Saturday, February 23, 2013

21 फ़रवरी 2013 जंतर मंतर


                                          
संसद पर जनता की निगरानीके तहत जंतर मंतर पर बैठे हुए फ़िराक़ गोरखपुरी का एक शेर बार बार मन में गूंज रहा था शेर कुछ यूं है :
               राजहठ से जो प्रजाहठ कभी टकराई है
               वक़्त के दिल के धड़कने की सदा आई है
वहां वे औरतें थीं जिन्हें क़ैद रखने की कोशिशें तो हजारहां हुईं लेकिन लाख बंदिशों के भीतर भी जो सदियों से अपने लिए जूझकर जगह बनाती आई हैं अगर आप अपने घरों के सामंती कैदखानों में बसी औरतों के प्रतिरोध का इतिहास याद करें तो इस आंदोलन की सफलता में रत्ती भर भी संदेह नहीं रहेगा । जिसको भोजपुरी में कहते हैं कि सरकार ने अच्छे घर न्यौता दिया है । शायद उसे भी अनुमान न होगा कि किस सोई ताकत को उसने छेड़ा है । याद आती रहीं मेरी दादी जो चौथी पत्नी होने और दस बच्चे जनने के बाद भी इतनी आज़ादी अर्जित कर सकी थीं कि मेरे भाइयों को पढ़ाने के लिए पैसे की कमी न होने भर उधारी का समानांतर अर्थतंत्र चलाती रहीं । दूसरी दादी के पति नपुंसक थे और संतान न पैदा होने के नाम पर जब पति की दूसरी शादी कराने की बात चली तो उन्होंने शर्त रखी कि होने वाली पत्नी आकर रहे और अगर गर्भ ठहर गया तो वे इसकी मंजूरी दे देंगी । याद आई मां जिसने पिता के विवाहेतर संबंध की जानकारी होने पर महीनों उनका मुंह नहीं देखा और मरते मरते उनमें अपराध बोध जगा गईं । अगर उस जमाने में औरतें इस हद तक जूझ सकीं तो आज उनके कदम बांधने का सपना देखना दिवास्वप्न ही साबित होगा । असल में यह समाज और सत्ता औरत को लेकर बेहद पशोपेश में है । वह उन्हें पूरी तरह खत्म नहीं कर सकता क्योंकि बच्चे कौन जनेगा । आज़ादी से रहने नहीं दे सकता क्योंकि तब प्राधिकार कौन मानेगा ।
उस प्रदर्शन को देखना राजनीतिक प्रतिरोध की नई भाषा से दो चार होना था । भाषण तो थे ही नहीं या थे भी तो बस नाम के लिए थे । गीत, नृत्य और संगीत में ढले प्रतिरोध ने वह समय याद दिला दिया जब प्रदर्शन का मतलब समग्र जन उभार हुआ करता रहा होगा । बीच में राजनीति का अर्थ शुद्ध संसदीय चुनाव की जोड़ तोड़ रह जाने पर कम्युनिस्ट भी इकहरी अभिव्यक्ति के आदी हो गए थे । लेकिन इस आंदोलन ने जब सत्ता की पाबंदियों को तोड़ा तो इस पितृसत्तात्मक सोच को भी चुनौती दी कि सार्वजनिक मंच पर जंतर मंतर पर नाच-गाना नहीं होगा । शुक्रिया ।        

Sunday, February 17, 2013

पूँजी का संकट और समाजवादी प्रयोग


            
                                             
आज के शायद दस साल भी पहले अगर इस विषय पर कोई लेख लिखा जाता तो शीर्षक उलटा होता यानी तब संकट समाजवाद का था और पूँजीवादी लोकतंत्र के विश्व विजय की घोषणा के सहारे इतिहास के अंत के दावे किए जा रहे थे लेकिन पिछले दिनों के हालात ने पूरी धारणा ही पलट दी है आज पूँजीवाद अपने जीवन के सबसे भयावह संकट से गुजर रहा है । जिन देशों ने भी विश्व बैंक द्वारा सुझाए गए कदम उठाए उनकी अर्थव्यवस्था जानलेवा फाँस का शिकार हो चली है । यह सब कुछ शुरू हुए काफी दिन हो गए लेकिन हमारे देश में शासक वर्ग ने बड़ी पूँजी के साथ नत्थी मीडिया के सहयोग से जैसा बौद्धिक माहौल बना रखा है उसमें खबरों की दुनिया पर एक तरह की पूँजी समर्थक सेंसरशिप तो है ही उन खबरों के निहितार्थों को आम बोध का अंग बनने में समय लग रहा है
