Sunday, March 18, 2012

अब तो माफ़ करो

क्रिकेट के भगवान ने जब शतकों का शतक पूरा किया तो कमेंटेटर की वाणी में मानो यौन उत्तेजना का चरम क्षण पहुँचा था इस महाशतक के साथ ही भारत की पराजय मानो एक रूपक था । सचमुच टीम जैसी चीज की अनदेखी करके महज निजी कैरियर के लिए खेलना ही सचिन के खेल की खूबी थी । जब तक यह खिलाड़ी मैदान में खेलते हुए और टी वी के परदे पर विज्ञापनरत रहा तब तक समूचा देश इस बात की ओर ध्यान देने से मना कर दिया गया था कि इस महानायक के भीतर से कैसे खेल, युद्ध और महाराष्ट्रीय ब्राह्मण अहंकार के साथ ही साथ खेल का भ्रष्टाचारी व्यवसायीकरण घुल मिल गए थे खेल सिर्फ़ खेल रहकर पवित्र गाय बन गया था बल्कि फौज, संसद तथा लोकतंत्र की तरह ही सारी आलोचनाओं से परे हो गया था

ऐसे व्यक्ति की आत्ममुग्धता की कल्पना भी मुश्किल है जिसने अपने घर में एक कमरा ही पदकों के लिए अलग से बनवा रखा हो और जब बन ही गया तो स्वाभाविक है कि उसमें लगाने के लिए पदक बटोरने का नशा एक स्वतंत्र खब्त का रूप ले ले । शायद इसीलिए अपने लगातार खराब खेल के बावजूद रन मशीन हटने के लिए राजी नहीं हो रहे थे ।

उम्मीद है कि शायद अब वे अवकाश ले लेंगे ताकि कुछ नौजवान खिलाड़ी उभर सकें हालाँकि सभी उम्मीदों की तरह हो सकता है यह भी पूरी हो क्योंकि नायक तो वही होता है जो कथा को आगे ले जाए पदकों वाला कमरा भी तो पुष्पक विमान की तरह है जिसमें सब कुछ आ जाने के बाद भी एक और की जगह बनी रहती है । भारत में क्रिकेट तानाशाही का दंश भूलने में उसी तरह मदद करता है जैसे जर्मनी में संगीत ने किया था या जैसे लातिन अमेरिका में फ़ुटबाल करता है

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