सोना लादन पिउ गए सूना करि गये देस
सोना मिला न पिउ मिले रूपा ह्वै गे केस
रूपा ह्वै गे केस रोय रंग रूप गँवावा
सेजन को बिसराम पिया बिन कबहुँ न पावा
कह गिरिधर कविराय लोन बिन सबै अलोना
बहुरि पिया घर आउ कहा करिहौं कै सोना
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(चंद्रशेखर के लिए)
अंबेडकर, गांधी, लोहिया, जयप्रकाश की कौन बात करे विवेकानंद भी वहीं खड़े थे जहाँ वह हत्या हुई । स्वतंत्रता आंदोलन के शरीर तो शरीर आत्मा तक के ध्वंस पर वह हत्या हो रही थी । उसके बाद से अपना प्रेम और अपनी नफ़रत बहुत कीमती हो गये हैं । सही सही पहचान हो कि किसको देखकर बोला भी न जाय तो किसी को देखकर हृदय के उमड़ आने की क्षमता पैदा हो जाती है ।
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मौत हमारे जीवन में कई तरह से प्रवेश करती है । लंबी बीमारी के बाद बूढ़ों के क्रमशः ठंडे होते हाथ पाँव के जरिए । और कभी एक बच्चा है, उसकी गेंद कोलतार की सड़क के बीचोबीच पहुँच गयी । एकदम तने हुए धनुष के तीर की तरह वह छूटा । तभी बिजली की तेजी से आती हुई मारुती कार से टकराकर गुड्डे की तरह उछला और बस । मुँह से गाढ़े लाल रंग के पेंट की एक लकीर रिसने लगती है । कोई और हरकत नहीं । ऐसे भी । पता नहीं क्या होता है ठीक मौत के पहले- शायद एक अकल्पनीय बेचैनी और फिर एक अनंत काली चादर सी विश्रांति- पता नहीं । लेकिन मृत्यु एकदम अप्रत्याशित ढंग से आ जाय तो? पता नहीं । चिता पर लाश को डाल दीजिये । कपड़े भभक उठते हैं । रोहन डिसूजा का कुर्ता कि पिता की शर्ट? सब पहचान खत्म । कपड़ा खत्म । एक झोंका आग का और बाल चिरचिराकर स्वाहा । रोज कंघी से सँवारो । मारकंडेय सिंह के सुरक्षा कर्मियों ने इसी को पकड़कर हिलाया था तो तकिये पर गुच्छे की तरह गिरते थे । और झड़ने से बचाने के लिए दवा खरीदी । समाप्त । धीरे धीरे शरीर तथ्य हो जाता है । भावनायें अलग । फिर चिता से बाहर लटकता पाँव चट से टूटकर गिरनेवाला हो तो बाँस से उसे उल्टा तोड़कर फिर से चिता में फेंक दो । सूँ सूँ, सर टूटा- भड़ाक । लंबा इंतजार । धीरे धीरे एक आदमी भस्म हो जाता है ।
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यह भारतीय राष्ट्र की एकता थी जो स्टेनगन और सेल्फ़ लोडिंग राइफ़ल से पहचानी जाती थी । गोली चली सीवान में और आवाज दिल्ली में सुनाई पड़ी । ये अचानक बदन पर इतने धक्के क्यों लग रहे है? और हाथ स्वतः किसी सहारे के लिए उठ जाते हैं लेकिन चेतना लुप्त होती जा रही है । ये हो क्या रहा है? पता नहीं ।
