फ़्रांसिस ह्वीन और मेरी गैब्रियल की मार्क्स की जीवनियों के
बाद 2013
में जोनाथन स्पर्बर लिखित ‘कार्ल मार्क्स
: ए नाइंटींथ सेंचुरी लाइफ़’ शीर्षक जीवनी का प्रकाशन
लिवराइट पब्लिशिंग कारपोरेशन ने न्यूयार्क और लंदन में एक साथ किया है । जीवनी लेखक
ने भूमिका में घोषित किया है कि मार्क्स को उनके समय में रखकर देखना उचित होगा और इसमें
अंतर्निहित मान्यता है कि उनकी सदी और वर्तमान सदी में समानताओं से अधिक भिन्नताएं
हैं । दूसरी बात कि इसमें लेखक ने उनकी मशहूर किताबों के साथ ही ‘हर फ़ोग्ट’ या ‘द सीक्रेट डिप्लोमैटिक
हिस्ट्री आफ़ द एटींथ सेंचुरी’ जैसी कुछ कम प्रसिद्ध किताबों पर
भी ध्यान देने का वादा किया है । तीसरे उनका दावा है कि उस समय की जर्मन में जिन शब्दों
का जो अर्थ होता था उसके हिसाब से कुछ शब्दों के नये अनुवाद किए गए हैं जो मूल के अधिक
नजदीक हैं ।
मार्क्स की हाल की जीवनियों में इस तथ्य पर जोर दिया गया है
कि उनका संबंध यहूदियों के धर्मगुरु कहलाने वाले रबाइ लोगों से था । त्रिएर के
यहूदी समुदाय के रबाइ मार्क्स के पूर्वज थे । गैब्रियल ने तो
कैपिटल की विस्तृत व्याख्या वाली शैली को भी रबाइ ज्ञान परंपरा
से जोड़ा है । त्रिएर के यहूदियों की स्थिति को बदलने में क्रांतिकारी फ़्रांस की पवित्र
रोमन साम्राज्य के साथ 1792 की लड़ाई की भूमिका थी । इसमें फ़्रांस
की विजय हुई । फ़्रांस की नयी सरकार महज जमीन पर कब्जा नहीं चाहती थी, उसने सामाजिक राजनीतिक बदलाव भी लाने शुरू किए । त्रिएर पर फ़्रांस का शासन
बीस साल तक रहा । बीच में 1797 में त्रिएर को फ़्रांस में मिला
भी लिया गया था । उधर फ़्रांस में नेपोलियन ने क्रांतिकारी शासन को खत्म करके अपने को
बादशाह घोषित कर दिया । 1804 में जब वह अपने साम्राज्य के भ्रमण
पर निकला तो त्रिएर भी आया जहां उसका भरपूर स्वागत हुआ । उसने चर्च के साथ संधि की
और 1810 में त्रिएर को उसका कैथिलोक बिशप वापस मिला ।
इस उठापटक में यहूदी समुदाय भारी उलट फेर से गुजरा । लेखक ने
सारे यूरोप में बिखरे हुए यहूदियों को ‘राष्ट्र’ कहा है और बताया
है कि ‘राष्ट्र-राज्य’ के उदय से पहले अलग अलग देशों में यहूदी स्थानीय शासन के नियमों के हिसाब से
उनके रहमो-करम पर निर्भर थे । त्रिएर में उन्हें रहने और कुछ
पेशों में काम करने के लिए समुदाय के बतौर कर देना पड़ता था । फ़्रांसिसी शासन में यह
भेदभाव खत्म हो गया था और इसी का लाभ उठाकर मार्क्स के पिता ने अदालत में अटार्नी का
काम पकड़ लिया था । जब दोबारा कैथोलिक जमाना वापस आया तो उन्हें उस काम से निकाला जाने
लगा । नतीजतन उन्होंने अपना धर्म बदल लिया और कैथोलिक तो नहीं, ईसाई होते हुए भी विरोधस्वरूप प्रोटेस्टेंट धर्म अंगीकार किया । जीवनीकार ने
