हमारे देश की तरह ही समूची दुनिया में लोकतांत्रिक शासन और उससे जुड़ी संस्थाओं को शासक समूहों की ओर से मटियामेट किया जा रहा है ।
असल में इस प्रक्रिया को लोकतंत्र के साथ पूंजी के शासन की असहजता के सहारे समझा
जा सकता है । सामंती शासन की समाप्ति के साथ लोकतंत्र का विचार आया लेकिन पूंजी की
प्रभुता के पैरोकार लोकतंत्र को कभी हजम नहीं कर सके । एरिक हाब्सबाम ने उन्नीसवीं
सदी के इतिहास में बताया है कि मताधिकार में विस्तार का पूंजीपतियों ने हमेशा
विरोध किया और जब कभी उसकी ताकत में इजाफा हुआ उसने लोकतंत्र का गला घोंटने की
चेष्टा की । इसी आधार पर उनका दावा है कि फ़ासीवाद को विजय उन्हीं देशों में मिली
जिनमें लोकतंत्र था । इतिहास से सिद्ध है कि जब तक पूंजीपतियों का अबाध शासन चलने
में बाधा नहीं आई तब तक उन्होंने लोकतंत्र को बर्दाश्त किया लेकिन ताकत बढ़ते ही
उन्होंने लोकतंत्र को उखाड़ फेंका और मुनाफ़े के लिए फ़ासीवादी निजाम की शरण ली । अमेरिका
और हमारे देश में फिलहाल यह प्रक्रिया सबसे स्पष्ट दिखाई दे रही है लेकिन अन्य देश
भी गणतंत्र के अपहरण की इस प्रक्रिया से अछूते नहीं हैं ।
इस विशेष परिघटना को ‘ऊपर से क्रांति’ भी कहा
जाता है । आम तौर पर क्रांति का मतलब नीचे से जनता के सवालों को लेकर की जाने वाली
गोलबंदी और सामाजिक बदलाव होता है लेकिन जब समाज के ऊपरी मलाईदार तबके अपने हित
में तमाम तरह के बदलाव जनता पर थोप दें तो उसे समझना मुश्किल होता है । नवउदारवाद
को इसी तरह की क्रांति समझा जाना चाहिए जिसमें नियम-कानून और सरकारी नियंत्रण के
विरोध में शासक समूह ही खड़ा हो गया ।
अमेरिका में इस प्रक्रिया को पहचानने के सिलसिले
में 2017 में वाइकिंग
से नैन्सी मैकलीयन की किताब ‘डेमोक्रेसी इन चेन्स: द डीप हिस्ट्री आफ़ द रैडिकल राइट’स स्टील्थ प्लान फ़ार
अमेरिका’ का प्रकाशन हुआ । जार्ज मोनबियाट ने एक लेख में इस किताब
के लिखे जाने का रहस्य बताया है । लेखिका इतिहास की अध्येता हैं और संयोग से
2013 में उन्हें जेम्स मैकगिल बुकानन के कागजात देखने को मिले । बुकानन
नवउदारवाद की विचारधारा से प्रभावित थे और संपत्ति के मनचाहे तरीके से अबाध उपयोग के
अधिकार को ही स्वाधीनता समझते थे । इस अधिकार पर रोक लगानेवाली संस्थाओं को वे उत्पीड़न
का ऐसा औजार मानते थे जो अयोग्य जनसाधारण के हित में संपत्ति का शोषण करती हैं । उनका
मानना था कि समाज को तब तक स्वतंत्र नहीं कहा जा सकता जब तक उसके प्रत्येक नागरिक को
उसके फैसलों पर रोक लगाने का निर्णायक अधिकार न हासिल हो । उनका यह भी मानना था कि
बिना मंजूरी के किसी पर टैक्स नहीं लगाना चाहिए । लोकतंत्र में मतदान का इस्तेमाल करके
सामान्य लोग दूसरे के कमाए हुए धन में सामाजिक कल्याण और सार्वजनिक व्यय के नाम पर
बेवजह हिस्सा मांगते हैं । लोकतंत्र और धनिकों की आजादी में टकराव होने पर आजादी के
पक्ष में निर्णय होना चाहिए । उनका कहना था कि इस आजादी को साकार करने के लिए लोकतंत्र
