(हिंदी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और हिन्दुस्तानी एकेडमी प्रयागराज के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी के अवसर पर दिया गया व्याख्यान का संशोधित और परिमार्जित रूप । लिप्यंतर के लिए डाक्टर आकांक्षा भट्ट को शुक्रिया। )
इस समय ‘कामायनी’ को फिर से
पढ़ने का मतलब है कामायनी के समय को फिर से पढ़ना। आखिर कामायनी का समय क्या है?
कहने की जरूरत नहीं कि हमारे देश और समाज के लिए वह उपनिवेशवाद का समय है और इसी
नाते उपनिवेशवाद का विरोध इसमें गहराई से दर्ज हुआ है। इस बात को स्पष्ट रूप से
ग्रहण करने के लिए हमें स्वयं उपनिवेशवाद के बारे में थोड़ी गतिशील समझ बनानी
पड़ेगी। असल में स्वाधीनता संग्राम के दौरान उपनिवेशवाद के बारे में समझ का क्रमश: विकास
हुआ है। कारण कि हमें जो अनुभव होता है, हम उसका तत्काल सिद्धान्तीकरण नहीं कर
पाते । प्रत्यक्ष रूप से जो दिख रहा होता है उसके पीछे कार्यरत तंत्र या व्यवस्था
का बोध धीरे-धीरे ही होता है।
इसी तरह उपनिवेशवाद का
विरोध भी धीरे-धीरे हमारे देश की चेतना में आया। साथ ही उसके बारे में समझ का
विकास भी क्रमश: हुआ । सबसे पहले यह, स्वाभाविक रूप से, सांस्कृतिक टकराहट के रूप
में दिखायी पड़ा। फिर उसका नस्ली पहलू भी नजर आया । समझ आया कि उपनिवेशवाद में नस्ली
श्रेष्ठता बोध भी है। मसलन भारतेंदु हरिश्चंद्र के ‘भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती
है’ नामक निबंध में यह बोध देखा जा सकता है । उसमें यह बात शिकायत की तरह दर्ज है
कि हम काले गंदे हिन्दुस्तानियों से मिलने-जुलने का समय इन गोरे अंग्रेज साहबों के
पास कहाँ है । इस कथन में अंग्रेजी शासन में मौजूद नस्ली भेदभाव का दंश उभरकर सामने
आया है । उसी लेख में हमें यह समझ भी दिखायी पड़ती है कि उपनिवेशवाद में देश का
आर्थिक शोषण हो रहा है अर्थात आर्थिक रूप से इस देश को बर्बाद किया जा रहा है। उसी
समय यह समझ भी बनना शुरू हुई थी। उपनिवेशवाद के बारे में बहुत दिनों तक यह प्रमुख
धारणा रही कि वह एक वैश्विक अर्थव्यवस्था है। याद आता है कि जब भूमंडलीकरण का जोर
शोर से प्रचार शुरू हुआ तब दिल्ली
विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान के अध्यापक रणधीर सिंह इस मसले पर बोलते हुए
अक्सर कहा करते थे कि हम लोग पहली बार भूमंडलीकृत नहीं हो रहे हैं। अंग्रेजों ने
भी हमें ग्लोबलाइज ही किया था। तात्पर्य कि उपनिवेशवाद के बारे में यह धारणा कायम रही
कि वह विश्व अर्थतंत्र के साथ भारत को जोड़ता है और जोड़ता है तो बराबरी का दर्जा
देकर नहीं बल्कि अपने आर्थिक लाभ के लिए । उसने अपने हित में भारत का उपयोग किया, उसके
संसाधनों का दोहन किया या शोषण किया और वह सचमुच पहली वैश्विक अर्थव्यवस्था थी।
उसका वितान कितना विस्तृत
