Sunday, August 25, 2024

‘पूंजी’ का नया अंग्रेजी अनुवाद

 

             


2024 में प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी प्रेस से पाल नार्थ और पाल राइटेर के संपादन में मार्क्स कीकैपिटल: क्रिटीक आफ़ पोलिटिकल इकोनामीके पहले खंड का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हुआ । अनुवाद पाल राइटेर ने किया है । इसकी प्रस्तावना वेन्डी ब्राउन ने और पश्चलेख विलियम क्लेयर राबर्ट्स ने लिखा है । यह अंग्रेजी अनुवाद उस जर्मन संस्करण से किया गया है जिसे मार्क्स ने खुद तैयार किया था । वेन्डी ब्राउन का कहना है कि पूंजीवाद का आगमन कुछ सौ साल पहले ही हुआ लेकिन मनुष्य की जरूरतों को संतुष्ट करने की उसकी उत्पादन पद्धति और संपत्ति पैदा करने की उसकी क्षमता ने धरती के वर्तमान और भविष्य के अस्तित्व को अधिक व्यापक और गहरे रूप में प्रभावित किया है । धरती की समूची सतह को प्रभावित करके यह समूचे जीवन हेतु सम्भावना और चुनौती प्रस्तुत करता है । आठ अरब मनुष्यों के लिए अमीरी और सुख से लेकर गरीबी और निराशा तक को जन्म देता है । सभी सामाजिक संबंधों और कर्ताओं, काम और आराम के इंतजामात से लेकर नातेदारी, निकटता और अकेलेपन तक सब कुछ में समाया हुआ है । वर्ग के अलावे नस्ल और लिंग को यह निरंतर परिवर्तनशील शोषक तरीकों से निर्मित और गोलबंद करता है । तकनीकी क्रांतियों को इससे ताकत मिलती है और अतीत के समस्त छिटकाये अपशिष्ट को पूरी धरती पर चक्कर लगाने के लिए बिखेर देती है । इसने एंथ्रोपोसीन को जन्म दिया है । इसमें मानवीय और प्राकृतिक इतिहास स्थायी तौर पर आपस में जुड़ गये हैं और इसकी गति इतनी त्वरित है कि पचास साल में जैव ईंधन के अंधाधुंध इस्तेमाल ने छठवें प्रलय के हालात पैदा कर दिये हैं । वित्त, कृत्रिम बुद्धि और डिजिटल दुनिया के तमाम अन्य ऐसे आविष्कार हुए हैं कि उनके आविष्कारक ही तेजी से उनके गुलाम और सेवक बनते चले गये हैं । सामाजिक विज्ञानों में पूंजीवाद को ऐसी अर्थव्यवस्था माना जाता है जो मुक्त प्रतियोगिता और मुनाफ़े की प्रेरणा के आधार पर संगठित है लेकिन इस धारणा में दुनिया को बनाने और बरबाद करने की उसकी क्षमता की जगह नहीं बनती । आखिर किस ताकत की बदौलत वह धरती के समस्त जीवन को ही अपने घेरे में खींच लाता है, उसमें व्याप्त होकर उसे बदल भी डालता है । मार्क्स के तईं इस धारणा की क्षीणता और सतहीपन न केवल पूंजीवाद की क्षमता और लूट पर परदा डालता है बल्कि उसके अस्तित्व की परिस्थितियों की भी उपेक्षा करता है । इससे पूंजीवाद के घटक और उससे रूपायित सामाजिक संबंधों, सामाजिक कर्ताओं, उसके द्वारा निर्मित, रूपांतरित, उद्ध्वस्त और परित्यक्त व्यवस्थाओं का भी पता नहीं चलता ।

वेन्डी का कहना है कि पूंजीवाद के शोषक चरित्र और सब कुछ को उपभोग्य बनाने की प्रवृत्ति को चुनौती तो मार्क्स ने दी ही, इससे भी आगे जाकर अर्थशास्त्र को बाजार तक सीमित रखने की भी आलोचना की । अर्थशास्त्र को ऐसा ज्ञान और व्यवहार बना दिया गया था जिसे सामाजिक संबंधों, इतिहास, कानून, परिवार के रूपों, राजनीति, पुलिस व्यवस्था, धर्म, भाषा, प्रतिनिधित्व और मानसिकता से स्वतंत्र कल्पित किया जाता था । इसकी जगह पर मार्क्स ने राजनीतिक अर्थशास्त्र की ऐसी समझ विकसित की जिस पद्धति के सहारे मनुष्य आपस में मिलकर समूची दुनिया का निर्माण करते हैं । इसके तहत प्रकृति का रूपांतरण होता है, श्रम विभाजन और स्वामित्व का संगठन होता है, संपत्ति का उत्पादन होता है, जीवन पद्धति, संस्थान और सामाजिक रूपों आदि का निर्माण होता है । अर्थशास्त्र के अनुशासन में तब और अब भी बाजार को इस समूची दुनिया से अलगाकर उसका अध्ययन किया जाता रहा है । मार्क्स की नजर में पूंजीवाद की समझ का मतलब उसकी समग्र स्थितियों, जरूरतों, अभिप्रेरणा, कार्यपद्धति, गतिकी, अंतर्विरोध, संकट, गतिपथ और सबसे अधिक दुनिया को बनाने और बरबाद करने की उसकी क्षमताओं की सही पकड़ था । इसका मतलब यह देखना था कि पूंजी किस तरह न केवल खास किस्म के बाजारों, तकनीकों और उद्योगों को जन्म देती है बल्कि वर्गों, परिवारों और राजनीतिक संस्थाओं, नस्ली और लैंगिक व्यवस्थाओं, प्रकृति के साथ संबंधों, देश और काल के नये रूपों तथा कानूनी धाराओं और टकरावों को भी पैदा करती है । अपने जन्म के साथ ही उसने इस क्षमता का प्रदर्शन किया जब कारखानों और शहरों को भरने के लिए उसने श्रमिक को जमीन से जुदा किया और अब संसार भर में बिखरे उत्पादन के दौर में उन्हें फिर खाली किया जा रहा है । जैसे जैसे पूंजीवाद का विकास हुआ उसने मनुष्य की जरूरत की सारी चीजों को विनिमय मूल्य के स्रोत में बदल दिया और वित्तीकरण के साथ उनकी सट्टाबाजारी शुरू कर दी । प्रत्येक नये दौर में नयी जीवन पद्धति के साथ वह धरती के समस्त जीवित और जीवाश्मों को खोदकर निकालता है तथा उसे माल और मुद्रा में बदल देता है । इस क्रम में वह बहुतेरे इलाकों, शासनों, मानवेतर प्राणियों और भूदृश्यों को कूड़े में डाल देता है ।

मार्क्स जानते थे कि उत्पादन और विध्वंस, खनन दोहन और शोषण की यह प्रक्रिया एक साथ दुनिया को बनाती और बरबाद करती है । इस जटिल व्यवस्था को देखना या समझना आसान नहीं है । कारण कि इसका संचालन आजादी के नाम पर होता है । मुक्त बाजार, स्वतंत्र मनुष्य तथा श्रम, पूंजी और मालों की अबाध आवाजाही इसके नारों की तरह हैं । पूंजी की ताकत और पहुंच को समझने के लिए राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र को विस्तारित और गहरा करना होगा । उसे अर्थशास्त्रियों की गणना आधारित समझ के मुकाबले ऐतिहासिक, दार्शनिक, सामाजिक और सैद्धांतिक परिधि के भीतर लाना होगा । इसके लिए बाजार के शोरगुल से दूर हटकर न केवल संपत्ति के उत्पादन स्थल कारखाने में जाना होगा बल्कि ऐसा ढांचा भी बनाना होगा जो बाजार निर्मित विकृति और भ्रम की खोज खबर ले सके । समझना होगा कि पूंजीवाद की जटिल और विभक्त कार्यपद्धति क्यों राजनीतिक अर्थतंत्र की पूर्व पद्धतियों के मुकाबले कम नजर आती है और कैसे आजादी का इसका नारा मानव इतिहास के सर्वाधिक दमनकारी तंत्र पर परदा डाल देता है । जो लोग पूंजीवाद को बाजार तक सीमित रखते हैं वे इसकी जरूरत नहीं महसूस करते । उनके लिए तो क्रेता और विक्रेता, मांग और पूर्ति, मुद्रा और कीमत ही सारभूत और दृश्य चीजें हैं ।

इसलिए पूंजी के विस्तार, ताकत, जटिलता और प्रच्छन्नता को जाहिर करने के लिए इसके विवरण की जगह राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना भी आवश्यक थी । यही ‘पूंजी’ का उपशीर्षक है । इसीलिए मार्क्स के लिए राजनीतिक अर्थशास्त्र का अर्थ दोहरा था । वह ठोस और वास्तविक व्यवस्था तो थी ही, उसका ज्ञानात्मक व्यवहार भी था । ये दोनों एक दूसरे में गुंथे होने के साथ एक दूसरे को जन्म भी देते हैं । जो ठोस व्यवस्था थी उसकी आलोचना में पूंजीवाद की कार्यपद्धति के साथ उसकी अकार्यता, उसके संरचनागत संकटों और बाजार के परे उसके प्रभावों का भी मुजाहिरा शामिल होना था । राजनीतिक अर्थशास्त्र के ज्ञान की आलोचना में उसके लोकप्रिय और विद्वत्तापूर्ण रूपों की आलोचना भी होनी थी । पूंजीपतियों की भाषा के साथ ही विद्वानों की भाषा का भी विश्लेषण करना था । साथ ही पत्रकारों की भाषा का भी विवेचन करना था । विद्वानों की आलोचना में पद्धति, धारणा और विषयवस्तु की भी आलोचना होनी थी । सिद्ध है कि मार्क्स के सामने पहाड़ जैसा काम था । मार्क्स तो अपने अध्ययन के दिनों से ही आलोचना के प्रेमी थे । लेकिन उनके राजनीतिक अर्थशास्त्र के इस अध्ययन में इस आलोचना का नया रूप सामने आया । मार्क्स संग्रहालयों से जूझना जानते थे । वे जानते थे कि राजनीतिक अर्थशास्त्रियों की धारणाओं के सहारे उनकी सतह के नीचे कैसे देखा जाय । उन्हें प्रदत्त सूत्रों को उलटना भी आता था । राजनीतिक अर्थशास्त्र के सरल या अखंड प्रतीत होने वाले तत्वों की बहुपक्षीयता को भी वे उजागर कर पाते थे । वे आभासी रूप से सुप्त चीजों में निहित संबंधों और प्रक्रियाओं, इतिहासों, हिंसा और क्षमताओं को खोज लेते थे । चीजों को वे इस तरह बोलने को मजबूर कर सकते थे कि वे किसी व्यवस्था के कारक घटकों की तरह प्रकट होने लगें ।     

