गोरख पांडे की कविता किसी जादू के जोर से प्रत्येक समय में प्रासंगिक हो उठती है । उनकी इस ताकत का रहस्य समय के यथार्थ को पहचानने और उसकी निराशाजनक गिरफ़्त से आजाद करने वाले सपने उकेरने में निहित है । आम तौर पर उनके बारे में बात करते हुए विषयवस्तु की ऊपर से नजर आने वाली बातों पर जोर दिया जाता है लेकिन उनकी दार्शनिक पृष्ठभूमि के चलते उन्हें स्पष्ट था कि भौतिक और अभौतिक में उतना साफ विभाजन नहीं होता जितना समझा जाता है । दुनिया को बदलने में विचार जैसी अभौतिक चीज का भारी योगदान होता है । इसी तर्ज पर उनकी कविताओं और गीतों में सपनों की भारी भूमिका नजर आती है । यथार्थ द्वारा आत्मा को पीस डालने वाली क्षमता का उनको गहरा अहसास ठोस जीवनानुभव की बदौलत था । वास्तव की इस भयावह सचाई से निजात पाने के लिए वे अक्सर सपनों की दुनिया बुनते हैं । यथार्थ के मुकाबले सपनों की दुनिया की ताकत कम होती है यह तो उन्हें पता था लेकिन इन सपनों की बदौलत ही वर्तमान की सीमा का अतिक्रमण किया जा सकता है, इसका आत्मघाती भरोसा भी था । ये सपने उनके लिए बहुत मूल्यवान थे । इतना कि उनके टूटने से सपने देखने वाला असल भी घायल हो उठता था ।
‘एक नश्तर चुभा है ख्वाबों में
लहू टपकता है निगाहों से ।’
गोरख की निगाह में मनुष्य की विशेषता उसके सपने हैं । सपने का अर्थ सीमाओं का
अतिक्रमण भी है । जिस समाज में हमारा जन्म हुआ है उसकी तमाम किस्म की उत्पीड़क
मर्यादाओं से लगातार हमारे जीवन और व्यक्तित्व में दरार पड़ती रहती है । ऐसे में
सपने ही हैं जो भौतिक की थोपी हुई इन सीमाओं को पार कर जाने की हिम्मत देते हैं ।
इसीलिए ये सपने बहुधा जान से प्यारे होते हैं । इन सपनों की हत्या से मनुष्य को परिस्थितियों का गुलाम बनाने की कवायद की शुरुआत
होती है । सपनों से विकल्प का निर्माण करने की सोच पैदा होती है । पूंजी की ताकत
को असीम और अनंत साबित करने वाले सबसे पहले मनुष्य की इसी क्षमता पर हमला करते हैं
और कहते हैं कि जो मिली है, वही एकमात्र सम्भव दुनिया है । इसकी जगह किसी दूसरी दुनिया
के बारे में सोचना भी गुनाह है । याद दिलाने की जरूरत नहीं कि नवउदारवाद की
प्रवर्तक मार्गरेट थैचर ने जब विकल्पहीनता पर जोर दिया था तो सपने देखने की आंखों
की क्षमता में नश्तर ही चुभोया था । गोरख मनुष्य के सार को उसके भौतिक अस्तित्व तक
ही सीमित कर देने की कोशिश का विरोध करते हुए सपनों की ओर से अपील करते हैं
‘हे भले आदमियो !