था इसके लिए किसी भी एक वस्तु को लेकर आप विश्लेषण शुरू करिए तो स्पष्ट हो जाएगा। जैसे
- चीनी के बनाने के लिए कहाँ से श्रमिक लाये जा रहे हैं? फिर चाय के लिए कहाँ से
युद्ध करके उसे लाया जा रहा है? उन लोगों को अफीम की आदत दिलाने के लिए कहाँ पर
अफीम पैदा करवाई जा रही है? इसी पहलू को देखेंगे तो स्पष्ट होगा कि यह बहुत बड़ी
वैश्विक अर्थव्यवस्था थी।
इस प्रश्न पर एक और समस्या
से हमें दो चार होना पड़ता
है क्योंकि प्रसाद जी अपने समय के अन्य लेखकों के मुकाबले सबसे कम समकालिक प्रतीत
होते हैं । उनके बारे में प्रेमचंद ने अतीत के गड़े मुर्दे उखाड़ने का आरोप ही लगाया
था । हिंदी साहित्य का कोई भी विद्यार्थी प्रसाद जी के बारे में यही समझता है कि
वे इतिहास अथवा पुराण को ही अपने लेखन का विषय बनाते हैं । इस सवाल पर हमारी
सहायता फ़्रांसिसी विचारक लूशिएं गोल्डमान करते हैं । सृजनात्मक लेखन से उसके समय
के जुड़ाव के सवाल पर उन्होंने ‘होमोलाजी’ या समानधर्मिता की धारणा प्रस्तुत की है
। इस मान्यता के मुताबिक किसी लेखक की रचना में उसका समय प्रत्यक्ष रूप से नहीं
आता है वरन उसके लेखन की चिंता से उसके समय के सवालों की समानधर्मिता होती है । इस
धारणा के आधार पर हम औपनिवेशिक समय के सवालों की प्रतिध्वनि कामायनी में सुनने का
प्रयास कर सकते हैं ।
पर्यावरण के विनाश की जो चिंता
है, वह पर्यावरण की चिंता अनायास ही कामायनी में नहीं दिखाई पड़ती है। उपनिवेशवाद
के सम्बन्ध में जो हालिया दृष्टिकोण है उसमें यह बात सबसे अधिक सामने आ रही है कि
उसने जिन देशों को पराधीन किया वहाँ के इको-सिस्टम यानी पारिस्थितिकी को स्थायी
रूप से नुकसान पहुँचाया, वहाँ पर किसानी और फसलों की जो पद्धति थी उनको नष्ट किया।
अपने उपभोग लायक फसलों को वहाँ पर उत्पादित किया। उदाहरण के लिए अफ़ीम को ही देखें।
हम सब यह जानते हैं कि गाजीपुर में अफ़ीम के लिए फैक्ट्री खोली गयी। इसी तरह जगह-जगह
पर ऐसी चीजें की गयीं जिनके कारण धरती का उपजाऊपन, धरती की नमी समाप्त हुई । इन चीजों की जरूरत मुख्य रूप से अंग्रेजों को थी। इस
सिलसिले में यह भी ध्यान में रखने की बात है कि जब तक मशीनें नहीं आ गयी थीं तब तक
पश्चिम की पूरी परिवहन व्यवस्था घोड़ों के जरिये संचालित होती थी। घोड़े अन्न खाते
थे। अन्न वहाँ पैदा नहीं होता था क्योंकि वहाँ पर ठण्ड ज्यादा पड़ती थी। इसी वजह से
गर्म मुल्कों में पैदा होने वाला अन्न उनको चाहिए था।
अब जो औपनिवेशिक व्यवस्था
थी, उससे सम्बंधित हाल के दिनों में जिस पुस्तक को मैंने पढ़ा उसका नाम है ‘अन्न कहां
से आता है?’ उसमें लेखिका सुषमा नैथानी ने बताया है कि फसलों की उपज बढ़ाने के लिए
प्राकृतिक उर्वरक लैटिन अमेरिका में चिड़ियों की बीट से जमा होती थी और वहाँ के आदिवासी
समुदायों को यह पता था । सदियों से वे इसका इस्तेमाल इस काम के लिए करते आ रहे थे।
