कैंब्रिज
यूनिवर्सिटी प्रेस से एक पुस्तक शृंखला की शुरुआत हुई है –आइडियाज इन कांटेक्स्ट
। इसका मकसद उन विचारकों के बारे में किताबों का लेखन/प्रकाशन है जिनके
विचारों के संदर्भ वर्तमान समय में कारगर हैं । इसी योजना के तहत 2007 में आक्सफ़ोर्ड के मेंसफ़ील्ड कालेज में राजनीतिक
सिद्धांतों के अध्यापक डेविड लियोपाल्ड ने लगभग 340 पृष्ठों की किताब लिखी है –द यंग
कार्ल मार्क्स । मार्क्स के सिलसिले में युवा और परिपक्व का भेद फ़्रांसिसी विद्वान लुई अल्थुसर ने किया था और उनकी इस विवादास्पद धारणा को आम तौर पर स्वीकार नहीं किया जाता, लेकिन मार्क्स के लेखन
में आर्थिक निर्धारण के विरोधी उनके शुरुआती लेखन के विश्लेषण पर अधिक जोर देते हैं । लेखक ने मार्क्स के
शुरुआती लेखन में अपनी रुचि का कारण इस लेखन की अनेकार्थता और अपूर्णता बताया है ।
मार्क्स के इस लेखन में वे सूत्र दिखाई पड़ते हैं जिनका उन्होंने आगे विकास किया ।
इस लेखन का धीरे धीरे आविष्कार हुआ है । शुरू में जब मार्क्स के लेखन के महत्वपूर्ण
हिस्से प्रकाशित होने लगे तो इस किस्म के लेखन का या तो पता नहीं था या उसके महत्व
को लेकर हिचक थी ।
मार्क्स के इस किस्म के लेखन का पता न होने का सबसे बड़ा
कारण यह था कि उन्होंने अपनी हस्तलिखित पांडुलिपियों को तो सुरक्षित रखा लेकिन
प्रकाशित लेखन को सुरक्षित नहीं रखा । ऐसी नोटबुकों की संख्या 200 है । 1840 का
दशक उनके लिए बेहद उथल पुथल भरा था । इस दशक के अंत में (1849) लंदन में बसने से
पहले वे जर्मनी, फ़्रांस और बेल्जियम में भटकते रहे थे । मेगा के प्रकाशन के हालिया
कोशिशों के चलते लगातार सामग्री प्रकाश में आ रही है । उनके देहांत के 50 साल बाद
ही शुरुआती लेखन का पता लगना शुरू हो सका । तब तक सोवियत संघ की स्थापना हो चुकी
थी इसलिए एक खास तरह का मार्क्सवाद निर्मित हो चुका था । इसके विरोध में शुरुआती
लेखन की खोज और प्रकाशन का उत्साह प्रकट होता था । इस होड़ में 1844 की
पांडुलिपियों के दो अलग अलग संस्करण प्रकाशित हुए । समग्र में संग्रहित पाठ ज्यादा
आधिकारिक था लेकिन स्वतंत्र रूप से दो संपादकों की ओर से प्रकाशित संस्करण का
व्याख्यापरक महत्व अधिक था ।
मार्क्स के इस शुरुआती लेखन के न मिलने का एक कारण यह भी था
कि ‘हेगेल के अधिकार दर्शन की आलोचना’ और ‘1844 की पांडुलिपियां’ जैसी किताबें
प्रकाशित होने के लिए लिखी ही नहीं गई थीं । ‘पवित्र परिवार’ का प्रकाशन तो हुआ था
लेकिन कोई प्रति खुद मार्क्स के पास ही नहीं बची थी । 1920 में फ़्रांज मेहरिंग ने
एक संग्रह में सबसे पहले इसे शामिल किया । 1927 में जब डेविड रियाजानोव ने पहली
बार समग्र छापने की योजना बनाई तो उपर्युक्त तीनों किताबें सामने आईं । इस बार
समग्र छापने के क्रम में नोटबुकों का प्रकाशन सबसे महत्व की बात है ।
लियोपाल्ड ने ‘1844 की पांडुलिपियां’ के अध्ययनों के
सिलसिले में मार्शल बेर्मान वाली किताब (एडवेंचर्स इन मार्क्सिज्म) का जिक्र किया
है । उनका कहना है कि इसके बहुत पहले 1932 में जर्मन अस्तित्ववादी दार्शनिक