यह कहने की कोई खास जरूरत नहीं कि पूँजीवाद और समाजवाद में छत्तीस का आँकड़ा है । शुरू में ही यह बात साफ कर देना गलत नहीं होगा कि हालाँकि समाजवादी सिद्धांत और व्यवहार के अन्य स्रोत संभव हैं और पिछले सौ डेढ़ सौ सालों के लंबे इतिहास में वे जनपक्षधर बदलाव के लिए होने वाले आंदोलनों के प्रेरणा के स्रोत भी रहे हैं लेकिन यह तो मानना होगा कि मार्क्सवादी सिद्धांत और व्यवहार इसका एकमात्र नहीं तो सबसे महत्वपूर्ण स्रोत बना हुआ है । पिछली महामंदी (1929-1936) के दौरान सोवियत संघ में योजनाबद्ध विकास की सफलता की वह कहानी ही थी जिसने दूसरे विश्व युद्ध के खात्मे के बाद पूँजीवादी देशों को भी कुछ हद तक संकट से पार पाने के लिए जनता की क्रय शक्ति बढ़ाने का तरीका आजमाने के लिए मजबूर किया था । वर्तमान पूँजीवादी संकट की खासियत यह है कि इस समय विकल्प के बतौर सोवियत संघ जैसा कोई दूसरा विरोधी खेमा नहीं है । जो चीन इसका दावा कर सकता है और अपनी समाज व्यवस्था कोचीनी विशेषताओं वाला समाजवादकहता है उसे देश के रूप में  अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना दबदबा बढ़ाने वाली ताकत तो माना जा सकता है लेकिन ‘बाज़ार समाजवाद’ को समाजवाद का नया और भरोसेमंद प्रयोग मानने के लिए शायद ही कोई तैयार होगा ।
असल में समाजवाद के जिन नए प्रयोगों ने लोगों का ध्यान खींचा है वे दुनिया के उस इलाके में (लैटिन अमरीका) हो रहे हैं जहाँ नव-उदारवादी प्रयोग शुरू किया गया था और शायद इसी कारण पूँजीवाद का संकट भी गहराई से दिखाई पड़ना शुरू हुआ और इसीलिए उसका प्रतिरोध भी वहीं होना लाजिमी था । याद दिलाने की जरूरत नहीं कि लैटिन अमरीका की पहली वामपंथी सरकार (चिली में अलेंदे) को पलटकर सत्ता में आई पिनोशे सरकार ने पहली बार नव-उदारवादी एजेंडा लागू करने के लिए शाक थेरापी’ की पद्धति का इस्तेमाल किया था । इसी वजह से फ़िलहाल सर्वाधिक चर्चित हंगारी मार्क्सवादी चिंतक इस्तवान मेज़ारोस इस संकट की शुरुआत 1960 के दशक के उत्तरार्ध से ही मानते हैं । वे इसे न सिर्फ़ पूँजीवाद का संकट मानते हैं बल्कि समग्र पूँजी का संकट मानते हैं और इसकी व्याख्या के लिए मार्क्स द्वारा चिन्हित उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य के बीच मौजूद विरोध व उपयोग मूल्य पर विनिमय मूल्य की बढ़ती में इसके स्रोत की पहचान करते हैं । इसकी व्याख्या के लिए पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली के मार्क्स के विश्लेषण पर एक नजर डालना उपयोगी होगा । अपने ग्रंथ ‘पूँजी’ में मार्क्स बाज़ार में बिक्री के लिए आई हुई किसी भी वस्तु में दो तरह के मूल्यों की मौजूदगी मानते हैं । पहला तो है उपयोग मूल्य यानी बिकने के लिए उस वस्तु को उपयोगी होना चाहिए हालाँकि सभी उपयोगी वस्तुएँ बेची नहीं जा सकतीं मसलन हवा या धूप लेकिन बिक्री के लिए वस्तु का उपयोगी होना अनिवार्य है । यही उसमें निहित उपयोग मूल्य है जिसके आधार पर दूसरे उपयोग मूल्य से उसका लेन देन यानी विनिमय होता है । लेकिन यह विनिमय वस्तु के उपयोग मूल्य के आधार पर ही नहीं होता बल्कि इसमें विनिमय मूल्य भी शामिल हो जाता है जो उपयोग मूल्य से अधिक होता है । इससे पूँजीवाद का बुनियादी अंतर्विरोध पैदा होता है जो मार्क्स के मुताबिक उसकी सभी समस्याओं की जड़ में है । हम देख सकते हैं कि पूँजीवाद के विकास के साथ साथ यह अंतर्विरोध भी तीखा होता जाता है । उदाहरण के लिए पूँजीवाद में आजकल जो संकट आया है वह उत्पादन की बनिस्बत सट्टा बाज़ार के जरिए तुरंत मुनाफ़ा कमा लेने की होड़ का नतीजा है जिसके चलते पैसा डूबने की नौबत आने पर कुछ ऐसा होता ही नहीं जिसके जरिए बुनियादी लागत वापस मिल सके । पूँजी से पूँजी बनाने के इस पागलपन के दुष्परिणाम मार्क्स ने भी बताए थे । इसीलिए मेजारोस ने वर्तमान संकट की विशेषताएँ गिनाते हुए कहा है कि यह संकट एक झटके में नहीं आया बल्कि इसकी गति कछुआ चाल जैसी है । बैंकों से पैदा होकर धीरे धीरे यह फैला जा रहा है । किसी एक सेक्टर या एक देश तक सीमित रहने की बजाए यह सर्वाश्लेषी और सर्वव्यापी है । पूँजीवाद के भूमंडलीकरण के चलते इसका असर भी भूमंडलीय हो गया है ।  