Saturday, October 1, 2022

क्षेत्रीय विषमता की समस्या

 क्षेत्रीय विषमताकी समस्या को राम मनोहर लोहिया ने सप्तक्रांति संबंधी अपनी धारणा के जरिए सबसे पहले समानता के लिए चलने वाले समग्र आंदोलन का एक हिस्सा  समझा और पेश किया था । असल में इस समस्या की जड़ें  आज़ादी के बाद जिस तरह का शासकीय ढांचा अपनाया गया उसमें और शासन में जो लोग बैठे उनकी सोच में निहित हैं । आज़ादी के आंदोलन के दौरान ही उस संघीय स्वरूप का खाका बहुत कुछ तैयार हो गया था जिसे बाद में देश को एक साथ बांधे रखने का सूत्र बनना था । ध्यान से देखें तो आज़ादी के आंदोलन के समय ही उस सोच की नींव रखी जा चुकी थी जिनके अधार पर बाद में भाषावार प्रांत बने । इनके जरिए कुछ हद तक संघीयता को मान्यता दी गई लेकिन यह ढांचा सारी विषमताओं को हल नहीं कर सका क्योंकि एक ही भाषा, तेलुगु, बोलनेवाले दो प्रांतों (आंध्र और तेलंगाना) की मांग कर रहे थे । इसी तरह हिंदी भाषी जन तीन चार प्रांतों में बांट दिये गये थे । असम में भाषाई रूप से काफी अलग अलग अनेक समुदाय एक साथ ठूंस दिये गये थे । इन कमियों ने आगे चलकर तमाम क्षेत्रों को अलग प्रांत हेतु आंदोलन चलाने को मजबूर किया ।

 

इसके अलावा एक और बात रही । केंद्र के पास अधिकाधिक शक्तियों को रखने का मोह कभी केंद्र में काबिज पार्टी छोड़ नहीं सकी । यह महज राजनीतिक एकाधिकार का मामला नहीं था बल्कि हमारा देशी बड़ा पूंजीपति भी सत्ता के इस भारी संकेंद्रण से काफी लाभ पा रहा था । उसे बहुत सारे छोटे दलों से तालमेल बिठाने की जगह एक ही दल से काम निकालने में आसानी होती थी । इन्हीं वजहों के चलते आज़ादी के तुरंत बाद से ही क्षेत्रीय असमानता की प्रवृत्ति दिखाई देने लगी और बाद में अनेक आंदोलनों और राजनीतिक गोलबंदियों की वजह बनी । लोहिया जी की धारणा बहुत दिनों तक वैचारिक आलोड़न तक ही सीमित रही क्योंकि हाल हाल में आज़ाद हुए देश में बड़े उद्योगों के आधार पर आर्थिक आत्म-निर्भरता का सपना बेचना आसान था । लेकिन सत्तर के दशक में शासन में कांग्रेसी एकाधिकार टूटने के साथ लोकतंत्र का विस्तार होना शुरू हुआ और भारतीय जनता के नये नये तबके भी शासन में हिस्सेदारी चाहने लगे । उनकी इस चाहत का प्रतिनिधित्व विपक्षी दलों ने करना शुरू किया जिनका जनाधार बहुत करके जमींदारी उन्मूलन से सशक्त हुई पिछड़ी जातियां थीं । ये सभी जातियां देहातों में मजबूत थीं और शुरुआती पंचवर्षीय योजनाओं में उद्योगों की प्राथमिकता के कारण वंचित महसूस कर रही थीं क्योंकि ये भारी उद्योग ज्यादातर बड़े शहरों में केंद्रित थे । इसीलिए क्षेत्रीय विषमता का एक पहलू शहरों में सुविधाओं और धन का संकेंद्रण तथा देहातों में व्याप्त बदहाली और दरिद्रता का वैषम्य भी रहा है । पूँजीवाद द्वारा इस खास विषमता के उत्पादन पर मार्क्स ने भी ध्यान दिया था ।    

 

कुछ लोग राष्ट्रवाद और क्षेत्रीयता को परस्पर विरोधी मानते हैं और उन्हें एक दूसरे के लिए नुकसानदेह भी समझते हैं । हाल हाल तक अलग प्रांत की मांगों को राष्ट्रीय एकता के लिए अहितकर माना जाता था । आज भी काश्मीर को स्वायत्तता की बात सुनकर तथाकथित देशभक्त लोग कान खड़ा कर देते हैं । अनेक लोग इन दोनों यानी राष्ट्रवाद और क्षेत्रीयता को  केवल सांस्कृतिक स्तर पर परिभाषित करते हैं । राष्ट्र और विभिन्न क्षेत्रों की संस्कृति अवश्य उन्हें समानता और विशेषता प्रदान करती है लेकिन राष्ट्रवाद और क्षेत्रीयता केवल सांस्कृतिक परिघटनाएँ नहीं हैं । असल में ये दोनों ठोस आर्थिक-राजनीतिक परिघटनाएँ हैं । पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था जहाँ एक ओर राष्ट्र को एकता प्रदान करती है वहीं ठीक उसी प्रक्रिया में दूसरी ओर अलग अलग इलाकों की आकांक्षा जगाकर क्षेत्रीय असमानता के विरुद्ध विक्षोभ भी पैदा करती है । राष्ट्रीय एकता और क्षेत्रवाद का विकास एक ही प्रक्रिया की उपज हैं । मजबूत केंद्र के विरोध में क्षेत्रीय हितों की रक्षा और संवर्धन के नाम पर संघर्षरत क्षेत्रीय पूँजीपति वर्ग अक्सर आम जनसमुदाय को अपने नेतृत्व में एकताबद्ध कर लेता है । लेकिन ऐसा करते हुए भी वह और कुछ नहीं केंद्रीय स्तर पर हड़पी जा रही मलाई में अपना हिस्सा ही चाह रहा होता है ।