हाइडेगर के शोध छात्र और पश्चिमी मार्क्सवाद के प्रमुख सिद्धांतकार हर्बर्ट
मार्क्यूज ने इस किताब की समीक्षा लिखी थी । इस समीक्षा में उन्होंने इस किताब को
मार्क्सवाद की समझ के लिहाज से क्रांतिकारी घोषित किया था । मार्क्यूज और बेर्मान
के लेखन से पता चलता है कि कुछ मार्क्सवादियों के लिए यह किताब ‘पूंजी’ जैसी ही
महत्वपूर्ण है और समाजवाद के ‘सोवियत संघी’ संस्करण के विरोध का साधन है । कुछ
लोगों ने एकाधिक मार्क्स की कल्पना भी कर ली थी (युवा और परिपक्व) । अब पुरानी
खेमेबंदियों के खात्मे के बाद लियोपाल्ड को लगता है कि वस्तुनिष्ठ ढंग से इस लेखन
को मूल्यांकित करने का माहौल बना है ।
लेकिन इसके बावजूद इस लेखन को समझने में कठिनाई कम नहीं हुई
है और इसका कारण इस लेखन का प्रकार है । सबसे बड़ी कठिनाई तो मार्क्स की गद्य शैली
ही है । एंगेल्स के हवाले से लेखक ने बताया है कि मार्क्स ‘जर्मन दार्शनिक’ की तरह
लिखते थे । इसकी भाषा में उस समय प्रचलित बौद्धिक प्रवृत्तियों की प्रधानता मिलती
है । इसके अलावे जगह जगह साहित्यिक रचनाओं के टुकड़े भी आते रहते हैं । शैली के
अतिरिक्त वर्णित विषय वस्तु भी जटिल है । सामग्री भी बहुविध है । कुछ प्रकाशित
चीजें हैं, कुछ प्रकाशित होने के लिए लिखित लेकिन अप्रकाशित निबंध हैं और कुछ ऐसा
भी लेखन है जिसे प्रकाशित करने के इरादे से लिखा ही नहीं गया था । समस्या यह है कि
इनमें से किसे कितना महत्व दिया जाए । सेंसर के कारण भी बहुत कुछ प्रकाशित न हो
सका होगा, इसलिए अप्रकाशित को भी किनारे नहीं किया जा सकता । सबसे महत्वपूर्ण तो
वे नोटबुकें हैं जिनका मकसद अपने ही विचारों में स्पष्टता हासिल करना था । अपने ही
लिए लिखे हुए का अर्थ दूसरों के सामने बहुधा अनिश्चित होता है । फिर यह लेखन
ज्यादातर वाद-विवाद के रूप में है । अक्सर मार्क्स अपनी बात दूसरों के विचारों की
आलोचना की मार्फत कहते थे । जिन लोगों के विचारों की आलोचना उन्होंने की वे सभी मार्क्स
के मुकाबले स्थापित और वरिष्ठ थे । मार्क्स के लेखन का यह आम तरीका था । वे अपने
विचारों का विकास स्थापित विचारों के खंडन के जरिए करते थे । इसीलिए मार्क्स के
विचारों की सही समझ के लिए लेखक ने हेगेल, फ़ायरबाख और ब्रूनो बावेर के विचारों को
भी विस्तार से प्रस्तुत किया है ।
इसके बाद लेखक ने स्पष्ट किया है कि अपनी किताब में काल की
सीमा तो उन्होंने तय की ही है, विषय वस्तु की सीमा भी निर्धारित है । काल की सीमा
मार्च 1843 से सितंबर 1845 तक का लेखन है । इसी तरह लियोपाल्ड ने शुरुआती लेखन के
सभी विषयों पर विचार करने की जगह कुछेक विषयों को अपनी सुविधा के अनुसार उठाया है
। इसमें से पहला विषय है आधुनिक राज्य की उत्पत्ति, उसकी प्रकृति और भविष्य में
उसके खात्मे के बारे में मार्क्स का चिंतन । इस पर लिखते हुए लेखक ने राजनीति के
बारे में मार्क्स के विवरणों और मानव प्रकृति संबंधी उनकी धारणा के बीच रिश्ता
तलाशने की कोशिश की है ।
लेखक को लगता है कि मार्क्स का नाम लेकर शासन करने वाली