उनका कहना है कि वर्तमान दौर समाजवाद के लिए रक्षात्मक नहीं बल्कि आक्रामक दौर है । इस दौर की शुरुआत की बात करते हुए इसे वे पूँजी के संरचनागत संकट से जोड़ते हैं और इस संकट के लक्षण गिनाते हुए बताते हैं कि 1) यह सार्वभौमिक है, उत्पादन की किसी विशेष शाखा तक महदूद नहीं है 2) इसका प्रभाव क्षेत्र सचमुच भूमंडलीय है, किसी देश विशेष तक सीमित नहीं है 3) यह दीर्घकालीन, निरंतर, स्थायी है, पहले के संकटों की तरह चक्रीय नहीं है 4) इसका प्रकटीकरण रेंगने की गति से हो रहा है, नाटकीय विस्फोट या कोलैप्स की तरह नहीं ।
सोवियत संघ के पतन के बाद के शुरुआती झटके से उबरने और उसे समझने में जिन चिंतकों ने मदद की थी उनमें रणधीर सिंह अन्यतम हैं । उन्होंने मार्क्सवाद को पूँजीवाद की समग्र आलोचना के रूप में ग्रहण करने का प्रस्ताव किया है । उनके कहने का अर्थ यह है कि समाजवाद को पूँजीवाद की आलोचना के बतौर विकसित होना चाहिए था मार्क्स ने पूँजीवाद की जो आलोचना की उसकी एक ध्वनि यह भी है कि वह मनुष्य के बुनियादी स्वभाव के अनुकूल नहीं होता क्योंकि मनुष्य बुनियादी तौर पर सामाजिक प्राणी होता है और पूँजीवाद मनुष्य को एक दूसरे से अलग करता है और उससे सहकार का भाव छीनकर आपसी प्रतियोगिता को उसके जीवन की शर्त बना देता है । समाजवाद इसी क्षति को खत्म करके मनुष्य को उसकी असली दुनिया प्रदान करता है । यहीं मेज़ारोस की इस आलोचना का अर्थ खुलता है जिसमें वे कहते हैं कि बीसवीं सदी की समाजवादी व्यवस्थाओं को महज पूँजीवाद का नहीं बल्कि पूँजी का ही विकल्प बनना था लेकिन उन्होंने अपना काम राजनीतिक क्रांति के संपन्न होने के बाद आर्थिक खुशहाली तक ही महदूद मानकर संतोष कर लिया था और इसे आगे ले जाने की कोई योजना नहीं बना सकी थीं । रणधीर सिंह ने इसका लक्षण इस बात को माना है कि महज आँकड़ों में आर्थिक उन्नति दिखाना समाजवाद की सफलता के साथ जोड़ दिया गया था ।
समाजवाद के निर्माण की समस्याओं पर बात करते हुए रणधीर सिंह कहते हैं कि पूँजीवाद की मार्क्स की आलोचना का केंद्रीय तत्व उत्पादकों से अतिरिक्त मूल्य का अधिग्रहण का तरीका है । इसलिए समाजवाद का मतलब महज पूँजीवादी शोषण, अतिरिक्त मूल्य के अधिग्रहण से मुक्ति नहीं है । यह सब जरूरी तो है लेकिन सब कुछ नहीं है । उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व का खात्मा और उस पर सामाजिक स्वामित्व तो न्यूनतम शर्त है । इससे तो महज शुरुआत होनी होगी । लेकिन इस नए समाज में भी पूँजीवादी व्यवस्था केजन्म चिन्हबने रहेंगे । उन्हें हल करना उनका कर्तव्य होगा जो उस व्यवस्था में होंगे और मार्क्स को भरोसा था कि वे हमसे उन्नत होंगे क्योंकि हम तो वर्ग विभाजित समाज की पैदाइश हैं । समाजवाद की ओर संक्रमण की समस्याओं पर भी मार्क्स ने बहुत ध्यान नहीं दिया । एक बात लेकिन जरूर उनके लेखन से निकलकर आती है कि समाजवाद एक संक्रमणकालीन अवस्था होगा जो मनुष्य को साम्यवाद की ओर ले जाएगा । वे इस बात पर बल देते हैं कि समाजवाद को पूँजीवाद की तरह अलग किस्म का समाज नहीं मानना चाहिए । ऐसा समाज तो साम्यवाद ही होगा । समाजवाद एक तरह से साम्यवाद की निचली मंजिल हो सकता है । उसे हरेक मामले में पूँजीवाद से भिन्न होना होगा । उसके तहत संपत्ति संबंधों का आमूलचूल रूपांतरण होगा, उत्पादन का मकसद निजी मुनाफ़ा नहीं होगा, अर्थतंत्र पर सिर्फ़ कानूनी नहीं बल्कि वास्तविक सामाजिक नियंत्रण होगा, मानव कल्याण के लिए सामाजिक-भौतिक संसाधनों का जनवादी तरीके से नियोजन होगा । मार्क्स की पूँजीवाद की आलोचना के पीछे मनुष्य के प्रति उनका लगाव है इसलिए समाजवादी समाज को मनुष्य की क्षमता का भरपूर विकास कर सकने वाली व्यवस्था होना होगा । पूँजीवाद मूलत: गलाकाट प्रतियोगिता पर आधारित समाज है जो सिर्फ़ पूँजी के मालिकों के बीच ही नहीं होती वरन वह मनुष्य को भी उसकी अंतर्निहित सामाजिकता के बावजूद लालची और इर्ष्यालु बना देता है इसलिए इसके उलट समाजवाद को भाईचारा का आधान बनना होगा । उसी व्यवस्था में मनुष्य सही तौर पर सामाजिक मनुष्य होगा । वे यह भी कहते हैं कि समाजवाद की ओर यह संक्रमण दीर्घकालीन होगा