मार्क्स ने युवावस्था से ही जोर देना शुरू कर दिया था कि लोकप्रिय या विद्वत्तापूर्ण तमाम बुर्जुआ लेखन जिस दुनिया से उपजता है उसके साथ अत्यंत निकट का रिश्ता कायम रखता है लेकिन वह रिश्ता सीधा नहीं होता । अगर उसकी ताकत और उसे कायम रखने वाले भ्रमों को उजागर करना है तो इस रिश्ते की भी छानबीन करनी होगी । इस तरह आलोचना तिहरा काम करती है । सबसे पहले वह व्यवस्था के चिंतन और लेखन की आलोचना होती है । फिर ताकत के वास्तविक तंत्र या गतिकी की आलोचना होती है । साथ ही वह बौद्धिक और व्यावहारिक, या मार्क्स के शब्दों में कहें तो वैचारिक और भौतिक जीवन के बीच रिश्तों की आलोचना भी होती है । इस किस्म की आलोचना के जरिये ही बुर्जुआ राजनीतिक अर्थशास्त्र और राजनीति सिद्धांत के वे महत्वपूर्ण पहलू नजर आते हैं जिसमें यह विकृत रूप प्रतिबिंबित होता है । इसीलिए मार्क्स के चिंतन में शास्त्रीय राजनीतिक अर्थशास्त्री हमेशा मौजूद रहे हैं । एक ओर तो उन लोगों ने अपूर्ण ही सही मूल्य का श्रम सिद्धांत विकसित किया जिससे श्रम और पूंजी के संबंध, मुनाफ़े का स्रोत, समूची व्यवस्था के संचालन, विस्तार या सामयिक संकट के कारण जैसे बुनियादी सवालों का उत्तर तो नहीं मिला लेकिन उसकी इस अपूर्णता के कारण ही पूंजी के प्रकट रूप में निहित पर्देदारी का संकेत मिला और यह अंदाजा हुआ कि इसके वास्तविक चरित्र के उद्घाटन के लिए कैसा आलोचना सिद्धांत चाहिए । इसी कारण ‘पूंजी’ में इन सबका गहन विश्लेषण हुआ ।

इस तरह राजनीतिक अर्थशास्त्र की मार्क्सी आलोचना तत्कालीन प्रभावी राजनीतिक अर्थशास्त्रीय चिंतन की आलोचना होने के साथ ही जिसका विश्लेषण किया उस व्यवस्था की आलोचना भी है । इसके अतिरिक्त यह पूंजी के आत्म प्रतिनिधित्व की भी आलोचना है । साथ ही वह इस आत्म प्रतिनिधित्व से उपजी और उसे बल प्रदान करने वाली लोकप्रिय राजनीतिक विचारधाराओं की आलोचना भी है । इनमें बुर्जुआ विचारों के साथ ही काल्पनिक समाजवाद जैसे वामपंथी विचार भी थे । इस आलोचना की जरूरत इसलिए थी ताकि पूंजीवाद क्या है के साथ ही वह जीवन, चिंतन, भाव, संस्थान आदि के साथ क्या करता है को भी खोजा और बताया जा सके । उसके ऐतिहासिक गतिपथ और सीमाओं को उजागर किया जा सके तथा यह भी पता चले कि धरती की सतह के साथ उसका रिश्ता क्या है ।

मार्क्स के इस ग्रंथ का सबसे बड़ा योगदान आम तौर पर इस रहस्य का उद्घाटन माना जाता है कि पूंजी जिस श्रम का शोषण करती है उसका जमा हुआ रूप होती है तथा पूंजीवाद इस शोषण को देश और काल के स्तर पर लगातार फैलाता है । मार्क्स का कथन है कि पूंजी मृत श्रम है और चुड़ैल की तरह काम करती है । जिंदा श्रमिक का खून पीकर ही वह जीवित होती है और जितना ही अधिक उसे यह खून पीने को मिलता है उतना ही उसका जीवन भी बढ़ता जाता है । पूंजी की जरूरत श्रमिक का अधिकाधिक शोषण करना है । उसे यह शोषण अधिकाधिक मजदूरों का अधिकाधिक तीव्रता के साथ करना होता है । साथ ही उसे अपने माल की बिक्री के लिए बाजार को लगातार विस्तारित करना होता है । उसकी यह भूख अमिट होती है इसलिए उसे टिकाए रखना मुश्किल होता जाता है । इसके कारण आम लोग दरिद्रता के शिकार होते हैं और संपत्ति का संकेंद्रण मुट्ठी भर लोगों के हाथ में होता जाता है । इसके चलते जो संकट पैदा होते हैं उनका समाधान उसके खात्मे, उन्मूलन या कल्याणकारी राज्य, कर्जखोरी, नवउदारवाद, वित्तीकरण और सरकारी हस्तक्षेप से किया जाता है । अतिरिक्त मूल्य को साकार करने या मुनाफ़े के लिए चूंकि वृद्धि अनिवार्य शर्त है इसलिए पूंजीवादी विकास समस्त जीवन रूपों और व्यवहारों को टुकड़े टुकड़े कर डालता है । यहां तक कि पूंजीवाद के भी पुराने रूप इसके शिकार हो जाते हैं । यह सर्वभक्षी दानव पुराने सामाजिक रूपों, भूदासों, जमींदारों, उद्योगपतियों, कच्चे मालों तथा धरती की समस्त संपदा को समूचे समाजों और युगों की बौद्धिक उपलब्धियों समेत चूस डालता है । छोटी दूकान, पारिवारिक खेती, शहर से लेकर विशालकाय उद्योग, दुर्गम वर्षावन और राज्य तक पूंजी ने जिसका भी अपनी जरूरत के लिए निर्माण किया उसे नष्ट कर डालती है । इसी वजह से मार्क्स का यह कहना था कि पूंजीवादी उत्पादन संपूर्ण संपदा के स्रोत, धरती और श्रमिक को बरबाद करके ही प्रगति करता है ।

सवाल उठता है कि अगर पूंजीवाद का जीवन सस्ते श्रमिक और सामग्री की खोज में पूरी दुनिया का चक्कर लगाना, नियमविहीन और कररहित उत्पादन और निवेश, तैयार माल के लिए नये बाजार पर ही निर्भर है जो उसके संकट का भी कारण बनते हैं तो इस कहानी को मार्क्स ने सीधे सरल तरीके से क्यों नहीं सुनाया जब उनके वांछित पाठक मजदूर वर्ग से होने थे । तब फिर माल की प्रकृति से लेकर मुद्रा और मूल्य की प्रकृति तक इस ग्रंथ के सैकड़ों पृष्ठ जटिल सूत्रों, कठिन अमूर्तनों और लम्बी सैद्धांतिक कसरत को किसलिए समर्पित हैं । राजनीति और अर्थशास्त्र के सिद्धांतकारों से इतनी बहस क्यों की गयी है । पूंजीवाद की उत्पादक और विनाशक ताकतों का तीखा वर्णन करने की जगह मार्क्स ने इतना सघन विद्वत्तापूर्ण ग्रंथ क्यों लिखा । इन तमाम सवालों का जवाब यह हो सकता है कि पूंजी को राजनीतिक अर्थशास्त्र के साथ ही सामाजिक और बौद्धिक इतिहास, राजनीति सिद्धांत, साहित्यालोचन, व्यंग्य और नाटक की तरह भी पढ़ा जाता है । यह राजनीतिक अर्थशास्त्र का दर्शन है या सटीक ढंग से कहें तो पूंजी की समझ के लिए दर्शन की जरूरत का बयान है । इसे यूं भी कहा जा सकता है कि राजनीतिक अर्थशास्त्र की मार्क्सी आलोचना उसके प्रति अदार्शनिक रुख की दार्शनिक आलोचना है । उनकी आलोचना है जो बाजार से परे कानून, राजनीति, सेना के साथ भाषा, रहस्य और धर्म तक इसकी व्याप्ति के प्रति अचेत रहते हैं और राजनीतिक अर्थशस्त्र की बात करते हुए भी श्रम, पूंजी, मूल्य, मुद्रा और राज्य जैसे उसके बुनियादी तत्वों की ओर ध्यान नहीं देते । बिना इनके उसकी उत्पत्ति, प्रकृति और सहसंबंधों को खोलना मुश्किल है । यह उनकी भी आलोचना है जो पूंजी की ऊपरी सतह और उसकी गहराई के बीच रिश्ता देखने में अक्षम हैं ।          

पूंजी की दार्शनिक दिशा उसकी पहली पंक्ति में ही दीख जाती है जिसमें मार्क्स ऊपर से नजर आने वाली ऐसी व्यवस्था का उल्लेख करते हैं जिसके विश्लेषण के जरिये वे अपनी विषयवस्तु की वास्तविक प्रकृति तक पहुंचने वाले हैं । वे मालों के विशाल संचय के रूप में प्रकट होने वाली पूंजीवादी उत्पादन पद्धति वाले समाज का विश्लेषण करना चाहते हैं । इसमें पूंजी अपने प्रकटीकरण के साथ जुड़ी हुई है । यह महज कोई खोल नहीं है जिसे हटाने से सच स्पष्ट हो जायेगा । यह खोल न तो अलग है न ही असत्य है । व्यवस्था के साथ ही संयुक्त रहते हुए भी यह उसका रहस्यीकरण करता है । पूंजी की यह सतह जरूरी, कपटकारी और उसकी संरचना तथा गतिकी तक ले जाने वाला संकेतक भी है । मार्क्स के हाथों यह प्रकटन और सच के साथ उसका अविश्वसनीय संबंध ही उसकी प्रक्रियाओं और माध्यमों को समझने का अनुमानी बन जाता है । उससे ही इशारा मिलता है कि दुनिया पर परदा डालने और उसे समरूप बनाने के बावजूद पूंजी विभाजन और अलगाव को भी जन्म देती है । यह उत्पादन और विनिमय जैसे आर्थिक गतिविधि के क्षेत्रों को अलगाती है तथा सत्ता और पहचान के सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों के बीच विभाजन पैदा करती है । इसी तरह वह मनुष्यों को उनके श्रम तथा श्रमफल से जुदा करती है । वित्त को उत्पादन से, प्रबंधन को स्वामित्व से और स्वामित्व को नियंत्रण से अलगा देती है । सबसे आगे बढ़कर यह उत्पादकों को मालिकों से अलगा देती है । ये विभाजन और अलगाव पूंजी के अब तक के सर्वाधिक संकेंद्रण की क्षमता के साथ विरोधाभासी रूप से बने रहते हैं । इन विभाजनों और अलगावों के कारण पूंजी एक ऐसी छलना बन जाती है जिसके चारों ओर बुर्जुआ राजनीति सिद्धांत और राजनीतिक अर्थशास्त्र चक्कर काटते रहते हैं ।   