सपने भी सुखी और
आजाद होना चाहते हैं ।’
इस अंश में भले आदमियो
के संबोधन में निहित व्यंग्य को समझकर ही हम गोरख और मुक्तिबोध की साझा जमीन को पहचान
सकते हैं जिसमें मध्यवर्गीय लोग अपने सपनों को अपने ही हाथों मार डालते
चित्रित होते हैं । कहां तो इस बंदिश से सपनों को आजाद करने की ऐसी तड़प भरी चाहत और कहां ऐसे तकलीफदेह हालात कि
‘मेरे कसबे पर, मेरी उम्र पर, मेरे शीशे पर, मेरे ख्वाब पर,
ये जो पर्त पर्त है जम गया, किन्हीं फ़ाइलों का गुबार है ।’
फ़ाइलों की धूल का पर्त पर्त जम जाना हमारे आधुनिक समाज की एक भयावह संस्था
(नौकरशाही) की दमघोंटू जकड़बंदी है । कहने की जरूरत नहीं कि पूंजीवादी आधुनिकता की
इस सौगात की ताकत और उसकी विडम्बना को तमाम चिंतकों और लेखकों ने उजागर किया । इस
संस्था ने व्यक्तियों की निजी पहचान को समाप्त करके उन्हें पद मात्र में बदल दिया था । इसकी कठोर तार्किकता ने शासन से समस्त मानवीय पहलुओं को
सोख लिया और समूचा समाज पदसूचक वर्दी की खाक से भर गया । विश्व साहित्य में सबसे तीखेपन के साथ इस संस्था का विवेचन
रूसी साहित्य में हुआ । व्यक्ति से उसकी नाक यानी उसका पद इस हद तक अलग हो गया कि गोगोल की कहानी
में एक रिक्शे पर व्यक्ति तो उसकी नाक दूसरे रिक्शे पर जाने
लगे । नाक की रक्षा व्यक्ति की रक्षा से अधिक महत्वपूर्ण हो गयी । चेखव की मशहूर
कहानी ‘एक क्लर्क की मौत’ तो याद होगी ही जिसमें क्लर्क इसलिए मर जाता है क्योंकि
थिएटर में उसकी छींक के छींटे उसके कार्यालयी अधिकारी के खल्वाट सिर पर पड़ गये थे
। मिलान कुंदेरा ने काफ़्का की सबसे बड़ी ताकत के बतौर इस बात का उल्लेख किया है कि
समाज में एकरूपता पैदा करने वाली इस संस्था के चलते ही काफ़्का के सभी पात्रों का
नाम समान है । इस कार्यालयी व्यवस्था के जरिये जो बदलाव आया उसे हिंदी में
प्रेमचंद ने अपने उपन्यास ‘गबन’ में पहचाना था । इन कार्यालयों में व्यक्ति की
पहचान उसकी फ़ाइल तक सीमित रह जाती है इसे हरिशंकर परसाई ने भी अपनी कहानी ‘भोलाराम
का जीव’ में दर्ज किया । इन्हीं फ़ाइलों का गुबार मध्यवर्गीय व्यक्ति के ख्वाब पर
जम जाता है जिसे आजाद करने की जरूरत गोरख समझते हैं ।
हमारे समाज की घनघोर
सामंती व्यवस्था में सपना कितना कठिन हो सकता है इसे उनकी ‘बुआ के लिए’ कविता में
देखा जा सकता है । ‘वह सुखी हो सकती थी’ लेकिन विधवा होने के बाद ‘--अब सुख का
सपना/ देखना भी उसके लिए पाप होगा’ । अन्याय का तंत्र केवल सामंती समाज में ही काम
नहीं करता, आधुनिक समाज में
उसका रूप और भी परिष्कृत हो जाता है । हमारी यह आधुनिक समाज व्यवस्था भी जिस कानून
के सहारे चलती है ‘वह हमारी निगाहों और सपनों में खौफ़ बनकर समा जायेगा’ । सपनों को
देखने की चाहत से पारम्परिक व्यवस्था के टूटने का खतरा इस कदर पैदा होता है कि
जमींदार को बहुत बुरा लगता है कि तिलकू अपने बेटे को ‘हाकिम बनाने के ख्वाब देखता
है/ अपनी जमीन होने का ख्वाब देखता है/ हालाँकि ख्वाबों में भी/ उसे डंडे पड़ते
हैं/ मगर उन्हें देखना नहीं छोड़ता’ । इन सपनों की ताकत इतनी है कि तिलकू ‘कल तक
प्रलय भी मचा सकता है’ । जनता के सपनों से थर-थर काँपता
जालिम उनके लिए कारागार बनवाता है जहाँ ‘कितने सपनों की कोमलता को डसकर/ उसमें
पलता क़ातिल का स्वप्न सुनहरा/ लेकिन— वह साँस-साँस अब हार रहा है लोगो !’ भले आदमियों
से इस लोगो का अंतर देखने लायक है ।
सपनों पर लगे इन तमाम पहरों
के कारण वे मृत्युग्रस्त हो जाते हैं तब ‘एक बूढ़ा माली---फूल और उम्मीद’ रख जाता
है । अन्यायी व्यवस्था ने जिन हालात को जन्म दिया है तज्जनित कष्ट में उम्मीद बहुत
