इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समानांतर
इलाहाबाद में एक और विश्वविद्यालय चलता था । इस विश्वविद्यालय में मैंने 14 वर्ष
की उम्र में दाखिला लिया था मतलब उसी उम्र में मीना भाभी से मेरी पहली मुलाकात हुई
थी । आज बहुतेरे लोगों को यकीन नहीं होगा
कि उस जमाने में रेलवे स्टेशन पर उतरकर ट्रेड यूनियन के दफ़्तर से किसी कम्युनिस्ट
का घर पूछकर वहां से रामजी राय के घर पहुंचा जा सकता था । पुराने
समय के शिक्षाकेंद्र और पश्चिमी देशों के बहुतेरे विश्वविद्यालय आज भी किसी घेरे
में कैद रहने के मुकाबले समूचे समाज में फैले होते थे/हैं । हम लोगों की जों उम्र थी और उस तरह के, उस उम्र के आने वाले बहुत सारे विद्यार्थी, समाज के
विभिन्न तबकों से इलाहाबाद आने वाले लोग- उन सबके भीतर बहुत हलचल रहा करती थी-दिमागी
रुप से और शारीरिक रुप से । उन सबको अपनी इन बेचैनियों के साथ ही समाज और दुनिया के बारे में ढेर सारे सवालों के जवाब खोजने होते थे । उन्हें ऐसे लोगों की तलाश होती थी जो इस खोज में उनका साथ दें । उनको रहन सहन के किन्हीं मानकों पर तौलें नहीं । इनके दिमाग में सवाल भरे रहते थे । स्वाभाविक रूप से तैरने के लिए उन्हें तालाब नहीं बहुत बड़ी नदी
चहिए थी। तो उन्हें वह अवकाश ,वो एक भारी जगह उनके पास मिलती थी जिसमें आप तैरें और स्थिर
भाव से तमाम चीजे को समझें।
उत्तर प्रदेश और बिहार के देहाती
इलाकों से पढ़ने के लिए आने वाले इन विद्यार्थियों को इसी उम्र में प्रेम करना होता
था, सिगरेट पीना होता था और सिनेमा भी देखना होता था । इन विद्यार्थियों को अपनी
प्रतिभा पर भरोसा होता था और वे समाज में अपनी भूमिका निभाना चाहते थे । औपचारिक
कक्षा से बाहर की एक अनौपचारिक कक्षा में अध्ययन चक्र चलता था, नाटक होता था,
कविता लिखी और सुनायी जाती थी, पोस्टर बनते थे, नारे लगाते हुए प्रदर्शन होते थे ।
इस जगह इन युवकों को ब्रेष्ट का नाम सुनने को मिलता था, पाब्लो नेरुदा से उनका
परिचय होता था तथा इतिहास, दर्शन और राजनीतिशास्त्र की उत्तेजक बहस में बराबरी के
स्तर पर भागीदारी का मौका मिलता था । हिंदी भाषी क्षेत्र के उतने सारे प्रतिभाशाली
और रचनात्मक युवकों का इतना घनिष्ठ और लम्बा साथ शायद ही कभी हुआ हो । यही समय था
जब फ़ैज़ भारत आये थे और इलाहाबाद में फ़िराक़ से मिलने उनके घर गये । इसी जगह महादेवी
थीं जो शासन की किसी भी तानाशाही के विरोध में खड़ी हो जाती थीं । पढ़ने वाले
विद्यार्थियों ने उनका नाम सुना होता था । उन्हें सामाजिक भूमिका में प्रत्यक्ष
सक्रिय देखकर अपने भी बल पर भरोसा पैदा होता था । इसी वातावरण में उस विद्यार्थी
संगठन का जन्म हुआ जो इकहरा नहीं था । उसने इन युवकों को चुम्बक की तरह खींचा । इस
समूची प्रक्रिया में मीना राय और रामजी राय बहुधा प्रेरक और अभिभावक के साथ दिशा
निर्देशक की भूमिका में होते थे ।
ये किताब, बुक
स्टॉल, ये प्रकाशन यह सब कुछ उसका अंग था ।और समाज के तमाम बेचैन लोग आकर के
यहां पर दाखिला लेकर के समाज को बदलना सीखते थे। विश्वविद्यालयों की जो पूरी
परिकल्पना है कि पूरा का पूरा शहर,
पूरा का पूरा टोला, पूरा का
पूरा गांव विश्विद्यालय होता था । उसी तरह की एक शिक्षाशाला थी यहां पर । उन सबमें
उनके साथ बहुत दिनों तक मेरा भी जुड़ाव रहा । और इसी रूप में मैं याद करता हूं
उनको ।
रामजी राय और मीना भाभी का साथ बहुत कुछ यिन और यांग की एकता के समान था जिसमें एक हिस्सा स्थिरता बनाये रखता है और उसका दूसरा साथी इसी ठोस आधार पर अवस्थित रहकर तमाम गति और हलचल का प्रतिनिधित्व करता है । इन दोनों की आंगिक एकता से ही संपूर्ण बनता है ।
बहुत बहुत धन्यवाद।
सुन्दर
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