1996 में मैकमिलन प्रेस से केविन
मैकडर्मट और जेरेमी एग्न्यू की किताब ‘द कोमिंटर्न: ए हिस्ट्री आफ़ इंटरनेशनल
कम्युनिज्म फ़्राम लेनिन टु स्तालिन’ का प्रकाशन हुआ । किताब को लिखने में कुल पांच
साल लगे । सबसे पहले लेखकों ने इस सर्वसम्मति का उल्लेख किया है कि 1980 और 90 के
दशकों में पूर्वी यूरोप और सोवियत संघ के शासन सत्ता की समाप्ति का मतलब
मार्क्सवादी लेनिनवादी विचारधारा का अवसान है । उनके मुताबिक यही अगर सच है तो इस
किताब की कोई जरूरत नहीं क्योंकि कोमिंटर्न का गठन ही इस विचारधारा के प्रसार हेतु
हुआ था । कोमिंटर्न के पक्ष में उन्होंने तीन बातें कही हैं । पहला कि दोनों
विश्वयुद्धों के बीच की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में कोमिंटर्न का भारी महत्व था । दूसरा
कि सोवियत संघ को मानवता का प्रेरक
मानने वाले लाखों योद्धाओं और समर्थकों की निष्ठा उसे हासिल थी । तीसरे उसकी लोकप्रियता
ने दुनिया भर की पूंजीवादी सरकारों को चौकन्ना कर दिया था । आज के पाठक को भले ही विचित्र
लगे लेकिन 1920 और
1930 के दशक में सचमुच दुनिया भर को कम्युनिज्म का भूत सता रहा था ।
गोर्बाचेव के बाद कम्युनिस्ट पार्टी का संग्रहालय सबके लिए खोल दिये जाने से कोमिंटर्न
के इतिहास लेखन के लिए बहुतेरे नये दस्तावेज उपलब्ध हो गये हैं । 1960 दशक के मध्य में विद्वान इस बात की शिकायत करते थे कि कोमिंटर्न से संबंधित
दस्तावेज गोपनीय होने से उस पर शोध करने में भारी मुश्किल पेश आती है । अब
दस्तावेजों के सुलभ हो जाने से कोमिंटर्न की आंतरिक कार्यपद्धति के बारे में इतना
कुछ जानते हैं जो पांच साल पहले भी नहीं जानते थे । हालांकि उसका इतिहास लिखना अब
भी आसान नहीं है लेकिन तमाम विद्वान उन अभिलेखों की छानबीन में जुटे हुए हैं ।
उनकी मेहनत के नतीजे भी सामने आ रहे हैं जिसके कारण सोवियत संघ और दुनिया के उस
समय के इतिहास पर नयी रोशनी पड़ रही है । अंग्रेजी भाषा में एक जिल्द में कोमिंटर्न
का कोई इतिहास सुलभ नहीं था इसलिए भी लेखकों को इसका लेखन उचित लगा । इसमें
उन्होंने हालिया शोध के आधार पर कोमिंटर्न का सामान्य सा इतिहास प्रस्तुत करने की
कोशिश की है । इसमें कोमिंटर्न के प्रमुख सवालों और उनकी व्याख्या ही पेश करने का
इरादा है । इन सवालों से जुड़े दस्तावेज भी पाठकों की सुविधा के लिए शामिल किये गये
हैं । उम्मीद है कि साधारण विद्यार्थियों के साथ ही विशेषज्ञों को भी यह किताब
रुचिकर लगेगी ।
कोमिंटर्न
को तीसरा इंटरनेशनल भी कहा जाता है । एकाधिक मामलों में इसे प्रथम और दूसरे
इंटरनेशनल का वंशज कहा जा सकता है । प्रथम इंटरनेशनल की स्थापना 1864 में कार्ल
मार्क्स ने की थी । उसमें तमाम तरह के फ़्रांसिसी और ब्रिटिश मजदूर नेता शामिल थे ।
उनका मकसद पूंजीवाद के विरुद्ध विश्व संघर्ष में सर्वहारा वर्ग का अंतर्राष्ट्रीय
सहकार कायम करना था । मार्क्स और एंगेल्स मानते थे कि बाजार के अबाध विस्तार की
पूंजी की अतृप्त बुभुक्षा के चलते राष्ट्रीय सरहदें ढह जाती हैं इसलिए राष्ट्रवाद
का आधार कमजोर हो जाता है । इसके कारण दुनिया भर के मजदूर एक हो जाते हैं और पूंजी
उनका राष्ट्र छीन लेती है । ऊर्ध्वाधर राष्ट्रीय विभाजनों को पार करते हुए क्षैतिज
