1 पूरी दुनिया में विद्वान
इस तथ्य के विश्लेषण में व्यस्त हैं कि इक्कीसवीं सदी के आरंभ में ऐसे कौन से
बदलाव आए कि पूंजीवाद के संकट में होने के बावजूद मुट्ठी भर धन्नासेठों की संपत्ति
में अकूत इजाफ़ा कैसे हो रहा है? अनेक विचारकों ने तो पूंजीवाद के वर्तमान स्वरूप की
विशेषता को चिन्हित करने के लिए उसे ‘नव-उदारवाद’ की संज्ञा दी है । इसकी खूबी अर्थतंत्र का वित्तीकरण
बताया जा रहा है जिसमें तृतीयक क्षेत्र (सेवाक्षेत्र)
ही सबसे अधिक विस्तृत हो जाता है । साथ ही इसे भी देखने की बात हो
रही है कि लगभग सभी देशों में राजनीति में दक्षिणपंथी ताकतों की मजबूती का इससे
कोई संबंध है क्या? आम तानाशाही से अलगाकर इसे देखने और समझने की कोशिश हो रही है ।
धीरे धीरे विचारकों में फ़ासीवाद की गंभीर चर्चा भी शुरू हो गई है । 1929 से 1930
तक की महामंदी के बाद हिटलर के उदय की परिघटना से वर्तमान हालात को समझने की कोशिश
की जा रही है । हिटलर की परिघटना पश्चिम के एक औद्योगिक समाज की थी इसलिए उसमें
नाटकीय तेजी रही । भारत के अर्ध-सामंती समाज होने के कारण इसकी उठान धीमी किंतु
मजबूत रही है । भारत में इस दौर में कोई भी पूंजीपति उद्योग लगाकर नहीं, बल्कि
सरकार के पास मौजूद संसाधनों की लूट से संपत्ति अर्जित कर रहा है ।
2 कोमिंटर्न के बुल्गारियाई
नेता जियोर्जी दिमित्रोव ने फ़ासीवाद को वित्तीय पूंजी के सबसे प्रतिक्रियावादी
हिस्से की सबसे अधिक दमनकारी और सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी शासन पद्धति कहा है । उन्होंने
यह भी कहा कि भूमंडलीय परिघटना होने के बावजूद अलग अलग देशों में फ़ासीवाद के भिन्न
भिन्न रूप प्रकट होते हैं । इससे लड़ने के लिए इस भिन्नता को समझना जरूरी है । इसीलिए
हमें अपने देश में पूंजीवाद के विकास के इतिहास को ध्यान में रखना होगा । टाटा-बिरला
के बाद सहारा से होते हुए अंबानी-अडानी तक की यात्रा में पूंजीपतियों के साथ
राजसत्ता और राजनेताओं के रिश्ते भी बदलते रहे हैं । स्वाधीनता आंदोलन के समय एक बार
जब संपत्ति के अधिकार को बुनियादी अधिकारों में शामिल कराने के लिए खुद किसी पूंजीपति
ने आवाज उठाई तो बिरला ने उसे परामर्श दिया कि जिनके पास संपत्ति है यदि वे ही इस मांग
को उठाएंगे तो इसका समर्थन कोई नहीं करेगा । यह मांग उन्हें करनी चाहिए जिनके पास संपत्ति
नहीं है । औद्योगिक दौर के पूंजीपति राजनेताओं से खुद को अलग रखकर दबाव समूह की तरह
काम करते थे । आज स्थिति एकदम उलटी है । भारत की संसद में विजय माल्या, जिंदल और अंबानी जैसे पूंजीपति हैं और अपने उद्यमों से जुड़ी हुई संसदीय समितियों
के सदस्यों के रूप में कानूनों को प्रभावित करते हैं । पिछली सरकार में भी विभिन्न
मंत्री वकील थे जो विभिन्न कारपोरेट घरानों की वकालत करते रहे थे और मंत्री बनने के
बाद भी उन घरानों को लाभ दिया करते थे । वर्तमान सरकार में भी वकील मंत्रीगण वे ही
हैं जो अतीत में इन घरानों की वकालत किया करते थे । कारपोरेट घरानों के साथ घालमेल
का यह आलम है कि शिक्षक और प्रशासक के रूप में इनकी नियुक्ति के प्रस्ताव बेशर्मी के
साथ किए जा रहे हैं । इसी क्रम में जबसे निजी पूंजी को प्रतिष्ठा देने का उदारीकरण
का अभियान शुरू हुआ तबसे ही देश में दक्षिणपंथी उत्थान- आपस में जुड़ी हुई घटनाएं हैं
। पूंजीवाद के वर्तमान नव उदारवादी स्वरूप के सामने आने के साथ ही पूरी दुनिया में
