अगर हम पिछले दिनों के राजनेताओं के बयानों की भाषा पर ध्यान दें तो अजीब किस्म की बेचैनी और असहायता का अहसास होता है । बेचैनी इस बात पर कि जिम्मेदार लोग ऐसी भाषा बोलने की बेशर्मी कैसे पैदा कर लेते हैं और असहायता इस पर कि ऐसी ही भाषा में जवाब देने की हिम्मत छीन ली गयी है । इस अहंकारी भाषा के प्रयोक्ता सिर्फ़ शासक दल के ही लोग नहीं रहे बल्कि एक किस्म की सर्व सहमति सी बन गई लगती है जिसके पक्ष में समूचा राजनीतिक वर्ग है और माहौल ब्रेष्ट की उस कविता जैसा है जिसमें जनता ने सरकार का विश्वास खो दिया है और कवि ने सरकार को सलाह दी है कि क्यों न इस जनता को भंग कर वह अपने लिए दूसरी जनता चुन ले ।
इस आक्रामकता का कारण खोजना मुश्किल नहीं है । ऐसा किसी अपराध बोध के कारण नहीं हुआ कि राजनीतिक वर्ग अचानक बेहद संवेदनशील हो गया है, किसी छोटे से विरोध को भी पचा नहीं पा रहा है, खासकर विरोध में बोलने वाले बौद्धिकों पर उसका हमला अचानक तेज हो गया है । असल में यह एक तरह की मदांधता है, एक सत्ता सुख जो निजी पूँजी के संरक्षण से पैदा हुआ है । यह संरक्षण चुनावों के संभावित खर्च की गारंटी करता है और जनता की चेतना को भ्रष्ट करने की कोशिश के कामयाब होने के भरोसे पर जिंदा है । राजनीतिक वर्ग ने मान सा लिया है कि वोट खरीदा जा सकता है और सिद्धांत आधारित राजनीति को दरकिनार करके, लोगों की दरिद्रता बढ़ाकर तथा उन्हें भिखारी जैसी स्थिति में डालकर इस मान्यता को मजबूत कर लिया गया है । जाहिर है कि जब आप मानने लगें कि जनता के सामने टुकड़े फेंकने से वह बिक जाएगी तो उसके गुस्से से डर काहे लगेगा । आजकल जो विभिन्न तथाकथित कल्याणकारी योजनाएँ चल रही हैं और उन्हें जिस तरह नकद भुगतान आधारित बनाया जा रहा है उसके पीछे और कुछ नहीं लोगों में नकदी पाने या लेने की लत लगाने का मकसद काम कर रहा है ।
यह मदांधता हाल के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से नहीं पैदा हुई बल्कि इस सरकार के मुखिया के लोक सभा का चुनाव न लड़ने की निश्चिंतता और नंबर दो की हैसियत वाले पूर्व वित्तमंत्री और वर्तमान गृहमंत्री के पिछले दो चुनावों को धोखाधड़ी से जीतने से उपजी है । दोनों ही मामलों में पैसा बड़ी भूमिका निभाता है और वह तो जनता की बजाय थैलीशाहों से ही मिलेगा । लगे लिपटे यही माहौल सभी राजनेताओं को रास आने लगा है । कोढ़ में खाज कि कोई कहेगा तो उसे लोकतंत्र विरोधी बता दिया जाएगा । याद दिलाने की जरूरत नहीं कि चिदंबरम साहब ने राज्यसभा में आतंकवाद पर बोलते हुए अरुंधति राय के एक लंबे लेख से आहत होकर कहा था कि माओवादियों के शासन में तीस पृष्ठ लंबा लेख लिखने की इजाजत नहीं मिलेगी । उनको मालूम था कि सदन में अनुपस्थित व्यक्ति के बारे में बोलने की मनाही है इसलिए नाम तो नहीं लिया लेकिन वित्तमंत्री पद की शपथ लेने से एक दिन पहले वेदांता के निदेशक मंडल छोड़ने की बात चुभी जरूर थी । अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान तो यह अहंकार चरम पर पहुँच गया था ।
उस समय का मनीष तिवारी का वक्तव्य तो महज उस नफ़रत की अभिव्यक्ति थी जो हमारे राजनीतिक वर्ग में आम जनता के प्रति जन्म ले चुकी है । यह वर्ग पिछले कुछेक वर्षों में बड़े पूँजीपतियों का साथ पाकर उसी तरह की जीवन शैली के ख्वाहिशमंद हो गया है । उदारीकरण के बाद से ही नवोदित कार्पोरेट घरानों के साथ राजनीतिक वर्ग का जैसा अभूतपूर्व हेलमेल हुआ उसका नतीजा यही निकला कि तमाम पार्टियों की ओर से राज्यसभा में पूँजीपति चुने जाने लगे । फिर तो चुनावी खर्चों के लिए राजनेताओं की निर्भरता थैलीशाहों पर इस कदर बढ़ती गई कि बड़ी बड़ी परियोजनाओं का निर्माण ही इस मकसद से होने लगा कि इनसे होने वाली कमाई का एक हिस्सा राजनेताओं की जेब में भी आएगा । जब पूरा तंत्र ही इस तरह का बन गया तो रही सही शर्म भी जाती रही । यहाँ तक कि पश्चिम बंगाल में वामपंथी पार्टी माकपा भी इससे नहीं बच सकी और तोडी, टाटा, सलेम जैसे पूँजीपति सरकार के दुलारे हो गए । राज्यसभा के