आचार्य शुक्ल ने 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में सहित्य की परिभाषा सहित साहित्येतिहास दर्शन की धारणा बनाई है । इसकी खूबी है तीन स्तरों का निर्माण और उनके बीच अंत:क्रिया के रूप में साहित्येतिहास की भावना । सबसे नीचे हैं राजनीतिक, सामाजिक, सांप्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थितियाँ । इनमें से बाकी तो स्पष्ट हैं लेकिन सांप्रदायिक के सिलसिले में थोड़ी व्याख्या की जरूरत है । आज जिस अर्थ में हम इस शब्द का प्रयोग करते हैं उसी अर्थ में पहले नहीं होता था । इसका अर्थ संप्रदायों से जुड़ा हुआ है क्योंकि धार्मिक को इससे अलग रखा गया है और तब यह बहुत कुछ वैचारिक के इर्द गिर्द पहुँच जाता है । दूसरा स्तर है इनके अनुसार बनने वाली चित्तवृत्ति । इसे आप मनोवृत्ति भी कह सकते हैं और एक तरह से यह सामूहिक अवचेतन जैसा है । तीसरे स्तर पर है साहित्य जिसमें इसका प्रतिबिंबन होता है । ध्यान दिजिए कि साहित्य में जो मनोवृत्ति आइने के भीतर की तस्वीर की तरह दिखाई पड़ती है उसका निर्माण सामाजिक राजनीतिक वैचारिक आदि परिस्थितियों के अनुसार होता है यानी साहित्य में दिखाई पड़ती है मनोवृत्ति जिसके सहारे आप उस समय की राजनीतिक सामाजिक वैचारिक आदि परिस्थिति देख सकते हैं । लेकिन उतनी आसानी से नहीं क्योंकि यह प्रतिबिंब संचित प्रतिबिंब होता है । इसमें संचित का वही मतलब है जो कविता की वर्ड्सवर्थ द्वारा दी गई परिभाषा में रिकलेक्टेड का है । Poetry is spontaneous overeflow of powerfull emotions recollected in tranquility. वैसे संचित का एक अर्थ चयनित भी होता है । मतलब कि जो प्रतिबिंब है वह हूबहू नहीं बल्कि चयनित है । यानी साहित्य में समाज का जो अक्स है वह चुनिंदा हिस्सों का है । इससे साहित्य में यथार्थ की प्रातिनिधिक प्रस्तुति का अर्थ भी लिया जा सकता है । अब दूसरी बात कि साहित्य की एक धारा आपके सामने मौजूद होती है । इस धारा में समय समय पर कुछ बदलाव दिखाई पड़ते हैं । इन्हीं परिवर्तनों का सामंजस्य सामाजिक आदि परिवर्तनों के साथ दिखाना पड़ता है । एकता नहीं सामंजस्य; जो होता है लेकिन अनेक बार दिखाई नहीं पड़ता । साहित्य की परंपरा चूँकि जनता की चित्तवृत्तियों से प्रभावित होती है और जनता की चित्तवृत्ति बहुत से साहित्येतर कारकों से निर्मित होती है इसलिए साहित्य का इतिहास सामाजिक चेतना का इतिहास भी होता है ।
इतनी परिष्कृत धारणा के बल पर ही वे ऐसा इतिहास लिख सके जो अनेक मामलों में अब भी मील का पत्थर बना हुआ है । मूल उद्धरण निम्नवत है : 'जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिंब होता है तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति में परिवर्तन के साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है । आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही 'साहित्य का इतिहास' कहलाता है । जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, सांप्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है । अत: कारणस्वरूप इन परिस्थितियों का किंचित दिग्दर्शन भी साथ ही साथ आवश्यक होता है ।' (हिंदी साहित्य का इतिहास, काल विभाग) रामचंद्र शुक्ल जिन अर्थों में राजनीतिक परिस्थितियों को समझ रहे थे उसके मुकाबले आधुनिक विश्व में राजनीति अधिक केंद्रीय भूमिका अख्तियार करती गई है । यहाँ तक कि वैचारिक और सामाजिक परिस्थिति भी बहुत हद तक राजनीतिक क्रियाकलापों के भीतर ही सिमट गई है । गौर करने की बात यह भी है कि आदिकाल और मध्यकाल के लिए धार्मिक, सांप्रदायिक आदि जितनी भी महत्वपूर्ण रही हों आधुनिक काल में राजनीतिक परिस्थिति मुख्य हो जाती है । इसीलिए आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास लिखते हुए आधुनिक भारतीय राजनीति के गंभीर परिप्रेक्ष्य की जरूरत है । उनके इतिहास बोध को सरल तरीके से खारिज कर देना मुश्किल है ।
आवश्यक जानकारी की प्रस्तुति है यह पोस्ट ।
ReplyDelete