भारत को राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल किए पचास साल पूरे हो गए । न सिर्फ़ इतना बल्कि फ़्रांस की राज्यक्रांति को घटित हुए दो सौ साल 1989 में पूरे हो गए । पूरी दुनिया इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करने जा रही है । अनेक प्रकार से तिथियों की गणना से या फिर सामाजिक परिवर्तनों से समय में कोई बदलाव आया है इसका अनुभव सब लोग कर रहे हैं । आजादी की स्वर्ण जयंती से इसका अहसास और गहरा हो रहा है । एक राष्ट्र जैसे अपने आदर्शों के निर्माण में लगा हो और पचास साल पूरे होने पर फिर आगे बढ़ने के लिए नई शक्ति और नया उत्साह अर्जित कर रहा हो वातावरण ऐसा नहीं है । बल्कि पचास साल का जीवन बीत जाने पर कोई वृद्ध जैसे अपनी जवानी के कल्पित सुखमय दिनों की कहानी सुनाए ऐसा लग रहा है । थकान, निराशा, दिशाहीनता और भविष्य की ओर देखने की अक्षमता- आजादी के पचास साल बाद देश इसी अवस्था में दिखाई दे रहा है । टी वी, सरकारी संस्थान, प्रायोजित कार्यक्रम- स्वर्ण जयंती की खानापूरी बस यहीं तक है । जनता को छोड़िए सरकारी महकमों के बाहर बुद्धिजीवी समुदाय तक में कोई उत्साह नहीं ।
इसका दोष यदि कोई आम लोगों के सिर मढ़े तो इससे बड़ी मूर्खता और क्या हो सकती है । अनेक विद्वान इसके लिए कुछेक वस्तुगत स्थितियों को जिम्मेदार ठहराते हैं । ऊपर से यह तर्क वस्तुवादी भी लगता है । उनका कहना है कि रूस के पतन और एक हद तक समाजवाद को लगे धक्के ने पूरी द्निया में साम्राज्यवाद को एकछत्र शासन सौंप दिया है, तकनीकी क्रांति और अर्थतंत्र में आए अनेक बदलावों ने पूँजीवाद को अपराजेय बना दिया है, उपभोक्तावाद और सूचना क्रांति आदि ने समाज को इस तरह बदल दिया है कि मनुष्य के लिए क्रांति तो दूर कुछ भी करणीय नहीं रह गया है । इस तरह का वस्तुवाद बहुधा निष्क्रियता का बहाना बन जाता है । मार्क्सवादी के लिए सवाल केवल दुनिया को व्याख्यायित करने का नहीं उसे बदलने का है ।
परिवर्तन का जोश
परिवर्तन वस्तुओं के अस्तित्व की पद्धति है । लंबे दिनों के संघर्षों के इतिहास के चलते परिवर्तन स्वयं एक सकारात्मक अर्थ ग्रहण कर चुका है । लेकिन जैसे सब पुराना अच्छा नहीं होता उसी तरह सभी परिवर्तन एक ही नजर से नहीं देखे जा सकते । किस परिवर्तन के प्रति क्या नजरिया अपनाया जाय यह बहुत कुछ हमारे ऊद्देश्य पर निर्भर है ।
पिछले कुछ वर्षों में और इस समय भी परिवर्तन की गति इतनी तेज रही और है कि अनेक चिंतकों को इसने निरस्त्र कर दिया । वामपंथी खेमे के बुद्धिजीवियों में यह किंकर्तव्यविमूढ़ता अब भी बरकरार है । परिवर्तन को समझने की इसी असफलता के बीच प्रतिक्रियावादी सिद्धांतकारों ने सब कुछ के स्वागत का उफान खड़ा कर दिया । जैसे किसी की मृत्यु के बाद उसके वारिस को बड़ी संपत्ति मिलनेवाली हो वारिस उस व्यक्ति की मौत मनाता रहा हो और अचानक मृत्यु हो जाने पर लोकलाज के भय से थोड़े समय का शोक मनाकर फिर तुरंत अपनी खुशी का इजहार करता फूला न समाए उसी तरह रूस के पतन और समाजवाद को लगे धक्के के माहौल में हर ऐरा गैरा नत्थू खैरा यह दावा करता फिरने लगा कि क्रांतियों का युग अब बीत गया पूँजी का अबाध प्रवाह जन समुदाय के लिए खुशियों की बारिश लेकर आया है पूँजीवाद से मुक्ति के लिए किए गए प्रयास मूर्खतापूर्ण कोशिशें थीं । जो लोग पूँजीवाद का विरोध करना चाहते थे उन्होंने भी इसी धक्के में नई दुनिया को समझने के नाम पर कहना शुरू किया कि इस समय वर्ग संघर्ष फ़ालतू की चीज हो गया है और विरोध की अवर्गीय भूमियाँ अधिक सक्रिय हैं संघर्ष संस्कृति के क्षेत्र में केंद्रित हो गया है और वहाँ लिंग, सांस्कृतिक अस्मिताएँ आदि नए शासकों को अधिक कारगर टक्कर दे रही हैं । यह एक दोहरी फाँस थी । एक तरफ़ तो नन विरोधी ताकतों की जीत पर कुछ लोग खुशी मना रहे हैं दूसरी तरफ़ उनके विरोधी जन संघर्षों की संपूर्ण विरासत से ही तौबा कर ले रहे हैं । तीसरी दुनिया के उपनिवेशवाद विरोधी सघर्ष के विरोधियों का कहना है कि अब यह लड़ाई पश्चिम और पूरब के बीच सांस्कृतिक धरातल पर धर्म के क्षेत्र में लड़ी जाएगी ।
समस्याएँ लेकिन इतनी आसान न थीं । सांस्कृतिक धार्मिक अस्मिताओं के उत्थान ने पूरब और पश्चिम के बीच रणक्षेत्र बनाने की बजाय देशों के भीतर ही युद्धस्थल पैदा कर दिए और लोग सारायेवो से लेकर बंबई तक एक दूसरे को मारने काटने लगे । लाशों के ढेर पर भी हँसने की जिसमें क्रूरता हो वही इसे स्वागत योग्य परिवर्तन समझेगा । पूँजी के अबाध प्रवाह ने एक तरफ़ तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नए लुटेरों का गिरोह पैदा किया और दूसरी तरफ़ अफ़्रीका को स्थायी अकाल क्षेत्र मेंबदल दिया । इन परिस्थितियों ने तात्कालिक तौर पर परिवर्तनवादियों का जोश ठंडा कर दिया है । मार्क्सवाद में विश्वास रखने वालों को भी खाने पीने की आदतों से लेकर फ़ैशन तक के सभी परिवर्तनों से उत्साहित होने और उसके अनुसार सिद्धांत गढ़ने की जल्दबाजी से परहेज बरतना चाहिए ।
दूसरी तरफ़ यह मानना भी उचित नहीं होगा कि कोई परिवर्तन नहीं आया है दुनिया वहीं खड़ी है जहाँ पचास या दस साल पहले खड़ी थी । आदर्शवादी आम तौर पर बदलाव के सामने अरण्य रोदन करने लगते हैं या फिर अच्छे पुराने दिनों की याद के सहारे जीवन काट देते हैं । मार्क्सवादी साहसपूर्वक परिवर्तन को स्वीकार करते हैं वस्तुगत रूप से उसे समझने की कोशिश करते हैं और समाज के गर्भ से पैदा हो रहे नए अंतर्विरोधों को परखकर क्रांतिकारी शक्तियों को सकारात्मक बदलाव के लिए लामबंद करना शुरू करते हैं । परिवर्तन के सामने हताश निराश होने की बजाय उस पर अपनी छाप अंकित करने की कोशिश ही क्रांतिकारी का कर्तव्य होता है ।
नई चुनौती