 

क्षेत्रीय राजनीति का सबसे घनघोर उभार अस्सी दशक के उत्तरार्ध में हुआ था । असल में इंदिरा गांधी के केंद्रीय सत्ता में आने के बाद से अतिकेंद्रीकरण की जो प्रवृत्ति चली थी उसके उत्तर में संघीयता और क्षेत्रीय विकास का नारा लगाती हुई ऐसी क्षेत्रीय पार्टियों का विकास हुआ जो विगत बहुत सालों से भारतीय राजनीति की विशेषता बनी हुई हैं । आश्चर्य नहीं कि ये पार्टियां ज्यादातर पिछड़ी जातियों का सामाजिक आधार लेकर खड़ी हुई थीं । कहने का अर्थ कि सत्ता में भागीदारी से वंचित महसूस कर रही लेकिन सामाजिक रूप से प्रभावशाली ताकतों की गोलबंदी इस नारे के इर्द गिर्द हुई थी । ऐतिहासिक रूप से देखें तो ये ताकतें वहीं खड़ी हुईं जहां संपन्न खेतिहर जातियों का राजनीतिक उभार हो चुका था । इसीलिए दक्षिण भारत में ये क्षेत्रीय पार्टियां अधिक शक्तिशाली रहीं । यही इतिहास इसकी शक्ति होने के साथ साथ उनकी सीमा का भी कारण बना  उस दौर में यह उभार जनता की किसी गोलबंदी के साथ नहीं हो रहा था बल्कि विभिन्न प्रांतों के मुख्यमंत्रियों के दिखावटी जमावड़े के रूप में सामने आया था ।

 

न तो केंद्रीयता की ताकत कमजोर थी, न क्षेत्रीयता की भावना आधारहीन थी इसलिए कभी क्षेत्रीयता की धारा मजबूत होती रही तो कभी केंद्रीयता के साथ मिलकर भी इनकी गोलबंदी जारी रही । खासकर कांग्रेस और भाजपा के नेतृत्व में बनने वाले दो विशाल मोर्चों के इर्द गिर्द इन ताकतों की गोलबंदी भी क्षेत्रीयता के नारे के साथ ही चलती रही थी ।

क्षेत्रीयता की अभिव्यक्ति का सबसे प्रमुख वैचारिक नारा तीसरे मोर्चे की धारणा है । वैसे भी इसे कोई ठोस ताकत की बजाय एक तरल धारणा ही माना जाता है जिसकी कोई स्थायी ताकत नहीं है, जरूरत के मुताबिक इसके तमाम रूप सामने आते रहे हैं । संसदीय राजनीति में वामपंथी मोर्चे की घटती ताकत के बाद इसे जोड़ने वाला मजबूत फ़ेवीकोल नहीं रहा और किसी गम्भीर वैचारिक मुद्दे की अनुपस्थिति में अब इसमें किसी के भी शामिल होने में कोई बाधा नहीं रह गयी थी लेकिन हालात में बदलाव आ रहे हैं ।

 

बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार आजकल इस तरह की गोलबंदी का केंद्र बनने का प्रयास कर रहे हैं और भाजपा के वर्तमान शासन में केंद्रीय सरकार की अपार ताकत और उसके बेजा इस्तेमाल को देखते हुए इस गोलबंदी की जगह बनती हुई दिखायी भी दे रही है । हमारे देश के दक्षिणी प्रांत हमेशा से अपनी उपेक्षा का सवाल उठाते रहे हैं । इसमें भाषा का मुद्दा सबसे प्रमुख रहा है । केंद्रीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण यह भावना फिर से उभर रही है । अब तो हृदयस्थली के प्रांत भी केंद्र के पास जमा जी एस टी में अपने हिस्से की मांग कर रहे हैं । संसाधनों के असमान वितरण के चलते तमाम प्रांतीय सरकारें विकास की कोई योजना ही लागू नहीं कर पा रही है । भाषाई और सांस्कृतिक एकरूपता की सनक के चलते अन्य सवाल भी इसके साथ ही शामिल हो गये हैं । देश के लोकतांत्रिक ढाँचे का महत्वपूर्ण आयाम उसकी विविधता को बनाये रखने की उदारता है । यह विविधता शासन के ऐसे तरीकों को अपनाने की मांग करती है जिसमें देश के न केवल विविध धर्मों, बल्कि विविध संस्कृतियों और भिन्न भिन्न भाषाओं को एक साथ रहने और फलने फूलने का मौका मिल सके । मजबूत केंद्र के लिए मजबूत प्रांतों का भी होना आवश्यक है ।        

 

No comments:

Post a Comment