दक्षिणपंथी राजनीति का उभार दिखाई दे रहा है । जिन देशों में यह उदारीकरण शुरू किया
गया वहां जन विक्षोभ को दबाने के लिए तानाशाही आई । भारत में यही काम पूर्ववर्ती
कांग्रेसी सरकार ठीक से नहीं कर पा रही थी और बदनाम भी हो गई थी, इसलिए पूंजी ने
तथाकथित लोकप्रिय और कठोर शासक पर दांव लगाया । इसीलिए वर्तमान निजाम शुद्ध सांप्रदायिक
नहीं, बल्कि इसके प्रत्यक्ष कारपोरेट हित भी हैं ।
2 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की
स्थापना 1925 में विजयादशमी के दिन केशव बलिराम हेडगेवार
ने की थी । वे पहले कांग्रेस में रहे थे लेकिन हिंदू हितों पर अलग से जोर देने के लिए
उन्होंने इस नए संगठन की स्थापना की । 1920 में चले असहयोग आंदोलन
के बारे में उनका मूल्यांकन था कि ‘महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन
के फलस्वरूप देश का उत्साह ठंडा पड़ता जा रहा था और सामाजिक जीवन में उस आंदोलन के द्वारा
पैदा की गईं बुराइयां खतरनाक रूप से सिर उठा रही थीं---असहयोग
का दूध पीकर पले हुए यवननाग अपनी जहरीली फुफकारों से समूचे राष्ट्र में दंगे भड़का रहे
थे ।’ असहयोग आंदोलन की अचानक वापसी से पैदा हताशा में
सांप्रदायिकता ने पैर पसारे । साइमन कमीशन के विरुद्ध उपजे विक्षोभ से पैदा
आंदोलनों से यह संगठन दूर रहा । सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930) से भी संघी दूर रहे ।
26 जनवरी 1930 को स्वाधीनता दिवस के रूप में तो मनाया लेकिन भगवा झंडे की पूजा
करते हुए । आजादी की लड़ाई से उनकी दूरी राष्ट्रवाद की उनकी धारणा से जुड़ी हुई है ।
वे इसे ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ कहते हैं और ‘भूभागीय राष्ट्रवाद’ से इसे अलग
बताते हैं । 1940 में हेडगेवार की मृत्यु के बाद ज्यादातर सैद्धांतिक काम दूसरे सर
संघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर ने किया । उन्होंने लिखा ‘भूभागीय
राष्ट्रवाद और साझा दुश्मन के सिद्धांत ने, जो राष्ट्र की हमारी
धारणा की बुनियाद का निर्माण करते हैं, हमें हमारे सच्चे हिंदू
राष्ट्रवाद की सकारात्मक व प्रेरक अंतर्वस्तु से वंचित कर दिया है तथा उसने आजादी की
अनेक लड़ाइयों को वस्तुत: ब्रिटिश विरोधी लड़ाइयां बना दिया है
। ब्रिटिश विरोध को देशभक्ति और राष्ट्रवाद के समतुल्य बना दिया गया है । इस प्रतिक्रियावादी
विचार ने स्वतंत्रता आंदोलन के समूचे दौर में उसके नेताओं और आम जनता पर बड़ा हानिकारक
प्रभाव डाला है ।’ राष्ट्रवाद की यही धारणा हिंदुत्ववादियों को
साम्राज्यवाद विरोध के आधार पर विकसित भारतीय राष्ट्रवाद के विपरीत यहूदी राष्ट्रवाद
के समर्थन की ओर ले जाती है । उसके इजरायल समर्थन का तात्कालिक राजनीतिक संदर्भ तो
है ही, वैचारिक संदर्भ भी है । यहूदी राष्ट्रवाद के साथ ही गोलवलकर
ने नाजी राष्ट्रवाद से भी प्रेरणा ली और उसे गौरव के रूप में व्याख्यायित करते हुए
लिखा ‘आज जर्मनी का राष्ट्रीय गौरव चर्चा का मुख्य विषय बन गया
है । राष्ट्र और उसकी संस्कृति की शुद्धता की रक्षा करने के लिए जर्मनों ने अपने देश
को सेमेटिक नस्लवादियों- यहूदियों- से मुक्त
करके समूची दुनिया को हिला दिया है ।----जर्मनी ने यह भी दिखला
दिया है कि एक-दूसरे से मूलत: पृथक नस्लों
और संस्कृतियों को एक एकल समग्र में समेटना कितना असंभव है ।’ उन्होंने इससे सीखने की भी सलाह दी । गोलवलकर के मुताबिक अल्पसंख्यकों के लिए
इस देश में रहने की अनुमति तो है लेकिन तब जब वे ‘इस देश में
