बलिया या आजमगढ़ के लोगों की तरह गाजीपुर के लोगों को गर्व करते नहीं देखा लेकिन उनके पास गर्व करने को बहुत कुछ है । सबसे पहले यही कि बलिया का निर्माण गाजीपुर से ही टूटकर हुआ है । अगर 1942 में बलिया को आजाद करा लिया गया था तो उसी 1942 में 18 अगस्त को मुहम्मदाबाद में तहसील पर झंडा फहराने के प्रयास में एक ही गांव के आठ नौजवानों ने गोली खाकर शहादत दी थी । जिस गांव का बाशिंदा था उसके पड़ोस के गांव में कार्नवालिस की जान चेचक के कारण निकली थी । बहुत बाद में जिला मुख्यालय पर उसकी भव्य कब्र देखी । अंग्रेजी स्थापत्य के सौंदर्य का वह नमूना है । उसी मुख्यालय पर अफीम का कारखाना है जिसका जिक्र मात्र सुना करते थे । कारखाने से निकलते पानी को पीकर बंदर अलसाये रहते हैं । बाद में अमिताभ घोष के उपन्यास ‘सी आफ़ पापीज’ में उसकी मौजूदगी नजर आयी । हम देहाती बालकों को जिला मुख्यालय की कहानियों से ही संतुष्ट होना पड़ता था । कहते हैं अगर सैयद अहमद खान का तबादला न हुआ होता तो जो विश्वविद्यालय अलीगढ़ में खुला उसे गाजीपुर में ही खुलना था । पढ़ने के लिए बनारस गया तो बसें मुख्यालय से होकर गुजर जाती थीं । इन्हीं वजहों से जिला मुख्यालय हमारे मानसिक भूगोल का जीवंत हिस्सा नहीं था । जब राजनीतिक मित्र रामविलास यादव ने मुख्यालय स्थित स्नातकोत्तर कालेज में दाखिला लिया तब मुहब्बत बढ़ी । वे ही पी एन सिंह से परिचय का माध्यम भी बने ।
तब तक उच्च शिक्षा का बंटाधार नहीं
हुआ था इसलिए जिला मुख्यालयों पर भी बेहतर शिक्षा संस्थान और अध्यापक मिल जाया
करते थे । तब वहां छात्रसंघ भी हुआ करते थे जो सत्ता विरोधी आदर्शवादी युवकों के
राजनीतिक प्रशिक्षण का काम करते थे । रामविलास अध्यक्ष का चुनाव लड़ रहे थे और
प्रचार के दौरान पी एन सिंह की कक्षा में गये । बाद में पी एन सिंह ने उन्हें
मिलने के लिए घर बुलाया था । यह उनकी नौजवानों से जुड़ने की ललक थी जिसके चलते बाद
में भी समकालीन सोच की गोष्ठियों में नौजवानों की आमद देखकर प्रसन्न तो होते ही,
उनसे बराबरी के स्तर पर संवाद भी बनाते थे । रामविलास के चुनाव प्रचार में जाने पर
उन्होंने पी एन सिंह का जिक्र किया । मुलाकात हुई और एकाधिक बार हुई । एक बार कमल
भाई और लाल बहादुर जी के साथ भी गये थे । पार्टी की ओर से छपी ‘फ़्लेमिंग फ़ील्ड्स
आफ़ बिहार’ की प्रति भी उन्हें दी । हम युवक वामपंथ की पुरानी परम्परा से अनजान थे
और पी एन सिंह उसमें धंसे थे फिर भी हम सबसे बहुत लगाव से बातचीत करते । उनके मुंह
से खासकर पब्बर राम का जिक्र बहुत सम्मान के साथ अक्सर सुना था ।
कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर के
ईमानदार कार्यकर्ताओं से हम भी संवाद रखना चाहते थे लेकिन उम्र और अनुभव के विराट
अंतर ने संवाद को कभी सार्थक न होने दिया । हमारे इलाके के सबसे मशहूर नेता सरयू पांडे ने तो हरिवंशी मास्टर की गिरफ़्तारी पर कुछ करने से भी इनकार कर दिया था और जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करते हुए गाली भी दी थी । अलबत्ता जहूराबाद से कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व विधायक जयराम सिंह से अच्छी मित्रता रही । उनकी पार्टी के वे दिन बीत चुके थे जब नौजवान भी पार्टी में आते थे । ऐसे में हम युवकों को देखकर वे न केवल उत्साहित होते वरन गाहे ब गाहे चंदा भी दे देते थे । इसी तरह के एक और कार्यकर्ता रामायण यादव थे जो हुस्सेपुर के निवासी थे । बाद में वे कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से ब्लाक प्रमुख भी रहे । अफ़जाल अंसारी का भी नाम सुना लेकिन कभी मुलाकात नहीं की । बाद में वे विधायक बने और फिलहाल सांसद हैं । इन सबका जिक्र इसलिए क्योंकि पी एन सिंह का गांव बासुदेवपुर भी हमारी सक्रियता की सीमा में आता था ।