किसी भी देश में मार्क्सवाद का व्यवहार या कम्युनिस्ट आंदोलन की स्थापना राष्ट्रीय जीवन के संक्रमण के क्षणों में विभिन्न सिद्धांतों विचारधाराओं और प्रवृत्तियों से संघर्ष कर सिद्धांत और व्यवहार के क्षेत्र में अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने के जरिए ही हो सकती है । स्वयं मार्क्सवाद ही पूँजीवाद की स्थापना और मजदूर आंदोलन के उदय के समय विभिन्न अराजकतावादी सुधारवादी और आदर्शवादी सिद्धांतों और प्रवृत्तियों से लड़कर विकसित हुआ । भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सन 1920 के असहयोग आंदोलन की असफलता ने स्वतंत्रता संग्राम की सैद्धांतिक एकता को तोड़ दिया और अनेक परस्पर संघर्षशील सैद्धांतिक प्रवृत्तियों में मार्क्सवाद भी पनपा और विकसित हुआ । भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के अब तक के इतिहास में इसकी शुरुआत संभवत: सबसे गौरवपूर्ण क्षणों में से एक है । हालाँकि विभिन्न दौरों और प्रयोगों की अपनी समस्याएँ थीं लेकिन आजादी के बाद नेहरूवादी समाजवाद के प्रति व्यामोह भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए सर्वाधिक घातक रहा ।
कम्युनिस्ट आंदोलन राष्ट्रीय सहमति की आलोचना विकसित करने की बजाय उसका अंग हो गया और इस सुरक्षित अपंगता ने उसे क्रमश: भारतीय जनजीवन के एक एक अंग से दूर कर दिया । कम्युनिस्ट आंदोलन की यह कमजोरी ही परंपरागत वामपंथ की ताकत हो गई है । पिछले पचास साल की बुर्जुआ लोकतांत्रिक शासन पद्धति की स्थिरता और बुर्जुआ विचारधारा ने भारतीय जनता और मजदूर वर्ग की वर्गीय चेतना को एक हद तक भ्रष्ट दुष्ट किया है । मजदूर वर्ग पर बुर्जुआ लोकतंत्र के इसी भ्रष्टकारी प्रभाव की अभिव्यक्ति परंपरागत वामपंथ का सिद्धांत और व्यवहार है और भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में इस अवसरवादी धारा की लंबी उपस्थिति की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता ।
रूस के पतन समाजवाद की ओर तथाकथित रूप से गतिमान सार्वजनिक क्षेत्र के विनाश भारतीय शासक वर्गों द्वारा गुटनिरपेक्षता साम्राज्यवाद विरोध और धर्मनिरपेक्षता के ढोंग को भी तिलांजलि देने ने वामपंथी बुद्धिजीवियों की सुरक्षा छतरी को हटा लिया है । लेकिन परंपरागत वामपंथ अंतर्निहित बौनेपन से इस कदर ग्रस्त हो गया है कि इस परिस्थिति का उपयोग वह सिद्धांत और व्यवहार के नए क्षितिज खोलने में नहीं कर पा रहा है ।
लेकिन जिन्हें भारतीय जनता को क्रांतिकारी मार्क्सवाद के झंडे तले गोलबंद करना है उनके लिए आज चुनौती विराट होते हुए भी अवसर सुनहरा है । अपनी शुरुआत के दिनों के बाद पहली बार मार्क्सवाद को विभिन्न विरोधी सिद्धांतों और प्रवृत्तियों से टकराते हुए अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने का अवसर मिला है । अब फिर से मनुष्य को परिभाषित करनेवाली विभिन्न कोटियों में वर्ग का औचित्य सिद्ध करना है अस्मिता मूलक चेतनाओं के भीतर वर्ग चेतना की उच्चता को प्रमाणित करना है और विभिन्न विकल्पों के बीच मार्क्सवादी विकल्प की श्रेष्ठता को स्थापित करना है । पहले सामाजिक विज्ञान विज्ञान और साहित्य के क्षेत्र बुद्धिजीवियों ने अपने लिए बाँट लिए थे और खंडित विशेषज्ञता पिछले पचास सालों की उपलब्धि रही है । प्रश्न आज अपनी संपूर्णता में प्रकट हो रहे हैं और सचमुच उनका उत्तर सिद्धांत और व्यवहार की एकाग्रता के जरिए ही दिया जा सकता है ।
इतिहास की चीरफाड़
आजादी की स्वर्ण जयंती के सारे ताम झाम के बीच गहरी उदासी छिप नहीं रही है । न सिर्फ़ इतना बल्कि यह स्वर्ण जयंती एक दूसरे तरीके से भी मनाई जा रही है । आश्चर्यजनक रूप से इसी साल स्वतंत्रता आंदोलन के सभी प्रतीक पुरुषों की मूर्तियों की तोड़ फोड़ हो रही है उनका मुँह काला किया जा रहा है और एक के बाद एक विभिन्न स्थानों के नाम तेजी से बदले जा रहे हैं । 1967 के नक्सलबाड़ी विद्रोह ने आजाद भारत में पहली बार स्वतंत्रता आंदोलन की केंद्रीय विचारधारा और प्रभावी नेतृत्व की समग्र आलोचना प्रस्तुत की । सांस्कृतिक स्तर पर इस आलोचना का एक रूप था- मूर्तिभंजन आंदोलन । तीस साल भी नहीं बीते कि जिन पार्टियों के लोग प्रधानमंत्री, रक्षामंत्री और मुख्यमंत्री के पदों पर आसीन हैं उन पार्टियों ने मूर्तिभंजन का रूप अपना लिया । समानता लेकिन बस यहीं तक है क्योंकि नक्सलवाद ने न तो कभी स्वतंत्रता आंदोलन की क्रांतिकारी आतंकवादी धारा की निंदा की न ही भारत की सामाजिक राजनीतिक समस्याओं को परखने के बाबा साहब आंबेडकर के प्रयासों को छोटा करके देखा । हाल की घटनाओं ने यही साबित किया है कि स्वतंत्रता आंदोलन और आजादी का शासकीय मूल्यांकन अभी अधूरा है और मूर्तियों तथा नामों के कद अंतिम रूप से तय नहीं हुए हैं । स्वर्ण जयंती एक और अद्भुत तरीके से मनाई जा रही है । चरम प्रतिक्रियावादी तत्वों को छोड़कर कोई और दलित समुदाय को विशेष संरक्षण प्रदान करने की मुखालफ़त न कर सकता था लेकिन आज भारत के रक्षामंत्री और महाराष्ट्र तथा उत्तर प्रदेश में शासन करने वाली पार्टियों के नेतागण खुलेआम अनुसूचित जाति/जनजाति उत्पीड़न निरोधक अधिनियम को समाप्त करने की वकालत कर रहे हैं तब जबकि दलित उत्पीड़न बढ़ा ही है । साम्राज्यवाद विरोध को हमलावर ढंग से तिलांजलि स्वर्ण जयंती वर्ष में ही दी जा रही है ।