मेजारोस समाजवादी आक्रामकता के दौर की राजनीतिक कार्यवाही के लिहाज से कहते हैं किअर्थतंत्र की पुनर्संरचनातक अपने आपको सीमित रखने की रणनीति पर दोबारा सोचना चाहिए और उसकी जगह वर्तमान संदर्भ मेंराजनीति के क्रांतिकारी पुनर्गठनके कार्यभार पर बल देना चाहिए । असल में राजनीति में संसदीय लोकतंत्र और कुछ नहीं बल्कि पूँजीवादी शासन पद्धति ही है । इस लिहाज से वे गैर-संसदीय कार्यवाही का अपार महत्व मानते हैं क्योंकि संसदीय ढाँचे में विरोध पूँजीवाद की सीमाओं के भीतर सुधार की संभावना पर आधारित है । इस संभावना ने वाम के भीतर ऐसी धारा को जन्म दिया था जो तमाम यूरोपीय देशों में शासक वर्ग के भीतर समाहित हो गए थे । लेकिन अब पूँजीवाद के भीतर ऐसी कोई संभावना बची नहीं है । इसका एक प्रमाण यह है कि जिस पूँजीवाद ने अपनी सुरक्षा के लिए ‘राष्ट्र-राज्य’ को जन्म दिया था आज वही उसे खत्म करने पर आमादा है ताकि पूँजी की वैश्विक लूट में रत्ती भर बाधा न रहे । इसीलिए सच्ची समाजवादीआर्थिक पुनर्संरचनाकी अनिवार्य पूर्वशर्तराजनीति का जनोन्मुखी पुनर्गठनहै जिसमें राज्य सबके ऊपर कोई अधिरचना न रह जाय बल्कि जनता के कब्जे में रहे । यही रास्ता उसके खात्मे की ओर ले जाएगा जो मार्क्स की परिकल्पना थी ।
मार्क्स ने जिसे ‘सर्वहारा का अधिनायकत्व’ का आदर्श रूप माना था वह पेरिस कम्यून था जिसके बारे में रणधीर सिंह ने बताया है कि ‘सार्वजनिक चुनाव में चुने हुए कम्यून ने बुर्जुआजी की पुराना सैन्य-नौकरशाही की मशीनरी खत्म कर दी, संसदवाद की जगह निर्वाचित निकायों के प्रतिनिधियों के लिए बाध्यकारी राय जताने का जनता को अधिकार दिया और प्रभावी स्वशासन का विकल्प उपलब्ध कराया, नियमित सेना और पुलिस को भंग कर दिया और इसकी जगह जनता को हथियारबंद किया, नौकरशाही का खात्मा किया और सभी प्रशासनिक, न्यायिक, शैक्षिक और दीगर पदों पर सार्वभौमिक मताधिकार के आधार पर निर्वाचित अधिकारियों की नियुक्ति का प्रावधान किया, मतदाताओं की माँग पर किसी भी समय उन्हें वापस बुलाने का नियम बनाया, उनकी तनख्वाह को अन्य श्रमिकों के बराबर घोषित किया, पुलिस और पादरियों के राजनीतिक प्रभाव को बंद किया । आगे की उसकी योजना विकेंद्रित राजकीय व्यवस्था स्थापित करने की थी ताकिराष्ट्र सच्चे मायनों में एकताबद्ध हो सके और इसके लिए राजसत्ता को खत्म किया जाना था जो उस एकता का साकार रूप होने का दावा करती थी लेकिन राष्ट्र से स्वतंत्र और ऊपर तथा उसका परजीवी अपशिष्ट बनी हुई थी ।’ जाहिर है ऐसा राजकीय निकाय सचमुच जनता के हाथ में सत्ता ही होगा ।
लैटिन अमरीकी देशों में चलने वाले प्रयोगों के प्रमुख सिद्धांतकार कनाडियाई मार्क्सवादी मिशेल लेबोविट्ज हैं और वे भी बीसवीं सदी के समाजवादी निर्माण की गलतियों से सीखने पर जोर देते हैं । उन्होंने विशेषकर वेनेजुएला की शावेज सरकार के प्रयोगों के इर्द गिर्द इक्कीसवीं सदी के समाजवाद के लिए कुछ नयी बातें कहते हुए अपने एक लेखस्पेक्टर आफ़ सोशलिज्म फ़ार द 21 सेंचुरीमें समाजवाद को तीन चीजों का समुच्चय माना है ।