मार्क्स इस बात पर जोर देते हैं कि सच तक पहुंचने के लिए यह छलना जरूरी है । पूंजी के इस आरम्भिक रूप को समझने के लिए इसकी व्याख्या आवश्यक है । तभी उस श्रम प्रक्रिया को देखा जा सकता है जो माल के बतौर जमा हुआ है लेकिन सतह पर नजर नहीं आता । यही हाल पूंजीवादी बाजार का होता है जहां क्रेता और विक्रेता स्वतंत्र नजर आते हैं क्योंकि उन्हें इस रूप में बनाने वाली सारी स्थितियां अदृश्य होती हैं । मतलब कि पूंजी को समझने के लिए उसके इस रहस्यावरण को समझना जरूरी है जो उसके उत्पादन की खास जगह पर पैदा होता है । उनकी यह सोच सबसे अच्छी तरह वस्तुओं की जड़पूजा के मशहूर सूत्रीकरण में प्रकट होती है । इसमें वे बताते हैं कि मनुष्यों के बीच का खास किस्म का सामाजिक संबंध उन्हीं मनुष्यों के लिए वस्तुओं के बीच संबंध का रूप ले लेता है । यह जड़पूजा माल उत्पादन की प्रक्रिया से अभिन्न होती है जिसमें श्रम के उत्पाद एकबारगी माल बनते ही पूज्य वस्तुरूप प्राप्त कर लेते हैं ।

विश्लेषण की यह पद्धति मार्क्स ने पूंजी के साथ ही श्रम, माल, मुद्रा, पगार और उत्पादकता के मामले में भी अपनायी है । उदाहरण के लिए डेविड रिकार्डो ने उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य के बीच जो अंतर किया था उसे मार्क्स ने फिर से सूत्रबद्ध किया तो ये दोनों किन्हीं दो पक्षों के लिए एक ही माल की अलग अलग कीमत मात्र नहीं रह गये बल्कि पूंजीवादी माल ही इस पहलू के बतौर सामने आया । इसी तरह श्रम और श्रम शक्ति, सामाजिक रूप से आवश्यक और अतिरिक्त श्रम काल, ठोस और अमूर्त श्रम के धारणात्मक विभाजन से पूंजी संचय का रहस्य खुलता है । इसके बावजूद ये अमूर्त धारणाएं, पहलू या विभाजन आंखों के सामने न तो प्रत्यक्ष और न ही पूंजीवादी समाज के विमर्शों में सुनायी पड़ते हैं । इनमें से प्रत्येक के सहारे पूंजी की वास्तविकता का कोई न कोई पक्ष खुलता है ।

इस मामले में मार्क्स जब पाठकों से बाजार का शोरगुल छोड़कर पूंजी के रहस्य को खोलने के लिए उत्पादन स्थल पर आने का आमंत्रण देते हैं तो अपनी खोज का सरलीकरण ही करते हैं क्योंकि कारखाने में भी मुनाफ़े और पूंजी का उद्गम तत्काल प्रकट नहीं होता । इसके लिए ऐसे आलोचनात्मक सिद्धांत की जरूरत पड़ती है जो दार्शनिक प्रकृति की मानव निर्मित बहुमुखी और जटिल व्यवस्था का रहस्य भेदन कर सके । प्रथम संस्करण की भूमिका में ही मार्क्स इस जरूरत की सूचना देते हैं । वे इसके पहले अध्याय में माल के विश्लेषण वाले हिस्से को सबसे कठिन करार देते हैं । उनके मुताबिक मूल्य के मुद्रा में विकास वाला हिस्सा बेहद सरल है फिर भी दो हजार साल से मानव मस्तिष्क इसे पकड़ने में कामयाब नहीं हो सका । कारण कि अलग अलग कोशिकाओं के अध्ययन के मुकाबले समूचे शरीर का अध्ययन आसान होता है । फिर आर्थिक रूपों के विश्लेषण में वे सूक्ष्मदर्शी और रसायनों को बल्कुल कारगर नहीं मानते । इसकी जगह वे अमूर्तन की ताकत पर भरोसा करते हैं । उनके अनुसार श्रम के उत्पाद के रूप में माल या मूल्य के बतौर माल ही आर्थिक कोशिका होती है । अनभ्यस्त आंखों के लिए इन रूपों का विश्लेषण बाल की खाल निकालने जैसा होगा और असल में मार्क्स ने यही किया है ।

वेन्डी का कहना है कि पूंजीपतियों के ऐश्वर्य के मुकाबले मेहनतकश लोगों की दरिद्रता को समझने के लिए भी हमें अमूर्तन की इस ताकत का ही भरपूर इस्तेमाल करना होगा । इस स्थिति की मौजूदगी और उत्पादन तथा संवर्धन को अन्यथा समझना मुश्किल है । असल में वस्तुओं के रहस्य को खोलने के लिए मार्क्स अमूर्तन को सूक्ष्मदर्शी या रसायनों की तरह कारगर मानते हैं । यह शुद्ध रूप से दिमागी क्षमता है और बाहरी उपकरणों पर नर्भर नहीं है, यह वस्तुओं को बड़ा करके या अलगाकर नहीं दिखाता लेकिन उसके प्रत्यक्ष पहलुओं के साथ परोक्ष पहलुओं को भी स्पष्ट करता है ताकि अंतर्निहित प्रक्रियाओं को समझा जा सके । इसी अमूर्तन के बल पर मार्क्स ने पूंजी के ठोस तत्वों और उसकी गतिकी, उनकी ऐतिहासिक और सामाजिक उत्पत्ति तथा उनके घटकों के आपसी संबंधों को उजागर किया था । मार्क्स की निगाह में आलोचना सिद्धांत का यही काम होता है । उनके इस ग्रंथ को इसी सिद्धांत के बतौर समझने की जरूरत है । दर्शन को उन्होंने भौतिक दुनिया की व्याख्या के लिए इस्तेमाल किया । इस तरह उन्होंने भौतिकवाद की अनगढ़ समझ को चुनौती दी और दर्शन को व्यवहार से जोड़ा ।

Friday, August 16, 2024

माफ़िया के शिकंजे में उच्च शिक्षा

 

             

                                      

इस समय उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एनटीए नामक संस्था की चर्चा सबसे अधिक हो रही है । सड़क से लेकर संसद तक इसके कारनामों का विरोध हो रहा है । समझने की बात है कि इस संस्था के सहारे वर्तमान शासक समुदाय शिक्षा के स्वरूप को बुनियादी रूप से बदल देने के हिंसक और आपराधिक अभियान में संलग्न हैं । इस संस्था की कार्यपद्धति के सहारे समझा जा सकता है कि किस तरह समूची उच्च शिक्षा मुट्ठी भर अमीरों और उनकी सुविधा के लिए बने माफ़िया तंत्र के हवाले की जा रही है । इसमें नये समय की नीतियों के अनुरूप नियमित कर्मचारी बहुत ही कम हैं । इसका बहुतेरा काम ठेके पर होता है । स्वाभाविक रूप से ठेके उनको ही मिलते हैं जो उससे प्राप्य लाभ का एक हिस्सा नीति निर्णायकों को पहले ही प्रदान कर देते हैं । फिर इस नुकसान की भरपाई के लिए वे प्रश्न पत्र ऊंची कीमत पर बेचते हैं । इन प्रश्न पत्रों को खरीदने की हैसियत देश की आबादी के बहुत ही छोटे समूह के पास होती है । हैसियत के अतिरिक्त इसके लिए सुरक्षित सम्पर्कजाल से निकटता भी आवश्यक है । इस जाल का हमारे समाज के स्वभाव के अनुरूप न केलल वर्गीय बल्कि लैंगिक और जातीय चरित्र भी होता है । नतीजा यह निकलता है कि समाज के ऊपरी तबके के लोग ही खुली होड़ की जगह इस तरह की गारंटीशुदा प्रणाली के सहारे इस ऊंच नीच का पुनरुत्पादन करते हैं ।      

सबसे पहली बात कि यह संस्था सरकार द्वारा गठित या सार्वजनिक संस्थाओं के समक्ष उत्तरदायी संस्था नहीं है । यह रजिस्ट्रार आफ़ सोसाइटीज के पास एक पंजीकृत सोसाइटी मात्र है । इस तरह की एक गैर जवाबदेह संस्था को सभी तरह की प्रतियोगी परीक्षाओं के आयोजन का दायित्व सौंप दिया गया है । इस प्रकरण में कुछ बुनियादी बातों को याद करना उचित होगा । जब केंद्र सरकार ने तीन कृषि कानून पारित किये थे तो इस बात की ओर ध्यान गया कि कृषि राज्य सूची का विषय है । उसी तरह इस बात को अपने लिए ही दोहराना अप्रासंगिक न होगा कि शिक्षा भी राज्य का विषय है । कृषि की स्थानीय विविधता की तरह ही शिक्षा के माध्यम भाषा की विविधता के कारण इसे राज्य का विषय रखा गया है । बाद में एक संशोधन के जरिये इसे समवर्ती सूची में लाया गया लेकिन केंद्र की सूची में इसे रखने में अब भी परहेज बरता जाता है । इसके साथ ही यह भी याद दिलाना अनुचित न होगा कि सभी विश्वविद्यालय स्वायत्त संस्थान होते हैं । केंद्रीय विश्वविद्यालयों की स्थापना संसद में पारित अध्यादेशों के आधार पर होती है और लगभग यही प्रक्रिया प्रांतीय विश्वविद्यालयों के मामले में प्रांतीय प्रतिनिधि सभाओं द्वारा अपनायी जाती है । इसका सीधा सा कारण यह है कि जिस भूगोल में वे अवस्थित होते हैं वहां के शिक्षार्थियों की आवश्यकता और उनकी पृष्ठभूमि के हिसाब से उनके लिए बोधगम्य पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाता है ।  