कुछ न मांगते हुए, किसी सुविधा का हकदार न होते हुए, किसी भी प्रकार की प्राथमिकता पाए बिना, यहां तक कि नागरिकता
के अधिकारों के बिना ही हिंदू राष्ट्र के अधीन रहें ।’ धर्मांतरण
आदि का मूल तर्क इस सपने को पूरा करने की इच्छा है । संगठन का उनका सिद्धांत
‘एक चालक अनुवर्तिता’ है जो संयुक्त हिंदू परिवार
के सांगठनिक आदर्श पर गढ़ा हुआ है । हजारों संगठनों का संजाल संघ के वैचारिक नेतृत्व
में सामान्य काम काज जारी रखते हैं और विशेष अवसरों पर विशेष दिशा में इन सभी संगठनों
की कार्यवाहियों को निर्देशित कर दिया जाता है । उनकी लोकतंत्र विरोधी विचारधारा का
सबूत यह है कि वे ‘अधिकार की जगह कर्तव्य’ को प्रस्थान विंदु बनाते हैं । इसे उनके छात्र संगठन के स्वरूप में देखा जाता
है जिसमें अध्यक्ष हमेशा कोई अध्यापक होता है । स्वच्छ भारत अभियान में भी उन्होंने
स्वच्छ वातावरण के नागरिक अधिकार के सवाल की जगह स्वच्छता को नागरिकों के कर्तव्य में
बदल दिया है । विचार के अतिरिक्त पूरे कामकाज में अलोकतांत्रिकता का सबसे बड़ा सबूत
गुरु पूर्णिमा के दिन देश भर की शाखाओं में लिफ़ाफ़े में गुप्तदान की प्रक्रिया है जिसके
तहत प्राप्त दान का कोई ब्यौरा देश के सामने कभी पेश नहीं किया गया । संघ के प्रचारक
के लिए अविवाहित रहने का बंधन उसके स्त्री-विरोधी एजेंडे का प्रमाण
है ।
3 फ़ासीवाद का इतिहास हमें बताता
है कि उसका जन्म संसदीय लोकतंत्र से ही होता है । असल में संसदीय लोकतंत्र पूंजीवाद
के विकास के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा रहा है । शासन की सामाजिक सहमति के लिए सार्विक
बालिग मताधिकार जन आंदोलन से तो हासिल हुआ लेकिन कदम कदम पर पूंजीवाद ने इसके प्रसार
का प्रतिरोध किया । एक ओर तो पूंजी को प्राप्त आत्मविश्वास के चलते वह मताधिकार को
सीमित करने का प्रयास करती है, दूसरी ओर फ़ासीवाद आम जनता में
अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के विरुद्ध उपजे विक्षोभ को देशप्रेम और फ़ंडामेंटलिज्म के सहारे
अपने लाभ के लिए भुनाता है । लोकप्रिय प्रचार माध्यमों के सहारे परोसा गया आध्यात्मिक
नशा एक हद तक मनुष्य को व्यापक सामाजिक अलगाव की क्षतिपूर्ति प्रदान करता है ।
ध्यान देने की बात यह है कि संसदीय लोकतंत्र के दायरे में काम करते हुए भी फ़ासीवादी
ताकतों को इसके बारे में रत्ती भर भी भ्रम नहीं होता है । वे अपने लक्ष्य की
पूर्ति के लिए इसका उपयोग मात्र करते हैं । इसीलिए हमेशा उनके काम काज में संसदीय
कार्यवाहियों से ज्यादा महत्वपूर्ण गैर-संसदीय कार्यवाहियां होती हैं । सत्ता के औपचारिक
तंत्र से इसको भरपूर सांस्थानिक मदद दी जाती है ।
4 भारतीय फ़ासीवाद के कुछेक पहलुओं
को समझने के लिए पिछ्ले लोक सभा चुनाव के नतीजों को भी देखना होगा । इसे ही बहुत सारे
लोग अब तक हासिल सामाजिक प्रगति के विरुद्ध प्रतिक्रिया के बतौर व्याख्यायित कर रहे
हैं । चुनाव से बनी हुई लोकसभा में स्त्री, अल्पसंख्यक जन प्रतिनिधियों
की संख्या में गिरावट आई है और विभिन्न तबकों के प्रतिनिधित्व का पैटर्न बदल गया है
। भारत के विभिन्न इलाकों में मौजूद अंतर्विरोधों में भाजपा ने पुराने समीकरणों
में फेरबदल किया है और ऐसे प्रभावशाली तबकों की भावनाओं को उभारा है जो अपने आपको
शासक समुदाय में शामिल नहीं अनुभव करते थे । इससे संघीयता के ताने बाने को घातक