1- उत्पादन के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व: यह चीज राजकीय स्वामित्व से अलग है । इसके लिए गहन लोकतांत्रिकता की जरूरत है जिसमें जनता, उत्पादकों और समाज के सदस्य के बतौर हमारे सामाजिक श्रम के परिणामों के उपयोग के बारे में निर्णय लेगी । सामाजिक संपत्ति की उनकी धारणा में अतीत के संचित श्रम की केंद्रीयता है जिसमें औजार और कौशल शामिल हैं । अतीत का यह संचित श्रम हमें मुफ़्त मिलता है और इसी के साथ सहयोग के उपहार को जोड़ देने से सामाजिक उत्पादक शक्ति प्राप्त होती है । इसी सामाजिक विरासत के लिए लड़ाई एक तरह से वर्ग संघर्ष है । पूँजीवाद इसी विरासत से मनुष्य को अलग करता है और उसे पूँजी में बदलकर हथिया लेता है । इसको वापस हासिल करना और जीवित सामाजिक श्रम तथा अतीत के सामाजिक श्रम को संयुक्त करना समाजवाद के लिए आवश्यक है ।
2- मजदूरों द्वारा उत्पादन का संगठन: मजदूरों द्वारा संगठित उत्पादन से उत्पादकों के बीच नए रिश्तों की बुनियाद पड़ती है जो सहयोग और एकजुटता के होते हैं । इसके लिए मजदूरों को काम की जगह पर चिंतन और कर्म को आपस में जोड़ने की क्षमता विकसित करनी होगी । इससे उनमें निर्णय लेने का आत्म-विश्वास आता है । सभी जानते हैं कि चिंतन और कर्म के बीच विभाजन के जरिए शासक तंत्र ऐसे निठल्ले बौद्धिकों की जमात को जन्म देता है जो शासन की वैधता के लिए मूल रूप से तर्क तो जुटाते ही हैं अपनी जीवन शैली के जरिए उस तर्क का साकार रूप हो जाते हैं इसलिए मर्म और सोच के बीच फ़र्क का खात्मा समाजवादी निर्माण की जरूरत हो जाती है ।  
3- सामुदायिक जरूरतों और उद्देश्यों की संतुष्टि: यह बात मानव परिवार के सदस्यों के बतौर हमारी जरूरतों और हमारी साझा मानवता को मान्यता देने पर आधारित है । इसके लिए स्वार्थ से ऊपर उठने और समुदाय तथा समाज के बारे में सोचने के महत्व पर जोर देना होगा । जब तक हम निजी लाभ के लिए उत्पादन करते हैं तब तक दूसरों को प्रतिद्वंद्वी या ग्राहक ही समझते हैं यानी दुश्मन या अपने मकसद को पूरा करने का साधन और इसी कारण एक दूसरे से अलग थलग और एकांगी बने रहते हैं । पूँजीवादी समाज के मनुष्य की इसी एकांगिता को हर्बर्ट मार्क्यूज ने रेखांकित किया था । समाजवाद के आरंभिक त्रिक का यह पहलू आचरण में भिन्नता को मानकर एकता स्थापित करने पर बल देता है । इस तरह हम जनता में एकजुटता का निर्माण तो करते ही हैं अपने को भी अलग तरीके से उत्पादित करते हैं । यह क्रिया समाजवादी मनुष्य के पुनरुत्पादन की गारंटी करती है ।      
लेबोविट्ज अपने एक लेखद इंपोर्टेंस आफ़ सोशलिस्ट एकाउनटेंसीमें मेजारोस की एक नई धारणा ले आते हैं । उनका कहना है कि नया समाजवादी समाज बनाने के लिए नई धारणाओं का निर्माण करना होगा । ये नई धारणाएँ पूँजी की तार्किकता के मुकाबले सामाजिक तार्किकता की स्थापना करेंगी । इस सिलसिले में वे मेजारोस कीसमाजवादी एकाउनटेंसीकी धारणा का जिक्र करते हैं जो पूँजी के तर्क में निहितएकाउनटिंग और एडमिनिस्ट्रेशनके बरक्स प्रस्तावित किया गया है । इसमें पूँजीवादी व्यवस्था के परिमाण पर जोर के विपरीत गुण पर जोर दिया जाना चाहिए । ध्यान देने की बात है कि आज जो बेरोजगारी पश्चिमी देशों में आम तौर पर 15% से ऊपर ही चल रही है वह पूँजीवादी व्यवस्था में कोई अपवाद नहीं, नियम है । इसी चीज को मार्क्स ने ‘मजदूरों की रिजर्व सेना’ की धारणा के जरिए चिन्हित किया था । पूँजीवाद के लिए इसका महत्व यह होता है कि बेरोजगारों के बल पर वह मजदूरी की दर कम बनाए रखने में कामयाब होता है । इतना ही नहीं मेजारोस का मानना तो यह है कि पूँजीवाद मूल तौर पर बरबादी का उत्पादन करता है । अब वह सचेत रूप से ऐसी वस्तुओं का उत्पादन कर रहा है जो जल्दी खराब हो जाएँ ताकि लोग ज्यादा से ज्यादा वही चीजें खरीदें । इसके बरक्स समाजवादी समाज में उत्पादन का लक्ष्य जनता की जरूरतों की सीधी संतुष्टि होना चाहिए । इसका दूसरा पैमाना स्वतंत्र समय की बढ़ती होना चाहिए जिसे मनुष्य अपने आपको साकार करने के लिए रचनात्मक तरीके से इस्तेमाल करेगा और अनिवार्य श्रम के समय की तानाशाही से आज़ादी हासिल करेगा । इस तरह समाजवादी लेखा जोखा अनिवार्य श्रम समय’ के निषेध पर आधारित होगा ।