बड़ी चीज होती है तभी तो ‘सात सुरों में पुकारता है प्यार’ में जिस जोगी के साथ
जाने का इरादा माँ से लड़की जाहिर करती है ‘सिर्फ एक बाँसुरी थी उसके हाथ में’
लेकिन ‘आँखों में आकाश का सपना’ । कमजोर
साधन के बावजूद आकाश पाने की आकांक्षा की कठिन अवस्था ने ही मानो उसके ‘पैरों में
धूल और घाव’ भर दिया था । यहाँ अनायास मुक्तिबोध की याद आती है ‘वे आस्थाएँ तुमको
दरिद्र करवाएँगी’ ।
जब सपने आजाद होते हैं
तो दुनिया को उनके अनुरूप गढ़ने की तमन्ना पैदा होती है । इन सपनों के मुताबिक
दुनिया को होना चाहिए । इस खयाल के लिए भी सोच का साहस जरूरी है । ‘जरा-सा सोचो कि
कैसा हो गर, तुम्हारे ख्वाबों का ये जहाँ हो’ । गोरख के सपनों की दुनिया उनके एक
गीत में फलित हुई है जिसका शीर्षक ही ‘सपना’ है । उसमें हमारे देश के किसान की
सबसे बड़ी चाहत यानी खेत का स्वामित्व बहुत दुख उठाने के बाद हासिल होता है- ‘अँखिया के नीरवा भइल खेत सोनवा/ त
खेत भइलें आपन हो सखिया’ । खेत के मालिक की लाठी को तोड़ देने का हुलास तो देखिये ‘गोसयाँ
की लठिया मुरइया जस तूरलीं’ और ‘भगवलीं महाजन हो सखिया’ । महाजन केवल कोई ठोस
मनुष्य नहीं है, बल्कि पूँजी की सत्ता का प्रतीक है जिसे समाप्त किये बिना साजन भी
नहीं मिलते । ‘बइरी पइसवा के रजवा मेटवलीं/ मिलल मोर साजन हो सखिया’ । यहाँ फिर से
उनकी दार्शनिक दृष्टि का जिक्र जरूरी है । मनुष्य की चाहत को पूरा करने का एकमात्र
माध्यम बनकर धन की सत्ता उससे सब कुछ छीन लेती है । उसका साजन भी धन के साधन में बदल
जाता है और दो लोगों के बीच का मानवीय प्रेम का रिश्ता धन की लेनदेन तक सीमित हो जाता
है इसलिए पैसे का राज मिटाये बिना साजन भी हासिल नहीं हो सकते ।
गोरख की अभिव्यक्ति का
निखार सबसे अधिक उनके गीतों में हुआ है । इन गीतों की भाषा भोजपुरी न भी हो तो
उनकी लय में भोजपुरी लहराने लगती है । सपनों के पूरा होने की तान ‘आशा का गीत’ के
अंत में नृत्य में बदल जाती है ‘सपनों के सतरंगी डोरी पर/ मुक्ति के फरहरे लहराएंगे’
। मुक्ति के उपरांत की दुनिया का सपना ही ‘वतन का गीत’ में प्रतिफलित हुआ है । सपना
है कि ‘न हो कोई राजा न हो रंक कोई/ सभी हों बराबर सभी आदमी हों’ । इस सपने का एक नाम इन्कलाब भी है
जिसके गीत में गोरख बताते हैं ‘खतम हो लूट किस तरह जवाब इन्कलाब है/ खतम हो किस तरह सितम जवाब इन्कलाब है’ । ध्यान दीजिये कि लूट और सितम एक दूसरे
के साथ जुड़े हुए हैं । लूट का राज चलाने के लिए ही सितम की जरूरत पड़ती है ।
सपनों के सहारे मुक्ति
हासिल होने पर गोरख का यकीन दीवानगी की हद तक महसूस होता है । इतने नाजुक हथियार
पर उनका अटूट भरोसा भयावह लगता है । इस जानलेवा भरोसे की अभिव्यक्ति दिल्ली के
बारे में उनके एक कथन में हुई है । ‘गालिबो-ओ-मीर की दिल्ली देखी देख के हम हैरान
हुए/ उनका शहर लोहे से बना है फूलों से कटता जाए है’ । लोहे के बने शहर को फूलों
से काट देने की जिद ही वह चीज है जो गोरख को गोरख बनाती है । यही बात उनके लगभग सभी
समकालीनों से उन्हें अलग खड़ा कर देती है । यही जिद उन्हें मध्य वर्ग के दुख का महिमा मंडन
करने के समय लोगों की भलाई की चिंता के साथ जोड़ देती है । इस नाजुक यकीन ने उनकी
जान ले ली लेकिन लोहे को फूल से काट देने की इस आकांक्षा पर रोक तो नहीं लगायी जा
सकती । जब कभी हालात बुरे हों और हमारे सामने विकल्प सीमित नजर आयें तो उन्हें अतिक्रमित
करने का साहस जिन सपनों से पैदा होता है उनका मर जाना पाश ने यूँ ही सबसे खतरनाक नहीं
कहा था । इन पुरखों ने सपनों में भरोसा बनाये रखने की हिम्मत हमें सौंपी है । उसे आगे
ले जाने का दायित्व हमारा है ।
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