क्षति पहुंची है । स्त्री उभार के विरुद्ध राजनीतिक गोलबंदी को हवा देना उसने
दिवराला सती कांड के बाद से ही शुरू कर दिया था । चुनावों से ठीक पहले आसाराम बापू
प्रकरण में भी इन ताकतों ने पितृसत्तात्मक राजनीतिक ध्रुवीकरण किया । खाप पंचायतों
के रूप में उन्हें एक संगठित स्त्री विरोधी मंच मिल गया है जिसके समर्थन में जिम्मेदार
मंत्री आदि माहौल बना रहे हैं । गृह मंत्रालय की ओर से दहेज उत्पीड़न कानून में
संशोधन का प्रस्ताव इसी प्रतिक्रिया को मजबूती प्रदान करने के मकसद से लाया गया है
। जातिगत उत्पीड़न का समर्थन रणवीर सेना और सवर्ण-सामंती ताकतों के साथ उसके हेलमेल
में देखा जा सकता है ।
5 हिंदू राष्ट्र और हिंदू
हितों की स्थापना के प्रधान लक्ष्य को पूरा करने के लिए आम तौर पर जनसंघ या भाजपा
का समर्थन आर एस एस ने किया लेकिन अगर कांग्रेस ने इस गोलबंदी का लाभ उठाना चाहा
तो संघ ने उसका भी साथ दिया । गांधी की हत्या के बाद बियाबान में पड़ी हुई इस संस्था
को चीन युद्ध के समय महत्व मिला और उसके बाद 1963 की गणतंत्र दिवस की परेड में भाग लेने के लिए इसे झांकी के साथ आमंत्रित किया
गया । फिर इंदिरा गांधी ने आपात काल के बाद की अपनी पराजय का बदला लेने के लिए उत्तर
भारत में जब हिंदू मतों के ध्रुवीकरण की योजना बनाई तो संघ ने उनका साथ दिया और देश
के विभिन्न भागों में उनके लिए मतदान भी कराया । इसके पहले भी बांगलादेश युद्ध के बाद
इंदिरा गांधी को अटल बिहारी वाजपेयी ने दुर्गा कहा था क्योंकि उस लड़ाई में पाकिस्तान
की पराजय के चलते युद्धोन्माद का माहौल बनाने और उसके सहारे मुस्लिम विरोधी वातावरण
बनाने में सुविधा हुई थी ।
6 वर्तमान सरकार के सत्ता
में आने के साथ संघ को औपचारिक मान्यता देने-दिलाने के काम में तेजी आई है । सरकार
के मंत्रियों के साथ साथ विभिन्न विश्वविद्यालयों के कुलपति, अनेक संस्थानों के मुखिया सर संघ चालक मोहन भागवत से मिल रहे हैं । विजयादशमी
के दिन के स्थापना समारोह में दिया गया उनका रस्मी भाषण दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ ।
संसद की कार्यवाही से दंगों के सिलसिले में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उल्लेख संपादित
करके निकाल दिए गए । सरकार के अधिकतर मंत्री इस संगठन से जुड़े रहे हैं ।
7 इससे लड़ने की दृष्टि से एक
तथ्य को दिमाग में रखना होगा कि धर्म और सांप्रदायिकता दो चीजें हैं । धर्म का राजनीतिक
इस्तेमाल सांप्रदायिकता है । इसीलिए सांप्रदायिकता का इतिहास आधुनिक राजनीति और उसकी
जरूरतों से जुड़ा हुआ है । इसके लिए आवश्यक गोलबंदी हेतु धर्म की मूलवादी व्याख्या
की जाती है । एक बात और है कि आधुनिक भारत में बहुसंख्या पर आधारित राजनीतिक प्रतिनिधित्व
की प्रणाली ने संसद में अल्पसंख्यक समुदाय का सार्थक प्रतिनिधित्व वैसे भी होने
नहीं दिया था । ‘फ़र्स्ट पास्ट द पोस्ट’ और एक जगह से एक ही प्रतिनिधि आधारित प्रणाली की खामियों के चलते देश में सही
अर्थों में संसदीय लोकतंत्र भी नहीं रहा है । हाल में उसकी जगह आनुपातिक प्रतिनिधित्व
की बात इसीलिए की जा रही है ।
8 फ़ंडामेंटलिज्म एक सपने पर
आधारित होता है और संबंधित धर्म में आए हुए बदलावों को हटाकर तथाकथित शुद्धता को स्थापित
करना चाहता है । यह शुद्धता भी कल्पित होती है । उदाहरण के लिए गीता प्रेस से प्रकाशित
महाभागवत पुराण में से महारास (रासलीला) को संपादित कर उसे शुद्ध किया गया है । इसी