इतिहास में आगे चलकर स्वतंत्र समय का उत्पादन मुक्ति की अनिवार्य शर्त होगा ।यह पूँजीवाद की इस स्थिति के विरोध में होगा जहाँ समय ही सब कुछ होता है, मनुष्य कुछ नहीं होता । समाजवादी लेखा की धारणा की जरूरत पूँजीवादी लेखा और सक्षमता की पूँजीवादी धारणा को तोड़ने के लिए है । स्वतंत्र समय मानव विकास और व्यवहार से जुड़ा हुआ है इसलिए समाजवादी लेखा की धारणा यहाँ आकर परिस्थिति को बदलने के साथ ही खुद को बदलने के क्रांतिकारी आचरण से मिल जाती है । इस तरह यह मानव क्षमता में विकास को भी समाहित करती है । जहाँ पूँजीवादी लेखा उत्पादन के समय को ध्यान में रखता है और मानव क्षमता का मूल्यांकन प्रति इकाई वस्तुओं के उत्पादन में लगे मानव श्रम के हिसाब से  करता है वहीं समाजवादी लेखा मनुष्य के लिए आवश्यक निवेश के आधार पर श्रमिक की क्षमता में विकास का आकलन करता है । यही बातें उन्होंने अपनी किताब ‘द सोशलिस्ट अल्टरनेटिव : रीयल ह्यूमन डेवलपमेंट’ में और भी प्रभावशाली तरीके से दुहराई हैं ।
हाल के दिनों में मार्क्सवाद की ओर रुझान को देखते हुए एक फ़्रांसिसी मार्क्सवादी एलेन बादू ने इस समय को मार्क्सवाद के उभार का तीसरा दौर कहा है । इसके पहले के प्रथम दौर को वे 1792 में फ़्रांसिसी गणतंत्र की स्थापना से लेकर 1871 में पेरिस कम्यून के पतन तक मानते हैं । उनके अनुसार इसके बाद का दूसरा दौर 1917 की रूसी क्रांति से शुरू होकर 1976 में चीन में माओ की सांस्कृतिक क्रांति के खात्मे तक चला था । नई पीढ़ी के लोगों को बदलाव की प्रक्रिया अभी तमाम किस्म के आंदोलनों के क्षणिक उभार में दिखाई दे रही है । हमने देखा कि पिछले कुछेक दशकों में विश्व सामाजिक मंच के गठन से लेकर सिएटल के प्रदर्शनों से होते हुए यह उभार 1% की सत्ता के विरुद्ध 99% द्वारा ‘अकुपाई वाल स्ट्रीट’ आंदोलन तक आ गया है । इसी उभार को आगे स्थायी प्रतिरोध की ओर ले जाने का रास्ता आंदोलनकारियों की इस नई पीढ़ी को मार्क्सवाद के भीतर नजर आ रहा है । इसका एक कारण यह भी है कि जहाँ पहले के लोगों के सामने शीत युद्ध की रणनीति के तहत समाजवादी देशों के नेताओं के राक्षसीकरण अभियान के कारण स्तालिन या माओ की नरभक्षी छवि होती थी वहीं नयी पीढ़ी के सामने मार्क्सवादियों के बारे में इस तरह का कोई खौफ़ नहीं रह गया है, उनके सामने तो पूँजीवाद की कारगुजारियों का ही त्रासद अनुभव  है ।  
यूरोप के कुछ देशों में नए तरह की वामपंथी राजनीति का उभार हुआ है । इसका बड़ा कारण वहाँ मध्य वर्ग की विशालता और बड़े पैमाने का नगरीकरण भी है । भारत में भी हमें इस परिघटना के दर्शन हो रहे हैं । मशालों की जगह विरोध का प्रतीक मोमबत्ती हो रही है और इसका असर सिर्फ़ दिल्ली नहीं सुदूर कस्बों तक पड़ रहा है । ये लोग प्रतिनिधित्व की जगह सामूहिकता को पसंद कर रहे हैं क्योंकि प्रतिनिधित्व की राजनीति ने उनके साथ लंबे दिनों तक छल किया है । इन सबके कारण भी संगठन और आंदोलन के मामले में फिर से संघवादी और सुधारवादी आवाजें सुनाई पड़ने लगी हैं । इसी को नव वाम जैसी धारा के बतौर भी चिन्हित किया जा रहा है । देखने में यह भी आ रहा है कि अनेक लोग जो विरोध की उत्तर आधुनिक धारा के साथ चले गए थे वे भी नए उत्साह के साथ वापसी कर रहे हैं लेकिन स्वभावत: अपने नए और भ्रामक सूत्रीकरणों के साथ । इसीलिए दोबारा सावधानी के साथ अपने को मार्क्सवादी कहने वालों के प्रति नए सिरे से आलोचनात्मक नजरिया अपनाने की जरूरत है ।


        

Sunday, February 10, 2013

पूर्वोत्तर भारत: कितना अलग, कितना समान ?