इसे तार्किकता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का प्रमाण माना है । आश्चर्य नहीं कि मार्क्स
जीवन भर पिता की तस्वीर रखे रहे और उनके देहांत के बाद इसे भी उन्हीं के साथ दफना दिया
गया था । पिता-पुत्र दोनों ही प्रशियाई राजतंत्र के मुखालिफ़ रहे
।
त्रिएर में स्कूली शिक्षा के खात्मे के बाद आगे की पढ़ाई के
लिए 1835 में बान गए । गैब्रियल ने बान के जीवन में उनके लड़ाकू और झगड़ालू स्वभाव
का विस्तार से जिक्र किया है और उन्हें मुसीबत मोल लेने वाला चित्रित किया है
लेकिन स्पर्गर ने इसके पीछे त्रिएर में मौजूद ‘स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व’ के फ़्रांसिसी मूल्यों और शेष
जर्मनी से आए विद्यार्थियों के अनुदारवादी मूल्यों की टकराहट को कारण बताया है और
यह भी सूचित किया है कि मार्क्स त्रिएर गुट के नेता थे । इसी सिलसिले में उन्होंने
उस समय के जर्मनी में प्रचलित तलवारबाजी भी की थी । पिता के प्रभाव में वे बान में
जिस पेशे के लिहाजन पढ़ाई कर रहे थे वह कानून से जुड़ा हुआ था लेकिन इसमें पूरी पढ़ाई
और बाद में भी बहुत दिनों तक कोई कमाई होनी नहीं थी । ऊपर से ये सब झमेले, इसलिए विश्वविद्यालयी शिक्षा के लिए वे बर्लिन आए । बर्लिन के लिए निकलने
से पहले ही बचपन की परिचिता चार साल बड़ी जेनी से सगाई हुई । बड़ी उम्र की लड़की से
शादी का फैसला स्थापित सामाजिक मान्यताओं से मार्क्स का पहला विद्रोह था ।
बर्लिन में एक नया शौक पैदा हुआ । वे एक कवि समूह में शामिल
तो हुए ही खुद भी कविताओं के लेखक बनने की सोचने लगे । जेनी को समर्पित प्रेम
कविताओं से एकाधिक कापियों को भर डाला । हेगेल के चिंतन से भी मुहब्बत पैदा हो गई
। हेगेल के चिंतन पर विचार करते हुए लेखक ने कांट से उसके संबंध को अच्छी तरह से व्याख्यायित
किया है । कांट ने अनुभववाद की सीमा इस बात में देखी कि वैध ज्ञान इंद्रिय संवेदन से
ही नहीं हासिल हो सकता । हमारे सामने ‘वस्तु निज रूप’ कभी उद्घाटित
नहीं होता । लेकिन कांट के चिंतन में ज्ञाता और ज्ञेय का अंतर बना हुआ था । हेगेल ने
इसी पर प्रहार किया और ज्ञान को ज्ञाता के ही ज्ञेय बन जाने की प्रक्रिया में देखा
। आज यह सब अमूर्त लग सकता है लेकिन उस जमाने में हेगेल के विचार तकरीबन धर्मादेशों
की तरह छा गए ।
बर्लिन में पढ़ाई के डेढ़ साल पूरे हुए थे कि पिता की मृत्यु हो
गई । मार्क्स को बहुत धक्का लगा । माता के मुकाबले पिता से अधिक संवाद था । उसके बाद
मार्क्स सारी जिंदगी धन के मामले में जुगाड़ पर ही जिंदा रहे । पिता के देहांत के बाद
माता से लड़ झगड़कर शेष ढाई सालों की पढ़ाई का खर्च हासिल किया । ध्यान दोबारा लगाया तो