लिए पूर्व सेनाध्यक्ष का चुनाव भी माकपा ने किया था । लोकपाल विधेयक पर संसद में चली बहस में ज्यादातर सांसद चाहे वे किसी भी पार्टी के रहे हों संसद की सर्वोच्चता को बचाने की ही फ़िक्र करते देखे गए । एक सांसद ने तो यहाँ तक कहा कि क्या अब हमें पुलिस का सिपाही पकड़ेगा मानो उन्हें सभी अपराधों की सज़ा से सांसद बनते ही माफ़ी मिल गयी हो । यह बात सभी जानते हैं कि जब भी सांसदों के वेतन या भत्ते बढ़ाने का प्रस्ताव पेश होता है तो तमाम वैचारिक मतभेद भुलाकर पूरी संसद एकजुट हो जाती है । ऐसी ही दुर्लभ एकजुटता उस समय भी देखी गयी थी ।
हाल में जब देवास एंट्रिक्स करार के मामले में चार वैज्ञानिकों को भविष्य में कोई भी सरकारी पद नहीं सौंपने का फ़ैसला आया तो वैज्ञानिकों ने इसे अन्याय माना । तब प्रधानमंत्री कार्यालय के मंत्री ने बयान दिया कि यह फ़ैसला वैज्ञानिकों को सबक सिखाने के लिए किया गया है । थोड़े ही दिनों बाद बिहार के हड़ताली डाक्टरों के बारे में एक मंत्री ने कहा की सरकार डाक्टरों के हाथ काटना भी जानती है । इस भाषा का उत्स महज पूँजी के संरक्षण में नहीं, बल्कि चुनाव जीतने के लिए पहले जिन अपराधियों की मदद ली जाती थी उनके राजनीतिक जमात में शामिल होने में निहित है । यह ऐसा सच है जिसे आज राजनीतिक वर्ग सुनना ही नहीं चाहता । सांसदों के विशेषाधिकार भी अपराधियों को राजनीति की ओर आकर्षित कर रहे हैं । अन्यथा क्या कारण है कि इतने सारे अपराधी लोकतंत्र के प्रति आस्थावान होकर चुनाव लड़ने और जीतकर सांसद बनने के लिए लालायित रहते हैं । जब राजनीति में इस समुदाय का धड़ल्ले से प्रवेश होगा तो उसकी भाषा राजनीति की भाषा बनेगी ही ।
देश के मुखिया के पद पर इस समय अर्थशास्त्री बैठे हैं और अर्थशास्त्र में आम जनता के प्रति बेहद अपमानजनक एक सिद्धांत को मंत्र के बतौर सभी नेता बेशर्मी से दोहराते हैं । उस सिद्धांत को अंग्रेजी में ट्रिकल डाउन इफ़ेक्ट कहते हैं । इस सिद्धांत के मुताबिक अगर देश के मुट्ठी भर धनी लोगों के पास पैसा आएगा तो इसका असर कुल अर्थतंत्र पर स्वास्थ्यकर होगा । माने तब भीख भी अधिक मिलने लगेगी, घर के नौकर को भी ज्यादा पगार मिलेगी, बेयरा को टिप भी अधिक मिलेगी । आजकल हमारे देश के शासक अमेरिकी मालिकों की ऐसी ही समृद्धि के सहारे सुखकर जीवन की आशा में हैं । तभी तो खुद प्रधानमंत्री ने व्यक्तिगत रुचि लेकर अमेरिका के साथ न सिर्फ़ परमाणु समझौता किया बल्कि अमेरिका के परमाणु विरोधियों को काबू में रखने के लिए अमेरिकी सरकार को उकसा भी रहे हैं ।
हमारे सामने एक ऐसा राजनीतिक शासक समुदाय है जो बेहद संवेदनशील है देश की हालत को सुधारने के लिए नहीं बल्कि निजी मान सम्मान को लेकर । विरोध में बोलनेवाले किसी भी आदमी को देशद्रोही और लोकतंत्र विरोधी कहने और साबित करने के लिए कमर कसे हुए है । एक समय अदालतें अचानक जिस तरह अवमानना को लेकर संवेदनशील हो उठी थीं आज राजनीतिक वर्ग उससे भी अधिक अपने अधिकार और मानापमान को लेकर सजग दीख रहा है । काश ऐसी ही सजगता उसके भीतर देश की बेहतरी और सम्मान को लेकर होती ! लेकिन जो है नहीं उसका गम क्या जैसे सुरुचि । घाटे में चल रही देशी विदेशी कंपनियों को फ़ायदा पहुँचाने की जैसी बेकरारी शासक नेताओं में है अगर वैसी ही बेचैनी आत्महत्या करने वाले किसानों को कर्ज से उबारने के लिए होती तो क्या कहना था !
भाषा से ही सब कुछ अभिव्यक्त होता है.यह न कोई धर्म जानती है और न ही किसी जाति की रखैल है.यह सब तो मानव के अंदर निहित अभिमान का एक अटूट हिस्सा है.इसीलिए राजनेताओं ने इसे कभी-कभी अपने मुखारबिन्दु से अशोभनीय,भद्दा और बेहूदा बना देते हैं...
ReplyDeleteसादर...!!!
किसान हो या मजदूर इन लोगो के एजेंडे मे हैं ही नहीं।
ReplyDeleteजहाँ सबको खुद को समझने-समझाने-दिखाने की पड़ी हो वहाँ देश की कौन सोचे! ऐसे में बहुत आश्चर्य नहीं होगा जब लोग आने वाले समय में संवेदनशीलता नाम के शब्द तक को ही भूल जाएं...
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