अनेक विद्वानों ने यह दिखाने की कोशिश की है और कुछेक राजनीतिक हलकों में भी aय्ह विश्वास प्रचलित है कि 1857 के बाद का समूचा अंग्रेजीदाँ बुद्धिजीवी समुदाय और उसके नेतृत्व में चल रहा स्वतंत्रता आंदोलन औपनिवेशिक दिमाग और उसकी उपज था । लेकिन इस तरह के विश्लेषण से कोई लाभ नहीं क्योंकि अंग्रेजों के शासनकाल में भारत इस तरह से बदल गया कि उसे अब पीछे नहीं लौटाया जा सकता । जो समस्याएँ और परिघटनाएँ पहले से मौजूद थीं उन्को भी इस दौरान नया रूप प्राप्त हुआ और आज हम उन्हें इसी रूप में पहचानते हैं । हिंदू धार्मिकता का नया चेहरा स्वतंत्रता आंदोलन के भीतर और बाहर के अर्ध धार्मिक पुनरुत्थान के प्रयासों से निर्मित हुआ है । जाति प्रथा, भूमि संबंध, हिंदू मुस्लिम समस्या- तकरीबन वह सब कुछ जिसमें हम जी मर रहे हैं उसी समय के बदलावों से परिभाषित होते हैं ।
आजादी का आंदोलन कई मामलों में विशिष्ट था । किसी भी अन्य उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन में इतने बड़े पैमाने पर जन भागीदारी नहीं हुई न ही लोकतांत्रिक शासन पद्धति और सामाजिक व्यवस्था के पक्ष में उतना गहरा दबाव तत्कालीन किसी अन्य स्वाधीनता संग्राम पर था । बहरहाल इन सब सकारात्मक तत्वों के बावजूद स्वतंत्रता संग्राम की मुख्य धारा दलाल बुर्जुआ ही थी ।
गांधी के चरित्र में यह धारा सबसे प्रकट ढंग से अभिव्यक्त हुई । राजनीति का एक अर्ध धार्मिक हिंदू पुनरुत्थानवादी स्वरूप, जमींदारों और पूँजीपतियों के हितों का विशेष ध्यान, अंग्रेजी साम्राज्यवाद के प्रति समझौता परस्त रुख- इन सब पर उत्तर आधुनिकतावादी बुद्धिजीवी जितना मुग्ध हो लें भारतीय राष्ट्र ने जो कुछ भी सकारात्मक हासिल किया वह इन सबके विरोध के जरिए ही संभव हुआ ।
कम्युनिस्ट आंदोलन के अतिरिक्त इस धारा की तीन बड़ी राजनीतिक आलोचनाएँ विकसित हुईं- लोहिया के नेतृत्व में
धारा, आंबेडकर के नेतृत्व में दलित आंदोलन की धारा और भगत सिंह के नेतृत्व में क्रांतिकारी आतंकवाद की धारा । इनकी धारावाहिकता और प्रासंगिकता आजादी के बाद की राजनीति में भी बनी रही । जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस मार्का वामपंथी राजनीति कोई सकारात्मक भूमिका अदा करने के बजाय मुख्य धारा की रजनीति के लिए लफ्फाजी का मुखौटा ही प्रदान करती रही । सवाल यह है कि इन आलोचनाओं की मौजूदगी के बावजूद समझौता परस्त धारा ही कैसे नेतृत्व में बनी रही । इसका उत्तर तत्कालीन वर्ग शक्तियों के संयोजन और इन आलोचनाओं की अंतर्निहित कमजोरियों में खोजा जा सकता है । अंग्रेजों द्वारा पैदा किए गए सामंतों और दलाल पूँजीपति वर्ग ने न सिर्फ़ आजादी के बाद सत्ता पर कब्जा कर लिया बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन के नेतृत्व पर भी कब्जा बनाए रखा । इस वर्ग के हितों की सर्वोत्तम सेवा आजादी के पहले गांधी करते रहे । आजादी के बाद नेहरू इस वर्ग संश्रय की रक्षा और विकास के लिए सतत प्रयत्नशील रहे । जो वामपंथी बुद्धिजीवी गांधी और नेहरू के विभिन्न पहलुओं पर कभी कभी लट्टू हो जाते हैं उन्हें इनकी राजनीति का वर्ग अंतर्य समझने की कोशिश करनी चाहिए ।
जो आजादी देश को प्राप्त हुई उसे 'महान छल' या 'महान भारतीय विरोधाभास' कहा जाता है । दरअसल यह विरोधाभास नहीं विरोध था । जिस आजादी को देश को मजबूत करना था वही उसे विभाजित कर बैठी । जिस आजादी को साम्राज्यवाद के शिकंजे से देश की आर्थिक और राजनीतिक सांस्कृतिक मुक्ति को पूर्णता देनी थी वह अपनी पैदाइश में ही उसकी गुलाम रही । जिस संविधान को देश के जन जन तक लोकतंत्र पहुँचाना था उसकी निर्मात्री सभा ही सीमित मताधिकार से चुनी गयी । संविधान निर्माण में आंबेडकर की भूमिका और संविधान से पैदा हुई सत्ता से उनका मोहभंग इस त्रासदी को सबसे करुण ढंग से प्रस्तुत करता है । सबसे बड़ा छल तो देश का विभाजन था । सिर्फ़ इसलिए नहीं कि आजादी की खुशी के चारों ओर इतिहास की अब तक की सबसे बड़ी धन जन की हानि और आबादी का विस्थापन फैला हुआ था बल्कि इसलिए भी कि नेतागण इस विभाजन के जिम्मेदार तो थे ही वे यह भी जानते थे कि जिस समस्या के हल के लिए विभाजन को स्वीकार किया गया है उसी समस्या को वह स्थायी रूप से प्रेरित करता रहेगा । विभाजन भौगोलिक स्तर पर नहीं हुआ था धार्मिक आधार पर हुआ था और इसने पाकिस्तान में इस्लामी राष्ट्र की नींव डाली हो या न डाली हो भारत में हिंदू राष्ट्र निर्माण की स्थायी प्रेरणा बन गया । अचरज नहीं कि विभाजन पाकिस्तान को तो धार्मिक आधार पर एकजुट नहीं रख पाया लेकिन भारत में हिंदू संप्रदायवाद के विकास का स्थायी स्रोत बना रहा । आजादी के दिन भी नेतागण इस कटु यथार्थ को उत्सव के महौल में दबाए रहे और आज पचास साल बाद भी इस असमाधेय गुत्थी को संबोधित करने को तैयार नहीं हैं ।
पचास साल बाद
जिस राजनीतिक शासन पद्धति को देश में आजादी के बाद लागू किया गया उसे लोकतांत्रिक शासन पद्धति कहा जाता है । मार्क्सवाद हमें सिखाता है कि कोई भी शासन पद्धति अवर्गीय परिघटना नहीं होती । राज्य वर्गों से ऊपर दिखाई देता है लेकिन सारत: वह किसी वर्ग के हितों की सेवा करता है । लोकतंत्र भी कोई निर्गुण शासन पद्धति नहीं बल्कि बुर्जुआ लोकतंत्र है मूलत: बुर्जुआ शासन पद्धति का ही एक रूप विशेष है । जैसे पूँजीवादी अर्थतंत्र एक असमाधेय अंतर्विरोध को जन्म देता है अर्थात उत्पादन का सामाजिक स्वरूप और स्वामित्व का निजी चरित्र उसी तरह बुर्जुआ लोकतंत्र भी भागीदारी के सामाजिक स्वरूप और निहित वर्ग स्वार्थ के प्रबंधन के अंतर्विरोध के बीच जीवित रहता है ।