तरह वर्णाश्रम कभी आचरित जीवन पद्धति नहीं रही है लेकिन मूलतत्ववादी इसे ही हिंदू समाज
व्यवस्था साबित करना चाहेंगे । इसीलिए वे सबसे पहले संबंधित धर्म के लोकाचार या जिसे
लोकप्रिय धर्म कहते हैं, उसके विरुद्ध अभियान चलाते हैं । भारतीय
संस्कृति को वे जिस तरह परिभाषित करते हैं उसके मूल में पितृसत्तात्मक, सामंती सवर्ण वर्चस्व वाली ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था तथा इनको पोषित करने
वाले पारंपरिक पारिवारिक मूल्य हैं । हमारे सामंती सामाजिक ढांचे की बुनियाद ये पारिवारिक
मूल्य ही हैं । यह ढांचा पितृसत्ता को बल प्रदान करता है और संतान को जन्म देने वाले
यौन आचरण के अतिरिक्त सभी वैकल्पिक यौन आचरणों का हिंसक विरोध करता है ।
9 पूंजी और पोंगापंथ का घातक
मिश्रण वर्तमान फ़ासीवाद की विशेषता है । मशहूर अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक के अनुसार
भाजपा की यह जीत पिछले डेड़ सौ वर्षों में हासिल सामाजिक प्रगति के विरुद्ध प्रतिक्रिया
है । सामाजिक अग्रगति के साथ ही साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष की भावना को भी उलट देने
का संकल्प वर्तमान शासन का लक्ष्य है । अमेरिकी दबदबे वाली अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के
साथ यह भी उसी तरह का रिश्ता रखना चाहता है जैसा रिश्ता मुस्लिम धार्मिकता का दोहन
करके स्थापित अरब मुल्कों के सत्ताधारी शासक समुदाय का है । इस विचित्र स्थिति का विश्लेषण
करने वालों ने जोर देकर समझाया है कि मुस्लिम समाज में लोकतांत्रिक धारा के विरोध में
जो फ़ंडामेंटलिस्ट आंदोलन उभरे उन्होंने पश्चिम विरोध का उन्माद समाज की लोकतांत्रिकता
का दमन करने के लिए पैदा किया लेकिन सत्ता मिलते ही पश्चिमी मुल्कों की सरपरस्ती हासिल
करने की कोशिश करने लगे ।
10 पिछ्ले लोकसभा चुनावों
में 31 फ़ीसद वोट लेकर भी हमारी चुनाव प्रणाली की विशेषता के कारण भारी संसदीय
बहुमत हासिल करके बनी सरकार अब सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल करके अपना आधार मजबूत और
विस्तारित करने में लगी हुई है । इसमें वह हिंदी का उपयोग कर रही है लेकिन इसके प्रति
उसका अनुराग एक हद तक हिंदी पट्टी में अपने आधार को मजबूत और गहरा करना ही है
अन्यथा हिंदी उनके मुताबिक पतन का ही प्रतीक है, शुद्ध तो संस्कृत है । उसमें भी
सत्य उतना ही बताया जा रहा है जो उनकी पोंगापंथी व्याख्या के लिए सुविधाजनक हो । संस्कृत
की सारी परंपरा को एकायामी ब्राह्मण धारा के रूप में स्थापित किए बिना वह उनके काम
की नहीं होगी । इसके लिए उसे ज्ञान और दर्शन की भाषा नहीं, धर्माचार
की भाषा सिद्ध करना आवश्यक है । महाभारत और पुराणों की मनमानी व्याख्या के सहारे
अंधविश्वास को बढ़ावा देना मकसद है, न कि दर्शन या आयुर्वेद, योग आदि की प्रतिष्ठा
। योग को धार्मिकता से जोड़ दिया गया है अन्यथा भारतीय दर्शन की परंपरा में वह अनीश्वरवादी
धारा में आता है ।
11 दुर्भाग्य से भारत के
आधिकारिक राष्ट्रवाद और देशभक्ति को जिस तरह देखा समझा गया उसमें देशभक्ति को
साम्राज्यवाद विरोध की जगह पाकिस्तान विरोध के जरिए परिभाषित करने की परंपरा थी । हमारे
देश में देशभक्त होने का मतलब देश की भौगोलिक एकता और अखंडता को पवित्र मानना,
मजबूत केंद्र, जिसका अभिन्न अंग भारतीय सेना है, की पैरोकारी, राष्ट्रगान और ध्वज
जैसे प्रतीकों को अतिरिक्त मान्यता, संसद और सर्वोच्च न्यायालय पर सवाल न उठाना