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एक तथ्य के अतिरिक्त यह हत्या जनतंत्र की विफलता थी । किसी ने कहा है कि सबकी स्वतंत्रता की हद दूसरे की नाक है । इस जमाने में नाकें इतनी लंबी हो गई थीं कि जगह जगह बेवजह टकराने लगीं । बीच की जगह एकदम सिकुड़ गई और धार की तरह खून गिरने लगा, भेजा बिखरने लगा । यह खून जगह जगह कतरा कतरा गिरा था, तब भी बहुत बच गया था । धारा की तरह यहीं गिरा और जम गया । शायद यह मजनू का कटोरा था । इधर उधर किसी ने उसे गले लगाने की हिम्मत ही नहीं की । कल्पना ने अंततः हिम्मत की लेकिन जैसे हाथ काँप गया हो और सब कुछ खत्म । लेकिन खत्म कैसे? जिस देश में सभी अंतर्विरोध हत्या से ही हल हो रहे हों वहाँ अस्सी करोड़ रहते हैं लोग; और अभी तो आने वाले बच्चे भी हैं । उनकी फ़िक्र भी तो है ।
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(अनिल कुमार बरुआ के लिए)
आप मेरी आत्मा में बदल गये हैं और एकदम अकेले में ही आपसे बातचीत करने में सक्षम हूँ । आप अपने होने से एक संतोष थे और न होने से अजीब किस्म की बेचैनी बन गए हैं । आपके नाम और हमारी पार्टी के बीच एकदम तदाकारता थी ।
मेरी छवि में आप एक खूबसूरत फ़ोटोग्राफ़ रहे, फिर मुझे लगता है कि मैंने दिल्ली में आपको देखा था । लंबे, मोटे, गोरे, मोटे शीशे का चश्मा पहने- मत कहिए कि आप ऐसे नहीं थे । अपने इस विश्वास को मैं खंडित नहीं होने देना चाहता कि मैं आपसे मिला हूँ ।
गोलियाँ, सिर्फ़ गोलियाँ । मुझे नहीं लगता कि भारतीय इतिहास के किसी मोड़ पर गोलियों ने इतना अधिक खून पिया होगा । लोग कहेंगे कि यही इतिहास की प्रसव वेदना है लेकिन यह शब्द इस घड़ी के लिए कितना छोटा है । टुकड़े टुकड़े हिंदुस्तान बंजर हो रहा है । छत्तीसगढ़, बंबई, सीवान, रोहतास, डिब्रूगढ़- लोग कहेंगे ये जिले हैं लेकिन आस्था के आधारों का टूटना बहुत बड़ी क्षति है ।
आपका प्रांत बहुत खूबसूरत था न? था- अजीब है । एक आदमी जिस धरती पर पैदा होता है, बड़ा होता है वह उसके लिए साँस की तरह होती है । मेरे लिए तो आप ही असम थे । मैं भारतीय हूँ लेकिन कितना दुर्भाग्यशाली कि इसके बीसियों प्रांतों में से कुल चार पाँच ही देख पाया हूँ । देखना भी क्या देखना । लेकिन केवल देखने से भी देशवासी होने की तमीज पैदा होती है । तो कलकत्ता तक गया । आपके यहाँ न जा सका ।
लोग लोग लोग असंख्य लोग । जीने के लिए लड़ते हुए । फिर उनका एक छोटा सा हिस्सा थोड़ा बाहर निकला तो हर जगह अपरिचय अपमान । ऐसे ही लोगों के भीतर से उनका नेतृत्व निकलता है । फूल की खुशबू की तरह । कैसे कहूँ- यह उनके बीच भी होना है और उनके आगे होना भी ।
देश के एक सीमाप्रांत में एक ऐसे राज्य में जो अधिकांश लोगों के लिए संस्कृति मात्र है बड़ा खतरनाक है यह शब्द ठीक लज्जा की तरह अत्यधिक रोमांटिकता सिर्फ़ इसलिए भरता है ताकि मनुष्य को गायब कर दे तो ऐसी जगह आदमी की क्रोध की भाषा को विकसित करने के संघर्ष के आप नामराशि थे । इतने दिनों से आपका नाम सुनता आ रहा था कि याद भी नहीं आ रहा कि कब पहली बार सुना ।