इस संस्था ने उच्च शिक्षा की बरबादी के लिए गंगोत्री से शुरुआत की । देश की सबसे प्रतिष्ठित संस्था जेएनयू को नष्ट करने के संकल्प का भागीदार होने के नाते वर्तमान शासन के दुलारे बन चुके पूर्व कुलपति ने इस संस्था को जेएनयू की प्रवेश परीक्षा का दायित्व प्रदान किया । इस पवित्र काम के लिए दोनों संस्थाओं के बीच कोई लिखित समझौता भी नहीं हुआ । जेएनयू के मुखिया का एनटीए का सदस्य होना ही पर्याप्त समझा गया । सरकारी कामकाज में अनौपचारिकता के प्रवेश का इससे उत्तम उदाहरण और क्या हो सकता है! पूंजी के साथ सरकार के इस गंठजोड़ की मौजूदगी पहले भी थी । हम सभी जानते हैं कि रिलायंस के दबाव से मंत्री बनाये या हटाये जाते थे लेकिन थोड़ा लाज लिहाज भी बरता जाता था । अब तो सरकार ने पूरी बेशर्मी के साथ देश के संसाधनों की तरह शिक्षा को भी माफ़ियागिरी के हवाले कर दिया है । जियो विश्वविद्यालय के बारे में अब कोई नहीं जानता लेकिन एक समय भारत सरकार ने उसे भारी सरकारी मदद के लिए चुना था । शिक्षा के इस माफ़ियाकरण का सीधा रिश्ता पूंजी के वर्तमान संकट से है । अन्य उत्पादक गतिविधियों के जोखिम उठाने की जगह निजी पूंजी ने स्वास्थ्य और शिक्षा में निवेश किया है क्योंकि इसमें सस्ती कीमत पर लाभकारी जगहों पर लगभग मुफ़्त जमीन और अन्य सुविधाएं मिल जाती हैं । निजी अस्पतालों ने जिस तरह सरकारी अस्पतालों के चिकित्सकों को अपने यहां रखकर सरकारी व्यवस्था को पलीता लगाया था वही काम अब विश्वविद्यालयी स्तर पर हो रहा है और सारी सरकारी तंत्र इसके लिए मददगार की भूमिका निभा रहा है । विभिन्न सरकारी विश्वविद्यालयों ने सरकार की चाहत के अनुरूप इस संस्था को प्रवेश परीक्षा का दायित्व सौंप दिया । आश्चर्य कि जो संस्था केंद्रीय विश्वविद्यालयों की प्रवेश परीक्षा के लिए बनी थी उससे ही प्रांतीय विश्वविद्यालयों ने भी शान की बात समझकर अपनी प्रवेश परीक्षा भी करानी शुरू कर दी । प्रवेश परीक्षा की विविधता को समाहित न कर पाने के कारण यह संस्था इस काम में पूरी तरह अक्षम साबित हुई और प्रवेश की पूर्व परीक्षित समयबद्ध प्रक्रिया का भट्ठा बैठ गया । नतीजतन जिन विद्यार्थियों को समय से सरकारी विश्वविद्यालयों में प्रवेश नहीं मिल सका वे निजी विश्वविद्यालयों की ओर उन्मुख हुए ।       

ऊपर जिस संस्था का हम जिक्र कर रहे थे उसने न केवल विद्यार्थियों के चयन की परीक्षा का दायित्व संभाल लिया बल्कि अध्यापकों की पात्रता परीक्षा का दायित्व भी उसके पास आ गया । यही नहीं शोधार्थियों की शोधवृत्ति की परीक्षा भी यही संस्था संचालित करने लगी । उच्च शिक्षा के संस्थानों की स्वायत्तता और प्रांतीय स्तर की विविधताओं पर बुलडोजर चलाकर इस पैमाने का केंद्रीकरण शायद ही पहले कभी हुआ होगा । इसकी शुरुआत के पीछे राष्ट्रीय की ऐसी धारणा है जिसके मूल में एकरूपता है । कहने की जरूरत नहीं कि यह प्रचंड दमनकारी एकरूपता अपना दायरा फैलाती जा रही है । इसका प्रसार भोजन, परिधान, संस्कृति से लेकर भाषा तक हो चला है । जिस तरह वैश्विक के नाम पर पाश्चात्य और उसमें भी अमेरिकी को थोपा जाता रहा है उसी तरह राष्ट्रीय को हिंदी, शाकाहार, साड़ी-धोती, हिंदू और उत्तर भारतीयता ही परिभाषित करती है । शिक्षा के क्षेत्र में ऊपर से थोपी गयी इस राष्ट्रीयता को लागू करने का एक महत्वपूर्ण उपकरण यह संस्था भी है । इस संस्था के जरिये शिक्षा के निजीकरण को नया आयाम मिला है ।                   

इस संस्था की आमदनी का भ्रष्टाचार के अतिरिक्त सबसे बड़ा स्रोत परीक्षार्थियों के आवेदन का शुल्क है । इसका परिणाम यह कि आवेदन के शुल्क की बेतहाशा बढ़ोत्तरी के साथ ही तमाम अन्य प्रक्रियाओं का शुल्क भी वसूला जाता है । यहां तक कि परीक्षा को बार बार निरस्त करने और परीक्षाफल की गड़बड़ियों को दुरुस्त करने का शुल्क वसूलने का निहित स्वार्थ भी पैदा हो जाता है । जान बूझकर ऐसी गड़बड़ियां की जाती हैं जिनको दुरुस्त कराने के आवेदन से अतिरिक्त कमाई हासिल हो सके । फिलहाल इस संस्था ने जो नहीं किया अथवा निरस्त किया उसकी चर्चा छोड़कर हम उसने जो परीक्षा करायी उसका जायजा लेते हैं । चिकित्सा संस्थानों में डाक्टरी की पढ़ाई के लिए नीट नामक जो परीक्षा हुई उसके भ्रष्टाचार की कहानी तो अविश्वसनीय है और वर्तमान शासक दल के रसूखदार लोगों या उनके निकट के लोगों की इसमें संलिप्तता के सबूत सब कहीं मौजूद हैं । अद्भुत बात तो यह थी कि उसका परिणाम जिस दिन घोषित होना था उसके बहुत पहले ही लोकसभा चुनाव परिणामों के दिन ही उसे घोषित कर दिया गया । शायद ऐसा दोनों के महत्व और तौर तरीकों की समानता दिखाने के लिए किया गया हो!

इस परीक्षा के आयोजन और गड़बड़ी की इतनी बड़ी कहानियां हैं कि रहस्य रोमांच का सृजनात्मक लेखन भी शर्मा जाय । जिस परीक्षा केंद्र से सबसे अधिक सर्वोच्च अंक पाप्त करने वाले विद्यार्थियों ने परीक्षा दी वहां वे हजारों किलोमीटर दूर से आये । उनमें से कुछ ने दस दस लाख रुपयों का नकद भुगतान किया था और खाली चेक भी दिये थे । इस परीक्षा केंद्र को पहले की परीक्षा के आयोजन में गड़बड़ी की वजह से उच्च न्यायालय द्वारा अर्थदंड दिया गया था । जिस तरह एक समय सारे रास्ते रोम को जाया करते थे उसी तरह आजकल देश के पश्चिमी भाग का एक ही प्रांत समस्त आर्थिक गड़बड़ियों का उद्गम बना हुआ है । समूचे देश के किसी भी आयोजन के ठेके उसी प्रांत के धन्नासेठों को मिल रहे हैं जिस प्रांत से देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री का रिश्ता है । सरकारी बैंकों का कर्ज लेकर विदेश भागने का रेकार्ड भी उसी प्रदेश के अमीरों के नाम है । इस परीक्षा में हुई धांधली तो केवल उस व्यापक सड़ांध की झलक भर है जिसका विस्तार लगभग प्रत्येक संस्था तक हो चुका है । पूंजी, राजनीति और प्रशासन की शिक्षा माफ़िया के साथ मिलीभगत के इतने रूपक इस समय पैदा हुए हैं कि उनकी गिनती भी मुश्किल है ।                 

इस नये तंत्र ने कोचिंग की अवैध संस्कृति को परवान चढ़ा दिया है । इनका धंधा परीक्षा उत्तीर्ण कराने की गारंटी पर टिका होता है । इनमें अवैध पूंजी का निवेश होता है और सरकारी संरक्षण में इसकी दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति होती रहती है । कोचिंग सेंटरों के राजस्थान स्थित केंद्र से चुने गये सांसद की दोनों पुत्रियों का संघ लोक सेवा आयोग के जरिये चयन कहने के लिए कुछ भी नहीं छोड़ता । शिक्षण संस्थानों के कामकाज पर   अब अध्यापकों का कोई नियंत्रण नहीं रह गया है । प्रवेश की परीक्षा कोई अन्य संस्था करा रही है, पाठ्यक्रम भी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग बना रहा है और शिक्षा संस्थानों को क्रमश: निजी पूंजी के खूंखार चंगुल में सौंपा जा रहा है जिसको अपनी कमाई के लिए कोई भी अपराध करने में जरा भी हिचक नहीं होती । अध्यापकों की प्रन्नति के लिए प्रकाशनों का भी इसी तरह का निजी और अवैध तंत्र खड़ा हो गया है जिसमें कोई प्रकाशक अपनी पत्रिका को गुणवत्तापूर्ण पत्रिकाओं की सूची में मान्यता दिलवा लेता है और फिर उसमें आलेख प्रकाशित करने हेतु धन की वसूली करता रहता है । यह सब आगामी समय में समाज के निचले तबकों के उच्च शिक्षा में प्रवेश की आकांक्षा को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा ।     

ऊपर हमने जेएनयू का जिक्र किया । अभी खबर आयी कि वह धन जुटाने के लिए अपनी कीमती परिसंपत्तियों से कमाई की योजना बना रहा है । कुछ समय पहले देश के सबसे प्रतिष्ठित चिकित्सा संस्थान के लोगों ने बताया था कि शासक दल के वर्तमान अध्यक्ष ने स्वास्थ्य मंत्री रहते हुए वहां व्यावसायिक गतिविधियों से अर्जित संपत्ति से छात्रावास बनाने का प्रस्ताव किया था । दिल्ली विश्वविद्यालय में व्यावसायिक बहुमंजिला इमारत बनाने का प्रस्ताव महिला छात्रावास की रहवासियों की आपत्ति की वजह से ठंडे बस्ते में है । शिक्षा, शिक्षण संस्थान और शिक्षक तथा विद्यार्थी के भविष्य के लिए यह सब बेहद डरावना है ।         


Sunday, August 11, 2024

कोमिंटर्न की राष्ट्रोपरि दुनिया

 

                                

                                                                   