इसके चलते ही जब एक बार नौजवान सभा का गठन हुआ तो पी एन सिंह को उद्घाटन के लिए आमंत्रित किया । वे आये और बहुत लगाव और जोश के साथ बोले । सम्मेलन में जो दस्तावेज पेश किया गया उसकी तारीफ करते रहे । अब लगता है कि हम सबको देखकर उन्हें अपनी युवावस्था के दिन याद आते रहे होंगे जब वे कम्युनिस्ट पार्टी की ओर खिंचे थे । विधायक या सांसद बन जाने के बाद भी अपनी सहजता बनाये रखने वाले इन कार्यकर्ताओं के बीच से ही बौद्धिकों की वह पीढ़ी निकली थी जिसके सदस्य पी एन सिंह भी थे । जिला मुख्यालय के एकमात्र स्नातकोत्तर कालेज के अंग्रेजी के ख्यातिलब्ध प्रवक्ता होने के बावजूद उनमें नये सवालों के प्रति खुलापन तो रहा ही, नये कार्यकर्ताओं से भी संवाद अटूट रहा ।
समकालीन सोच की शुरुआत वाली गोष्ठी याद है । उसमें नगर के लगभग सभी बौद्धिक शामिल थे । बाद में इस पत्रिका को उन्होंने तमाम जीवंत बहसों का केंद्र बना दिया था । राजीव गांधी के शासन के विरोध में जब विश्वनाथ प्रताप सिंह देश भर में घूम रहे थे तो गाजीपुर भी आये थे और बौद्धिकों की एक सभा में हम सबके दिये गये सवालों के उत्तर में दो घंटे धाराप्रवाह बोलते रहे थे । पी एन सिंह ने बाद में गाजीपुर में देश भर के बौद्धिकों को बुलाकर भाषण कराने का जबर्दस्त सिलसिला अपनी पत्रिका के माध्यम से शुरू किया था । गाजीपुर के चेतन बौद्धिक समुदाय को अद्यतन सोच से परिचित कराने का यह अभियान उनके बाद वारिस की तलाश में है । आशा है कोई सभा या व्यक्ति उनकी इस अपेक्षा को जरूर पूरा करेगा ।
आगे के अध्ययन के लिए दिल्ली चले
आने के बाद भी मुलाकातें जारी रहीं । उस दौरान नामवर सिंह के साथ ही तुलसी राम का जिक्र अक्सर सुनाई देता । बाद में तुलसी राम
और पी एन सिंह की आत्मकथाओं से इनकी आपसी दोस्ती का पता चला । असल में वे हमेशा ही नयी सोच से संवाद करने के हामी रहे और लगातार ऐसे लोगों की खोज करते रहे जिनके जरिये उनकी बौद्धिक ऊर्जा जाग्रत रहे । मेरे रहते ही काशी हिंदू विश्वविद्यालय आना जाना शुरू हुआ जो बाद में भी सदानंद शाही के कारण बना रहा ।
अध्यापन की दुनिया में जब मेरा प्रवेश हुआ और बाहर से किसी को बुलाने का सुभीता मिला तो महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में उनको अतिथि व्याख्यान के लिए बुलावा भेजा । वे न केवल आये बल्कि मराठी विद्वानों के साथ बेहद उत्सुकता के साथ देश दुनिया की बातें करते रहे । लगता है उसी प्रवास ने उनके भीतर अंबेडकर के बारे में रुचि को जन्म दिया था । वर्धा प्रवास के अपने अनुभवों का जिक्र उन्होंने अपनी किताबों में किया भी है । गांधी के प्रति उनके आकर्षण को भी वर्धा में ठोस जगह मिली ।
कुल मिलाकर वे मेरे लिए ऐसी मौजूदगी थे जिनके रहने से भरोसा था कि गाजीपुर जाने पर किसी से ताजा पढ़े लिखे पर बात की जा सकती है । अंग्रेजी के अध्यापक होने के बावजूद हिंदी में लिखने बोलने वालों की कतार में होने का उनको गर्व था । एक बार फोन करके उन्होंने बोलने के लिए गाजीपुर बुलाया भी । गया तो अस्वस्थ होने के बावजूद आये और सभा की अध्यक्षता की । उनकी बौद्धिक बेचैनी के साथ ही साहसिक ईमानदारी भी अंत तक कायम रही । उनकी आत्मकथा को पढ़ने के बाद अफ़सोस हुआ कि जिस जमाने में पार्टी कार्यकर्ता था उस समय उनकी इस सक्रियता का पता होता तो निश्चय ही अधिक घनिष्ठ और कार्यकारी रिश्ता बनाया होता लेकिन आखिर जीवन इसी तरह के छूटे अवसरों का तो नाम है । गाजीपुर से गुजरते हुए अब उनकी याद ही आयेगी ।
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