जब से पूँजीवाद ने लोकतांत्रिक शासन पद्धति को स्वीकार किया तभी से उसकी आत्मा की हत्या भी शुरू कर दी । हालाँकि लोकतंत्र पूँजीपतियों के वर्ग स्वार्थ को पूरा करने की सर्वोत्तम शासन पद्धति है क्योंकि इसमें जन भागीदारी की मुहर लगी होती है एक वर्ग के स्वार्थों को संपूर्ण जनता के स्वार्थों के बतौर पेश करने की गुंजाइश रहती है और जन समुदाय के भीतर उभर रहे नए शासक तबकों को समाहित करने की क्षमता होती है लेकिन बुर्जुआ के प्रतिक्रियावादी तबकों का लगातार एक विरोधी दबाव बना रहता है और जब कभी राजनीतिक सामाजिक आर्थिक संकट गहराने लगता है शासक वर्ग के विभिन्न हिस्सों के अंतर्विरोधों के प्रबंधन की इसकी कुशलता भोंथरी पड़ने लगती है इसके भीतर से ही एकाधिकार/तानाशाही या फ़ासीवाद के तत्व प्रकट होने लगते हैं । फ़ासीवाद पूरी दुनिया में हर कहीं बुर्जुआ लोकतंत्र के भीतर से ही पैदा हुआ है । जो लोग फ़ासीवाद के खतरे के सामने बुर्जुआ लोकतंत्र की अंतर्निहित प्रतिरोधक क्षमता का भ्रम पालते फैलाते हैं वे न सिर्फ़ आधुनिक राजनीति के गति विज्ञान की अनदेखी करते हैं बल्कि ऐसे किसी खतरे से लड़ने में जन समुदाय को निरस्त्र कर देते हैं । वे एक ऐसी संस्था पर लोगों से भरोसा करने को कहते हैं जो स्वयं फ़ासीवाद की जननी होती है ।
पिछले पचास साल का भारत का राजनीतिक इतिहास इसी लोकतंत्र की अक्षमता के निरंतर उजागर होने और संकट के समाधान के लिए पूँजीवाद द्वारा किए गए नए नए प्रयासों का इतिहास रहा है ।
मध्यमार्गी राजनीति
शासन पद्धति में आने वाले संकटों से निजात पाने के लिए शासक वर्ग अनेक प्रकार के विकल्प खुले रखता है । ऐसा नहीं है कि बहुत सचेत प्रयास करके यह किया जाता है बल्कि शासन पद्धति के भीतर ही एक संस्था की विश्वसनीयता की भरपाई दूसरी संस्था और एक पार्टी की अक्षमता की भरपाई दूसरी पार्टी करती रहती है । कभी कभी व्यवस्था के बाहर से भी ये विकल्प निर्मित होते रहते हैं । अपने देश की वर्तमान परिस्थितियों में देखें तो सभी पार्टियों और राजनीतिज्ञों की अविश्वसनीयता के मद्दे नजर सिविल सोसाइटी की एक टीम खड़ी हो गई है जो ईमानदार, बुद्धिजीवी, स्वप्नदर्शी नायक और मेहनती लोगों के बतौर अपनी छवि को स्थापित करने में जी जान से जुटे हुए हैं ।
शासन व्यवस्था के भीतर ही जिस विकल्प को संकट के समय अब तक सबसे अधिक आजमाया गया है उसे हम मध्यमार्गी राजनीति के बतौर जानते हैं । साठ के दशक के उत्तरार्ध की संविद सरकारों से शुरू कर केंद्र की जनता पार्टी की सरकार, फिर अनेक राज्यों में क्षेत्रीय दलों की सरकारें, जनता दल सरकार से होते हुए वर्तमान संयुक्त मोर्चा सरकार तक इस राजनीतिक धारा ने लंबा सफ़र तय किया है । इस धारा के आदि राजनीतिक सिद्धांतकार राम मनोहर लोहिया रहे हैं । लोहिया कोई व्यवस्थित चिंतक नहीं रहे । चीन और अरुणाचल के सवाल पर उनका रुख अंधराष्ट्रवादी कम्युनिस्ट विरोधी का रुख है, मुस्लिम प्रश्न पर वे हिंदू संप्रदायवाद के पक्ष में झुके नजर आते हैं, आमदनी के निम्नतम और उच्चतम स्तरों के बीच भेद कम करने का उनका सिद्धांत काल्पनिक समाजवादी की तस्वीर पेश करता है लेकिन उनकी राजनीति के दो सिद्धांत संघवाद और वर्ग संघर्ष की जगह वर्ण संघर्ष खासक्र पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण का दावा परवर्ती राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे ।
संघवाद भारतीय राजनीति में एक संवेदनशील मुद्दा है । इसका संबंध राष्ट्रीय एकता से भी है । कुछ बुद्धिजीवी कहते हैं कि आज राष्ट्रवाद व्यर्थ हो गया है । लेकिन यह याद रखा जाना चाहिए कि तीसरी दुनिया के देशों में राष्ट्र निर्माण का कार्यभार अधूरा होने के कारण अब भी इसका सकारात्मक महत्व है । भारत में तो साम्राज्यवाद विरोधी लंबे आंदोलन में इसका निर्माण होने और एक विभाजन का मानसिक धक्का लगा होने से राष्ट्रीय एकता जन आकांक्षा में जीवित रहेगी । कुछ अन्य बुद्धिजीवी राष्ट्रवाद और क्षेत्रीयता दोनों को केवल सांस्कृतिक स्तर पर परिभाषित करते हैं । राष्ट्र और क्षेत्रों की संस्कृति अवश्य उन्हें समानता और विशेषता प्रदान करती हैं लेकिन राष्ट्रवाद और क्षेत्रीयता केवल सांस्कृतिक परिघटनाएँ नहीं हैं । संस्कृति की एकता उसकी केवल एक पूर्वशर्त है । दरअसल सारत: ये ठोस आर्थिक राजनीतिक परिघटनाएँ हैं । पूँजीवाद जहाँ राष्ट्र को एकता प्रदान करता है वहीं ठीक उसी प्रक्रिया में क्षेत्रीय असमानताएँ भी पैदा करता है । राष्ट्रीय एकता और क्षेत्रवाद एक ही प्रक्रिया की उपज हैं ।
जैसे साम्राज्यवाद विरोध के क्रम में बुर्जुआ का एक हिस्सा राष्ट्रीय हितों के नाम पर समग्र जन समुदाय को अपने पीछे गोलबंद कर लेता है उसी तरह क्षेत्रीय हितों के नाम पर क्षेत्रीय बुर्जुआ जन समुदाय को अपने नेतृत्व में एकताबद्ध कर लेता है । इस तरह के सभी अवर्गीय जनपक्षधर आंदोलनों का नेतृत्व नियमपूर्वक तत्संबंधी समुदाय का बुर्जुआ अथवा पेट्टी बुर्जुआ करता है । बहुत सारे मार्क्सवादी भी तात्कालिक तौर पर ऐसे आंदोलनों को वर्ग संघर्ष के समतोल समझने लगते हैं । इन आंदोलनों गोलबंदियों में जनपक्षधर तत्व की मौजूदगी के बावजूद इनके वर्ग अंतर्य के बारे में भ्रम नहीं पालना चाहिए । ढुलमुलपन पेट्टी बुर्जुआ की चारित्रिक विशेषता है । जहाँ उसे अखिल भारतीय बुर्जुआ समुदाय में सम्मानजनक जगह हासिल हुई कि सारी जन गोलबंदी समाप्त हो जाती है ।
आरक्षण का सवाल भी उसी तरह संवेदनशील प्रश्न है । आंबेडकर ने दलित समुदाय के लिए इसका प्रावधान संविधान में किया । राम विलास शर्मा ने अपने स्वदेशी कार्यक्रम में सभी प्रकार के आरक्षण समाप्त करने की बात कही । यह एक बेवकूफ़ाना बात है । आरक्षण अवसरों की समानता का ही पूरक तत्व है । ऐतिहासिक तौर पर सामाजिक क्षेत्र में पिछड़े समुदायों की समान भागीदारी और होड़ में उनके पिस न जाने की गारंटी के लिए यह अत्यंत आवश्यक है । इसकी जरूरत समाजवादी समाज में भी बनी रहेगी । पूँजीवादी व्यवस्था में आरक्षण आम तौर पर जनता की भलाई के लिए नहीं बल्कि शासक वर्ग के सामाजिक आधार और शासन व्यवस्था के लिए सामाजिक सहमति के विस्तार के लिए इस्तेमाल किया जाता है । चूँकि समग्र जनता के लिए अवसर उपलब्ध ही नहीं हैं; न आर्थिक समानता की दृष्टि से न शिक्षा की सार्वभौमिक उपलब्धता की दृष्टि से और न सबके रोजगारशुदा होने की दृष्टि से इसलिए सामाजिक न्याय के बतौर आरक्षण अपना कार्य ही संपादित नहीं कर पाता । अन्य अनेक सहायक तत्वों की गैर मौजूदगी में आरक्षण पूँजीवादी व्यवस्था में सामाजिक न्याय की बजाय जनता के विभिन्न हिस्सों के ऊपरी मलाईदार तबकों को शासक वर्ग में शामिल करने का हथियार बनकर रह जाता है ।