मैं आपसे पहली बार बात नहीं कर रहा हूँ अंतिम बार भी नहीं कर रहा हूँ । अभी बहरहाल सैकड़ों ऐसे लोग हैं और कहूँ तो रोज पैदा भी हो रहे हैं- कालोह्यं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी लेकिन अब तार जब एक बार टूट जाता है तो फिर जोड़ने में----बहुत मुश्किल है । एकदम नहीं कोई भी एक आदमी दूसरे में नहीं बदल सकता । मनुष्य इररिप्लेसेबल है । अगर हालात यही रहे कामरेड तो हो सकता है कुछ दिनों में अधिकतर लोग जीवित लोगों से बात ही न कर पायें केवल मृतात्माओं से ही उनका संवाद संभव रह जाय ।
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(किसलय के लिए)
इस पृथ्वी पर घटनेवाली सबसे हैरतअंगेज घटना घट चुकी थी । सभी पिरामिडों, भवनों, सभी मूर्तियों, सभी चित्रों, सभी रचनाओं से अधिक महान और आश्चर्यजनक घटना कि एक जीवित मनुष्य इस दुनिया में पधार चुका था ।
उसका लड़की होना मुझे ज्यादा स्वाभाविक लगा था क्योंकि उसकी माता स्त्री थी । मैंने सोचा माता के भीतर वह धीरे धीरे आकार ले रही होगी । हाथों के भीतर हाथ, पाँवों के भीतर पाँव और इस तरह पचीस वर्ष बाद मेरी पत्नी पुनः पचीस वर्ष पीछे आ जाएगी । लेकिन ऐसा नहीं हुआ और एक स्त्री ने एक पुरुष को जन्म दिया । अनेक लोग कहते हैं कि पुरुष और स्त्री की दुनियाएँ बुनियादी रूप से भिन्न हैं । इस घटना के मद्दे नजर इस पर यकीन करना मुश्किल है ।
उसका जन्म ऐसे समय हुआ जब झूठ, फ़रेब, मक्कारी और क्रूरता को मरकजी रुतबा हासिल था । शायद वह लड़की होता तो मैं सोचता कि बाहर की दुनिया से उसे बचा ले जाऊँगा लेकिन लड़का तो जूझेगा, लड़ेगा, मरेगा । इतनी चिंता को वह अनजाने चुरा लेता है । आप देखते हैं कि उसकी साँस तेज तेज चल रही है और सारा ध्यान फिर उसकी साँस पर । दस सेकंड के अंदर वह सोए में मुस्करा देता है और आप खुश ।
उसने तो होश भी नहीं सँभाला और अभी से राहत की वजह बन गया । इसे व्यक्तिगत संपत्ति के प्रति मेरी पक्षधरता न माना जाय तो कहूँगा कि अबसे पहले किसलय अर्चना के भीतर धड़क रहा था अब मेरे भीतर धड़कता है । उसके बंद हाथों में जीवन की बागडोर है तो खुले हाथों में जमाने भर का इंद्रजाल । त्वचा की एक एक पोर से वह है और बस ।
स्वप्न और जागरण, नींद और होश, सोचना और बोलना- ये अलग अलग विभाग हैं । इनमें कोई भी घालमेल खतरनाक है । ये सब अपनी जगह पर सही तरीके से काम करते रहें इसकी तो वह गारंटी लेकर पैदा हुआ है । आसमान को वह दोनों हाथों से थामे हुए है और दोनों पाँवों से धरती को ठेल रहा है । है कोई इसके मुकाबले ?