2015 में पालग्रेव मैकमिलन से ब्रिजिट स्टूडेर की जर्मन किताब का अंग्रेजी अनुवाद द ट्रांसनेशनल वर्ल्ड आफ़ द कोमेंटेरियन्सप्रकाशित हुआ । अनुवाद डेफ़िडरीज राबर्ट्स ने किया है । किताब में कहानी 1933 में पेरिस से शुरू होती है जहां तीन जर्मन प्रवासी हिटलरी प्रचार का मुकाबला करने की रणनीति बना रहे थे । जर्मनी की संसद में आग लगाने का आरोप कम्युनिस्टों पर प्रचारित किया जा रहा था और उसका राजनीतिक मुकाबला करना बहुत ही जरूरी हो गया था । इसके लिए एक पुस्तिका छापनी थी जिसमें नाजी गिरोहों के कारनामों का भंडाफोड़ होना था । इसके लिए पुराने अखबारों से सामग्री छांटनी थी । काम मेहनत का था लेकिन पार्टी के हित में करना ही था । बाद में तीनों लोग अलग अलग राह चले । इनमें जो पत्रकार थे उन्होंने 1938 में पार्टी छोड़ दी । इससे पहले उन्हें जेल में रहना पड़ा था और किसी तरह जान बची थी । वे मशहूर लेखक हुए और सर्वसत्तावाद की घनघोर आलोचना की । एक अन्य प्रचारक 1936 में जर्मनी की पार्टी की संकीर्ण नीतियों से असहमत हुए और स्तालिन के शासन की भी आलोचना की । 1939 में उन्होंने पार्टी से इस्तीफा दे दिया और एक साल बाद रहस्यमय स्थितियों में उनका देहांत हो गया । बचे तीसरे साथी ही कोमिंटर्न का काम करते रहे और दुनिया के विभिन्न देशों में अलग अलग नामों से क्रांतिकारी काम चलाते रहे । इस क्रम में वे अमेरिका, फ़्रांस, स्पेन और मेक्सिको में रहे । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद चेकोस्लोवाकिया आ गये और 1952 में उनको फांसी दे दी गयी । दोनों विश्वयुद्धों के बीच के कम्युनिस्ट आंदोलन में दुनिया भर घूमकर क्रांतिकारी काम करने वाले ऐसे कार्यकर्ताओं की भरमार रही । 1919 में स्थापना से लेकर 1943 में भंग होने तक कोमिंटर्न में इस तरह के दसियों हजार कार्यकर्ता थे । कोमिंटर्न के रूसी संग्रहालय के खुल जाने के बाद भी उनकी सही संख्या का अनुमान ही लगाया जा सकता है । पेशेवर क्रांतिकारी के बतौर इन लोगों ने समूचा जीवन या उसका बड़ा हिस्सा अपनी प्रतिबद्धता के लिए समर्पित कर दिया । इनमें से कुछ लोग थोड़े समय तक सक्रिय रहे लेकिन बहुतेरे लोग तो जीवन भर यही काम करते रहे । उन्हें एक देश से दूसरे देश निर्वासित होते हुए घुमंतू समुदाय जैसा जीवन बिताना पड़ा । कुछ लोगों ने यह जीवन खुद चुना लेकिन बहुतेरों को तत्कालीन यूरोप के हिंसक वैचारिक और राजनीतिक टकरावों के चलते मजबूरी में ऐसा करना पड़ा । जो लोग शांतिपूर्ण देशों में थे उन्हें भी गुप्त रूप से एकाधिक देशों में प्रवासी जीवन बिताना पड़ा । इन्हें अपने मूल देश को छोड़कर काम के देश के साथ लगातार सोवियत संघ भी आना जाना पड़ता था ।

ये सभी लोग कोमिंटर्न के कार्यकर्ता थे इसके बावजूद उन सबका जीवन बहुत अलग अलग था । उनमें कम ही सही लेकिन कुछ स्त्रियां भी थीं और कभी कभी वे महत्वपूर्ण पदों पर भी रहीं । उन्हें गैर कानूनी और गुप्त कार्यभार भी पूरे करने पड़ते थे । उनके लिए अक्सर ये काम सहज हुआ करते थे क्योंकि उन पर शत्रु को संदेह कम होता था । इन स्त्रियों ने न केवल राष्ट्रीय भौगोलिक सीमाओं को पार किया बल्कि पूर्व निर्धारित सांस्कृतिक और सामाजिक भूमिकाओं को तोड़ने के साथ जेंडर की सीमाओं का भी अतिक्रमण किया । इसी तरह के तमाम कार्यकर्ताओं के अनुभव इस किताब के केंद्र में हैं । खास किस्म की उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता ने समूची बीसवीं सदी की शक्ल को निर्धारित किया था । उनका असर राजनीतिक इतिहास तक ही सीमित नहीं रहा । उनकी कम्युनिज्म से प्रतिबद्धता ऐसा सामूहिक अनुभव था जिसके निशान आधुनिक यूरोपीय समाजों में मौजूद हैं । विशाल मजदूर वर्ग के आंदोलन को कायम रखते हुए इसने राजनीतिक ताकतों के वैश्विक रिश्तों को प्रभावित तो किया ही औद्योगिक पूंजीवादी देशों की शक्ल को भी इसने आकार दिया । अनेक बौद्धिकों और कलाकारों की रचनाओं पर इसका गहरा असर रहा जिसके कारण कोमिंटर्न के अवसान के बहुत बाद तक उसका संदर्भ दिया जाता रहा । 1968 के चरम वामपंथी संगठनों और नव सामाजिक आंदोलनों को इससे प्रेरणा मिली । उनके व्यवहार पर आलोचनात्मक ही सही इसकी छाप रही है । आज भी बहुतेरे समूह और आंदोलन उस परम्परा से अपने आपको को जोड़कर देखते हैं । इस मामले में विश्वयुद्धों के बीच का कम्युनिस्ट आंदोलन समकालिक अतीत है । इस किताब में हमारा जोर इन योद्धाओं के निजी और सामूहिक आनुभवों पर है । उनके ये अनुभव उनकी प्रतिबद्धता की अपेक्षा से आप्लावित थे । यह अपेक्षा निजी होने के साथ सामूहिक भी थी । उनका भविष्य का सपना उनके वर्तमान की कार्यवाहियों को निर्देशित करता था । उनकी यह अपेक्षा ही उनकी प्रतिबद्धता के मूल में थी । इससे ही उनके भावनात्मक और बौद्धिक निवेश का प्रतिबिम्बन होता था । कम्युनिस्ट योद्धाओं के लिए प्रतिबद्धता ही इस दुनिया को समझने और इतिहास के निर्माण की कुंजी थी । इससे उन्हें एक समूह की सदस्यता हासिल होती थी और उनकी सामाजिक पहचान बनती थी । उनकी यह नयी पहचान उन्हें अपनी मूल पहचान और तदनुरूप सामाजिक हैसियत से छुटकारा भी दिलाती थी । असल में कम्युनिस्ट होना ऐसी भरी पूरी सामाजिक पहचान थी जो किसी मनुष्य को वर्ग, लिंग और राष्ट्रीयता की सीमाओं से सहसा बहुत ऊपर उठा देती थी । हालिया इतिहास लेखन में राजनीति के मामले में भावना को गिना जाना शुरू हुआ है । 1920 और 1930 दशक के कम्युनिस्ट पार्टियों के मामले में राजनीतिक संलग्नता को इस नजरिये से भी देखा जाना चाहिए । उस समय के कार्यकर्ताओं में जिस तरह का समर्पण नजर आता है वह केवल तर्क आधारित चुनाव से सम्भव नहीं था । इसके लिए माहौल से सहानुभूति, कर्तव्य का बोध, निजी रिश्ते या आकर्षण, पारिवारिक वातावरण, अन्याय के प्रतिकार की जरूरत या संस्कृति के खास रूपों के प्रति उत्साह आदि भी जिम्मेदार रहे होंगे । फ़ासीवाद और हिटलर के उदय से अपनी क्रांतिकारी परियोजना की विफलता के साथ ही आंतरिक लोकतंत्र के अभाव ने इन कार्यकर्ताओं को बेहद निराश किया होगा । जिन ताकतों से उन्हें जूझना था उन्होंने कम्युनिस्टों का हिंसक दमन किया था । उन ताकतों के प्रतिकार का मार्ग, भले अनचाही, हिंसा से होकर गुजरता था इसलिए हिंसा भी इस अनुभव का अभिन्न अंग रहा है ।

सर्वहारा की इस विश्व पार्टी को वर्ग संघर्ष के वैश्वीकरण का साधन भी होना था । जब उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों और संघर्षों में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद स्वतंत्रता की उम्मीद पर पानी फिर गया तो कोमिंटर्न ने इस विचार को सांस्थानिक स्वरूप प्रदान किया । यह ऐसा अंतर्राष्ट्रीय संगठन था जिसे पूंजीवादी देशों के संगठन लीग आफ़ नेशंस के समानांतर देखा समझा जाता था । इस मोर्चे पर सच में इसने प्रत्येक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी । इसका अंतर्राष्ट्रीय मुख्यालय था, विश्व सर्वहारा क्रांति का कार्यक्रम था, विश्वव्यापी गतिविधियों का व्यवस्थित संजाल था, व्यक्तियों और सूचनाओं का देशों के आर पार गहन आदान प्रदान था तथा राष्ट्रीय स्तर पर ठोस राजनीतिक संघर्ष का संचालन होता था । अक्टूबर क्रांति के बाद का सोवियत संघ इस अंतर्राष्ट्रीय सोच का साक्षात उदाहरण बन गया था । इसके बावजूद दुर्भाग्य से कोमिंटर्न के इतिहास लेखन में राष्ट्रवादी प्रतिमान बहुत मुखर रहा है । किसी भी देश के भीतर चल रहे आंदोलन में कोमिंटर्न को बाहरी पूरक या समर्थक के रूप में देखा जाता है । इसे कम्युनिस्ट विरोधी नकारात्मक भी मानते रहे हैं । मान लिया जाता है कि राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों के साथ ही कुछ और संस्थाओं की मदद भी मिल रही थी । बाद में कुछ ऐसे भी शोध सामने आये जिनमें राष्ट्रीय आंदोलनों और कोमिंटर्न के बीच केंद्र और हाशिया जैसा रिश्ता बताया गया । यह सही बात है कि अधिकतर नेतृत्व और उससे जुड़े लोग मास्को में थे लेकिन बहुतेरे क्रांतिकारी अन्य देशों में मोर्चे पर भी तैनात थे । यहां पर भी इतिहासलेखन के जोर में कुछ सुधार की जरूरत है । मुख्यालय और मोर्चे के बीच रिश्ता बराबरी का तो नहीं था लेकिन कोई एकतरफा केंद्रीकरण भी नहीं था । असल में कोमिंटर्न का विस्तृत जाल तमाम उपकेंद्रों और सोवियत संघ के बाहर के राजनीतिक कार्यकलाप पर निर्भर था । भविष्य में शोध हेतु इसके भौगोलिक प्रसार और इसके पारदेशीय क्रियाकलाप पर भी सतर्क निगाह रखनी होगी ।