लोहिया के चिंतन में संघवाद और आरक्षण ऊपर से जनता के हाथ में सत्ता सौंपने के किसी कार्यक्रम का भ्रम पैदा करते हैं लेकिन सारत: ये दोनों शासक वर्ग के विस्तार की ओर ही लक्षित हैं । लोहिया के चिंतन में कोई जन पक्षधर तत्व रहा भी हो तो लालू और मुलायम जैसे वारिसों ने उसका क्रियाकर्म कर डाला है ।
मध्यमार्गी राजनीति शासक वर्गीय संकट का शासक वर्गीय उत्तर है । इस तरह के किसी भी उत्तर से कम्युनिस्ट आंदोलन का सीधा रिश्ता होता है । यदि शासक वर्ग का एक हिस्सा जनता को अपने पीछे गोलबंद कर लेता है तो स्वाभाविक तौर पर कम्युनिस्ट आंदोलन पीछे हटता है । दक्षिण के राज्यों में क्षेत्रीयतावाद ने यदि कम्युनिस्ट आंदोलन की बढ़ोत्तरी रोकी तो उत्तर के राज्यों में पिछड़ी जातियों की मध्यमार्गी पार्टियों की गोलबंदी ने । शायद समाज के विकास का यही नियम होता है । असल में कहीं भी वर्ग और उनकी चेतना अपने शुद्ध रूप में नहीं होते । अनेक अवर्गीय पहचानों और धारणाओं के साथ लगे लिपटे वे निर्माण की प्रक्रिया में होते हैं । इनका मिश्रण समाजों के विकास के स्तर पर निर्भर होता है । जनता के अनेक समुदायों की प्राक वर्गीय एकता के टूटने की इसी प्रक्रिया में समाज वर्गीय ध्रुवीकरण की ओर अग्रसर होता है ।
इस विश्लेषण का यह तात्पर्य नहीं कि कम्युनिस्टों से इसका रिश्ता हर हमेशा छत्तीस का होता है । असल में तो जनता की जनवादी क्रांति का वाहक सर्वहारा और पेट्टी बुर्जुआ का संयुक्त मोर्चा ही होता है । इसका नाभिक मजदूर किसान संश्रय है । सवाल नेतृत्व का है । पेट्टी बुर्जुआ और सर्वहारा में हर हमेशा इस मोर्चे का नेतृत्व हथियाने की होड़ रहती है । पार्टियों के बीच बनने वाले तरह तरह के मोर्चों के भीतर वर्गों का मोर्चा या वर्ग शक्तियों का संतुलन ही अपने आपको अभिव्यक्त करता है । पेट्टी बुर्जुआ और सर्वहारा का मोर्चा बुर्जुआजी के भीतर संकट पैदा होने से अस्तित्व में आता है । सर्वहारा वर्ग हमेशा इस मोर्चे का नेता नहीं होता । इसका नेतृत्व अपने हाथ में लेने के लिए एक तो वह बुर्जुआ खेमे में तोड़ फोड़ करता है उसके अंतर्विरोधों का फ़ायदा उठाता है और दूसरी ओर वर्ग शक्तियों को मजबूत करता है । वर्ग शक्तियों की तात्कालिक कमजोरी को यदि कोई कम्युनिस्ट नियति मान ले तो वह सर्वहारावर्गीय दूरगामी राजनीति की दृष्टि खो देता है । पेट्टी बुर्जुआ अपने आप किसी भी लड़ाई को उसकी अंतिम परिणति तक नहीं पहुँचा सकता इसीलिए इस मोर्चे के भीतर कम्युनिस्ट शुरू से ही अपनी स्वतंत्रता और दावेदारी सुरक्षित रखते हैं और वर्ग शक्तियों के समायोजन में किसी रणनीतिक उलटफेर के वक्त पहलकदमी अपने हाथ में लेने के लिए सर्वहारा वर्गीय शक्तियों को लामबंद करते रहते हैं । इसी अर्थ में वे आज के आंदोलन में जनता के दूरगामी हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
लेकिन आज मध्यमार्गी राजनीति कोई आंदोलन भी नहीं रह गई है । जिन तेरह पार्टियों का मोर्चा संघवाद का सर्वाधिक सफल प्रयोग बताया जा रहा है उनमें से कोई किसी क्षेत्रीय आंदोलन का प्रतिनिधित्व नहीं करती । यह जनता के हाथ सत्ता नहीं बल्कि मुख्यमंत्रियों का संघवाद है जो अखिल भारतीय पूँजीवाद के क्षेत्रीय घटकों के प्रतिनिधि मात्र हैं । असल में इंदिरा गांधी के सत्ता में आने के बाद अतिकेंद्रीकरण की जो प्रवृत्ति चली उसके उत्तर में विकसित हुई शासक वर्गीय राजनीति ने ही एक चक्र पूरा कर लिया है और ये सभी शक्तियाँ कांग्रेस की छतरी की ओर फिर से अग्रसर हो रही हैं ।
कुछ मार्क्सवादी मित्रों का कहना है कि हमें सभी संघीय माँगों का समर्थन करना चाहिए और इसे वे राष्ट्रीयता के आंदोलन के बतौर पेश करते हैं । राष्ट्रीयता के आंदोलन के बारे में लेनिन ने जो कहा था वह सभी अवर्गीय पेट्टी बुर्जुआ आंदोलनों के प्रति कम्युनिस्टों के रुख को व्याख्यायित करता है । कम्युनिस्टों को आंदोलन की दिशा, नेतृत्व के वर्गीय चरित्र और भागीदार जनसमुदाय में वर्ग शक्तियों के संतुलन को देखकर अपना रुख तय करना चाहिए ।
मंडल कमीशन के लागू होने के बाद भी अनेक तरह के दावे किए गए । भारत की राजनीति में इसे आमूल चूल परिवर्तन की संज्ञा दी गई और ऐसी संभावना व्यक्त की गई कि अल्पसंख्यक पिछड़े दलित महिला समुदायों का कोई गँठजोड़ भारत में गैर भाजपाई गैर कांग्रेसी राजनीति के स्थायी रूप से नए दौर का आगाज करने जा रहा है । मंडल कमीशन दक्षिण के राज्यों में जो बहुत पहले हो चुका था उत्तर में उसी काम को अंजाम देने का प्रयोग था । जमींदारी उन्मूलन से आर्थिक तौर पर मजबूत हुई और राजनीतिक सत्ता में मजबूत दावेदारी स्थापित कर चुकी कुलक शक्तियों को राज्य तंत्र में समाहित करने की शासक वर्गीय कोशिश से अधिक कुछ भी मंडल कमीशन में नहीं था । यह सही बात है कि भारत में किसी भी जनतांत्रिक राजनीति का सुदृढ़ आधार उपरोक्त समुदाय ही प्रदान करेंगे लेकिन इसके लिए उन्हें समग्र जनवादी कार्यक्रम के आधार पर संगठित करना होगा । आज की मध्यमार्गी राजनीति के पास ऐसा कोई कार्यक्रम नहीं है ।