पर बंदिश लगानी होगी । इसके लिए वे सरकार की ओर से समान शिक्षा को खत्म करके शिक्षा
को निजी हाथों में सौंपने का रास्ता सही मानते थे । इन शिक्षा संस्थानों में विद्यार्थियों
से उनकी पढ़ाई का पूरा खर्च उगाहने की उन्होंने वकालत की । सरकार की तमाम जिम्मेदारियों
को भी निजी हाथों में सौंपने की वकालत उन्होंने की । वे जनता और सरकार के बीच सम्पर्क
तोड़ देने के पक्ष में थे । कुल मिलाकर वे लोकतंत्र से पूंजीवाद की रक्षा करना चाहते
थे ।
इसके अगले साल
2018 में हार्वर्ड
यूनिवर्सिटी प्रेस से यास्चा मुन्क की किताब ‘द पीपुल वर्सस
डेमोक्रेसी: ह्वाई आवर फ़्रीडम इज इन डैंजर ऐंड हाउ टु सेव इट’
का प्रकाशन हुआ । वर्तमान समय को समझने के लिए लेखक कहते हैं कि आम
तौर पर इतिहास की गति धीमी होती है लेकिन कभी कभी उसकी गति तेज हो जाती है ।
राजनीतिक रंगमंच पर अभी अभी आए हुए लोग उलट पुलट मचा देते हैं । जनता अचिंत्य
नीतियों के पीछे पागल हो जाती है । नीचे नीचे खदबदाते हुए सामाजिक तनाव भयानक
विस्फोट के रूप में प्रकट होने लगते हैं । शासन का स्थायी प्रतीत होने वाले ढांचे
भहराकर बिखरने लगते हैं । उनके मुताबिक हमारा समय ऐसा ही समय है । हाल तक उदारवादी
लोकतांत्रिक शासन ही एकमात्र सही तरीका महसूस होता था । इसकी कमियों के बावजूद
नागरिकगण इससे प्रतिबद्ध थे । अर्थतंत्र विकासमान था । अतिवादी राजनीतिक पार्टियां
हाशिए पर थीं । लगता था कि भविष्य का चेहरा अतीत से बहुत अलग नहीं रहेगा । लेकिन
जब भविष्य आया है तो उसे पहचानना मुश्किल हो रहा है । पार्टी व्यवस्था अनंत प्रतीत
होती थी । अब जनभावनाओं पर सवार होकर दुनिया के तमाम देशों में तानाशाह सत्ता पर
काबिज हो रहे हैं । उन पर पार्टियों का कोई अंकुश नहीं रह गया है । लोकतंत्र के
इसी संकट की सबसे नाटकीय अभिव्यक्ति ट्रम्प जैसे शासकों के चुने जाने में हुई है ।
सवाल यह है कि
यह दौर बीत जाएगा या लोकतंत्र को स्थायी रूप से नष्ट कर देगा । सोवियत संघ के पतन के
बाद उदार लोकतांत्रिक शासन को दुनिया भर में विजयी माना जा रहा था । उसकी जीत का कारण
किसी सुसंगत विकल्प की गैरमौजूदगी थी । लगता था कि भविष्य इसका ही है । फ़ुकुयामा ने
इस बात को जोरदार तरीके से प्रस्तुत किया था । उनके दावे पर आशंका जाहिर करते हुए बहुतेरे
लोगों ने कहा कि पश्चिम के इस निर्यात को कई देश नामंजूर भी कर सकते हैं । कुछ लोगों
को उम्मीद थी कि उदार लोकतंत्र से भी अधिक न्यायपूर्ण और प्रबुद्ध शासन की खोज मानवता
कर सकती है । जो लोग उसके विश्वव्यापी प्रसार के बारे में आशंकित थे वे भी पश्चिम में
उसकी निरंतरता के बारे में निश्चिंत थे । गरीब मुल्कों में तो इसकी अस्थिरता नजर आती
थी लेकिन धनी देशों के लिए इसकी मौजूदगी शाश्वत समझी जाती थी । द्वितीय विश्वयुद्ध
के बाद के समूचे इतिहास को लोकतांत्रिक सुदृढ़ीकरण की प्रक्रिया के रूप में समझे जाने
की वकालत शुरू हो गई थी । लोकतंत्र को टिकाऊ बनाने के लिए शिक्षा और समृद्धि को जरूरी
समझा जाने लगा । इसके लिए जागरूक नागरिक समाज और अदालत जैसी संस्थाओं की स्वायत्तता