सवाल है कि जो संगठन अपने आपको अंतर्राष्ट्रीय कहता रहा हो उसको समझने में यह राष्ट्रोपरिता कितना उपयोगी है । इस मामले में लेखक को शब्दावली की स्पष्टता बहुत जरूरी महसूस होती है । सर्वहारा की विश्व पार्टी के बतौर कोमिंटर्न का गठन विभिन्न देशों की राष्ट्रीय पार्टियों को एक केंद्रित ढांचे में एकताबद्ध करके हुआ था । यह न तो नागरिक समाज के गैर सरकारी संगठनों का कोई राष्ट्रोपरि समूह था और न ही विभिन्न राष्ट्रों का अंतर्राष्ट्रीय संगठन था । इसने विभिन्न राष्ट्रीय संगठनों को एक साथ लाया । सही है कि इनमें एक संगठन सोवियत संघ नामक एक राष्ट्र का वास्तविक प्रतिनिधि भी था । इसके अतिरिक्त कोमिंटर्न का एक पहलू ऐसा था जो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय के परे था । वह इस अर्थ में राष्ट्रोपरि था कि उसका सामाजिक वातावरण अपनी घटक राष्ट्रीय संस्कृतियों से परे था । वह तो ऐसे आंदोलनों और ताकतों का जमावड़ा था जो राष्ट्रीय सीमाओं के आर पार मौजूद होते हैं । इसी प्रकरण में लेखक ने एक और धारणा का उल्लेख किया है जिसके मुताबिक अंतर्राष्ट्रीय संबंध और परिघटनाएं तब राष्ट्रोपरि हो जाती हैं जब वे न केवल किसी राष्ट्रीय आयाम का ही बल्कि राष्ट्रीय पहचानों का भी अतिक्रमण करके दूसरों के साथ अंतरण और साझेपन के आधार पर समेकन अर्जित कर लेती हैं । बहरहाल कोमिंटर्न के बारे में राष्ट्रोपरि रुख अपनाते हुए मानदंडों की भिन्नता की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । इस संगठन में नानाविध यथार्थ शामिल थे जिनका प्रसार स्थानीय से लेकर वैश्विक स्तर का था । एक बात और है कि कोमिंटर्न के साथ जुड़ी पार्टियों के सभी सदस्य इसमें सीधे शामिल नहीं होते थे । वे स्थानीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय रहते थे और उनमें से बहुत थोड़े ही लोग अंतर्राष्ट्रीय कार्यवाहियों में भाग लेते थे । इसलिए कम्युनिस्ट गतिविधियों के देशगत विभाजन को भी ध्यान में रखना चाहिए ।

कोमिंटर्न ने शुरू से ही समूची दुनिया को अपनी सक्रियता के लिए चुना । हालांकि इस संगठन की शुरुआती गतिविधियों का क्षेत्र यूरोप, एशिया, अमेरिका और लैटिन अमेरिका के कुछ हिस्से ही थे लेकिन इसका लक्ष्य वैश्विक था । कोमिंटर्न की स्थापना को यदि पूंजीवादी विश्व व्यवस्था बनाने की कोशिशों के विरुद्ध वैकल्पिक वैश्वीकरण की तरह समझा जाय तो यह मजदूर आंदोलन के इतिहास का उत्पाद भी था । उन्नीसवीं सदी के अंत में मजदूर आंदोलन को राष्ट्रवाद के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रवाद की यह खास दिशा और राजनीति मिली थी । इसी पुरानी परम्परा को जीवित करते हुए कोमिंटर्न ने राष्ट्रीय सीमाओं के आर पार मजदूर वर्ग की राष्ट्रोपरि क्षैतिज एकता कायम करने का प्रयास किया । इस दायित्व को पूरा करने में दूसरा इंटरनेशनल विफल रहा था । सर्वहारा अंतर्राष्ट्रवाद से दगा न कर सके इसके लिए कोमिंटर्न ने कड़े नियम बनाये और मजबूत सांगठनिक ढांचों का विकास किया । अनुशासन, केंद्रीकरण और पेशेवर रुख इन सबका ही नतीजा था । इसके बावजूद इसने अपनी गतिविधियों के लिए राष्ट्रीय गोलबंदी की उपेक्षा नहीं की । इसकी अधिकांश कार्यवाहियों का आयोजन राष्ट्रीय स्तर पर ही हुआ । वैसे स्थानीय स्तर पर कार्यक्षेत्र और रिहायशी इलाकों में भी तमाम कार्यक्रमों को इसने संगठित किया । आदर्श तो यह था कि ऐसी तमाम गतिविधियों का संयोजन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो लेकिन इसको लागू कराना आसान नहीं था । इसकी मुश्किलात की गवाही कोमिंटर्न के दूतों के तमाम हस्तक्षेप देते हैं । केंद्रीकरण के प्रयास अधिकतर विफल ही रहे हालांकि 1921 से 1934 के बीच विचलन या देश विशेष के हालात के मुताबिक नीतियों को समायोजित करने या विशेष किस्म के अभियानों के प्रति असहिष्णुता बढ़ती नजर आती है । कुल मिलाकर कोमिंटर्न बहुस्तरीय ढांचा या अभियान था जिसके सभी घटक हमेशा तालमेल नहीं बनाये रख पाते थे ।

अभिलेखागार के खुलने के बाद होने वाले शोधों में यह नजरिया दिखाई देता है । मसलन जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी और मास्को के बीच संबंधों के इतिहास में संस्कृतियों के टकराव को लक्षित किया गया है । कहने का मतलब यह नहीं कि कोमिंटर्न पर सोवियत संघ के प्रभुत्व की अनदेखी की जाय या सोवियत पार्टी तथा अन्य पार्टियों के रिश्तों में सम्पूर्ण समानता समझी जाय । इस तथ्य से भी आंख चुराने की जरूरत नहीं है कि स्तालिन तथा पश्चिमी विचारकों की समझ दुनिया के बारे में अधिकाधिक अलग होती गयी थी । लेकिन इस इतिहास बोध के समक्ष विपरीत तथ्य भी प्रस्तुत किये जा सकते हैं जिसमें पश्चिम और सोवियत संघ के बीच लेन देन, अंतरण और  दोतरफा आवाजाही के ठोस सबूत मिलते हैं । राष्ट्रोपरि निगाह से देखने पर सोवियत संघ और पूंजीवादी समाजों के बीच काफी जटिल अंतर्निर्भरता का पता चलता है । इन दोनों व्यवस्थाओं के बीच ढेर सारे मामलों में समानता भी थी । मसलन दोनों ही तकनीकी प्रगति में प्रचंड भरोसा रखते थे और इस मामले में एक दूसरे से सीखते भी थे । सोवियत संघ भी आधुनिकता और आधुनिकीकरण के विचारों से बहुत प्रभावित था । इसी वजह से समूची यूरोपीय परम्परा की तरह सोवियत संघ में भी नये मनुष्य को गढ़ने का संकल्प व्याप्त था । यह संकल्प प्रकृति और राष्ट्रों को फिर से सजाने में भी व्यक्त होता था । तार्किकता में मजबूत यकीन भी दोनों को आपस में जोड़ता है । इस नजर से देखने पर कहा जा सकता है कि सोवियत संघ आधुनिकता की वैकल्पिक राह पर तो था लेकिन उसके पूंजीवादी स्वरूप से रिश्ता भी बनाये हुए था । उनकी आपसी लेन देन में होड़ का तत्व भी शामिल था ।

कोमिंटर्न के जरिये यह दोतरफा लेन देन होती थी । सरहदों के आर पार दोनों प्रणालियों के बीच आवाजाही मुख्य तौर पर इसके ही माध्यम से होती थी । विदेशों में रहने वाले कम्युनिस्ट पश्चिमी समाज में समर्थन पाने के लिए सोवियत संघ के नेताओं के प्रयासों पर निर्भर थे । उनके सहारे ही दुनिया के अनेक हिस्सों में फैला हुआ यह अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक संगठन अपनी बहुतेरी गतिविधियां चला पाता था । उनमें अनेक लोग ऐसे थे जो कोमिंटर्न के दूत और पेशेवर क्रांतिकारी के बतौर सचमुच का राष्ट्रोपरि जीवन बिताते रहे थे । विचारों और प्रतिनिधियों की आवाजाही का प्रभावी माध्यम यही संगठन था । अनेक कम्युनिस्ट पार्टियों ने स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप अंतर्राष्ट्रीयता को ढाला । इसी तरह कम्युनिस्ट योद्धा की छवि को दुनिया भर में नायकत्व मिला । स्पेन के गृहयुद्ध में इसी के अनुरूप तमाम स्तरों पर हस्तक्षेप हुआ । वहां लड़ने वाले योद्धाओं के विवरण सोवियत प्रेस में छापे जाते और मास्को में स्पेनी नाटकों के मंचन होते थे । साझी पहचान का बोध और एकजुटता को मजबूत करने के लिए स्थानीय रीति रिवाजों का वैश्वीकरण किया गया और प्रमुख घटनाओं का साझा उत्सव मनाया गया । अक्टूबर क्रांति की सालगिरह लगभग सभी देशों में मनायी जाती और लेनिन के निधन पर दुनिया भर के करोड़ो मजदूरों के शोक की खबर सोवियत संघ में छापी गयी । सिद्ध है कि न केवल राजनीतिक दिशा बल्कि व्यावहारिक गतिविधियों और राजनीतिक हस्तक्षेपों के मामले में भी तमाम देशों की सरहदों के आर पार का नजरिया अपनाया गया ।