मंडल कमीशन से पैदा हुई शक्तियों को केंद्र में आए पाँच साल भी नहीं बीते कि उसके एक पुरोधा दलित विरोधी उन्माद फैलाने में व्यस्त हो गए दूसरे पुरोधा जनता की संपत्ति की भारी लूट के आरोप में जेल में बंद हैं और तीसरे पुरोधा महिला आरक्षण के विरुद्ध आंदोलन संचालित कर रहे हैं । संघवाद के नए प्रवक्ता स्वावलंबन आदि की बातें भूलकर वामपंथियों को आर्थिक नीतियों के विरुद्ध आंदोलन न करने की सलाह दे रहे हैं । ये सभी या तो कांग्रेस में वापसी की प्रक्रिया में हैं या उसके साथ तालमेल की गंभीर कोशिशों में व्यस्त हैं । सांप्रदायिकता राष्ट्रीय जीवन के कुछ प्रश्नों का चरम दक्षिणपंथी उत्तर है और एक मुकम्मल वामपंथी जनतांत्रिक विकल्प ही इसका जवाब हो सकता है ।
दलित आंदोलन
कुछ ही दिन हुए प्रसिद्ध समाजशास्त्री कंचा इलैया ने एक आत्मकथात्मक पुस्तक लिखी- ह्वाई आइ एम नाट हिंदू । इसमें उन्होंने निजी जीवन के अनुभवों के समाजशास्त्रीय निष्कर्ष निकालते हुए यह प्रमाणित करने की कोशिश की है कि दलित समुदाय हिंदू समाज का अंग नहीं है । यही बात यह जानने कि लिए काफी है कि दलित आंदोलन आंबेडकर से आगे बढ़ा है सकारात्मक या नकारात्मक दिशा में यह अलग प्रश्न है । असल में दलित आंदोलन में बसपा के उदय के बाद मार्क्सवाद की ओर झुकाव रखने वाले दलितवादी बुद्धिजीवियों के एक बड़े हिस्से ने इसके मुताबिक अपने सिद्धांतों को फ़िट करना शुरू कर दिया है । अब तक ये लोग आंबेडकर और मार्क्स को मिलाने की कोशिश करते रहे थे । नाम अब भी आंबेडकर का ही चल रहा है पर कोशिश बसपा के हिसाब से मार्क्स को सुधारने की हो रही है ।
भारत की दलित समस्या खास तरह की समस्या है । इसे समझने और आंदोलन की दृष्टि से कई तरह के सिद्धांतों का उपयोग किया गया है । इन्हीं में से एक आर्य द्रविड़ विभाजन का सिद्धांत भी है । यूरोप और अमेरिका को जिस तरह काले गोरे पीले इत्यादि नस्लों का अनुभव हो रहा था उसी परिप्रेक्ष्य में उन्होंने भारत को भी आर्य द्रविड़ नस्ली विभाजन के जरिए समझने की कोशिश की । तमिलनाडु के ब्राह्मणवाद विरोधी आंदोलन और बाद की क्षेत्रीय राजनीति में इस सिद्धांत का गहरा असर रहा । दलित आंदोलन के भी एक खेमे में इसका प्रभाव है । इसने वर्ग चेतना और वर्ग शक्तियों के ध्रुवीकरण की प्रक्रिया में बाधा ही पहुँचाई और अब तो तमिलनाडु में भी इसकी व्यर्थता साबित हो चुकी है ।
जो लोग यह दावा करते हैं कि दलित समुदाय स्वभावत: हिंदू समाज का अंग नहीं है वे सामाजिक विकास के बुनियादी नियमों की अनदेखी करते हैं । सभी समाजों ने अपने विकास के स्तर के अनुरूप विचारधारात्मक ढाँचों को जन्म दिया है । इस सिलसिले में भारतीय दर्शन के मार्क्सवादी अध्येताओं ने भी कुछ गड़बड़ी पैदा की है । उन्होंने भाववाद का विरोध करने के नाम पर आदिम भौतिकवाद को ही महिमामंडित किया । आदिम भौतिकवाद, असंगठित धर्म, संगठित धर्म- समाजों ने अपने विकास की जरूरतों के अनुरूप क्रमश: इन्हें जन्म दिया । आदिम भौतिकवाद को पराजित कर भाववाद विजयी हुआ या असंगठित धर्मों ने क्रमश: संगठित धर्मों के लिए जगह बनाई तो यह बदले समाज की जरूरतों को पूरा करने में पूर्ववर्ती परिघटनाओं की अपर्याप्तता को ही सिद्ध करता है । भाववाद का उत्तर आदिम भौतिकवाद नहीं बल्कि आधुनिक वैज्ञानिक चेतना पर आधारित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद है ।
जो लोग दलित समुदाय के आज के जीवन को ही जनवाद का आधार बताते हैं और समाज के दलितीकरण तथा जनतांत्रिकीकरण को समान घोषित कर देते हैं उनका चिंतन तो और भी मूर्खतापूर्ण है । जैसे कुछ लोग उपभोक्तावाद के विरुद्ध गरीबी को ही महिमामंडित करने का आपराधिक कृत्य करते हैं उसी तरह ये लोग दलित समुदाय को उसकी आज की अवस्था में बनाए रखने के अपराध के भागीदार हैं । आंबेडकर इस तरह के सभी सूत्रीकरणों और सिद्धांतकारों के बीच अपनी दृष्टि की गहराई और पैनेपन के कारण आज भी अनन्य हैं ।
उन्होंने दलित समस्या को हिंदू धर्म जनित समस्या माना । निदान के लिए हिंदू धर्मग्रंथों की ब्राह्मणवाद विधायक भूमिका की पहचान की और इसके समाधान के लिए क्लासिकल बुर्जुआ विचारधारा के सकारात्मक तत्वों पर भरोसा किया । इस अर्थ में वे स्वतंत्रता पूर्व के आधुनिकीकरण के पक्षधर चिंतकों की परंपरा में आते हैं । इतना ही नहीं कुछ अर्थों में वे इन सबमें मूर्धन्य थे । फ़्रांसिसी क्रांति के नारों स्वतंत्रता समानता बंधुत्व को उन्होंने सबसे अधिक बुलंदी से उठाया । रिपब्लिकन पार्टी का गठन और बंबई में कम्युनिस्टों के साथ उनका सहयोग मजदूर आंदोलन के महत्व की उनकी पहचान को द्योतित करता है । संविधान निर्माण में सहयोग और नेतृत्व भी उन्होंने इसी आशा से किया था कि आधुनिक बुर्जुआ संस्थाएँ भारत में दलित समस्या के समाधान में सक्षम होंगी । भूमि सुधारों के सवाल पर वे सबसे आगे बढ़े हुए थे । लेकिन बुर्जुआ संस्थाओं की परिवर्तनकारी भूमिका और क्षमता को पहचानने में उनसे चूक हुई । इन्हीं बुर्जुआ संस्थाओं ने ब्राह्मणवाद को संगठित और संस्थाबद्ध किया । पूँजीवाद की मार्क्सवादी आलोचना और मजदूर वर्ग की मुक्तिकारी भूमिका वे पूरी तरह आत्मसात न कर सके । इसीलिए दलित आंदोलन में बसपा के उभार के बाद आंबेडकरवादी उसकी कोई सुसंगत आलोचना विकसित नहीं कर पा रहे हैं । आंबेडकर का विकास कोई सुसंगत मार्क्सवादी आंदोलन ही कर सकता है । नई परिस्थितियों के समक्ष आंबेडकरवादियों का असहाय रह जाना यही साबित करता है ।