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(दलित नेता के लिए)
एक आदमी अछूत पैदा हुआ । गाँव के एक तरफ़ की बस्ती के एक घर में उसकी आँखें खुलीं । उसे बताया गया कि इस बस्ती के तो सारे लोगों के साथ उसका अपनापा है । दरअसल बताया भी नहीं गया उसने सहज बोध से जान लिया । और उसी गाँव की बाकी बस्तियों के लिए वह अछूत है । हालाँकि उस बस्ती में कोई दुकान नहीं थी और न ही खाने कमाने का कोई जरिया वहाँ से खुलता था । इसलिए दूसरी बस्तियों के साथ संबंध तो उसका रहेगा रोज रोज का लेकिन एक अजीब किस्म का । जाकर काम करने का, बेगार खटने का, हाथ पर ऊपर से टपका दी गई रोटी और नमक को कुत्ते की तरह खाने का, शाम को कुछ अनाज देकर एक शीशी तेल पुड़िया भर मसाला और नमक खरीदने का, पर वहाँ रोज रोज जाने के बावजूद वह बाहरी ही रहेगा । इस संबंध को समाजशास्त्रियों ने अनेक तुलनाओं के जरिए समझने की कोशिश की लेकिन इससे इसकी जटिलता और विचित्रता कम नहीं हुई ।
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सदियों से एक ही कहानी चलती आ रही है । शायद बहुत दिनों तक वह और भी दोहराई जायेगी । कुछ ने इसे सिर झुकाकर मान लिया कुछ ने कहा नहीं । कभी यह आवाज जिबह किए जाते हुए बकरे की तरह फूटी कभी चीख की तरह कभी एक खामोश ऐंठन सीने और पेट को जलाती रही कभी सारी बस्ती में एक चूल्हा नहीं जला कभी चोरी कभी डाका कभी षड़यंत्र कभी खून कभी हत्या- सबमें वही एक नहीं गूँजता रहा । नौजवानों के बदन बार बार धान की बालियों की तरह फूट फूट बाहर आते रहे । तेल चुपड़े हुए लंबे बाल, छींटदार लुंगी, हाथ में रेडियो पकड़कर एक क्षण को उन्हें लगता बाकी सारे नौजवानों की तरह उन पर भी जवानी आई है । लेकिन यह अहसास तभी तक रह सकता था जब तक कोई बाबू किनारीदार धोती पहने, जनेऊ डाले दिखे नहीं । उनके दर्शन हुए नहीं कि आत्मा तक सकुच जाती । क्या क्या नहीं किया उन्होंने इस संकोच से जी छुड़ाने के लिए ।
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उनके सभी नेता अछूत मरे । हाथ में देश का संविधान रहे या राइफ़ल की अकड़, दर्शन की ऊँचाइयाँ हों या लाखों लोगों का साथ- जीवन भर वे अछूत रहे और जब मरे तो भी अछूत । शायद वे ऐसी जलती हुई आग हैं जिनमें कोई मिलावट संभव नहीं । शायद यही उनकी सच्चाई का सबूत है । वे स्वीकार किए जाने की माँग नहीं करेंगे क्योंकि इसकी आशा ही व्यर्थ है । वे तो सब कुछ भस्म कर देंगे । एक के मरने से निश्चिंत होने की कोई जरूरत नहीं । उन्हें तो यह धरती ही पैदा करती है । वे रक्तबीज हैं ।
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आज का दिन अप्रत्याशित ढंग से भाई साहब के साथ बातचीत से शुरू हुआ । उनका एक पीरियड भी था । घर जाकर फिर से उनसे भेंट हुई । उन्होंने व्यवहार विज्ञान के बारे में कुछ बातें बताईं जिनका सार यह था कि जमाने को देखकर लोगों के बारे में कोई बात करते हुए सावधानी बरतनी चाहिए । समझ में नहीं आता बंदिशों का अंत कहाँ होता है । शाम होते होते आनंद नारायण पांडे के