वर्गीय सहकार कायम होता है । मार्क्सवादी योजना में अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवाद और
बुर्जुआ राज्य को अलग अलग देशों से ऐसा मजदूर वर्ग उखाड़ फेंकेगा जो शोषित सर्वहारा
के साझा हितों के पक्ष में कार्यरत इंटरनेशनल की मातहती में होंगे । 1872 में
मार्क्सवादियों और बाकुनिनपंथियों के बीच विभाजन के कारण प्रथम इंटरनेशनल समाप्त
तो हो गया लेकिन सर्वहारा अंतराष्ट्रवाद को क्रांतिकारी मजदूर वर्ग के आंदोलन का
अभिन्न अंग बना गया । उसका नारा हुआ- दुनिया के मजदूरों एक हो! इसके बावजूद
राष्ट्रीय भावना और अंतर्राष्ट्रीय आकांक्षा के बीच का यह तनाव समाजवादी सिद्धांत
और व्यवहार से कभी गायब नहीं हुआ ।
दूसरे
इंटरनेशनल का निर्माण 1889 में किया गया । शुरू से ही इसमें भी सुधारवादी के साथ क्रांतिकारी
प्रवृत्ति के लोग भी शामिल थे । जर्मनी और फ़्रांसिसी पार्टियों का इसमें दबदबा रहा
। संस्थापकों ने विकेंद्रित सांगठनिक ढांचा अपनाया था जिसमें किसी बाध्यकारी प्रक्रिया
या कार्यक्रम का प्रावधान नहीं था । इसके ही कारण यह स्वायत्त पार्टियों का ऐसा ढीला
ढाला संघ बना जहां किसी एकीकृत कार्यवाही का बहुत कम अवसर था । गहरे
वैचारिक विभाजनों ने इसके जीवन को बहुत गहराई से प्रभावित किया । 1914 से पहले यूरोपीय समाजवादी आंदोलन में वाम, दक्षिण और
मध्यमार्ग के विभाजन थे । ये विभाजन बुर्जुआ लोकतंत्र, जातीय
प्रश्न, आम हड़ताल और युद्ध के बारे में उनके रुख के आधार पर बने
थे । आंतरिक तौर पर कमजोर होने के कारण प्रथम विश्वयुद्ध के समय अंध राष्ट्रवादी प्रवृत्ति
के चलते यह इंटरनेशनल बिखर गया । जर्मन, फ़्रांसिसी और ब्रिटिश
नेताओं ने अपने अपने देशों में युद्ध प्रयासों का समर्थन भी किया और लेनिन की निगाह
में उनका यह कृत्य समाजवादी लक्ष्य से गद्दारी था । उसी समय उन्होंने दूसरे इंटरनेशनल
की मौत की घोषणा करते हुए तीसरे इंटरनेशनल की स्थापना का इरादा जाहिर किया । रूसी बोल्शेविकों
के नेतृत्व में दूसरे इंटरनेशनल के इन क्रांतिकारी ताकतों ने अलग गुट का निर्माण किया
और इस विश्वयुद्ध को क्रांतिकारी गृहयुद्ध में बदल देने का जोरदार आवाहन किया । दूसरे
इंटरनेशनल में समाजवादियों का बहुमत था । उनके साथ इस क्रांतिकारी गुट की तीखी बहस
हुई ।
1017 की रूसी
क्रांति ने इस बहस में लेनिन के पक्ष को सही साबित किया । रूसी मजदूर वर्ग ने अपना
तो ऐतिहासिक दायित्व पूरा किया । अब शेष यूरोपीय मजदूर वर्ग को अपना कर्तव्य निभाना
था । बहरहाल विश्व क्रांति के महान लक्ष्य को हासिल करने के लिए सुधारवादियों को अलगाकर
तीसरे इंटरनेशनल की स्थापना जरूरी हो गयी थी । तदनुरूप मार्च 1919 में मास्को में क्रांतिकारियों के एक सम्मेलन में कोमिंटर्न की स्थापना हुई
। इसका मकसद पूंजीवादी निजी संपत्ति के उन्मूलन और उसकी जगह सामूहिक स्वामित्व और
उत्पादन की व्यवस्था के लिए समर्पित कम्युनिस्टों की विश्व पार्टी की स्थापना था ।
उस समय यह लक्ष्य हवाई नहीं प्रतीत होता था । माना जाता था कि प्रथम विश्वयुद्ध ने
उन्नीसवीं सदी की पुरानी व्यवस्था को पूरी तरह बदल डाला है । वामपंथी ही नहीं
सामान्य लोग भी इस व्यवस्था के ध्वंस में यकीन करते थे । विध्वंस का युग शुरू हो