दलित आंदोलन के राजनीतिक क्षितिज पर बसपा का उदय नई परिस्थितियों की मौजूदगी की ओर इशारा करता है । पिछले सालों में आरक्षण का लाभ उठाकर दलित समुदाय का छोटा ही सही पर एक हिस्सा ऊपर की ओर बढ़ा है । हायद यह पूँजीवादी व्यवस्था का नियम ही है कि उसके विकास की प्रक्रिया में सत्ता के नए नए केंद्र उभरते रहते हैं जो पूँजीवादी सुधारों को भी बेमानी बनाते रहते हैं । उदारीकरण और नई आर्थिक नीतियों ने आरक्षण को बेमानी बना दिया । सार्वजनिक क्षेत्रों में रोजगार के नए अवसर नहीं खुले । तीसरी ओर समाजार्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में कांग्रेस और भाजपा के संयुक्त प्रयास से हो रहे एकमुश्त दक्षिणपंथी उभार ने दलित समुदाय को और अधिक हाशिए पर धकेलना शुरू कर दिया । इन सबने मिलकर एक व्यापक दलित आंदोलन की जमीन पैदा कर दी । किसी अन्य आंदोलन की गैर मौजूदगी में बसपा ने उस जगह को भरना शुरू किया । इसने दलित आंदोलन के भीतर राजनीतिक सत्ता पर कब्जे के सवाल को सबसे आगे कर दिया है । जो लोग इस नई परिस्थिति की समझ नहीं रखते वे बसपा के ठहर जाने और बिख्र जाने की भोली आशाएँ व्यर्थ सँजोए रहते हैं ।
बसपा का मुख्य सामाजिक आधार दलित समुदाय का मध्य वर्ग है । इसीलिए अपने वर्ग चरित्र के मुताबिक वह किसी भी तरह के गँठजोड़ के जरिए राजनीतिक सत्ता पर कब्जा चाहता है । व्यापक दलित समुदाय एक हद तक इसमें अपनी राजनीतिक शक्ति का उत्थान देखता है । लेकिन भारत की दलित समस्या इतनी आसान नहीं है । अनेक असमाधेय अंतर्विरोधों की तरह वह भी हिंदू समाज का असमाधेय अंतर्विरोध है । न तो वह पिछड़ी जाति के कुलकों के साथ अपनी पटरी बैठा पा रहा है न ही भाजपाई सामंती सवर्णों के साथ । बसपा के कुछ सिद्धांतकार और भाजपा के बुद्धिजीवी भी ऐसा समझ रहे हैं कि दलित हिंदू समाज की ब्राह्मणवादी मुख्यधारा में समाहित कर लिए जायेंगे लेकिन उनकी आशा के विपरीत परिस्थिति ऐसी है नहीं । दलित समुदाय के भीतर मेहनतकश जनता की बहुतायत और उनकी सामाजिक हैसियत में छोटे से भी बदलाव के विरुद्ध प्रबल सामंती विरोध बसपा भाजपा मसाले के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा हैं ।
ऊपर हमने जिन परिस्थितियों का जिक्र किया उनके चलते दलित मुक्ति का कोई मुकम्मल आंदोलन नई आर्थिक नीति विरोधी धर्मनिरपेक्ष जनवादी आधारों पर ही खड़ा हो सकता है । अल्पसंख्यकों किसानों मजदूरों स्त्रियों की समानता के बगैर दलितों को भी बराबरी हासिल नहीं हो सकती । ब्राह्मणवाद का विनाश पुरुष सत्ता हिंदू सांप्रदायिकता और सामंती अर्ध सामंती तत्वों का ही विनाश है । बसपा सरकारों ने दलितों के भीतर सामाजिक सम्मान और राजनीतिक सत्ता की प्यास उस हद तक बढ़ा दी है जिसे संतुष्ट करना उसके वश में नहीं । यह कम्युनिस्टों के सामने एक चुनौती है और इस दायित्व को निभाने की उनकी कुशलता ही कम्युनिस्ट आंदोलन को विकास के नए दौर में पहुँचाएगी ।
दक्षिणपंथी उभार
1980 में इंदिरा गांधी का सत्ता में पुनरागमन राजनीति के एक नए अध्याय की शुरुआत थी । उन्होंने स्थायी हिंदू वोट बैंक बनाने के लिए सिक्ख विरोधी भावनाएँ भड़काईं, राष्ट्रीय एकता पर खतरे का मुहावरा चलाकर उग्र राष्ट्रवाद की जमीन पैदा की और निर्यातोन्मुख उद्योग आदि की बातें करके निजीकरण और उदारीकरण के भी पूर्व संकेत दिए । उनके बाद राजीव गांधी ने इन तीनों मोर्चों पर उनके कार्यभार को आगे बढ़ाया । शासक वर्ग ने धर्मनिरपेक्षता गुटनिरपेक्षता समाजवाद आदि का मुखौटा भी उतार फेंका और शासक वर्ग की सबसे विश्वसनीय पार्टी बनने की होड़ में कांग्रेस और भाजपा ने एक दूसरे से आगे बढ़ चढ़ कर इन हथियारों का इस्तेमाल शुरू कर दिया । 6 दिसंबर का बाबरी मस्जिद विध्वंस इन दोनों पार्टियों के आपसी सहयोग का उत्तम नमूना है । कांग्रेस और भाजपा के बीच जो लोग बुनियादी अंतर देखते हैं वे आँखों के सामने घट रही घटनाओं से सबक नहीं लेना चाहते । ये दोनों जितनी धर्मनिरपेक्ष हैं उतनी ही सांप्रदायिक भी जितनी तानाशाह हैं उतनी ही संघात्मक भी जितनी ब्राह्मणवादी हैं उतनी ही जनता के विभिन्न समुदायों के ऊपरी तबकों को पचाने वाली भी ।
इन परिघटनाओं के बारे में कुछ विश्लेषण की जरूरत है क्योंकि कुछ विद्वानों का ऐसा मानना है कि ये अतीत का निषेध करके और व्यवस्था के बाहर से पैदा हुई हैं । जहाँ तक धर्मनिरपेक्षता का प्रश्न है भारतीय राज्य कभी धर्मनिरपेक्ष रहा नहीं । धर्मनिरपेक्षता को हमेशा सर्वधर्मसमभाव के रूप में परिभाषित किया गया और सर्वधर्मसमभाव बहुत आसानी से बहुसंख्यक धर्म की पक्षधरता में बदल जाता है । राज्य का धर्मनिरपेक्ष चरित्र समाज की धर्मनिरपेक्षता पर आधारित भी होता है और उसे मजबूत भी बनाता है । लेकिन भारतीय राज्य ने हमेशा हरेक समुदाय में कट्टर तत्वों को ही प्रश्रय दिया । ऐसी परिस्थिति में भाजपा जैसी फ़ासीवादी पार्टी ने जब हिंदू सांप्रदायिकता को हथियार के बतौर इस्तेमाल करना शुरू किया तो भारतीय राज्य के पास कोई उत्तर नहीं रहा ।
जहाँ तक राष्ट्रवाद का प्रश्न है यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि आर्थिक तौर पर भारत के एकताबद्ध हो जाने और साम्राज्यवाद की अतिविजय के इस दौर में राष्ट्रवाद एक वस्तुगत जरूरत है । तीसरी दुनिया के सभी देश दो अतिमहाशक्तियों के बीच मोलतोल का अवसर खो चुके हैं इसलिए राष्ट्रवाद के प्रति नया उत्साह लाजिमी है । जो भी राजनीतिक पार्टी इसको नहीं देख पायेगी वह इस दौर की संभवत: सबसे पिछड़ी पार्टी होगी । भारत में शासक वर्ग द्वारा राष्ट्रवाद को कभी साम्राज्यवाद विरोध के बतौर देखा ही नहीं गया । इसे पाकिस्तान और चीन के साथ विरोध के रूप में ही परिभाषित किया गया । यदि पाकिस्तानी शासक वर्ग भारत विरोधी घृणा भड़काकर सत्ता में बने रहना चाहता है तो भारत को स्वभावत: हमलावर मित्रता (फ़्रेंडशिप आफ़ेंसिव) का रुख अपनाना चाहिए। बजाय इसके भारतीय शासक वर्ग भी पाकिस्तान विरोधी घृणा को ही संकट के समय बार बार आजमाता रहा । इसने साम्राज्यवाद के सामने समर्पण के लिए बहाना भी प्रस्तुत किया । शासक वर्ग ने देश के हितों के साथ गद्दारी करते हुए साम्राज्यवाद के साथ एक के बाद एक शर्मनाक समझौते किए । इसी माहौल में भाजपा के हाथ सुनहरा तीर लगा । वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से देश के अंदर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण में भी सफल हुई और राष्ट्रवाद की झंडाबरदार भी बन गई ।