की रक्षा महसूस हुई । लगभग सभी राजनीतिक ताकतों ने मान लिया था कि उनके बाहुबल या धनबल
के मुकाबले मतदाताओं की राय से राजनीतिक नतीजे तय होंगे । अब ये सभी लक्ष्य छलावा सिद्ध
हो रहे हैं । लोकतंत्र में बौद्धिकों के दीर्घकालीन भोले यकीन पर सवाल उठ रहे हैं ।
अब तो चुनाव के जरिए सत्ता परिवर्तन की संभावना में भी संदेह पैदा हो रहा है ।
बात यह है कि
लोकतंत्र और उदारवाद को समान माना जाता रहा है । इन दोनों की मार्फ़त जनता अपने
अधिकारों को तय करती थी और उन्हें सुरक्षित बनाए रखती थी । इस तरह की व्यवस्था में
निचले तबकों के अधिकारों को संपन्न लोगों द्वारा कुचलने के विरुद्ध एक हद तक
रुकावट आती थी । उसी तरह अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा और प्रेस को सरकार की
आलोचना करने की आजादी भी इसके अभिन्न अंग थे । इन सबसे मिलकर उदार लोकतांत्रिक
शासन प्रणाली का ताना बाना बनता था । इसके सुचारु संचालन के लिए उदारवाद और
लोकतंत्र का साहचर्य जरूरी माना जाता था । उदारवाद का क्षरण होते ही लोकतंत्र
बहुसंख्या की तानाशाही में बदल जाता है । इसी तरह धनकुबेरों को खुली छूट मिलने से
निर्णय की प्रक्रिया में से जनता बहिष्कृत होने लगती है । इस समय लगभग समूची
दुनिया में ये दोनों ही प्रक्रियाएं बड़े पैमाने पर चल रही हैं ।
2018 में ही क्राउन से स्टीवेन लेवित्सकी और डैनिएल ज़िबलात की चर्चित किताब
‘हाउ डेमोक्रेसीज डाइ’ का प्रकाशन हुआ । दोनों
लेखक बहुत दिनों से संसार के अलग अलग हिस्सों में लोकतंत्र के समक्ष उपस्थित खतरों
के बारे में लिखते रहे थे । उन्हें उम्मीद नहीं थी कि अमेरिका में लोकतंत्र की
अवस्था के बारे में भी उन्हें लिखना होगा । अन्य देशों के बारे में अध्ययन से उन्हें
लोकतंत्र के अवसान के बारे में जो संकेत मिले थे उन्हें वे अमेरिका में पिछले दो
सालों से घटित होते देख सुन रहे हैं । उन्हें लोकतंत्र के भंगुर होने का अंदाजा तो
था लेकिन यकीन था कि अमेरिका में इसकी बुनियाद पक्की है । संविधान, स्वतंत्रता और समता पर बल, मजबूत मध्य वर्ग, उच्च स्तर की शिक्षा और संपत्ति तथा व्यापक और विविधतापूर्ण निजी क्षेत्र-
इन सबके चलते उनको लोकतंत्र के बिखरने की संभावना न के बराबर नजर आती थी । उनकी
हालिया चिंता का कारण है कि राजनेता विपक्ष को दुश्मन समझने लगे हैं । प्रेस की
आजादी पर पहरे डालने का समर्थन कर रहे हैं । यहां तक कि चुनाव नतीजों को खारिज
करने की धमकी भी देने लगे हैं । अदालतों, जासूसी संस्थाओं और
लोकपाल जैसे अधिकारियों के प्राधिकार को बहुत व्यवस्थित रूप से कमजोर किया जा रहा
है ।
गणतंत्र पर
शासक समुदाय के इस हमले का प्रत्यक्ष रूप विभिन्न लोकतांत्रिक संस्थाओं और
प्रक्रियाओं को समाप्त करना या उन्हें फालतू बना देना है । स्वाभाविक रूप से जब
शासक ही लोकतंत्र का अपहरण करने पर आमादा हो जाएं तो जनता को उसकी रक्षा करने के
लिए कमर कसनी पड़ती है ।
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