अन्य भाषाओं के बारे में नहीं मालूम लेकिन
हिंदी में दलित साहित्य को अपनी जगह बनाने के लिए शायद किसी भी साहित्यिक
प्रवृत्ति से अधिक जूझना पड़ा है । उसकी प्रतिष्ठा के विरोध में लगभग उसी किस्म की
गोलबंदी हुई जिस तरह की गोलबंदी देहाती इलाकों में दलित समुदाय की उपस्थिति को
अदृश्य बनाने के लिए की जाती रही है । इन सबके बावजूद उसने उसी संघर्ष क्षमता का
परिचय दिया जो खेती के मामले में उस समुदाय के जुझारूपन की विशेषता रही है ।
इस समय दलित साहित्य के सामने दोहरी चुनौती है
। एक तो यह कि संस्थाओं के भीतर स्वीकृति के साथ उसे अपने मूल आंदोलनात्मक स्वरूप को
बचाए रखने के लिए सचेत रहना होगा । वैसे दक्षिणपंथ के नए उभार के साथ उसके बहिष्करण
की नई कोशिशों का भी जन्म स्वाभाविक है । स्थापित जातिवादी व्यवस्था हमेशा से विद्रोही
धाराओं को या तो बहिष्कार या सुपाच्य बनाकर निगलने की नीति अपनाती रही है । यदि
सम्भव हो पूरी तरह से ओझल करने की भी कोशिश होती है लेकिन अगर सामर्थ्य दिखाई पड़े
या बार बार प्रकट हो तो उपरोक्त प्रयास होते हैं । असल में पचाने की राह की सबसे
बड़ी बाधा ब्राह्मणवाद है । जातिगत ऊंच नीच की विचारधारा हमारी सामाजिक व्यवस्था
में इतनी मजबूती से जड़ जमाकर बैठी है कि विवेकानंद से लेकर गांधी तक तमाम सुधारकों
की कोशिशों के बावजूद सामंती मानसिकता से हिंदू सवर्ण समुदाय मुक्त नहीं हो सका है
। लगता है कि जातिवाद की समाप्ति देश के बुनियादी रूपांतरण के बिना सम्भव नहीं है ।
आरक्षण जैसे अल्प सुधार के उपायों तक का जितना हिंसक विरोध देखने में आता है उससे यही
सिद्ध होता है कि इस दिशा में छोटी सी कोशिश भी बिना प्रतिरोध के मंजूर नहीं की जाएगी
। यहां तक कि दलित मुक्ति के विभिन्न प्रयासों तक पर भी यह ब्राह्मणी सोच असर
डालने में सक्षम साबित हुई है । यह असर कई बार अंबेडकर की सोच के क्रांतिकारी तत्व
को ग्रहण करने में बाधा डालती है । पूंजीवाद और जातिवाद के विरोध में एक साथ लड़ने
की जगह दोनों को अलग कर दिया जाता है । जिस अंबेडकर ने मनुस्मृति को जलाया था
उन्हें ‘आधुनिक मनु’ कहने
वालों के साथी भी प्रकट हुए हैं । इस असर से मुकाबले के साथ ही पितृसत्ता की
विचारधारा से भी लड़ना जरूरी है क्योंकि वह हमारे समाज का एक और बड़ा कोढ़ है ।
इसीलिए उसे अपने भीतर के मर्दवाद से भी जूझना होगा । भारतीय परिवारिक ढांचे में मौजूद
विषमता स्त्री को हीन साबित करने पर टिकी रही है । कुछ दलित लेखकों में इस मर्दाना
अहंकार की अनुगूंजें सुनाई पड़ती रही हैं । इसके विरोध में दलित साहित्य के भीतर नारीवादी
स्वर भी उठे हैं ।
नए समय ने दलित साहित्य के सामने जहां नई चुनौतियां
पैदा की हैं वहीं नई सम्भावनाओं के दरवाजे भी खोले हैं । विचारकों और लेखकों को वर्तमान
व्यवस्था के भीतर ही स्वाभिमान और मुक्ति की राह दिखाई पड़ती थी । शासकों ने इस राह
को बंद करने का निश्चय कर लिया है । देश के शिक्षा संस्थान और संसद ऐसी जगहें थीं जहां
दलित समुदाय का न केवल प्रवेश होता था बल्कि उनकी आवाज उठाने का मजबूत माध्यम भी ये
संस्थान थे । इन संस्थाओं में दलित बौद्धिक और नेता पैदा तो होते ही थे अपने समुदाय
के आगे बढ़ने और समाज में प्रतिष्ठा के प्रतीक भी थे । दलित साहित्य के लेखक और पाठकों
का निर्माण शिक्षा के जरिए होता था । इन लेखकों के जीवन पर नजर डालने से बहुत कुछ वैसी