नई आर्थिक नीति तो मिश्रित अर्थव्यवस्था का सीधा परिणाम है । कुछ मित्रों के विश्लेषण से कभी कभी यह भ्रम पैदा हो जाता है कि निजी पूँजी और सार्वजनिक पूँजी में कोई बुनियादी अंतर है । यह गलत है । पूँजीवाद दोनों रूपों में मौजूद होता है; निजी और सार्वजनिक पूँजी एक दूसरे की सेवा करती रहती हैं । सार्वजनिक क्षेत्र कभी समाजवाद की ओर गतिमान नहीं था । हमेशा वह अधिसंरचनात्मक सेवा, जिसका प्रबंधन निजी पूँजी की क्षमता के बाहर था, के लिए ही उपयोग में लाई गई और निजी क्षेत्र में भी बड़े पैमाने के निवेश का साधन बनी रही । इस प्रक्रिया के जरिए कुछ मजबूती पाकर और बदली अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के मद्दे नजर निजीकरण का दौर शुरू किया गया । किसी अधिसंरचनात्मक सेवा में बड़े पैमाने पर देशी पूँजी निवेश के संकेत मिल नहीं रहे हैं बल्कि निजी पूँजी विदेशी कंपनियों की दलाली में ही अधिक प्रसन्न है । आखिर पूत के पाँव पालने में ही दीख जाते हैं । स्वतंत्रता पूर्व ब्रिटिश औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की दलाली से पैदा हुआ वर्ग पुन: पिता की गोद में वापस जाने को मचल रहा है ।
ध्यान रखने की बात यह है कि कोई भी देश अपने संसाधनों के समुचित प्रबंधन और उपयोग के जरिए ही कोई समृद्धि हासिल कर सकता है । उधार का धन चार दिन ही चलता है । वैसे भी साम्राज्यवादी देश अपनी रणनीतिक जरूरतों के हिसाब से ही किसी देश में पैसा झोंकते हैं । भारत का विशाल बाजार अवश्य विदेशी कंपनियों को ललचा रहा है लेकिन इसकी विशालता ही उन्हें डरा भी रही है । नई आर्थिक नीति की सफलता विस्तृत मध्य वर्ग के सृजन पर निर्भर है । क्या विदेशी पूँजी निवेश और निजी पूँजी मिलकर इस मध्य वर्ग का सृजन और इसकी उपभोक्तावादी जरूरतों को संतुष्ट कर पायेंगे ? भारत जैसे विशाल देश के लिए यह एक अनुत्तरित प्रश्न है । संभावना इस बात की अधिक है कि देश जबर्दस्त आर्थिक अराजकता की ओर बढ़ जायेगा ।
मार्क्सवाद का भविष्य
आजादी के पचास साल बाद भारतीय समाज कोई स्थिर समाज नहीं उसके भीतर लगातार कुछ न कुछ उबल रहा है । पश्चिमी देशों में राजनीतिक अस्थिरता की क्षतिपूर्ति समाज की सापेक्षिक स्थिरता करती रही है । भारतीय समाज में लगातार हो रहे बदलाव ऐसे मोड़ पर आ पहुँचे हैं कि राजनीतिक स्थिरता हासिल करने में शासक वर्ग को एड़ी चोटी का पसीना एक कर देना पड़ रहा है । तेरह चौदह पार्टियों का मोर्चा या छ्ह महीनों के लिए मुख्यमंत्रित्व का बँटवारा पहले से समझ बूझ कर उठाए गए सकारात्मक कदम नहीं हैं बल्कि राजनीतिक व्यवस्था के बढ़ते हुए संकट को तात्कालिक तौर पर रोकने के लिए किए गए उपाय हैं । राजनीतिक व्यवस्था का ऐसा संकट देश के भविष्य को चौराहे पर खड़ा कर देता है । वह चरम दक्षिणपंथी फ़ासीवादी समाधान की ओर भी बढ़ सकता है और एक क्रांतिकारी संभावना भी इसमें छिपी हुई हो सकती है ।
शासक वर्ग का संकट क्रांति के लिए जरूरी एकमात्र परिस्थिति नहीं । लेनिन ने कहा है कि क्रांति के लिए आवश्यक है कि शासक वर्ग पुराने तरीके से शासन न कर पा रहे हों, जनता भी पुरानी शासन पद्धति को बर्दाश्त करने को तैयार न हो और सर्वहारा के आगे बढ़े हुए तत्वों की सक्रियता और तैयारी अपने चरम पर हो । इसीलिए क्रांतिकारी संकट स्वयमेव आते नहीं लाये जाते हैं जनता को भ्रम में बाँधे रखनेवाले शासकीय प्रयासों का भंडाफोड़ करके और क्रांतिकारी शक्तियों को क्रमश: मजबूत करके । दुर्भाग्यवश भारत के परंपरागत वामपंथ के एजेंडे में क्रांति रह ही नहीं गई है । वह मध्यमार्गी विकल्प के दिनानुदिन अविश्वसनीय होते जाने के बावजूद उसी को मजबूत करने में अपनी पूरी ताकत लगा रहा है ।
विकल्प का सवाल कोई कागज पर लिखा उत्तर नहीं माँगता । सर्वहारा क्रांति के कार्यक्रम और विकल्प ठोस जनांदोलनों में निर्मित होते हैं । शासक वर्ग की नीतियों के कारण विक्षुब्ध जनसमुदाय की क्रांतिकारी पाँतें लगातार बनती रहती हैं और जनसमुदाय की जनतांत्रिक आकांक्षा नए नए समुदायों की नई नई माँगों में अभिव्यक्त होती है । कम्युनिस्ट कार्यक्रम और ठोस जनांदोलन की अंत:क्रिया तथा एकीकरण से ही विकल्प बनता है ।
समाजवाद को लगा धक्का समाजवादी निर्माण के पहले प्रयासों को लगा धक्का है । पेरिस क्म्यून की गलतियों से लेनिन ने सीखा और आगामी समाजवादी निर्माण के प्रयासों को इस धक्के से सीखना होगा । लेकिन इस परिस्थिति में जिन लोगों ने सर्वहारा अधिनायकत्व और बहुदलीय लोकतंत्र आदि को बुनियादी सैद्धांतिक प्रश्न बनाकर बहस करना शुरू कर दिया उन्हें यह बताया जाना चाहिए कि सर्वहारा राज्य की कोई एक ही शासन पद्धति नहीं, सर्वहारा अधिनायकत्व उसका अंतर्य है, रूप संबंधी प्रयोग अभी भविष्य के गर्भ में हैं । बहुदलीय लोकतंत्र कोई एकदम भिन्न शासन पद्धति नहीं । शासक वर्गीय संकट और क्रांति की प्रगति में सब कुछ कम्युनिस्टों के ही हाथ में नहीं होता । लोकतंत्र का विनाश खुद बुर्जुआ वर्ग ही करता है और कम्युनिस्ट पार्टी अपने आपको ही विभाजित कर पक्ष और विपक्ष नहीं बना सकती ।
देश में जिस तरह एकमुश्त दक्षिणपंथी उभार हो रहा है, शासन पद्धति में संकट जिस तरह लगातार बढ़ रहा है और जैसी अराजकता के लक्षण दीख रहे हैं उसमें फ़ासीवाद को एकदम से नकारा नहीं जा सकता । पुराने ढंग की क्रांतियाँ नए युग में संभव हैं या नहीं ? यह प्रश्न से अधिक एक चुनौती है ।
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