            
            (An article published in Sablok January.2013 which I saw today)                                          
       हाल के दिनों में असम की घटनाओं और उनके कारण बाहर रहने वाले पूर्वोत्तर के लोगों के दुखद पलायन से एक बार फिर यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि पूर्वोत्तर भारत क्या एक असमाधेय समस्या का नाम है । इस सवाल की छानबीन के लिए हमें पूर्वोत्तर भारत के इतिहास पर निगाह डालनी होगी । यह एक सचाई है कि अंग्रेजों से पहले पूर्वोत्तर, भारत का अंग नहीं रहा था । मुगलों ने एक बार कोशिश की थी लेकिन वे ब्रह्मपुत्र को पार नहीं कर सके थे । 1826 में पहली बार असम में अंग्रेज, बर्मा के हमलावरों से रक्षा के बहाने आए थे । उन्होंने असम में चाय की खेती शुरू की और पहली बार नकदी फसल की संस्कृति इस क्षेत्र में दिखाई पड़ी । असम में उनकी मौजूदगी को लेकर पहाड़ी इलाकों में रहने वाले सुगबुगाने लगे और तनाव बढ़ने के साथ ही अंग्रेजों ने नए नए इलाकों में घुसपैठ शुरू की । इस प्रक्रिया में उन्हें इतना समय लगा और इतना प्रतिरोध झेलना पड़ा कि शेष भारत से पूर्वोत्तर को अलग रखने के व्यवस्थित उपाय किए गए ।    
       इन्हीं उपायों के तहत इनर लाइन परमिट की व्यवस्था शुरू की गई ताकि शेष भारत के साथ इस क्षेत्र का संपर्क संबंध नाममात्र का रहे असल में अंग्रेजों को इस बात का डर था कि अगर स्वाधीनता की लहर का असर इस इलाके पर पड़ा तो वह मारक होगा क्योंकि इस क्षेत्र पर कब्जा करने में उन्हें शेष भारत के मुकाबले बहुत अधिक समय लगा था । इसी क्रम में इस बात पर भी ध्यान देना चहिए कि स्वतंत्र भारत में जो आधुनिक इतिहास पढ़ाया जाता है उसमें आज़ादी के आंदोलन का इतिहास प्रमुख होता है लेकिन उसमें पूर्वोत्तर कहीं मौजूद नहीं होता मानो शेष भारत तो आज़ादी के लिए लड़ रहा था लेकिन पूर्वोत्तर गुलामी का मजा ले रहा था । जबकि बात ऐसी है नहीं अकेले नागालैंड को काबू में करने में अंग्रेजों के छक्के छूट गए थे । इसी तरह बाकी इलाके भी कभी पूरी तरह शांत नहीं किए जा सके थे । 1857 में सिर्फ़ असम में दो लोगों (मनीराम दीवान और पियोली बरुआ फूकन) को अंग्रेजों ने फांसी दी बल्कि चटगाँव छावनी में विद्रोह हुआ जिसके बाद विद्रोही आज के त्रिपुरा, मणिपुर और कछार तक मोर्चा लेते हुए गुजरे थे इसी समय के आस पास खासी लोगों ने अपनी भाषा के लिए रोमन लिपि के व्यवहार पर आपत्ति उठाई थी 1920 में असहयोग आंदोलन के दौरान चाय बागान के श्रमिकों ने काम छोड़कर अपने अपने घर की राह ली थी जिन्हें काबू करने के लिए बड़े पैमाने पर हिंसा और दमन का सहारा लिया गया था 1942 के समय भी जगह जगह स्थानीय स्तर पर विद्रोह हुए असल में आज़ादी की लड़ाई के इर्द गिर्द आधुनिक भारत का जो इतिहास बनाया जाता है उसकी दुखती रग बँटवारा है इस दुर्घटना को अनदेखा करके ही स्वतंत्रता की खुशी के लिए पाठ्यक्रमों में जगह बनाई जाती है
       भारत के विभाजन को लेकर जो भी बात होती है वह पंजाब और बहुत हुआ तो बंगाल के विभाजन की त्रासदी तक पहुँचती है पूर्वोत्तर का विभाजन भी भारत के बँटवारे से जुड़ा हुआ है इसने बंगाल को बाँटने की लार्ड कर्जन की पुरानी योजना को अमली जामा तो पहुँचाया ही, त्रिपुरा को ऐसी स्थिति में डाल दिया कि आज भी अनेक लोगों के सोने के कमरे तो भारत में हैं लेकिन रसोई बांग्लादेश में यही हाल करीमगंज नामक सिलचर के ज़िले का है जहाँ बांग्लादेश से आकर अनेक कामगार दिन भर भारत में रिक्शा चलाकर रात में अपने देश लौट जाते हैं मेघालय के अनेक लोगों की खेती की जमीन बांग्लादेश में है और वहाँ से आने जाने में वे सीमा सुरक्षा बल और बांग्लादेश राइफ़ल्स के अपराधी बन जाते हैं शेष भारत में शायद ही लोग जानते होंगे कि भारत और बांग्लादेश की सीमा कानो मैंस लैंडनिर्जन नहीं बल्कि बाकायदे आबाद इलाका है