जबसे अंग्रेजों को इसका पता लगा कि फसलों की उपज बढ़ाने के लिए इसका इस्तेमाल किया
जा सकता है तो जो उर्वरक सदियों से संग्रहित था वो पचास साल में ही समाप्त हो गया।
मतलब कि जो उपनिवेशवादी व्यवस्थी थी, वह जहाँ कहीं गयी उसने
यूरोप के ठण्डे मुल्कों के लिए, और चूँकि यूरोप में ठण्ड अधिक थी तो उनको उर्जा की
भी ज्यादा जरूरत पड़ती थी । यह ऊर्जा वहाँ पर पैदा नहीं हो सकती थी इसलिए उन्होंने जहाँ
उपनिवेश कायम किये उन सब जगहों पर इस तरह से हस्तक्षेप किया, उनकी अर्थव्यवस्थाओं
को इस तरह से ढाला कि यह सारा का सारा उत्पाद या संसाधन उनके लिए इस्तेमाल हो सकें।
इस क्रम में ही उन्होंने यहाँ के पर्यावरण को भी स्थायी क्षति पहुँचाई । इसको आधुनिक
भाषा में इकोसाइड कहा जाता है। तात्पर्य कि पर्यावरण की ह्त्या बड़े पैमाने पर हुई,
बड़े पैमाने पर पर्यावरण का संहार हुआ।
उपनिवेशवाद की इस धारणा को
अगर हम निगाह में रखें तो शायद कामायनी को समझने में या कामायनी की अंतर्वस्तु को
समझने में थोड़ी मदद मिलेगी । तब हम इस बात को देख पायेंगे कि छायावाद के भीतर प्रकृति
के प्रति चेतना का उत्स क्या है। बताने की जरूरत नहीं कि छायावाद के प्रसंग में अक्सर रोमांटिक काव्यधारा का
नाम लिया जाता है । रोमांटिक मूवमेंट भी
ऐसा कोई बुरा मूवमेंट नहीं है। असल में यूरोप और इंग्लैंड में भी पूंजीवाद का विरोध
था जिसने रोमांटिक मूवमेंट को जन्म दिया और यही वह चीज है जो छायावाद को उससे प्रेरित
करने का अवसर दे रही थी। प्रकृति की उत्कट उपस्थिति दोनों ही आन्दोलनों में है, रोमांटिक
आन्दोलन में तो है ही और छायावादी आन्दोलन में भी उसकी मौजूदगी है । इसकी वजह इन
दोनों का पूंजीवाद विरोध है । असल में इसी पूँजीवाद का सहउत्पाद है -उपनिवेशवाद।
उसको अपने आपको कायम रखने के लिए और अपने यहाँ के
उत्पादित माल को खपाने के लिए पूरी दुनिया में बाजार चाहिए । अंतर्निहित रूप से
उसे ऐसे भूक्षेत्र की जरूरत पड़ती है जहाँ से वह कच्चा माल ले सके और जहाँ पर अपना
बनाया हुआ माल खपा सके।
इस व्यापक पृष्ठभूमि के साथ
ही छायावाद के प्रसंग में
एक अन्य गुत्थी का भी जिक्र जरूरी है । जब हम छायावाद को पढ़ते हैं तो कई बार इस तरह सोचते हैं कि
छायावादी कवि अलग और प्रेमचंद अलग क्योंकि प्रेमचंद प्रगतिवादी हैं । ऐसा विभाजन करते हुए हम भूल
जाते हैं कि जयशंकर प्रसाद का ही निबंध है - छायावाद और प्रगतिवाद। उस निबंध में
उन्होंने प्रगतिवाद की ऐसी परिभाषा दी है जैसी सटीक परिभाषा अब तक कहीं और नहीं दी
जा सकी। उन्होंने कहा कि प्रगतिवाद लघुता की ओर साहित्यिक दृष्टिपात है।
कहने का मतलब यह कि
स्वाधीनता आन्दोलन ही उस युग के कथाकारों के साथ कवियों में भी ऐसी चेतना पैदा कर
रहा है। कहा ही जाता है कि किसी भी वस्तु का बोध होने के लिए आवश्यक है कि उसके
