नामवर सिंह की उपस्थिति हिंदी साहित्य के किसी भी विद्यार्थी के जीवन में बनी रही है । मुलाकात, भाषण, विवाद, चर्चा या किताब के जरिए उसे नामवर जी से हमेशा दो चार होना पड़ता था । उनकी लोकप्रियता अध्यापकों के मुकाबले विद्यार्थियों में अधिक रही थी । इस अक्षम्य गलती के लिए हिंदी के अध्यापक समुदाय ने उन्हें माफ़ भी नहीं किया । हिंदी साहित्य के अध्ययन की इसी विद्रोही परम्परा में खुद नामवर जी भी दीक्षित थे । याद करिए कि जब वे इंटर में पढ़ रहे थे तब उनसे त्रिलोचन शास्त्री की मुलाकात हुई थी । यही वजह थी कि मेरी उनसे पहली मुलाकात 79-80 में किसी प्रतिष्ठित संस्थान की जगह भदैनी स्थित तुलसी पुस्तकालय में एक संगोष्ठी में हुई थी । वे दिल्ली से बनारस आए हुए थे । छोटे भाई काशीनाथ सिंह के साथ गोष्ठी में आए । संगोष्ठी में बहुतेरे नए कवियों का काव्य पाठ हुआ जिनमें कई नक्सल धारा के कवि थे । अपने वक्तव्य में नामवर
सिंह ने तालस्ताय की एक कहानी के बहाने अपरिचयीकरण की धारणा के बारे में बात की थी ।
दूसरी बार उनकी षष्टि पूर्ति के अवसर पर काशी हिंदू
विश्वविद्यालय में एकाधिक दिनों का कार्यक्रम आयोजित हुआ था । तब मैं स्नातकोत्तर का
विद्यार्थी था । तभी त्रिलोचन, नागार्जुन,
मैनेजर पांडे, विश्वनाथ त्रिपाठी, निर्मला जैन, पुरुषोत्तम आदि को नजदीक से देखा । साथ
विद्रोही साहित्य प्रेमियों का था । उन्हीं में से किसी ने इसे पाखंड मानकर कोई चुभती
हुई कविता लिखकर पोस्टर के बतौर चिपका दिया था । केवल विश्वनाथ त्रिपाठी ने उसे सहानुभूति
के साथ पढ़ा । शेष लोग शर्मिंदा भाव से उधर देखने से भी बचते थे । तब महाभारत के कारण
रविवार के दिन गोष्ठी देर से शुरू हुई थी । इस विशाल समागम की दो बातें याद हैं ।
पहली कि काफी बहस इस बात पर हुई कि लेखक को अपने लिखे के अनुरूप आचरण करना चाहिए
या नहीं । इस मुद्दे पर बहस तब फालतू लगी थी और जब निर्मला जैन ने कहा कि अनुरूप
करे या नहीं, विरोध में नहीं करना चाहिए तो लगा कि इतना
समझौता ! दूसरी कि त्रिलोचन ने निमंत्रण पत्र पर छपे ‘षष्ठि’
को गलत कहा और इसका अर्थ छठी बताया । नागार्जुन बोले कि नामवर जी की
छठी ही है और हम बूढ़ी औरतें गीत गा रही हैं । नागार्जुन ने बोलने के मुकाबले लिखने
की सलाह देने वालों की बात पर कहा कि भोगेंद्र झा का कंठ कुछ दिनों के लिए बंद हो
गया था जबकि वे प्रखर वक्ता थे इसलिए नामवर जी को लगातार बोलते रहना चाहिए । पलटकर
देखने पर अब लगता है कि नामवर जी बोलने के जरिए शिक्षा संस्थानों में वह माहौल
निर्मित करते थे जिसमें वे और उनके विचार पनप सकें ।
तीसरी बार तब देखा जब भारत
कला भवन में स्वभाव की धारणा पर उनका व्याख्यान था । इसमें संस्कृत साहित्य की
क्लासिक परम्परा के आचार्य रेवा प्रसाद द्विवेदी के साथ उस परम्परा में नएपन के
उद्गाता कमलेश दत्त त्रिपाठी भी मौजूद थे । स्वभाव की बात स्वभावोक्ति से होती हुई
लोकायत तक जा पहुंची । आनंदवर्धन से लेकर महाभारत तक सब कुछ का अजस्र प्रवाह नामवर
जी के मुख से हो रहा था । यह प्रसंग इसलिए कि नामवर जी ने न केवल हिन्दी की
जनपक्षधर छाप को बुलंद रखा बल्कि संस्कृत के आचार्यों के सामने भी उसकी जनपक्षधर
परम्परा के शोध का दबाव पैदा किया । दोनों ही भाषाओं के मामले में यह काम उन्होंने
रामविलास शर्मा के साथ मिलकर किया । हिन्दी के लगभग सभी विद्यार्थी जानते हैं कि
उसकी परम्परा का निर्माण कुछ हद तक उर्दू के समानांतर किया गया है । इस नाते
स्वाभाविक था कि हिन्दी बौद्धिकता में दक्षिणपंथ का प्रभाव गहरा रहे । बहुत सारे