मजबूत अंतर्राष्ट्रीय अभियानों को चलाने की भी अत्यंत प्रभावी क्षमता कोमिंटर्न ने प्रदर्शित की । इस मामले में उसने किसी भी दूसरी राजनीतिक ताकत के मुकाबले आगे बढ़कर बार बार विभिन्न मुद्दों पर एकजुटता अभियान संचालित किये । खास तौर पर इटली या जर्मनी में फ़ासीवादी उत्पीड़न के शिकार साथियों के सवाल पर उसने उनकी रिहाई हेतु अंतर्राष्ट्रीय वकीलों की फौज भी उतार दी । इन अभियानों के बारे में कोई भी केंद्रीय निर्देश सब कुछ को कतई नहीं निर्धारित करता था । 1921 में लेनिन के अनुरोध पर मजदूरों के लिए अंतर्राष्ट्रीय राहत कोष की स्थापना मजदूरों के बीच राष्ट्रोपरि एकजुटता की नयी अभिव्यक्ति थी । ऊपर जिन तीन प्रवासियों का जिक्र आया है उनमें से एक, विली मुंत्सेरबेर्ग ने इस तरह के अनेक अभियानों का सूत्रपात किया । अमेरिका में उन्होंने ट्रेड यूनियनों, स्त्रियों, बच्चों, संगीतकारों, खिलाड़ियों और अन्य लोगों की समितियों का गठन किया ताकि सोवियत संघ हेतु राजनीतिक समर्थन की गोलबंदी हो सके । उन्होंने विश्व प्रसिद्ध बौद्धिकों, कलाकारों और वैज्ञानिकों को साझा मकसद के लिए एकजुट किया । इस प्रतीकात्मक समर्थन से मजदूरों की राष्ट्रोपरि एकजुटता के साथ कष्ट उठा रहे लोगों की सहायता तक तमाम अभियान मजबूत हुए । इस तरह के बहुतेरे अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता के अभियान न केवल कम्युनिस्टों के कर्तव्य थे बल्कि ये उनकी पार्टी संस्कृति के अभिन्न अंग थे । सोवियत संघ की विशेष प्रकृति के कारण कम्युनिस्टों की राजनीति में पारदेशीय तत्व बना रहा । विश्वयुद्धों के बीच के कम्युनिस्ट आचरण की यह बुनियादी पहचान थी जो कुछ हद तक बाद में भी कायम रही ।                                                                                                                   

 

Thursday, August 8, 2024

कला में प्रतिरोध

 

                                           


2023 में लेफ़्टवर्ड से ब्रह्म प्रकाश की किताब ‘बाडी आन द बैरीकेड्स: लाइफ़, आर्ट ऐंड रेजिस्टेन्स इन कनटेम्पोरेरी इंडिया’ का प्रकाशन हुआ । एक साल बाद इसका इंटरनेट संस्करण हुआ । कोरोना महामारी की दूसरी लहर के जिक्र से इस किताब की शुरुआत हुई है । लेखक भी इसकी चपेट में आये थे । तब सबकी तरह उन्हें भी एक एक सांस लेना भारी हो गया था । इसके बावजूद किताब कोरोना के बारे में नहीं है । कोरोना का जिक्र इसमें सेहत की खराबी के लक्षण के बतौर हुआ है । जीवंतता की कमी को देश के हाल की तरह देखा गया है । आजादी पर लगे पहरे जीवन की जरूरत बढ़ा देते हैं । पहरों के बीच भी इस किताब में उम्मीद की कहानी दर्ज की गयी है । देश के शहरों में कोरोना के समय जो बाड़ेबंदी हुई थी उसने सामाजिक ऊंच नीच के सारे तरीकों की याद एकदम ताजा कर दी । इसके साथ ही सरकार की तानाशाही और प्रतिबंधों तथा मनाहियों के भी नये रूप उभरकर सामने आये । भय, संदेह, अफवाह और अदृश्य शत्रु की मौजूदगी ने इन्हें आधार प्रदान किया । मौतों की खबरों ने निराशा को भी जन्म दिया । इसी दौरान नये तरह की एकजुटता ने भी दर्शन दिये जब जीवन बचाने के लिए लोगों ने सड़क पर उतरने का खतरा उठाया । सरकारें पूरी तरह गायब थीं तो लोगों ने नयी व्यवस्था का निर्माण किया । इसी समय समझ आया कि सफाईकर्मियों के लिए तो प्रतिदिन महामारी है । सीवरों में दम घुटने से उनकी मौत रोज होती है । उनका तो जीवन ही अवरोधों से भरा रहता है । जन्म से लेकर मृत्यु तक कभी वे अपनी हदबंदी को पार नहीं कर पाते । उनके शरीर पर ही उनकी हद दर्ज रहती है । स्त्रियों और अछूतों के लिए हमारे समाज ने ऐसे प्रतिबंध बनाये हैं कि उनके शरीर इनके मुताबिक खुद को ढाल लेते हैं । रास्ता चलते हुए उन्हें अपनी सामाजिक हैसियत का भी ध्यान रखना पड़ता है । पहचान, घेरेबंदी, सरहद और बहिष्करण से ही इतिहास में नस्ल के यथार्थ का उत्पादन हुआ है । उससे अपमान और असहायता का बोध पैदा होता है जो आपकी मनुष्यता को आधा कर देता है । बाधाओं के भीतर अंग संचालन ने सौंदर्य के मानकों को भी तय किया ।

इसका उदाहरण नाट्यशास्त्र है । उसमें निम्न जातियों और स्त्रियों के चलने के तरीकों का वर्णन है । निचली जाति के लोगों को चारों ओर निगाह डालते हुए चलना चाहिए ताकि अन्य लोगों से उनका स्पर्श न हो । सामाजिक हैसियत से आपकी गति निश्चित होती है । मंदिरों की दीवारों, स्कूलों और संस्थाओं में इसे लिपिबद्ध किया जाता है । शिष्टाचार, वस्त्र विन्यास और अभिवादन के तरीके में भी उसकी अभिव्यक्ति होती है । उनकी निगाह में भी इसे नजर आना चाहिए । दूसरे लोग घूरें तब भी आपकी नजर झुकी होनी चाहिए । इससे रीढ़ भी सीधी नहीं रह जाती । शरीर की अवस्था उसी तरह कामुक बन जाती है जिस तरह चीनी स्त्रियों के छोटे पैर कमल की तरह सुंदर माने जाते थे । इन बंधनों से स्त्रियां चीखती रहती हैं लेकिन रसिकों के लिए वही चीख सौंदर्य में बदल जाती है । कला और परम्परा के नाम पर स्त्री शरीर का प्रशंसात्मक वस्तूकरण जारी रहता है ।

कोरोना ने बहुतों का जीवन बदल दिया लेकिन अन्य बहुतेरों के लिए वही उनका सामान्य जीवन था । अलग बात है कि उसे देखने में लोगों की रुचि नहीं थी । गांधी जी के बंदरों की तरह आंख, कान और मुंह बंद रखना ही हमारे जीवन का सच था । इस सिलसिले में लेखक ने एक सफाईकर्मी द्वारा शादी करने के फैसले का जिक्र किया है । उसके इस फैसले से लेखक को दूसरी दुनिया नजर आयी । इस दुनिया में शाहीन बाग के प्रदर्शनकारी थे । इसी दौरान सफाईकर्मियों ने जीने के हक के लिए हड़ताल की और प्रदर्शन भी आयोजित किया । वे कानून प्रतिबंधित मैला ढोने की प्रथा के खात्मे की मांग कर रहे थे । जंगल में जाने पर रोक के विरुद्ध आदिवासियों ने मध्य भारत में सबसे बड़ा जुलूस निकाला । कश्मीरी लोग विरोध प्रदर्शनों में वैकल्पिक विधान सभा खड़ी कर रहे थे । सड़कों और चौराहों तथा घाटियों और जंगलों में वैकल्पिक प्रतिनिधि सभाओं का निर्माण हो रहा था । प्रतिरोध जारी था । मानवता को नुकसान बहुत हुआ लेकिन वह जिंदा रही । सब कुछ खत्म नहीं हुआ था । 

पूर्वोक्त सफाईकर्मी ने इसी महामारी के दौरान बैंड, बाजा और बारात के साथ शादी की । युवक उसकी शादी में खूब नाचे । प्रेम और जीवन के पक्ष में उनका नृत्य कोरोना के दौरान मौत के नाच से टक्कर ले रहा था । इससे उन्हें रोका भी कैसे जा सकता था । बागों में कोयलें लौट आयी थीं । दोस्तों की बालकनी में फूल खिल रहे थे । जीवन के उत्सव को कुछ भी कुचल नहीं सकता । जीवन के इसी राग पर लगे वर्तमान भारतीय प्रतिबंधों के विरोध में लिखे लेखों का संग्रह इस किताब में हुआ है । ये लेख मुहाने पर खड़े होकर लिखे हैं । इन्हें हाशिये की आवाज समझना होगा । सौंदर्य और राजनीति की संधिरेखा इनमें झलकती है । इनका लेखन ऐसी वेध्य स्थिति में हुआ है जब आपके पास पीछे हटने की कोई जगह नहीं रह जाती । यह हमारे लिए आखिरी सीमा होती है लेकिन उस सीमा पर निश्चल नहीं रहा जा सकता । वहीं से प्रतिरोध दर्ज करना होता है । यहीं से नयी राजनीति और संस्कृति का जन्म होता है । सही है कि एक कदम आगे जाते ही शासन का शिकंजा कस जायेगा लेकिन दो कदम आगे जाने से जीवन और आजादी हासिल होंगे । कुछ भी न करने से कुछ नहीं बनेगा । अंत के भय और आजादी के आकर्षण से ही कला और जीवन के मुहावरे बदलते रहे हैं ।

लेखक के मुताबिक इन लेखों का जन्म दमघोंटू माहौल में सांस लेने की कोशिश के बतौर हुआ है । कभी कभी ऐसी हालत हो जाती है जब शरीर में कंटीले तारों की बाड़ को लांघ जाने का संकल्प पैदा हो जाता है । उस हाल में हम सांस नहीं ले पाते लेकिन लेते हैं । जब तानाशाह का शासन अपनी हद को फैलाता हुआ हमारी जिंदगी और आजादी को लील लेने बढ़ता है तो कदम उठाना हमारी मजबूरी हो जाता है । नयी राजनीति, नया प्रतिरोध, नये संकल्प और नयी अनुभूति का जन्म होता है । ऐसे में सांस लेने जैसी सहज क्रिया भी सचेत राजनीतिक फैसला हो जाती है । सांस लेने का हक नयी दावेदारी बन जाता है । जीवन जीने की यह न्यूनतम शर्त हमारी मांग बन जाती है । यहीं पर लेखक ने अमेरिका में अश्वेत आंदोलन के नारे ‘आइ कान’ट ब्रीद’ को याद किया है और इससे भारत के दलितों की समानता न होते हुए भी लक्षण की समानता पर जोर दिया है । इसी वजह से यह हाल अश्वेत के साथ ही दलित, शरणार्थी, गरीब और स्त्री का भी हो जाता है । लेखक ने फ़्रांको बिफ़ो बेरार्दी की राय का हवाला देते हुए लिखा है कि सांस न ले पाने का मुहावरा समय की सामान्य भावना है । महानगरों में प्रदूषण के कारण दम घुट रहा है तो अधिकतर शोषित मजदूरों का सामाजिक जीवन अस्थायित्व का शिकार हो गया है । समूचे वातावरण में हिंसा, युद्ध और आक्रामकता का भय व्याप्त हो गया है ।

कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि पहले हालात आदर्श स्थिति में थे । फिर भी दीर्घकालीन संघर्षों के जरिये स्त्री अधिकार, समता और सामाजिक न्याय के मोर्चे पर जो कुछ भी हासिल किया गया था उन सब पर अनुदार दक्षिणपंथी राजनीति और नवउदारवादी सत्ता की ओर से जबर्दस्त हमला बोल दिया गया है । समतावादी राजनीति को कदम वापस लेने पड़े हैं । भूमि पुनर्वितरण की मांग करने वालों को जमीन बचाने की लड़ाई लड़नी पड़ रही है । यह वापसी खतरनाक है । इस किताब के लेखों में इसकी हद को समझने का प्रयास किया गया है । अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक से शुरू होकर मौलिक अधिकारों की कटौती तक भारतीय राज्य ने हल्ला बोल दिया है । शरीर और लोकतंत्र पर वर्तमान शासन ने पहरा बिठा दिया है । जीवन के लगभग प्रत्येक क्षेत्र पर भयंकर लाकडाउन जारी है । विरोध और विक्षोभ की अभिव्यक्ति का गला दबा दिया गया है । नवउदारवाद के तहत यह सब पूरी दुनिया में हो रहा है लेकिन अपने देश में हालात बदतर हो गये हैं । लोगों के धीरज की परीक्षा ली जा रही है । शरीर के साथ शब्द, अधिकार, विक्षोभ, कला और अभिव्यक्ति, सब पर पहरा है । अवरोध के भी अनेक रूप हैं । दीवार, हदबंदी, मेरिट और सौंदर्य के रूप धरकर यह प्रकट होता है ।

यहीं पर लेखक ने याद दिलाया है कि हमारे देश में प्रतिगामी मूल्य कोई नयी बात नहीं हैं । बहुत पहले से निर्धारित है कि किसे ज्ञान मिलेगा और किसे नहीं मिलेगा । सभी जानते हैं कि कौन किस हद तक चलकर आ सकता है । जाति आधारित समाज में शरीर की हद पूर्वनिर्धारित है । इसी हिसाब से उनके जीवन का मूल्य भी तय होता है । रोक और प्रतिबंध की प्रक्रिया भी संस्कृति की तरह आहिस्ता आहिस्ता रिसकर हमारी चेतना में जगह बना लेती है । इसके साथ सुरक्षा का छलावा भी रहता है । नवउदारवाद की राजनीति से इसका गहरा नाता है । उसी तरह इसकी शुरुआत कटौती और सुरक्षा के उपायों से होती है और आजादी तथा लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन तक पहुंचती है । इसके बाद प्रतिरोध तो जीवन मरण का प्रश्न बन जाता है । यह सोचना उचित नहीं कि हमारे जीवन जगत में ये अवरोध सहसा पैदा हुए हैं । भाजपा की दक्षिणपंथी राजनीति के उभार के साथ भी इसे जोड़ना ठीक नहीं है । हिंदू समाज के ताने बाने में मनाहियों का यह जाल समाया हुआ है । राष्ट्र के साथ मंदिर होते हुए यह ब्राह्मणवाद संसद के भीतर घुस आया है । देश की राजनीति के हृदय तक यह जहर धीरे धीरे फैलता हुआ पहुंच रहा है । व्यवस्था द्वारा इस खतरे की अनदेखी और राज्य का इसके साथ सहकार एक दिन में नहीं घटित हुआ है । भीड़ हत्या में बढ़ोत्तरी और लोकतंत्र की समाप्ति कोई अचानक की बात नहीं हैं । यह स्थिति भारतीय राज्य की बुनियाद में ही छिपी बैठी थी । हवा में जहर घोलने का काम धर्म ने किया था और फिर नफ़रत की दीवार उठती गयी ।

धार्मिक दंगे, जनसंहार और नफ़रती माहौल का निर्माण एक दिन में नहीं होता । नफ़रत करना सीखने में समय लगता है । इसे किसी धार्मिक कर्मकांड की तरह लगातार जारी रखना होता है । किसी का कलंकीकरण और रूढ़ छवि का निर्माण निरंतर चलाना पड़ता है ताकि वांछित फल मिल सके । आखिरकार विभाजन केवल नक्शे पर खिंची सरहद नहीं होता उसे तो वास्तविक बनाने के लिए दिलों के बंटवारे तक ले जाना होता है । किताब में जो लेख हैं उनका रिश्ता केवल कोरोना से नहीं है । मनाहियों और पाबंदियों के समाज से उनका रिश्ता है जिसमें शरीर और जगह के मामले में ऊंच नीच की व्यवस्था को बरकरार रखना होता है । भय-आतंक का राज कायम रखने के लिए जीवन और आजादी में कटौती की जरूरत होती है । यही राजनीति हमें अपनी हद तक ठेलकर ले जाती है । कोरोना ने उस राजनीति को बेपर्द कर दिया इसलिए उसका जिक्र भी आता रहा है । जिन अवरोधों को हमने उस दौरान मजबूती से कायम होते देखा वे वर्तमान तानाशाही को समझने का अवसर देते हैं । अवरोध तो जनता ने सेना के विरुद्ध अपनी रक्षा के लिए सड़कों पर खड़े किये थे लेकिन आज वे जनता के ही विरुद्ध इस्तेमाल हो रहे हैं । पुलिस और सेना उनके बल पर आंदोलनों से निपटती है ।

एरिक हज़ान ने अवरोधों के इतिहास पर लिखते हुए उन्हें क्रांतिकारी संघर्ष के गौरवपूर्ण प्रतीक के रूप में चिन्हित किया है । उन्होंने यह भी बताया कि बीसवीं सदी में शहरों में आये बदलाव की वजह से इन्हें हाशिये पर डाल दिया गया । शहरों के साथ ही सेनाओं का भी आधुनिकीकरण हुआ । इसी तर्क को आगे बढ़ाते हुए लेखक ने जन आंदोलनों को रोकने की रणनीति के रूप में अवरोधों को राज्य द्वारा हड़प लेने की प्रक्रिया को देखा है । जनता द्वारा अवरोध खड़ा करने को न केवल गैर कानूनी और आपराधिक बना दिया गया बल्कि कुलीन शासक भी इसे पूंजी के मुक्त प्रवाह में बाधक समझने लगे । अब तो सवाल यह हो गया कि कौन किसके विरुद्ध और किस मकसद से अवरोध खड़ा करता है । शासकों ने लोगों का गला घोंटने के लिए इनका उपयोग किया तो लोगों ने आजादी और प्रेम के मुक्त इलाके तैयार करने के लिए भी इनको पहले इस्तेमाल किया है ।

शरीर और अवरोधकों का संबंध इकहरा नहीं होता । एकाधिक कारणों से वे आपस में मिलते हैं । सबसे पहला सम्पर्क दिमाग में यही आता है कि सेना और पुलिस इन्हीं अवरोधकों से प्रदर्शनकारियों के शरीर को पीछे धकेलती है । कभी कभी प्रदर्शनकारी भी शासन को परे रखने के लिए इन्हें खड़ा करते हैं । शासन से सुरक्षा भी कभी कभी अवरोधकों से मिलती है । कभी कभी तो शरीर ही संगठित होकर अभेद्य अवरोधक में बदल जाता है । उत्पल दत्त ने अपने एक नाटक बैरीकेड में इसे मजदूरों का महत्वपूर्ण हथियार बताया है । इसके इस्तेमाल से न्यू यार्क की अश्वेत बस्ती हार्लेम और कलकत्ता का मजदूर इलाका खिदिरपुर एक समान हो जाते हैं । शासन और उसके विरोधी इसी अवरोधक पर आकर एक दूसरे से जोर आजमाइश करते हैं । इनके सामने पारम्परिक सोच हवा हो जाती है और वैकल्पिक चिंतन की जरूरत पैदा होती है । इस वैकल्पिक चिंतन को सजा भी इसी मुकाम पर दी जाती है ।

यह किताब तानाशाही, मनाहियों की उसकी संस्कृति और उसके प्रतिरोध के बारे में लिखे निबंधों का संग्रह है । शरीर द्वारा अवरोधों का प्रतिरोध और उनको उखाड़ फेंकना, अवरोधों को लांघ जाना या सांस लेने की जगह कम पड़ जाने पर शरीर का ही अवरोधक बनकर जगह बनाना ऐसी क्रियाएं हैं जो संकट के समय द्वार खोलती हैं । जब सड़कों पर संगठित होकर मनुष्यों के शरीर एकत्र होते हैं तो वे सत्ता द्वारा अनुमन्य स्थापत्य और स्थानिकता के बाहर जाकर उसके विरोध में देश और काल का सृजन करते हैं । अवरोधों के चलते जब हाथ पैर हिलाना भी मुश्किल हो जाय तो नयी राह खोलनी ही पड़ती है । अवरोधों के विरोध में यह गति और आंदोलन ही आशा का स्वप्न बनाते हैं । इसके साथ ही पूंजी की बेलगाम गति के विरोध में अवरोध और रुकावट प्रतिरोध का भी काम करते हैं ।

जब तक मनाही और रुकावट का प्रवेश लेखक के घर तक नहीं हुआ तब तक उन्हें दूसरों का दमघोंटू जीवन नजर नहीं आता था । इन लेखों में उसी अदेखे जीवन को नयी निगाह से देखने का आमंत्रण है । इसके जरिये एकजुटता की सम्भावना पैदा होती है । शोक से ही यह पता चला कि प्रत्येक जीवन इतना मूल्यवान है कि उसके न होने का शोक मनाया जाना चाहिए । दम घुटने की एकजुटता से ही मुक्ति के प्रयास की एकजुटता का जन्म होता है । इसी परिप्रेक्ष्य के साथ लेखक ने भारत की समकालीन सांस्कृतिक राजनीति पर भी विचार किया है । शरीर, शब्द और आंदोलनों पर रोक ही इन लेखों को आपस में जोड़ते हैं । खामोश करने की इस संस्कृति के विरोध में लेखक ने कला, जीवन और आजादी की अदम्य भावना का इजहार किया है । लेखों के कुछ हिस्से पहले भी छप चुके हैं । इन्हें बहस की शैली में गुस्से के साथ लिखा गया है । जब भी चुप रहना लेखक के लिए मुश्किल हुआ तो इन्हें लिखा गया । लेखक का मानना है कि हिंसा और त्रासदी के महाकाव्य के समक्ष महज आंकड़ों और सूचनाओं से भरा लेखन नहीं किया जा सकता ।