     आज़ादी के बाद गद्दीनशीन शासकों ने भी पूर्वोत्तर के प्रति वही नजरिया जारी रखा जो अंग्रेजों का था अगर अंग्रेजों ने इस क्षेत्र के एकीकरण के लिए फ़ौज के साथ धर्म और भाषा का इस्तेमाल किया तो आज़ाद भारत की सरकार ने भी वही राह अपनाई । अंग्रेजों के नक्शे कदम पर चलते हुए नेहरू जी ने नागालैंड में 1958 में फ़ौज तो भेजी ही अंग्रेजों के ही जमाने का बना एक कानून भी थोड़ा और कड़ा करके इस क्षेत्र में लागू किया । ए एफ़ एस पी ए नामक यह कानून बेहद अलोकतांत्रिक और दमनकारी है । इसके तहत शांति भंग होने की आशंका मात्र पर फ़ौजी लोग किसी को भी गोली मार सकते हैं । अंग्रेजी शासन काल में यह अधिकार महज कमीशंड अफ़सरों को प्राप्त था लेकिन आज़ादी के बाद इसमें व्यापकता लाई गई और अब कोई भी सैनिक बेखटके इसका इस्तेमाल कर सकता है । अगर इसके तहत फ़ौजी कोई ज्यादती करते हैं तो उन पर मुकदमा चलाने के लिए गृह मंत्रालय की पूर्वानुमति की जरूरत होती है । फ़ौज को कत्ल करने की इतनी खुल्लम खुल्ला छूट इस कानून के तहत हासिल है कि पूर्वोत्तर के लोगों को इस कानून की मौजूदगी में आज़ाद देश के नागरिक होने का अहसास ही नहीं होता । वैसे तो आजकल सरकार अपनी ही जनता के विरुद्ध युद्ध छेड़े हुए है लेकिन पूर्वोत्तर के प्रसंग में ऐसा 1958 से ही जारी है । इस कानून के साथ शासन का इतना निहित स्वार्थ जुड़ गया है कि केंद्र सरकार द्वारा ही इस कानून की समीक्षा के लिए नियुक्त जीवन रेड्डी आयोग की इसे रद्द करने की अनुशंसा के बावजूद इसे बनाए रखा गया है । इसी कानून को रद्द कराने के लिए इरोम शर्मिला चानू पिछले अनेक बरसों से भूख हड़ताल कर रही हैं और जीवन रेड्डी आयोग की रपट धूल फाँक रही है । पूर्वोत्तर के लोगों में अलगाव का अहसास इसके कारण भी बढ़ता है । इस किस्म के अर्ध-सैनिक शासन के निर्बाध संचालन के लिए ही पूर्वोत्तर के प्रदेशों में राज्यपाल अक्सर सेना से अवकाश प्राप्त अफ़सरों को नियुक्त किया जाता है ।
      पूर्वोत्तर को अलगाव का अहसास इसलिए भी होता है क्योंकि उसे आतंकवाद के गढ़ के बतौर पेश किया जाता है और इससे निपटने के नाम पर सेना की बेहिसाब तैनाती कर दी गई है । जबकि ईमानदारी से पूछें तो आतंकवाद को कोई भी हटाना नहीं चाहता । राज्य सरकार को सुविधा है कि किसी भी विरोध को इस नाम पर बदनाम करके दबा सकती है । भ्रष्टाचार की अति भी इसी की आड़ में चलती रहती है । यहाँ तक कि केंद्र सरकार कभी कभी इन संगठनों का इस्तेमाल भी करती है । सभी जानते हैं कि असम आंदोलन से निपटने के लिए बोडो आंदोलन को खड़ा किया गया था । पिछले दिनों की घटनाओं के बाद यह तथ्य प्रकाश में आया कि बोडो उग्रवादियों के पास सबसे अधिक अवैध हथियार हैं । जब बोडो आंदोलन के साथ केंद्र सरकार का समझौता हुआ था तो तय हुआ था कि बोडोलैंड स्वायत्त कौंसिल के दस्तावेज नागरी लिपि में होंगे । एकीकरण का वही औपनिवेशिक नजरिया । पूर्वोत्तर में सेना और आतंकवाद एक दूसरे के विरोधी नहीं, एक दूसरे के पूरक हैं ।
नागरिक जीवन में सेना की उपस्थिति इतनी अधिक है कि बिना वाजिब पहचान पत्र के आपका निडर होकर घूमना फिरना तकरीबन असंभव है । बाहर के प्रदेशों में बहुतेरे लोग इस तथ्य से वाकिफ़ नहीं हैं कि लक्षद्वीप और काश्मीर के बाद आबादी में मुसलमानों का सबसे अधिक प्रतिशत असम में ही है । ये लोग कोई घुसपैठिए नहीं हैं बल्कि विभाजन से बहुत पहले से इस प्रांत के निवासी हैं । कुछ तो भाजपा के बांगलादेशी विरोधी प्रचार और कुछ सरकार के रवैये के कारण लगातार इन्हें बाहरी होने का अहसास कराया जाता है ।
कहने की जरूरत नहीं कि देश की मुख्यधारा का निर्माण जिन वैचारिक औजारों के सहारे होता है उनमें बहुसंख्यकवाद की मजबूत मौजूदगी है । सांस्कृतिक भिन्नता को बर्दाश्त करना राष्ट्रीय एकता के जोश में मुश्किल हो जाता है । यही जोश अनेक बार स्थानीय लोगों के साथ फ़ौजियों के बरताव में दिखाई पड़ता है । इसी चक्कर में कई बार अलग प्रदेश के लिए होने वाले आंदोलनों को भी अलगाववादी मान लिया जाता है । इस जोश के कारण भी बहुधा पूर्वोत्तर की समस्या के उचित समाधान का माहौल बनाने में बाधा आती है ।
     पूर्वोत्तर के लोग देश के विकास में अपना वाजिब हिस्सा चाहते हैं । उनकी माँग का औचित्य रणनीतिक कारणों से किसी भी कीमत पर पूर्वोत्तर को देश के साथ चिपकाए रहने की जिद से भी साबित है । सरकार की योजना अंधाधुंध पैसा झोंककर पूर्वोत्तर में एक ऐसा तबका तैयार करने की लगती है जिसके भरोसे उसे अपने दमनकारी शासन का स्थानीय आधार निर्मित होने की आशा है । सभी जानते हैं कि आतंकवाद की फ़ंडिंग का बड़ा स्रोत ये पैसा ही है जो ठेकेदारों और नेताओं के साथ उन्हें भी प्राप्त होता है । असल में पूर्वोत्तर के लोग जिस तरह से किसी भी राष्ट्रीय प्रतीक में अपनी हिस्सेदारी कराते हैं, चाहे वह खेल हो या गायन की प्रतियोगिता, उसी से साबित है कि वे सरकारी और गैर सरकारी हिंसा से तंग आ चुके हैं और अपने लिए इस देश में सम्मानजनक जगह चाहते हैं । शर्त बस यह है कि उनकी आवाज सुनने लायक कान हमारे और हमारी सरकार के पास हों । इसके लिए संघीय शासन की कल्पनाशक्ति की जरूरत है और संसाधनों की लूट पर आधारित विकास के माडल की बजाए लोगों पर भरोसे की ।