चुका था और विकल्प समाजवाद ही नजर आ रहा था । इस अनुकूल माहौल के बावजूद मंगोलिया
को छोड़कर शेष कहीं भी कोमिंटर्न का लक्ष्य उसके जीवन काल में नहीं पूरा हुआ ।
विश्वव्यापी समाजवादी क्रांति का संगठक होने की जगह कोमिंटर्न रूसी शासन का उपकरण
बनकर रह गया । इसी दुखद परिणति के जिम्मेदार कारकों की छानबीन इस किताब की
विषयवस्तु है ।
इसके बाद
लेखकों ने सवाल किया है कि कोमिंटर्न के इतिहास में प्रमुख मुद्दे और विवाद क्या
रहे हैं । इस पर कोई सर्वसम्मति नहीं रही लेकिन कुछ मुद्दों को चिन्हित किया जा
सकता है जिनके बारे में विद्वान लोग दसियों साल से विचार करते आ रहे हैं । पहली
बात यह कि कोमिंटर्न के लेनिनीय और
स्तालिनीय जीवन काल में कौन सी निरंतरता रही और क्या भिन्नता आयी । क्या उसका
स्तालिनीय काल उसके लेनिनीय काल का स्वाभाविक परिणाम था । दूसरी बात कि मास्को में
बैठे केंद्रीय नेताओं और विभिन्न देशों के स्थानीय कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं के बीच
कैसे रिश्ते रहे । इसमें केंद्रीकरण और स्वायत्तता की मात्रा कैसी थी । तीसरी बात
कि कोमिंटर्न की नीति और रूसी सरकार की आधिकारिक विदेश नीति में कैसा संबंध था ।
क्या कोमिंटर्न रूसी शासन का उपकरण मात्र था । आखिरी बात कि कम्युनिस्टों ने सामाजिक
जनवादियों के प्रति कैसा रुख अपनाया । किसी गैर क्रांतिकारी युग में बहुसंख्यक
संगठित मजदूर वर्ग को क्रांतिकारी परिप्रेक्ष्य की ओर कैसे लाया जाय । इन्हीं चार
प्रमुख सवालों के इर्द गिर्द इस किताब को तैयार किया गया है ।
इन सभी
सवालों के भीतर अनेकानेक छोटे सवाल छिपे हुए हैं । कोमिंटर्न के भीतर तीन स्तरों
पर नियंत्रण का ढांचा दिखायी देता है । मास्को स्थित कोमिंटर्न की कार्यकारिणी पर
रूसी नेताओं का नियंत्रण सबसे ऊपरी स्तर है । उसके नीचे कार्यकारिणी का नियंत्रण
देश की कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं पर था । फिर इन नेताओं का नियंत्रण अपनी
पार्टियों के कार्यकर्ताओं पर था । यह संबंध क्या एकतरफा था जिसमें ऊपर से आदेश
निर्गत होते थे, जैसा अधिकांश इतिहासकार मानते हैं, या आपसी संवाद की भी कोई
गुंजाइश थी । एक और बात कि मास्को से आने वाले निर्देश को अलग अलग कम्युनिस्ट पार्टियां
कितनी ईमानदारी से लागू करती थीं । अध्येता लोग आम तौर पर इस बात की उपेक्षा कर
देते हैं कि बहुधा लागू करने की प्रक्रिया में नीतियां उलट जाती हैं । कोमिंटर्न
द्वारा मास्को से निर्गत निर्देशों को स्थानीय हालात के मुताबिक अनुकूलित करके
लागू किया जाता रहा होगा । इस दिशा में सोचने पर कोमिंटर्न की ठोस प्रकृति के बारे
में विचार करने का मौका मिलता है । क्या इसे मास्को स्थित विश्व क्रांति का
मुख्यालय कहा जा सकता है जिस पर बोल्शेविकों का कब्जा हो । या इसे अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर कार्यरत संगठन माना जाये जिस पर रूस के प्रत्यक्ष नियंत्रण के अतिरिक्त भी
तमाम किस्म के प्रभाव पड़ते हों ।
लेखकों ने
इतिहास लेखन की एक और बहस पर अपना रुख स्पष्ट किया है । ऊपर से इतिहास लेखन और
नीचे से इतिहास लेखन की बहस में उन्होंने ऊपर से इतिहास लेखन का पक्ष लिया है ।