साथ हमारी अन्तःक्रिया हो तो इस उपनिवेशवाद के साथ हमारी जो अंतःक्रिया हो रही थी
उसने हमारी सामूहिक चेतना में उपनिवेशवाद की समझ पैदा की । उसी समझ से संपृक्त
होकर ये छायावादी कवि अपनी रचनाएँ लिख रहे थे। उनके यहाँ ऐसा नहीं है कि प्रकृति
ऐसे ही अकारण मौजूद है बल्कि उस समय के सभी रचनाकारों के यहाँ प्रकृति की
उपस्थिति के पीछे उस औपनिवेशिक
हस्तक्षेप की समझ और उसका विरोध नजर आयेगा जिसके कारण अकाल जनित विपन्नता फैल रही
थी । यह बात उस समय के सभी रचनाकारों को आपस में जोड़ती है । आप इसको देखेंगे कि उस युग के
लेखकों को इस तरह पेश किया जाता है कि छायावादी कवि हुए एक तरफ और दूसरी तरफ प्रेमचंद
हैं जो यथार्थवादी हैं और रामचंद्र शुक्ल को उन सबसे अलग कर देते हैं। सच तो यह है कि ये सब लोग एक ही समय
में मौजूद थे और इन सब लोगों के चिंतन में गहरे आपसी सम्बन्ध हैं। यह अकारण नहीं
है कि शुक्ल जी के निबंध संग्रह ‘चिंतामणि’ के भाग एक में जो निबंध हैं उनमें पहले
ही निबंध में उन्होंने कहा कि -
विधि के बनाए जीव जेते
हैं जहाँ के तहाँ,
खेलत फिरत तिन्हैं
खेलन फिरन देव।
शुक्ल जी के निबंधों में इस
प्रकृति प्रेम के साथ ही आप देखते हैं छायावादी कवियों की प्रकृति संबंधी चेतना। इस मामले में एक
उस युग के सभी लेखकों के बीच घनिष्ठ सहकार दिखाई पड़ता है। इसका एकमात्र कारण यह है
कि स्वाधीनता आन्दोलन ने इस सामूहिक चेतना का निर्माण किया है । उसके ही कारण समझ में
आ रहा था कि हमारे देश की यह समृद्धि है और इसको नष्ट किया जा रहा है । न केवल
इतना बल्कि इसकी स्थायी क्षति होने जा रही है। लगातार अकाल पड़ रहे थे और यह तथ्य तो
सभी लोग देख रहे थे। देवनारायण द्विवेदी ने अपनी किताब ‘देश की बात’ में लिखा है
कि अकाल पहले भी पड़ते थे लेकिन तब इतना अधिक लोग नहीं मरते थे। एकाधिक वर्षों तक अनावृष्टि
होती थी लेकिन अनाज सुरक्षित रहता था । औपनिवेशिक शासन के बाद अकाल भीषण रूप से मारक
होने लगे। कारण यही था कि इतने बड़े पैमाने पर औपनिवेशिक हस्तक्षेप के कारण यहाँ पर
पर्यावरण का स्थायी रूप से नाश हो रहा था ।
यह सब कुछ वे लोग अपनी आंखों के सामने होता हुआ देख रहे थे। साथ ही उसका सिद्धान्तीकरण
भी हो रहा था। यह सब कुछ एक बार में नहीं हो गया लेकिन धीरे-धीरे यह चेतना अवश्य आ
रही थी ।
इसकी पहचान के लिए कुछ प्रसंगों का उल्लेख
आवश्यक है । शुक्ल जी की शब्दावली थोड़ी प्राचीन है इसलिए उनका सही मंतव्य समझने में भ्रम हो
जाता है । मसलन अपने समय की विशेषता को समझने के क्रम में उन्होंने कहा कि इस समय क्षात्र
धर्म के साथ वणिक धर्म मिल गया है । इसका अर्थ क्या हुआ? उनका कहना है कि इस समय
राजनीति के साथ व्यापार मिल गया है । यानी राजनीति में व्यापार की केन्द्रीयता आ
गयी है । रामचंद्र शुक्ल इस बात को कह रहे हैं कि साम्राज्यवाद का मतलब है राजनीति
