास स्थित डेरे पर रहता था । तब माले के कुछ
विधायक पहली बार बिहार विधानसभा में निर्वाचित हुए थे । उनको मिले सरकारी आवास
अधिकतर संगठन के कार्यालय हुआ करते थे ।
इन डेरों पर रहने वालों का खर्च एक
ही मद से चलता था । इस मद का एक हिस्सा पत्रिका की बिक्री से आता था तो एक हिस्सा
भाकपामाले की ओर से आर्थिक सहायता के रूप में भी मिलता था । इससे नियमित तौर पर
इस्तेमाल होने वाली चीजें खरीदकर इकट्ठा रख दी जातीं । जरूरत के अनुसार विभिन्न
साथी इनका इस्तेमाल करते । भोजन सामूहिक ही बनता था जिसे या तो इन्हीं लोगों में
से कोई एक दो या कोई अन्य समर्थक बनाते । सब लोग साथ ही खाते और सभी अपना बर्तन धो
देते । इसी तरह सिगरेट बीड़ी आदि भी सुलभ होती थी ।
साहित्य, कला, राजनीति और विचार की
घनघोर उत्तेजक बहसों में मुब्तिला युवकों की इस टीम से भला कौन प्रभावित न होता
इसलिए जहां कहीं यह समूह रहा वहां के बौद्धिकों के साथ इनका घनिष्ठ सम्पर्क संबंध कायम
रहा । इन सम्पर्कों के चलते इस टीम का सामाजिक जीवन भी बन गया था । आंदोलन और
पार्टी के समर्थक बहुतेरे अन्य मध्यवित्त परिवारों के साथ भी इनका आना जाना होता
था । इस माहौल ने इस टीम को संबंधित नगर के सांस्कृतिक माहौल का अनिवार्य हिस्सा
बना दिया था ।
आरा से एक सांसद की जीत के बाद इस
प्रयास को राष्ट्रीय स्वरूप देने की गरज से इंडियन पीपुल्स फ़्रंट ने एक रैली
दिल्ली में ‘दाम बांधो, काम दो’ नारे के साथ की । उसमें पहली बार भाकपामाले के
प्रवक्ता के रूप में रामनरेश राम ने भाषण दिया । शुरू में कुछ लोगों से लिखवाने के
सिलसिले के बाद जनमत ही दिल्ली लाया गया । दिल्ली में भी लोकतांत्रिक बौद्धिक
समुदाय और हिंदी साहित्य के मूर्धन्य लोगों के साथ इस टीम का जुड़ाव रहा ।
जिस मकसद से इस प्रयास में भाकपामाले
ने अपना बौद्धिक और भौतिक निवेश किया था उसके पूरा होने के आसार मिलने के बाद इससे
जुड़े लोग अन्य जरूरी कामों में अन्य जगहों पर भेजे जाने लगे । रामजी राय भाकपामाले
के हिंदी मुखपत्र लोकयुद्ध को संभालने पटना गये । इधर चंद्रभूषण और इरफ़ान के विवाह
हो चुके थे । विवाह के बाद भी लम्बे समय तक ये लोग सबके साथ रहे लेकिन व्यवस्था की
दरारें नजर आने लगीं । नतीजे में इन युवकों ने रोजी रोजगार के रास्ते तलाशे ।
चंद्रभूषण ने शुरू में ग्रंथशिल्पी के लिए बहुत सारे अनुवाद किये । फिर पत्रकारिता
की मुख्य धारा के साथ उनका रिश्ता बना । फिलहाल नवभारत टाइम्स से सेवानिवृत्त होकर
वे स्वतंत्र लेखन में जुटे हैं । इरफ़ान ने कुछ समय तक एफ़ एम में रेडियो जाकी का
काम करने के बाद राज्य सभा टेलीविजन में गुफ़्तगू नामक बहुत लोकप्रिय कार्यक्रम
चलाया । साक्षात्कार आधारित इस तरह के कुछ प्रयासों और पाठ आधारित प्रसारण के कुछ
प्रयोगों के बाद फिलहाल वे बी बी सी के लिए कहानी जिंदगी की नामक एक कार्यक्रम
करते हैं । महेश्वर का निधन बावन साल की उम्र में किडनी खराब होने से हो गया और
रामजी राय भाकपामाले के पोलित ब्यूरो के सदस्य के रूप में उत्तर प्रदेश में सक्रिय
हैं ।
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