कारण कि उनका ध्यान केंद्र की ओर रहा है । उन्होंने अलग अलग देशों की कम्युनिस्ट
पार्टियों का इतिहास लिखने की जगह विश्व क्रांति के केंद्र का इतिहास लिखने का
प्रयास किया है । अलग अलग कम्युनिस्ट पार्टियों ने न केवल स्तालिन के आदेशों का
पालन किया बल्कि सोवियत संघ के प्रति अपनी निष्ठा का सार्वजनिक इजहार भी किया ।
अगर इसे नहीं मानेंगे तो कोमिंटर्न के इतिहास की सचाई पर परदा डालेंगे । लेकिन
लेखकों का यह भी मानना है कि कम्युनिस्ट पार्टी का मतलब कोमिंटर्न और इसका मतलब
रूस का दलाल का भोड़ा तर्क भी बहुत मददगार नहीं है । हाल के शोधों ने साबित किया है
कि कम्युनिस्टों की गतिविधियों का परिप्रेक्ष्य ठोस रूप से राष्ट्रीय होता था ।
स्थानीय हालात के साथ अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ की मौजूदगी को केंद्र और परिधि की
अंत:क्रिया के बतौर विश्लेषित किया जाना चाहिए ।
इसके बाद
लेखकों ने कोमिंटर्न के इतिहास का काल विभाजन किया है । उन्होंने इसके पांच दौर
स्वीकार किये हैं । पहला 1919 से 1923 का दौर है जब क्रांति के विफल प्रयास हुए,
कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन हुआ और उनके संगठन मजबूत बने । इस दौर में रूस अलगाव
में बना रहा । दूसरा 1924 से 1928 का दौर जब पूंजीवाद को सापेक्षिक स्थिरता हासिल
हुई, संयुक्त मोर्चे की रणनीति पर अमल किया गया और रूसी पार्टी के आंतरिक संघर्षों
के अंतर्राष्ट्रीकरण के फलस्वरूप कोमिंटर्न का बोल्शेविकीकरण शुरू हुआ । तीसरा
1928 से 1933 का दौर जब पूंजीवादी संकट का तथाकथित तीसरा दौर आया, मजदूर वर्ग में
क्रांतिकारी भावना का प्रसार हुआ और सामाजिक जनवाद पर उग्र वाम आक्रमण हुए । चौथा
1934 से 1939 का दौर जब फ़ासीवाद विरोधी लोकप्रिय व्यापक मोर्चे के निर्माण का
प्रयास होने लगा तथा बुर्जुआ लोकतंत्र को बचाने की बातें होने लगीं । आखिरी 1939
से 1943 का दौर जब सोवियत संघ से जर्मनी का समझौता हुआ और कोमिंटर्न को समाप्त कर
दिया गया ।
लेखकों को
पता है कि यह काल विभाजन अतिशय सरल और सुविधाजनक है लेकिन प्रत्येक दौर की
विविधताओं की उपेक्षा करता है । रूसी और अंतर्राष्ट्रीय कारकों पर जोर होने के
कारण उन स्थानीय हालात की उपेक्षा हुई है जिनके कारण विभिन्न कम्युनिस्ट पार्टियों
की कार्यनीति में बदलाव आया होगा । लेखकों ने कोमिंटर्न की नीतियों में वाम और
दक्षिणपंथी बदलावों का विवेचन करने का संकल्प किया है । उनका कहना है कि इन
बदलावों की मुख्य प्रेरणा मास्को से मिलती थी लेकिन खासकर 1920 के दशक में विभिन्न
पार्टियों को स्थानीय हालात के हिसाब से नीतियों के समायोजन की छूट थी । रणनीति का
निर्धारण तो मास्को में होता था लेकिन कार्यनीति अaल्ग अलग देशों की स्थिति के
हिसाब से तय होती थी । गैर रूसी पार्टियों की इस स्वायत्तता का क्षरण स्तालिन के
काल में नजर आता है हालांकि इसे पूरी तरह कभी खत्म नहीं किया जा सका । स्तालिन के
समय अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन में विविध वैचारिक रूपों की जगह एकरूपता,
सैद्धांतिक लचीलेपन की जगह जड़ता और स्वायत्तता की जगह नौकरशाहाना केंद्रीकरण की
प्रवृत्तियों को प्रमुखता मिली ।