के केंद्र में व्यापार का आ जाना। अंग्रेजी राज में राजनीति का उद्देश्य हो गया है
व्यापार। इसके कारण क्या हुआ? उन्होंने कहा कि जो उपनिवेशित देश थे वे चलते-फिरते
कंकालों के कारागार हो गए हैं । साफ है कि उस समय यह चेतना थी और यह क्रमशः विकसित
हुई, अचानक नहीं पैदा हुई।
इस परिप्रेक्ष्य में रखकर
यदि हम देखेंगे तो छायावाद की जो पर्यावरणीय चेतना है या प्रकृति चेतना है उसका
क्रांतिकारी पहलू हमें नजर आएगा। यदि आप ऊपर से भी देखिएगा तो तत्कालीन साहित्यकार
प्रकृति में किस चीज को लक्षित करते हैं? जयशंकर प्रसाद सीधे परिवर्तन को लक्षित
करते हैं। शायद यह बताने की जरूरत नहीं है कि यदि किसी भी तानाशाह को कहा जाय कि
परिवर्तन ही स्थायी है तो यह तथ्य उसे बहुत पसंद नहीं आता। ज्यों ही कहा जाएगा कि
परिवर्तन ही स्थायी है तो स्वाभाविक तौर पर इसका मतलब होगा कि आप भी बदल जायेंगे।
यह बात उसे बहुत पसंद नहीं आती और हम देख रहे हैं कि छायावादी कवि लगातार प्रकृति
में परिवर्तन के तत्त्व को रेखांकित कर रहे हैं। उदाहरणार्थ
‘प्रकृति के यौवन का
श्रृंगार
करेंगे कभी न बासी
फूल
मिलेंगे वे जाकर
अतिशीघ्र
आह उत्सुक है उनकी
धूल ।
पुरातनता का यह
निर्मोक
सहन करती न प्रकृति
पल एक
नित्य नूतनता का
आनंद
किये है परिवर्तन
में टेक’
इसलिए छायावाद के भीतर प्रकृति का जो चित्रण है उसको हमें ध्यान से पढ़ना चाहिए और
उसके भीतर के उपनिवेशवाद विरोध को ध्यान से देखना चाहिए।
प्रसाद की इस रचना को विधाओं के स्थापित विभाजन के अनुरूप बहुतेरे आलोचक नहीं पाते तो खीझते हैं । इस प्रसंग में एक पुस्तक
का जिक्र जरूरी है । भारत के ही लेखक हैं जो अमेरिका में
रहते हैं – अमिताभ घोष। उन्होंने एक पुस्तक लिखी – द ग्रेट डिरेंजमेंट ।
उसमें उन्होंने एक महत्वपूर्ण बात कही है । उनका कहना है कि जैसे-जैसे प्रकृति का संकट बढ़ता जाएगा वैसे-वैसे
हमारे पारम्परिक साहित्यिक रूप उस संकट को अभिव्यक्त करने के
लिए अपर्याप्त होते जायेंगे। इसका कारण उन्होंने यह बताया है कि जिन समयों में
इन रूपों का विकास हुआ है वे समय ऐसे थे जब हमारी चेतना में समूची प्रकृति की सापेक्षिक स्थिरता की
बात थी । अब सहसा हमारा पाला जैसे हालात से पड़ रहा है उसमें आपको प्रकृति एकदम से नये किस्म की दिखायी पड़ती है। अगर हमारे
दिमाग में साहित्यिक रूपों को समझने का ढांचा पहले से मौजूद हो तो इस नयी रचना की विधा को समझना बहुत
मुश्किल हो जाता है। महाकाव्य है, कविता है या प्रगीत है इस ढाँचे
में अगर सोचेंगे तो नयी सृजनात्मकता को समझने में बहुत मुश्किल होती
है। यह मुश्किल इसलिए होती है कि इन लेखकों के सामने विषय नया
था और इसलिए यह नवीनता पैदा हुई है उनकी संरचना में, इस कृति में। कहने
का मतलब यह कि वे लोग प्रकृति का नम्र रूप नहीं देख रहे थे और इसलिए कामायनी में प्रलय के वर्णन से शुरुआत हुई