दर्शन की दुनिया अधिक आकर्षक लगी । युवा हेगेलपंथियों का संग मिला । उन्हीं में से
एक स्ट्रास ने जीसस की जीवनी लिखी और पाया कि क्राइस्ट के जीवन की कहानियों में सचाई
कम मिथकीकरण अधिक है । इन कहानियों में फ़िलिस्तीन के यहूदियों के आशाओं, विश्वासों
और अपेक्षाओं का मिथकीय प्रस्तुतीकरण हुआ है । स्ट्रास की इस बात से बवाल पैदा हो
गया । ब्रूनो बावेर ने कहा कि ईसाई कथाओं को मिथकीय रूप में सामूहिक चेतना की अभिव्यक्ति
समझने से धार्मिक आत्म-चेतना के महत्व की अनदेखी होती है । इन
कथाओं के लेखकों ने मिथकों को उठाकर मनुष्य की आत्म-चेतना की
अभिव्यक्ति में बदल डाला है । लुडविग फ़ायरबाख ने दोनों की बातों का सामान्यीकरण किया
और कहा कि सभी धर्म अलगाव में पड़े हुए मनुष्य की प्राणी के बतौर आत्म-चेतना की अभिव्यक्ति रहे हैं । मसलन दिव्यता, ईश्वरीय
प्रेम, न्याय और दया जैसे गुण मनुष्य के प्राणी रूप में सर्वोत्तम
गुण हैं और इन्हीं को अपने आपसे अलगाकर उसे परम सत्ता में निवेशित कर दिया गया है ।
जर्मनी के उस समय के राजनीतिक हालात ने हेगेलपंथियों को लोकतांत्रिक
राजनीति की ओर झुकने के लिए विवश कर दिया । विश्वविद्यालयों में उनके लिए जगह नहीं
रही इसलिए वे स्वतंत्र लेखक या पत्रकार बने । मार्क्स का भाग्य भी इन्हीं के साथ बंधा
हुआ था । बर्लिन विश्वविद्यालय में कोई ऐसा अध्यापक बचा नहीं था जिसके निर्देशन में
इस युवा हेगेलपंथी का शोध जमा हो पाता इसलिए मार्क्स ने ऐसा विश्वविद्यालय चुना जहां
से शोधकर्ता की अनुपस्थिति में भी शोध जमा हो जाता और उपाधि भी मिल जाती । जेना विश्वविद्यालय
भी प्रसिद्ध था लेकिन शोध की उसकी फ़ीस सबसे कम थी इसलिए वहीं शोध जमा हुआ और उपाधि
मिली ।
तेईस साल की उम्र में पढ़ाई खत्म करके मार्क्स त्रिएर लौटे ।
किसी विश्वविद्यालय में अध्यापन की आशा खत्म होने के बाद कोलोन से प्रकाशित
राइनिशे जाइटुंग ने उन्हें कार्यकर्ता में बदल दिया । इस अखबार ने युवा
हेगेलपंथियों, क्रांतिकारी बौद्धिकों और कोलोन के नागरिकों में उन्हें स्थापित तो
किया लेकिन जीवन भर के लिए प्रशियाई राज्य का दुश्मन भी बना दिया । पहला लेख ही
उन्होंने प्रेस की आजादी के बारे में लिखा था । इसकी आजादी के दुश्मनों को
उन्होंने पुराने समाज के रक्षक साबित किया और इसकी आजादी को आगामी लोकतांत्रिक
शासन का अग्रदूत बताया । अखबार अपनी सत्ता विरोधी छवि के चलते संकट की ओर बढ़ रहा
था । जब मार्क्स इसके संपादक बने तो उन्होंने आलोचना को थोड़ा नरम बनाया, खासकर
युवा हेगेलपंथियों की भड़काऊ नास्तिकता के प्रकाशन को रोका ताकि लोकतांत्रिक आलोचना
के इस माध्यम को चलाते रखा जाय ।
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