कोमिंटर्न
का इतिहास लेखन अत्यंत विविधतापूर्ण रहा है । उसकी कम से कम चार धाराओं को पहचाना
जा सकता है । एक, विक्षुब्ध कम्युनिस्टों की आलोचनात्मक धारा, दूसरी, शीतयुद्ध के
समय की कम्युनिस्ट विरोधी धारा, तीसरी, आधिकारिक कम्युनिस्ट धारा और चौथी, साठ के
दशक के बाद विद्वत्तापूर्ण शोध पर आधारित वैज्ञानिक धारा । इनमें से शुरू की तीन
धाराओं के पास कम्युनिस्टों के पक्ष या फिर विपक्ष का राजनीतिक हथियार था जिसने
उनके लेखन को प्रभावित किया था । बहरहाल इनमें कोमिंटर्न और विभिन्न देशों की
कम्युनिस्ट पार्टियों की गतिविधियों के बारे में सूझ मिलती है । विद्वानों की धारा
में ई एच कार और फ़ेर्नान्दो क्लादिन का ही लेखन महत्वपूर्ण है । दुर्भाग्य से ई एच
कार ने किसी एक किताब में कोमिंटर्न का इतिहास नहीं लिखा लेकिन सोवियत रूस के
इतिहास संबंधी उनकी विशाल किताब से इसके बारे में मोटी रूपरेखा तैयार की जा सकती
है । कार को आधिकारिक स्रोतों पर ही निर्भर रहना पड़ा क्योंकि तब तक अभिलेखागार
खुला नहीं था । इसके अतिरिक्त उनके लेखन में ऊपर से इतिहास लेखन की दृष्टि है ।
नीतियों को लागू करने के मामले में जमीनी कार्यकर्ताओं की स्वतंत्र पहल का उनके
लेखन में कहीं ब्यौरा नहीं मिलता । इसके बावजूद उनके काम का महत्व यह है कि
पश्चिमी विद्वानों में सोवियत संघ के बारे में व्याप्त रुख से वे सापेक्षिक तौर पर
आजाद रहे हैं । इसकी जगह वे मास्को स्थित
कोमिंटर्न के नेताओं और विभिन्न देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों की स्वतंत्र पहल का
परिष्कृत रुख अपनाते नजर आते हैं ।
क्लादिन का
लेखन मार्क्सवादी सांचे का है । उसमें भी सूझ भरी है । उनका कहना है कि कोमिंटर्न
के बोल्शेविक नेता रूसी जारशाही और पश्चिमी संसदीय व्यवस्था के बीच यथोचित भेद
नहीं कर सके । इसी वजह से बहुधा वे लोग यूरोपीय मजदूर वर्ग के उनकी राष्ट्रीय
राजनीति में सम्मिलित हो जाने की परिघटना को महत्व न देकर उसकी क्रांतिकारी क्षमता
पर बेजा भरोसा जताते रहे । जरूरत थी कि पश्चिमी हालात के मुताबिक विशेष किस्म की
रणनीति, कार्यनीति और सांगठनिक तरीका अपनाया जाता । उनकी इस बात का ठोस आधार है ।
बहरहाल उनके इस दावे को चुनौती दी जा सकती है कि विभिन्न देशों की कम्युनिस्ट
पार्टियां पूरी तरह से स्तालिन और रूसी शासन की मातहती में थीं । इसके अलावे वे
कभी कभी स्थानीय घटनाओं को जरूरत से अधिक महत्व देते हैं और कम्युनिस्ट पार्टियों
के काम करने के जटिल राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय माहौल की उपेक्षा कर देते हैं ।
इन कमियों के बावजूद उनके लेखन में परिष्कार और उत्तेजना है तथा कोमिंटर्न का एक
जिल्द में अंग्रेजी में उपलब्ध सर्वोत्तम इतिहास है ।
कोमिंटर्न
संबंधी सोवियत संघ के लेखन को लेखकों ने दो हिस्सों में बांटा है । गोर्बाचेव के
आने के बाद निश्चित रूप से उसके पहले के लेखन के मुकाबले प्रामाणिकता आयी है ।
इसके पहले के लेखन पर ‘आउटलाइन हिस्ट्री आफ़ कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ नामक विशाल
ग्रंथ की छाया रही है । भारी वैचारिक नियंत्रण में तैयार किये गये उस ग्रंथ में