है । अब आप सब जानते हैं कि इस समय पर्यावरण चेतना से जो नयी शब्दावली पैदा हुई
है उसमें अपोकालिप्स यानी प्रलय, एक्सटिंक्शन यानी प्रलय का बहुत इस्तेमाल होता
है । धीरे-धीरे लोगों को लग रहा है कि एक ऐसा समय आ
रहा है जिसे प्रलय की भाषा में ही व्यक्त किया जा सकता है । सबूत के तौर पर The Sixth Extinction : An Unnatural History (Writer-Elizabeth Kolbert) नाम से एक किताब ही
मौजूद है। जो विध्वंस हो रहा है वह इतने बड़े पैमाने पर
हो रहा है कि उसे प्रलय ही कहा जा सकता
है । अभी हाल ही में दुनिया के पाँच अरबपति समुद्र की सतह पर टाइटैनिक
का मलबा देखने जा रहे थे और पनडुब्बी में ऑक्सीजन ख़त्म हो जाने से सभी मर गये। अब इस दुस्साहस के बारे में सोचिये कि इस साहसिक यात्रा का टिकट करोड़ो रुपये का था जिसे खरीदकर वे लोग उसमें बैठे थे।
प्रकृति को इस तरह से जीत लेने का
जो मद है उस मद का जिक्र बार-बार कामायनी में
आता है। शुरू में ही मनु के मुख से प्रसाद जी कहलवाते हैं
‘प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित
हम सब थे भूले मद में
भोले थे, हाँ तिरते केवल
सब विलासिता के नद में’
इस सन्दर्भ में यह भी ध्यान दीजियेगा कि उनके एक नाटक में कथन आता है कि अधिकार सुख कितना मादक और सारहीन है
। जब वे इस तरह की बात कह रहे थे तो दरअसल
उस मनुष्य की बात कर रहे थे जिसका प्रतिनिधि मनु है । उसके मामले में मद है, अधिकार भावना है और इस मद के कारण उसका बिगाड़ दोनों के साथ होता है, श्रद्धा के साथ भी
होता है और इड़ा के साथ भी होता है। यह जो मद है, दरअसल आधुनिक
व्यक्ति की समस्या है जिसको वन डाइमेंशनल मैन कहकर परिभाषित करने का प्रयास
हुआ। आधुनिक मनुष्य की जो एकायामिता है उससे
यह मद पैदा होता है। हालांकि मनुष्य प्रकृति का ही अंग होता है ।
मनुष्य का प्रकृति के साथ
क्या रिश्ता है इसको समझने के लिए एक धारणा का प्रयोग किया जाता है। बायोलॉजी की
धारणा है – मेटाबोलिज्म, यानी चय-अपचय की क्रिया। उसके मुताबिक धरती का यह जो पूरा
संभार है इसमें एक अन्योन्याश्रय है और वह चय-अपचय का अन्योन्याश्रय है। सोपान
जोशी ने अपनी पुस्तक ‘जल थल मल’ में बताया है कि समुद्र में जो रीफ होती है
उसका व्हेल के साथ सम्बन्ध है। क्यों? क्योंकि व्हेल
जो गोबर करती है उससे बहुत सारी ऐसी चीजें पलती हैं जो समुद्री रीफ का निर्माण
करती हैं। मतलब यह कि जिस तरह समुद्र में इन सारे जीवों की आपस
में एक तरह की एकता है वैसी ही एकता धरती पर भी होती है। धरती पर जो मानव सृष्टि है वह भी समुद्र में
होने वाली इस हलचलों से जुड़ी हुई है। हमारी पृथ्वी का सत्तर प्रतिशत जल है। जल के
साथ धरती के रिश्ते को प्रसाद जी ने कामायनी में बेहद मार्मिक चाक्षुष बिम्ब के सहारे उकेरा है जब वे