सत्ताओं के ढहने के बावजूद उनके लेखन में से अप्रत्याशित और विचारोत्तेजक कौंध उभर
आती है । अपने समय के नागरिक समाज में व्यक्ति की नियति, आधुनिक राजनीतिक जीवन की
उपलब्धियों और असफलताओं का उनका वर्णन तथा मनुष्य के भीतर की संभावनाओं के साकार
होने का उनका अब तक अप्राप्त सपना नयी पीढ़ी के लिए आकर्षण का स्रोत है । इस दौर के
लेखन में राजनीति, आधुनिकता और मानव स्वभाव के बीच घनिष्ठ संबंध मौजूद है ।
शुरुआती पत्रकारीय लेखन में प्रशियाई शासन का अधिक जिक्र है लेकिन बाद के दिनों
में वे आधुनिक राज्य को पुराने शासन से अलगाने लगे थे । आधुनिक राज्य के विश्लेषण
के साथ ही दार्शनिक मानवशास्त्र पर भी विचार चलता रहा । बाद में वे राजनीति के साथ
मानव स्वभाव की जगह अन्य समाजार्थिक तत्वों के रिश्ते पर जोर देते दिखाई पड़ते हैं
।
लियोपाल्ड की कोशिश है कि मार्क्स के मशहूर उद्धरणों के
दुहराव की जगह कुछ नयी जगहों को वे उद्भासित करें । उनका कहना है कि राज्य और
राजनीति के मामले में मार्क्स की धारणाएं, जितना समझा जाता है उससे कहीं अधिक जटिल
और सकारात्मक हैं । इसके लिए लेखक ने पहले हेगेल की आलोचना की मार्फत आधुनिक राज्य
की उत्पत्ति संबंधी मार्क्स के विचारों को प्रस्तुत किया है । उसके बाद ब्रूनो बावेर
की आलोचना के जरिए ‘राजनीतिक मुक्ति’ यानी आधुनिक बुर्जुआ राज्य और राजनीति के सहारे
प्राप्य तथाकथित मुक्ति की उपलब्धियों और असफलताओं का मार्क्स का विश्लेषण पेश
किया गया है । मार्क्स मानते हैं कि आधुनिक राज्य में सामुदायिकता के मूल्य को
मान्यता तो मिली है लेकिन यह सामुदायिकता सीमित और नागरिक समाज में मौजूद
अंतर्विरोधों से भरी हुई है । नागरिक समाज में मौजूद व्यक्तिवाद राजनीतिक जीवन में
राज्य के अमूर्तन को जन्म देता है । सबके कल्याण की जगह संकीर्ण और विशेष हितों की
नुमाइंदगी होने लगती है । अंत में फ़ायरबाख की आलोचना के जरिए भाविष्य में मानव
संभावनाओं को साकार करने के मकसद से राज्य के खात्मे के मार्क्स के सपने का खाका
खींचा गया है । इन संभावनाओं का विवरण देते हुए मार्क्स भरण पोषण, घर और संबंधों
की गर्माहट, उचित पर्यावरण, शारीरिक व्यायाम, साफ सफाइ, यौन संतुष्टि, मनोरंजन,
संस्कृति, बौद्धिकता, कलात्मक अभिव्यक्ति और सौंदर्यात्मक परिष्कार की जरूरतों का
उल्लेख करते हैं । भविष्य के राजनीतिक समुदाय के यही घटक होंगे जिनके आधार पर
मनुष्य की संभावनाओं को पूरी तरह से साकार करना हो सकेगा । इस समाज से राजनीति
गायब तो न होगी लेकिन अमूर्त नहीं रह जाएगी । राज्य के कामों में सभी नागरिक भाग
लेंगे, उन पर विशेषज्ञों का एकाधिकार नहीं होगा ।
किताब के अंत में लियोपाल्ड ने इस सवाल पर विचार करते हुए
इस तथ्य को रेखांकित किया है कि भविष्य के समाज के बारे में कोई भी ठोस बात कहने
से मार्क्स ने जानबूझकर परहेज किया । कुछ लोग उनके समाजवादी समाज को ‘यूटोपिया’
कहते हैं । लियोपाल्ड ने थामस मूर द्वारा प्रयुक्त इस धारणा की भाषाशास्त्रीय
व्याख्या करते हुए बताया है कि इसमें नहीं के अर्थ वाला ग्रीक शब्द au और