आदि रहे है । इसके चलते पड़ोसी मुल्कों के अलावे देश के सीमाई इलाकों की फौजी देखरेख
भी देश की एकता का निशान बना दिया गया । इसके परिणाम अति-केन्द्रीयता
और भौगोलिक रूप से लोकतांत्रिक शासन के मामले में भेदभाव के बतौर जम्मू-काश्मीर और उत्तर-पूर्व में देखे जा सकते हैं । कुल धर्मनिरपेक्षता के
बावजूद सत्ता में हिंदू बहुसंख्यक मूल्यों की ओर झुकाव और उसके प्रति अतिरिक्त
सहनशीलता और उसे स्वाभाविक मान लेने की प्रवृत्ति थी । वैज्ञानिक संस्थानों तक में
अंधविश्वास का खुला प्रचलन था । रामनवमी के अवसर पर मोदी के व्रत के प्रचार से
पहले भी कांग्रेसी प्रधानमंत्री अपनी हिंदू पहचान का मुजाहिरा करते रहे हैं । भारत
में धर्मनिरपेक्षता के बतौर आचरित ‘सर्व धर्म समभाव’ आसानी से बहुसंख्यक धर्म की ओर झुक जाता रहा है ।
12 नव उदारवादी आर्थिकी और
संचार की नई तकनीकों के आगमन के साथ अधिकांश मुल्कों में मीडिया की भूमिका में
बदलाव देखा गया । टेलीविजन के विनाशकारी प्रभावों का अध्ययन अमेरिका में किया गया
है । देखा गया कि खासकर इराक युद्ध के दौरान मीडिया का उपयोग सर्वानुमति बनाने में
किया गया और उसके लिए एक नया शब्द ‘नत्थी पत्रकारिता’ चल पड़ा । इलेक्ट्रानिक
मीडिया के साथ बड़ी पूंजी का जुड़ाव हो गया और मीडिया खुद शासक समुदाय का अंग हो गया
। मीडिया घरानों के साथ पूंजी के जुड़ाव का यह नया स्तर पिछली सरकार में ही प्रकट
होना शुरू हो गया था, इस नए शासन में तो रिपोर्टिंग की जगह भाजपा के मुख्यालय से
ही प्राप्त खबरों और वीडियो का इस्तेमाल हो रहा है और रिलायंस के हाथ में ज्यादातर
खबरिया चैनल आ गए हैं । सहारा के प्रयोग से बहुत आगे बढ़कर मीडिया पर अबाध नियंत्रण
का राज स्थापित हो गया है । खबर और प्रचार के बीच अंतर समाप्त हो गया है । दृश्य
साधनों के उपयोग और उनके जरिए निर्मित छवियों के प्रसारण ने फ़ोटो शापिंग की कला का
रूप ले लिया है जिसमें लोग कैमरे की निगाह से सचाई देखने के आदी हो जाते हैं ।
13 शिक्षा और संस्कृति, खासकर
इतिहास और समाज के वर्णन को हिंदुत्ववादी ढांचे में ढालना संघ का पसंदीदा काम है ।
शिक्षा में बत्रा की किताबों और अन्य अवैज्ञानिक दावों के जरिए अंधविश्वास को बढ़ावा, संस्कृत की स्थापना और शैक्षिक संस्थानों की
स्वायत्तता पर हमला इसके कुछ हथियार के बतौर दिखाई पड़े हैं । जातिगत भेदभाव और धार्मिक
पाखंड का औचित्य बताने की कोशिश इन पुस्तकों की प्रेरणा होती है । शैक्षिक
संस्थानों के मुखिया महाभारत और रामायण की घटनाओं की तारीख का पता लगाने के लिए
शोध को प्रोत्साहित कर रहे हैं तो पुराण कथाओं को वैज्ञानिक सत्य की तरह पेश किया
जा रहा है ।
14 हालिया विवाद- धर्मांतरण, गोकुशी, लव जेहाद,
आतंकवाद आदि मुद्दों का मकसद ही अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों के विरुद्ध
घृणा का व्यस्थित माहौल बनाना है । खासकर आतंकवाद का सवाल अमेरिका के साथ वैचारिक सहयोग
के लिए भी मददगार है । जिस दिन चुनाव के नतीजे आए उसी दिन पुणे में साफ़्टवेयर इंजीनियर
मोहसिन सादिक की हत्या प्रतीक के रूप में आगामी दिनों का आभास दे रही थी । अतीत को
हथियाने की कोशिश में शिक्षक दिवस का इस्तेमाल स्कूलों में पारंपरिक शक्ति संबंधों
के महिमा मंडन के लिए किया गया । गांधी जयंती को स्वच्छता तक सीमित तो किया ही गया,
स्वच्छता अभियान के तहत दिल्ली के त्रिलोकपुरी में वाल्मीकि समुदाय की