उसे संकुचित वधू की तरह बैठी हुई दिखाते हैं । सोपान जोशी ने अपने
एक व्याख्यान में यह भी कहा कि एक बूँद जल सृष्टि
के बाद से नया पैदा नहीं हो सका है। हमारे शरीर में बहते हुए रक्त से लेकर धरती के जलभर तक में जितना जल है
वह तभी से मौजूद है। उसका रूप बदलता रहता है, वह प्रदूषित और साफ़ होता
रहता है लेकिन कोई भी मनुष्य नया जल नहीं पैदा कर सका है । यह जो पूरा का
पूरा पारिस्थितिकी तंत्र है इस पारिस्थितिकी तंत्र पर उपनिवेशवाद के दौरान संकट
आया था । इस संकट के मूल में लोभ था । चरम उपभोग के कारण प्रलय का आगमन प्रसाद जी ने बिना किसी कारण के नहीं कल्पित
किया है ।
उस समय के लोगों को इसके लक्षण अकालों के
रूप में, पृथ्वी के बंजर होने के रूप में दिखायी पड़े थे । इसका
एहसास वे लोग कर रहे थे, हालांकि यह एहसास थोड़ा प्राथमिक स्तर का ही था। स्वाभाविक
रूप से यह चिंतन उस समय तक इतना विकसित नहीं हुआ था लेकिन उसको वे महसूस कर रहे थे
इसलिए वे लोग सृजनकर्म में जो संरचना बुन रहे थे उसको समझने में हमें कई बार
दिक्कत आती है। हम तो साहित्य की चली आ रही जो समझ है, उसके जो ढाँचे हैं उनके हिसाब
से कामायनी को समझने की कोशिश करते हैं और तब वह किताब हमारे लिए परेशानी पैदा
करती है ।
मुक्तिबोध द्वारा लिखित कामायनी:
एक पुनार्विचार के बारे में बहुत तरह की बातें की जाती हैं। उसके बारे में बात
करते हुए यह ध्यान रखने की बात है कि कामायनी के अलग-अलग हिस्से बहुत मोहक हैं,
लज्जा सर्ग अपने आप में एक पूरा गीत है, श्रद्धा सर्ग लुभा लेता है लेकिन समग्र
कामायनी की व्याख्या के लिए समग्र दृष्टि की आवश्यकता होती है। मुक्तिबोध ने अपनी
किताब में उसे ही निर्मित करने की कोशिश की है। इस सिलसिले में हम सब जानते हैं कि
जो सम्पूर्ण होता है वह खण्डों का जोड़ नहीं होता है। सम्पूर्ण के अभिग्रहण से
खण्डों को समझने में मदद मिलती है। इसलिए कामायनी के बारे में यदि हम सम्पूर्ण का एक
सहज बोध विकसित नहीं करते हैं तो उसके अलग-अलग अंशों को और अलग-अलग सर्गों को भी
समझने में बहुत बाधा आती है। ऐसी स्थिति में वे अलग-अलग अंश बहुत मोहक प्रतीत
होंगें। लेकिन उस पूरी कृति में जो सम्पूर्णता है, उस सम्पूर्णता को हमें समझना
होगा।
उस लिहाज से प्रसाद जी के
समकालीन प्रेमचंद के उदाहरण से कुछ कहने की चेष्टा कर रहा हूँ । यदि हम जैसे धनिया
और झुनिया के व्यक्तित्व को देखें क्योंकि दोनों आपस में झगड़ चुके हैं, उसी झगड़े
के कारण गोबर चला गया। मालती और धनिया में से एक पूरी तरह से शहरी है और एक उतना
ही देहाती। फिर भी दोनों को हम स्त्री के बतौर देखते हैं । तब इसी प्रसंग में हम
देखते हैं प्रकृति के साथ स्त्री का सम्बन्ध। छायावाद की यह भी एक विशेषता है कि
स्त्री की गम्भीर उपस्थिति आपको सबमें दिखायी पड़ती है। इसे प्रेमचंद में भी