रूसी कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों को वैध ठहराने के लिए बहुतेरे तथ्यों से आंख
मूंद ली गयी है । इसके कारण इसकी उपयोगिता बहुत कम है । उसके मुकाबले गोर्बाचेव
युग की बौद्धिक विविधता के साथ अभिलेखागार की उपलब्धता से उत्पन्न लेखन का उपयोग
इस किताब के लेखकों ने उदारता के साथ किया है ।
लेखकों ने
किताब को पढ़ते हुए दो बातों के प्रति सावधान रहने का अनुरोध किया है । सबसे पहले
यह कि कम्युनिस्टों के भीतर के वैचारिक संघर्ष में वाम, दक्षिण और मध्यमार्ग का
उल्लेख बहुत स्पष्ट तरीके से नहीं किया जाता । कई बार सत्ता संघर्ष की व्यावहारिक
तात्कालिकता के चलते इन्हें विरोधियों पर चिपका दिया जाता है । उनके अनुसार रूस
में 1920 के दशक में विभिन्न गुटों ने इन शब्दों का खूब खुलकर इस्तेमाल किया ।
पार्टी की नीतियों से मतभेद रखने वालों को विचलनवादी, संकीर्ण या अवसरवादी कह दिया
जाता था । कभी कभी इस साल जिसे वाम भटकाव का शिकार बताया जाता था उसी को अगले साल
दक्षिणपंथी करार दे दिया जाता था । बुखारिन और त्रात्सकी के समर्थकों के विरुद्ध
संचालित अभियान में अक्सर ऐसा नजर आया । दूसरी सावधानी कोमिंटर्न के इतिहास के
स्पष्ट विभाजन के मामले में बरतनी चाहिए । लेखकों का कहना है कि लेनिनीय युग और
स्तालिन युग में स्पष्ट विरोध या निरंतरता देखना इसके इतिहास की जटिलता के साथ
अन्याय होगा ।
लेखकों को
कोमिंटर्न के इतिहास की सबसे बड़ी चुनौती उसकी व्यापकता महसूस होती है । कोमिंटर्न
ऐसा विश्व संगठन था जो सभी महाद्वीपों में लगभग पचीस साल तक सक्रिय रहा । इस
पैमाने के अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के सटीक विवरण के लिए उसके तमाम
केंद्रीय निकायों और कम्युनिस्ट पार्टियों की संरचना और उनकी बहुस्तरीय गतिविधियों
की छानबीन के अतिरिक्त सोवियत संघ की घरेलू और विदेश नीति, विश्वयुद्धों के बीच की
अस्थिर पूंजीवादी अर्थव्यवस्था, महाशक्तियों की कूटनीतिक खींचतान तथा विभिन्न
देशों के विशेष समाजार्थिक संदर्भों का भी ध्यान रखना होगा । लेखकों ने जिस हद तक
सम्भव हुआ इन खास परिघटनाओं का भी उल्लेख किया है । इसमें जान बूझकर यूरोप केंद्रित
रुख अपनाया गया है क्योंकि कोमिंटर्न ने आगामी समाजवादी क्रांति के आधार के बतौर
यूरोप पर विशेष ध्यान दिया था । जर्मनी को न केवल यूरोपीय क्रांति की कुंजी समझा गया
बल्कि सोवियत संघ के अस्तित्व के लिए भी उसकी क्रांति को बहुत लम्बे समय तक जरूरी माना
जाता रहा था । इसके बाद एशिया में खासकर चीन को कोमिंटर्न के नेतृत्व ने खासी तवज्जो
दी थी ।
लेखकों ने जिन
पहलुओं पर ठीक से ध्यान नहीं दिया या चलते चलते उल्लेख मात्र किया उनका भी जिक्र किया
है । पूर्वी यूरोप और लैटिन अमेरिका में किसानों के प्रति कम्युनिस्ट रुख ऐसा ही क्षेत्र
है । इसके अतिरिक्त स्त्री आंदोलन, अश्वेत प्रश्न तथा श्रमिकों और युवा संगठन जैसे मोर्चों पर
भी पर्याप्त ध्यान लेखक नहीं दे सके हैं । सैन्यवाद और अराज्यवाद जैसी प्रवृत्तियों
पर भी अपेक्षित ध्यान न दे सकने का मलाल लेखकों ने जाहिर किया है । उन्हें आशा है कि
भविष्य में इन दिशाओं में भी गहन शोध होगा ।
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