स्वच्छता के लिए माता की चौकी स्थापित की गई । पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली में
दलित और मुस्लिम समुदाय की आपसी दुश्मनी को आगामी चुनावी लाभ के लिए हवा दी जा रही
है । एक ओर हिंदुत्व के पक्ष में प्रचंड धार्मिक उन्माद और दूसरी ओर कारपोरेट पूंजी
के लिए सारी सरकारी मशीनरी की मदद- वर्तमान निजाम की प्रमुख विशेषताएं
हैं । श्रम कानूनों और भूमि अधिग्रहण नियमों में संशोधन तथा विभिन्न परियोजनाओं के
लिए पर्यावरण मंजूरी की प्रक्रिया को उदार बनाना सरकार द्वारा निजी पूंजी को फ़ायदा
पहुंचाने के प्रयास हैं । विदेशी पूंजी के हित में एफ़ डी आई की मंजूरी, बीमा के जरिए स्वास्थ्य और निजी शिक्षा संस्थाओं के रास्ते शिक्षा में उनके
प्रवेश की आहट सुनाई पड़ रही है । ‘मेक इन इंडिया’ का नारा विदेशी पूंजी के पक्ष में निर्यातोन्मुखी उद्योगीकरण का उपाय है ।
अनेक देशों में विकास के प्रदर्शन के नाम पर इस उपाय का सहारा लिया गया है, लेकिन
कहीं भी इससे देशी अर्थतंत्र को मजबूती नहीं मिली है । अलबत्ता इस उपाय से अर्थतंत्र
के एक हिस्से में नकली तेजी पैदा करके शेष अर्थव्यस्था को खतरे में डालने का इतिहास
सबका जाना हुआ है । निजी पूंजी की सुविधा के लिए लेबर इंस्पेक्टरों की जांच की जगह
संस्थानों की ओर से श्रम कानूनों के पालन के स्व-प्रमाणन की बात हो रही है । मारुति
की कार अल्टो की चालक सीट का कवर बनाने का कारखाना ही तिहाड़ में लगाया गया है । न्यूनतम
मजदूरी और बाल श्रम कानून में भी संशोधन का प्रस्ताव है ।
16 विकास की कुल बातचीत का
मकसद हालात में वास्तविक सुधार की जगह मनोवैज्ञानिक तुष्टि प्रदान करना है । सबसे
ऊंची मूर्ति, मंगल ग्रह अभियान, बुलेट ट्रेन आदि का ढोल इसी कारण पीटा जा रहा है ।
प्राचीन ज्ञान गुरु का दावा पहले से ही रहा है । इस तरह की रणनीति लगभग सभी गरीब
मुल्कों के शासक अपनाते रहे हैं । जनसमुदाय की वास्तविक स्थिति में रोजमर्रा के अपमान
से पैदा उनके सहज बोध में मौजूद प्रतिरोध की चेतना के सहारे इसका मुकाबला करना ठीक
होगा । भाजपा जानती है कि गरीबी में रह रहे मनुष्य को झूठी शान के इस भावनात्मक
धोखे की जरूरत होती है ।
17 देश विभाजन, बाबरी मस्जिद
विध्वंस और वर्तमान सरकार का गठन देश में हिंदू ध्रुवीकरण और अल्पसंख्यक, खासकर
मुस्लिम विरोध, का परिणाम रहे हैं । देश के बंटवारे ने हिंदू-मुस्लिम विभाजन का
स्थायी स्रोत बना दिया था, बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर बनाने का सपना उसी किस्म
के ठोस ढांचे की स्थापना है जो भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों को उनकी सामाजिक
हैसियत हमेशा बताती रहे । इसलिए किसी भाजपाई द्वारा उसके निर्माण संबंधी वक्तव्य या
संकल्प को प्रलाप मानना उचित न होगा । वर्तमान सरकार बहुसंख्यकवाद के आधार पर लोकतंत्र
को पुनर्व्याख्यायित करने की कोशिशों को समर्थन और बढ़ावा देती दिखाई दे रही है । जबकि
लोकतंत्र की बुनियाद बहुसंख्यकों नहीं, अल्पसंख्यकों के अधिकारों को सुरक्षा प्रदान करना ही माना जाता है । सत्ता
के संसाधन के दुरुपयोग और गुंडा वाहिनी के गैर कानूनी कदमों के समन्वित तालमेल से फ़िलहाल
उन्माद को हवा दी जा रही है । भविष्य में इसी कार्यनीति के सहारे बड़े से बड़े हत्याकांडों
को भी खामोशी से अंजाम दिये जाने के संकेत हैं ।
18 धर्मांतरण से जुड़ी हुई
सबसे बड़ी समस्या जाति-व्यवस्था के रूप में सामने आई है । इसके साथ ही अंबेडकर की