रेखांकित किया जा सकता है। इसी तरह श्रद्धा और इड़ा दोनों ही बहुत स्वतंत्र
स्त्रियाँ हैं। इड़ा को तो बार-बार कहा जाता है कि वह स्वतंत्र स्त्री है। श्रद्धा
भी कुछ हद तक स्वतंत्र है। इन स्त्रियों को
जोड़ा जाना चाहिए ध्रुवस्वामिनी से। प्रसाद जी ने उस नाटक में तलाक के लिए मोक्ष
शब्द दिया है और यहाँ वे तलाक की धारणा का समर्थन कर रहे हैं। इन स्त्री पात्रों
के पीछे वह स्त्री है जो सामाजिक जीवन में
नया नया उतरकर आ रही है। प्रेमचंद पर यह आरोप बहुत लगता है कि उन्होंने स्त्रीमन
का चित्रण नहीं किया है। असल में वे स्त्री की सामाजिक भूमिका देख रहे थे इसीलिए
मैं पहले कह रहा था कि कामायनी को पढ़ते समय उसके समय को पढने की बहुत जरूरत है। उस
समय सामाजिक जीवन में इस नयी स्त्री का आगमन हो रहा है और उसको ये सभी लेखक
अभिव्यक्त कर रहे हैं- अपनी-अपनी सीमाओं में अपनी-अपनी विशिष्टता के साथ । इसलिए
उस समय को हमें थोड़ा ध्यान से देखना चाहिए। वह जो समय है उसे जैसे-जैसे आप पढ़ियेगा,
कुछ नये पहलू आपको नजर आयेंगे। उदाहरण के लिए महादेवी वर्मा ने लेनिन की प्रशंसा
की है। उन्होंने लेनिन की प्रशंसा इस बात के लिए की है कि नग्न यथार्थवाद का
चित्रण नहीं होना चाहिए। प्रेमचंद के यहाँ प्रेमाश्रम में रूस की क्रान्ति का जिक्र
है। जयशंकर प्रसाद के बारे में लिखते हुए रामचंद्र शुक्ल ने लिखा कि उन्हें
साम्यवादी विचारों की जानकारी थी और रामचंद्र शुक्ल जब ऐसा लिख रहे हैं तो उनको भी यह जानकारी रही
होगी अन्यथा वे इतने विश्वास से यह न लिख सके होते ।
इसलिए हमें यह ध्यान में
रखना चाहिए कि वह स्वाधीनता आन्दोलन का ऐसा समय है जब प्रथम विश्व युद्ध में पहली
बार भारत के आम किसानों ने पूरी दुनिया में घूम घूमकर देखा अंग्रेजों के पक्ष में
लड़ते हुए। वहीं पर उन्होंने रूसी सैनिकों से उनके देश की क्रांति के बारे में सुना
और यही वह चीज थी जो स्वाधीनता आन्दोलन को देहात में ले गयी और उसका रूप बदल गया ।
साथ ही साथ उन लोगों की चेतना भी बदल गयी । यही वह नया पाठक है जिसके लिए जयशंकर
प्रसाद लिख रहे हैं, प्रेमचंद लिख रहे हैं और सभी छायावादी कवि लिख रहे हैं। इन
पाठकों की नयी समझ ने इस समय के साहित्य की अंतर्वस्तु और उसका रूप निर्धारित किया
है।
ऊपर वर्णित आधुनिक मनुष्य
की एकायामिता के संदर्भ में हम कामायनी द्वारा प्रस्तुत सबसे गम्भीर समस्या को समझ
सकते हैं । याद दिलाने की जरूरत नहीं कि उनके लगभग सभी अध्येताओं ने ज्ञान, इच्छा और क्रिया के बीच भेद वाले प्रसंग
को इस कृति का केंद्र स्वीकार किया है । श्रद्धा द्वारा इनके तीनों चक्रों को आपस
में मिला देने के उनके समाधान को आधुनिक मनुष्य की इसी एकायामिता के प्रतिवाद और
उसके आदर्श समाधान के रूप में पढ़ा जा सकता है ।
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