जगह के अर्थ वाला topos शामिल हैं जिसका मतलब हुआ ऐसी जगह जो
है नहीं । यह उस खुशहाली भरे समाज (एक काल्पनिक द्वीप) का नाम है जो धरती पर अभी
अवतरित नहीं हुआ है । इसे असंभव कल्पना के अर्थ में नहीं समझा जाना चाहिए । जिसको
साकर करने के लिए उत्साह के साथ कोशिश की जा सके ऐसे आदर्श के अर्थ में यूटोपिया
को मार्क्स सकारात्मक नजरिए से देखते हैं । आधुनिक जीवन के अंतर्विरोधों और
अस्वाभाविकता को उजागर करने के लिए वे फ़ूरिए की प्रशंसा करते हैं । लेकिन इसका यह मतलब
नहीं है कि वे यूटोपिया रचने वालों की आलोचना नहीं करते । काल्पनिक समाजवादियों
(सेंट साइमन, फ़ूरिए, ओवेन) के मुकाबले उनके अनुयायियों की शेखचिल्ली योजनाओं से वे
अधिक चिढ़ते थे । मूल चिंतकों की समस्यायों को वे तत्कालीन अविकसित ऐतिहासिक
परिस्थितियों में निहित मानते थे क्योंकि तब तक बुर्जुआ समाज को बदलने में सक्षम
मजदूर वर्ग की चेतना उन्नत नहीं थी । फिर भी वे उनके लेखन का प्रचारपरक महत्व
स्वीकार करते थे । वे उनके लेखन में मौजूद वर्तमान की आलोचना को उनके स्वप्निल
भविष्य के वर्णन से ज्यादा मूल्यवान मानते थे ।
दुनिया को बदलने का सवाल ही उनमें और यूटोपियाई चिंतकों में
साझा था । इसके लिए लोगों को प्रेरित करने के लिए मौजूदा दृष्टिकोण और हालात से ही
शुरू करना वे उचित समझते थे और ऐसे समाधान नहीं प्रस्तुत करते थे जिसका इन विचारों
और संदर्भों से कोई संबंध ही न हो । यूटोपियाई लोग किसी तैयारशुदा दुनिया के सहारे
इस दुनिया का विरोध करते थे । मार्क्स इस काम के लिए तत्कालीन धार्मिक और राजनीतिक
विचारों से संवाद की वकालत करते थे । इनके बीच का यह अंतर बहुत महत्व का था । दूसरी
बात कि यूटोपियाई लोग भविष्य की दुनिया का पूर्वानुमान लगाते थे जबकि मार्क्स का जोर
पुरानी दुनिया में नयी दुनिया और भविष्य की खोज पर था । नयी दुनिया कहीं और से उतरेगी
नहीं, बल्कि पुरानी दुनिया में से ही निकलेगी । इसीलिए अपना राजनीतिक काम उन्होंने
चलायमान संघर्षों को उनकी परिणति तक पहुंचाना समझा । मानव समाज की राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं
का समाधान एक ऐतिहासिक प्रक्रिया में होगा । सामाजिक बदलाव की मुश्किलों को उन्होंने
कभी कम करके नहीं आंका लेकिन इन मुश्किलों के दूर होने का भरोसा उन्हें हमेशा रहा ।
उन्हें विश्वास था कि जो जरूरी है वह पैदा होगा । भविष्य का समाज ऐसा फल है जो वर्तमान
के गर्भ में पलता है । समाज के सामने उपस्थित चुनौतियों का समाधान कोई व्यक्ति नहीं
खोजेगा, बल्कि ऐतिहासिक प्रक्रिया में उसके समाधान को पहचानने
और उसे फलीभूत करने में मदद करेगा ।
लियोपाल्ड को उम्मीद है कि हमारे समय में नागरिक समाज में
व्यक्ति की जो स्थिति है, आधुनिक राजनीतिक जीवन की जो सफलताएं-असफलताएं हैं और
मनुष्य की जो संभावनाएं प्रकट होने के लिए विकल हैं उनके मद्दे नजर मार्क्स के
आरंभिक लेखन के अध्ययन में ढेर सारी अंतर्दृष्टियों और उद्भासों की जगह है ।
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