साथ राम विलास शर्मा के यहाँ पहुँच गया । शर्मा जी ने साम्राज्यवाद पर कुछ पुस्तिकाएँ लिखने की योजना बनाई है । उन्होंने बातचीत विश्व बैंक, तीसरी दुनिया के देशों के शोध केंद्र और संयुक्त राष्ट्र संघ के निःशस्त्रीकरण आंदोलन के दस्तावेजों के महत्व से शुरू की । फिर उन्होंने एंगेल्स के साम्राज्यवाद संबंधी चिंतन और लेनिन के साम्राज्यवाद संबंधी चिंतन की एकता की बात उठाई । फिर उन्होंने क्रांति का स्वरूप- उसका अपेक्षाकृत पिछड़े देशों में होना- पर बल दिया और कहा कि महत्वपूर्ण तकनीक नहीं मानव शक्ति है । भारत के पूँजीवाद की परनिर्भरता की उन्होंने चर्चा की और भारतीय कम्युनिस्टों की रणनीति विषयक भूलों का जिक्र किया । जनवादी क्रांति की उनकी अवधारणा में सर्वहारा का नेतृत्व नहीं शामिल है और उसे वे साम्राज्यवाद विरोधी क्रांति से जोड़कर देखते हैं । भारत के आजादी पूर्व के क्रांतिकारी आंदोलनों का कांग्रेस द्वारा इस्तेमाल और विभाजन के बाद सांप्रदायिकता का स्थायी जहर- उनके मुताबिक बाद के दिनों में भारतीय क्रांति की असफलता के ये प्रमुख कारक बन गए । बहरहाल लौटते हुए आनंद नारायण पांडे ने कुछ बातें बताईं । थीं तो वे भी व्यवहारवाद से ही संबंधित लेकिन उनमें एक खास खुलापन था । कुत्तों की भीड़ में फँसा आदमी सामने से दाँत निकाल ले और पीछे से पूँछ उगाकर हिलाए तो उसका जीवन बड़े आराम से बीत सकता है । उन्होंने कहा कि इन्हीं राम विलास जी की नौजवानी में भगत सिंह फाँसी पर झूल रहे थे, जन संग्राम की उत्ताल तरंगें उठ रही थीं । कैसे बचे रहे ये ? सचमुच सत्ता का विरोध साथ ही कुछ व्यवस्था समर्थक मूल्यों का भी विरोध है और यदि आप इसके प्रति ईमानदार हैं तो सत्ता नहीं तो व्यवस्था तो आपको मिटा डालने के अंतिम प्रयास अपने हाथों करेगी ही ।
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नामवर सिंह ने साक्षात्कारों के अपने संग्रह 'कहना न होगा' में एक जगह कहा है कि सभी कलाओं की तरह कविता का भी अंतिम उद्देश्य है संगीत हो जाना । कविता के साथ यह खासी झंझट है । उसका विधान इतने तत्वों से रचा हुआ है कि उसके बारे में कोई इकहरी बात कहना खतरनाक है । लेकिन एक बात तय है कि कविता भाषा में की जाती है और भाषा की सभी अर्थ संभावनायें इसमें भरी होती हैं । उसका एक छोर दर्शन को छूता है तो दूसरा संगीत को । इस द्वंद्व को सबसे पहले सुकरात ने उठाया था अपने अंतिम संवाद में, हालाँकि अर्थ की विविधताओं के दृष्टिकोण से नहीं बल्कि इस अर्थ में कि काव्य दर्शन से अलग है और संगीत की ओर बढ़ने में यह अलगाव निहित है । यह द्वंद्व आज तक हल नहीं हो पाया है कि कविता में अर्थ कहाँ निहित है उसके दर्शन में या उसके संगीत में । इसी को आम तौर पर लोग अंतर्वस्तु और रूप का अंतर कहते हैं । इस द्वंद्व को हल करने के लिए कुछ कलावादियों ने कहा कि अंतर्वस्तु जिस रूप में प्रकट हुई है वही अंतर्वस्तु है । लेकिन यह द्वंद्व का समाहार नहीं है क्योंकि अन्य कलाओं में यह प्रकट है । उदाहरण के लिए ताजमहल का रूप वही