ही तस्वीर उभरती है जैसी तस्वीर अंग्रेजी साहित्य के अध्ययन के सिलसिले में स्त्रियों
की थी । उच्च शिक्षा संस्थाओं में उनका प्रवेश नहीं होता था तो वे साहित्यकारों के
नाम पर गठित मंडलियों के जरिए अंग्रेजी साहित्य की दुनिया में अपने आपको बनाए रखने
में कामयाब हुईं । दलित साहित्य के लेखक केवल हिंदी साहित्य के अध्यापक नहीं हैं बल्कि
दलित समुदाय के लगभग सभी शिक्षित जन इसके साथ जुड़े हुए हैं । नए हालात में शिक्षा संस्थान
में दलित समुदाय के प्रवेश को रोकने के लिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीकों का इस्तेमाल
किया जा रहा है ।
इसका प्रत्यक्ष तरीका शिक्षा हेतु आवश्यक
संसाधनों तक पहुंच सीमित करना और आरक्षण के साथ तमाम बहानों से छेड़छाड़ है तो
परोक्ष तरीकों में शिक्षा को कमजोर तबकों के लिए अप्राप्य बनाने के लिए निजी
शिक्षा संस्थानों को बढ़ावा देना और उच्च शिक्षा को महंगा बनाना है । हम जानते हैं
कि उच्च शिक्षा के निजी संस्थान सार्वजनिक संस्थानों से अधिक हो गए हैं । अब तो इन
संस्थानों को सरकारी सहायता देने के उपाय खोजे जा रहे हैं और उन्हें नीति निर्माण
के सरकारी निकायों में भी जगह दी जा रही है । सर्वविदित है कि इनमें आरक्षण नहीं
लागू किया जाता । ऊपर से साहित्य के साथ इसका संबंध स्पष्ट नहीं होता लेकिन
साहित्य को लिखने और पढ़ने अर्थात लेखक और पाठक बनाने के लिए बहुत हद तक शिक्षा
संस्थान जिम्मेदार होते हैं । इसी तरह साहित्य के साथ जुड़े दो क्षेत्र ऐसे हैं जो
पूरी तरह से निजी क्षेत्र में हैं इसलिए इनमें दलित समुदाय का प्रतिनिधित्व न के
बराबर है । मीडिया के सभी रूप और प्रकाशन का समूचा तंत्र दलित समुदाय से लगभग खाली
है । इसके चलते दलित लेखन के महत्व की यथोचित स्थापना नहीं हो पाती ।
बहिष्करण के इन नए तरीकों और आवाज उठाने के
उपलब्ध लोकतांत्रिक मंचों के निस्सार होते जाने से दलित आंदोलन और फलस्वरूप दलित
साहित्य नए प्रसंगों से जुड़ रहा है । उदाहरण के लिए खेती और आवास के लिए जमीन का
सवाल बुनियादी होने के बावजूद उपेक्षा का शिकार रहा था । जमीन पर मुट्ठी भर कुलीन
लोगों का कब्जा तोड़ने के लिए अंबेडकर ने भूमि के राष्ट्रीकरण का प्रस्ताव किया था
। भूमि पर मालिकाना केवल संसाधन नहीं है बल्कि सामाजिक हैसियत से इसका सीधा संबंध
होता है । हाल के गुजरात और पंजाब के दलित आंदोलनों में यह सवाल तीखे ढंग से उठा
है । कहने की जरूरत नहीं कि दलित साहित्य को दलित आंदोलन से अलगाना मुश्किल है ।
इसी तरह शासक समूह की ओर से लोकतंत्र को धता
बताने के साथ दलित युवाओं में आंदोलन के प्रति आस्था बढ़ी है । इस माहौल में सांस
लेने वाला नौजवान स्वाभाविक तौर पर किसी स्थापित पार्टी की छत्रछाया के मुकाबले
स्वतंत्र दावेदारी पर अधिक भरोसा करेगा । हिंदी में दलित साहित्य ने विधाओं की
सीमा में बंधना कभी मंजूर नहीं किया । आत्मकथा, कविता, कहानी और आलोचना में उसकी
मजबूत उपस्थिति रही है । आशा है आगामी दिनों में साहित्येतर लेखन में भी उसकी धमक
सुनाई देगी । खास तौर पर दर्शन और अर्थशास्त्र समेत सामाजिक विज्ञान श्रम की छाप
के बिना व्यर्थ महसूस होते हैं और विचार के साथ साहित्य के संबंध से इनकार करना
अनुचित होगा ।
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