हिंदू समाज व्यवस्था के बारे में बुनियादी मान्यताएं, कि दलित जातियां हिंदू समाज का अंग नहीं हैं
और कि हिंदू समाज जाति-आधारित ऊंच-नीच के
बिना नहीं रह सकता, बहुत कुछ सही साबित हो रही हैं । हिंदू समाज
में इसी वजह से धर्मांतरण की कोई धारणा नहीं रही थी । अंग्रेजों के आने के बाद जब भारतीय
लोग समुद्र पारकर विदेश जाने लगे तो समुद्र के नमकीन पानी में हिंदू धर्म के गल जाने
की बात कही जाने लगी । विदेश से लौटने के बाद उनकी शुद्धि के लिए जो कर्मकांड किए जाते
थे उनमें गाय का गोबर खिलाना या गोमूत्र पिलाना या कुछ जगहों पर गोमूत्र छिड़कना आदि
होते थे । देहाती इलाकों में जाति से बहिष्कृत परिवार को वापस जाति में लाने के लिए
सामूहिक भोज का प्रचलन है । संघ ने तथाकथित ‘घर वापसी’
के बारे में कहा कि इसके जरिए हमने वापस आए लोगों को ‘स्वाभिमान और सलामती’ प्रदान की है । इसमें निहित धमकी
की भाषा को पहचानना मुश्किल नहीं है ।
19 मुस्लिम विरोध के साथ ही
कम्युनिस्ट विरोध भी इन ताकतों की रणनीति का जरूरी अंग है क्योंकि सामाजिक चेतना
से मजदूरों-किसानों के सवालों को गायब किए बिना कारपोरेट हितों की बेशर्म तरफ़दारी
मुश्किल होगी और उसके लिए चीन विरोध के हथियार को आजमाया जाता रहा है । समूचे
बौद्धिक विमर्श से जनता की उत्पादक ताकतों के सवाल हट गए हैं और सोचे समझे तरीके से
ऐसे प्रतीक निर्मित किए जा रहे हैं जो जीवन में आर्थिक सफलता को गरिमा प्रदान कर
रहे हैं । हाल में फ़िल्मी कलाकारों और क्रिकेट के खिलाड़ियों आदि का महिमामंडन
लोगों के दिमाग में गंभीर सामाजिक राजनीतिक कर्म के अवमूल्यन की कोशिश का अंग हैं
। नव-उदारवादी आर्थिकी के तहत सेलेब्रेटी सितारों की जीवन शैली को गौरवान्वित किया
गया और उसके बाद राजनीति में उन्हें लाकर विधायी कामों की जिम्मेदारी भी उन्हीं को
सौंप दी गई है । यह भी वाम-विरोधी वैचारिक मुहिम का ही अंग है । फ़िलहाल कम्युनिस्ट
विरोध की बात सीधे सीधे न कहकर माओवादियों के खात्मे के नाम पर वामपंथ विरोधी वैचारिक
माहौल के जरिए की जा रही है । इससे विकास के कारपोरेट-समर्थक विमर्श में मदद मिल रही है और पूर्व सरकार
द्वारा निर्मित वातावरण का लाभ भी । आश्चर्यजनक नहीं कि जिन चीजों का वैचारिक
विरोध करने का आवाहन दक्षिणपंथियों की ओर से किया जा रहा है उसमें मैकालेवाद,
मिशनरी और मुस्लिम आतंकवाद के साथ मार्क्सवाद और भौतिकवाद भी हैं ।
संपदा के सृजन में मेहनत की जगह कौशल और व्यापार की भूमिका को अधिक महत्वपूर्ण
साबित करने के प्रयास भी न केवल सतही भाषणों और सरकारी घोषणाओं में, बल्कि अकादमिक दुनिया में भी होने लगे हैं ।
20 सारत: पूंजी के पक्ष में उसके शोषण के शिकार लोगों को खड़ा कर देने की यह विशिष्ट
राजनीति है जिसका प्रयोग आम तौर पर संसदीय लोकतंत्र के परदे में अपना स्वार्थ साधने
वाली पूंजी संकट में करती है । संकट में पड़ने पर पूंजीवाद कभी सामंती ताकतों से समर्थन
लेने से परहेज नहीं करता रहा है । इंग्लैंड में महारानी और जापान में सम्राट के ताज
की मौजूदगी तथा अमेरिका में इसाई कठमुल्ला ताकतों का राजनीतिक प्रभाव इसी तथ्य की गवाही
देते हैं । भारत में भी जाति आधारित हिंदू धर्म पूंजीवाद के लिए सस्ते श्रम को जुटाने
का साधन रहा है और आज श्रमिकों को बांटने और भ्रमित करने का अस्त्र बन गया है ।
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