लोग उसकी शुद्धता को संस्कृतनिष्ठता से जोड़कर देखते हैं । रामविलास शर्मा और नामवर
सिंह ने जिस तरह की हिन्दी बौद्धिकता को स्थापित किया उसमें दक्षिणपंथ को पांव भी
रखने की जगह नहीं मिल सकी । इसके चलते संस्कृत की लोकधर्मी परम्परा के उद्घाटन
संबंधी राधावल्लभ त्रिपाठी की कोशिशों को जमीन मिल सकी ।
इसके बाद तो जे एन यू में
प्रवेश मिला । दूसरे सेमेस्टर में ‘साहित्य का समाजशास्त्र’ उनसे
पढ़ने का मौका मिला । अध्यापक के रूप में एक विशेषता का पता चला । हिन्दी में उनसे
अधिक व्यस्त मनुष्य शायद ही कोई और रहा होगा लेकिन अगर वे दिल्ली में होते तो
क्लास जरूर लेते । एकाध एम ए की क्लासों में भी बैठा । न केवल क्लास में होते
बल्कि अगर कोई उद्धरण देना होता तो उसे लिखकर लाते । किसी भी विद्यार्थी ने
परीक्षा में जो भी लिखकर दिया उसे अवश्य देखते और वर्तनी की गलतियों पर जरूर निशान
लगाते । साहित्य की वैचारिकी को मोर्चा बना लेने के बाद व्यावहारिक राजनीति के
प्रति कुछ उदासीन हो चले थे । एक बार बाहर निकलते जुलूस को देखकर बोले इसमें ‘कांख
भी ढकी रहे और मुट्ठी भी तनी रहे’ का तत्व है । अच्छा नहीं लगा था । बाबरी मस्जिद ध्वंस
के बाद छात्रावासों की कई सभाओं में बोले । साहित्य और राजनीति को मिलाकर समय को
समझने की भाषा उन्होंने हमेशा बरती । आडवाणी की रथयात्रा पर बोले ‘रावण
रथी, विरथ
रघुबीरा’ । सांप्रदायिकता के साथ राज्य के मेल को समझाने के
लिए ‘खूंटी
ही हार’ या ‘मेड़ ही खेत’
खाने के मुहावरे का इस्तेमाल करते
। इसके साथ ही सामाजिक विज्ञानों के जानकारों के पांडित्यपूर्ण भाषणों पर तीखा तंज
भी करते ।
अवकाश प्राप्ति के समय की
सभा में भारतीय भाषा केंद्र के तहत संस्कृत के अध्यापन की अपनी अधूरी आकांक्षा का
जिक्र किया था । साथ ही भविष्य के अपशकुन की चेतावनी भी दी कि अध्यापन शुरू होगा
तो अवश्य लेकिन अगर इस समय शुरू हुआ तो उसकी प्रगतिशील परम्परा से संवाद स्थापित
किया जा सकता है । उनके लेखन और भाषा में इस परम्परा के साथ सार्थक संवाद के सूत्र
खोजे जा सकते हैं ।
लौ की आखिरी भभक दिल्ली
विश्वविद्यालय के अरविंदो कालेज की एक संगोष्ठी में दिखाई पड़ी जब वे फिर तुलसी के
सहारे साहित्यकार के स्वाभिमान के पक्ष में बोले । समय वर्तमान सरकार की साहित्य
विरोधी हरकतों का था । ‘तुलसी अब का होहुंगे नर के मनसबदार’ बोलते
हुए साहित्य की प्रतिरोधी धारा के वारिस महसूस हो रहे थे ।
प्रगतिशील आंदोलन को
हिन्दी की मुख्य धारा के रूप में स्थापित करने के लिए उन्होंने अनथक संघर्ष चलाया
। वामपंथ के किसी वास्तविक सामाजिक राजनीतिक शक्ति के बतौर हिन्दी भाषी क्षेत्र
में न होने के बावजूद बहुत दिनों तक इसी संघर्ष के चलते साहित्य और बौद्धिकता के
क्षेत्र में वामपंथ का दबदबा बना रहा । लेकिन ठोस आधार के अभाव में वे इसके लिए
मौजूदा संस्थाओं पर ही आश्रित होते गए । छायावादी साहित्य के प्रसंग में इस दुबिधा
को उन्होंने सूरज को छू लेने वाले के पंख जल जाने के जरिए व्यक्त किया है । शायद
यही दुर्घटना उनके साथ भी घटित हुई ।
साहित्य का विद्यार्थी तो नहीं मैं, लेकिन रूचि के कारण एक बार इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में नामवर जी से रहीम पर एक व्याख्यान सुना था. सीधे दिल में उतरने वाली बिना किसी लाग लपेट के ठेंठ सपाट शैली में उनकी बातें अत्यंत प्रभावशाली लगी थी. वस्तुनिष्टता उनके भावों में भी पैठ बनाए बैठी लगाती थी. उनके बारे में इतना विस्तार से बताने के लिए आपका साधुवाद!
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