है जो उसकी अंतर्वस्तु है । किसी पेंटिंग अथवा मूर्ति की अंतर्वस्तु वही है जो उसका रूप है । इसीलिए इन कलाओं का अनुवाद नहीं किया जा सकता, न उनकी अनुपस्थिति में उनका अर्थ समझाया जा सकता है । इस मामले में कविता का मुख्य उपकरण, भाषा, थोड़ा भिन्न है । रंग, स्वर, आकार, विभिन्न आकृतियाँ प्रकृति में पहले से ही मौजूद थे । यह अलग बात है कि इनका उपयोग मनुष्य उसी रूप में नहीं करता जिस तरह वे मौजूद हैं । फिर भी आधारभूत तत्वों की मौजूदगी पहले से रही है । लेकिन भाषा मनुष्य का अपना सामाजिक उत्पादन है । वह प्रकृति के अनुकरण नहीं बल्कि उसके साथ अंतःक्रिया का परिणाम है । निश्चित रूप से शब्दों के अर्थ, अर्थात वे वस्तुएँ जिन्हें शब्द द्योतित करते हैं, पहले से मौजूद हैं । यहाँ तक कि शब्दों के आकार और उनकी ध्वनियाँ कई बार वस्तुओं और क्रियाओं का अनुकरण करते हैं । पर भाषा इतने तक ही सीमित नहीं है । अमूर्तन से ही भाषा की अभिव्यक्ति क्षमता का विस्तार हुआ । यहाँ सवाल आता है अर्थ का । केदार नाथ सिंह ने एक कविता में लिखा है कि 'बाल छड़ीदा' की अगम अथाह निरर्थकता के सामने नतमस्तक हूँ । अगर उनका उद्देश्य यह है कि शब्दों के अर्थ उतने ही नहीं जितने शब्दकोश में लिखे हैं तब तो ठीक है । अन्यथा अगर यह निरर्थकता का स्वस्ति गायन है तो खतरनाक है । भाषा का कोई भी शब्द अथवा शब्द समूह किसी न किसी वस्तु अथवा परिघटना की व्याख्या करता है । चूँकि यह वस्तुगत जगत जिसकी वह व्याख्या करता है, इतना उलझा हुआ है, इतना विराट है, इसमें एक साथ ही संतुलन भी है और बिखराव भी, कि भाषा का उलझ जाना स्वाभविक है । लेकिन चूँकि वह वस्तुगत जगत में गहरे धँसी हुई है इसीलिए उसे समझे जाने की योग्यता प्राप्त हो जाती है । यहीं एक गुत्थी सुलझती है । हालाँकि भिन्न भिन्न भाषाएँ एक दूसरे के बोलनेवाले की समझ में नहीं आ सकतीं फिर भी उसमें कही गई बात का दूसरी भाषा में अनुवाद संभव है । इस पर कोई कोई कहते हैं कि अनुवाद में कविता मर जाती है । इस अर्थ में कोई भी वस्तु अथवा विचार इसीलिए विशिष्ट होता है कि उसका कोई विकल्प नहीं होता । तभी सामान्यता और प्रतिनिधित्व अपना कार्य शुरू करते हैं । भाषा स्वयं एक प्रतिनिधित्व है । अन्यथा एक पत्थर, आँसू की एक बूँद, एक फूल और एक औरत को एक लाइन में खड़ा कर देने से जो अर्थ पैदा होगा उसका भी विकल्प कोई कविता नहीं हो सकती । भाषा प्रकृति और मानव समाज को मनुष्य की ओर से समझने के प्रयास का परिणाम है । अब सवाल है कि मनुष्य प्रकृति का अंग है कि नहीं । अत्यंत स्पष्ट है कि तमाम कोशिशों के बावजूद यदि उसे प्रकृति की गोद में वापस नहीं ले जाया जा सका तो अवश्य मनुष्य अपनी किसी अंतर्निहित विशिष्टता के कारण प्रकृति के अन्य तत्वों से अलग हुआ । भाषा प्रकृति से उसकी स्वाधीनता का लक्षण है । प्रकृति और मानव समाज को समझने के लिए उसने भाषा में अर्थ की अनेक ध्वनियाँ पैदा कीं । कविता के अर्थ की सभी ध्वनियों, जिसमें उसके रूप के जरिए भी पैदा होने वाली सभी संभवतम ध्वनियाँ भी शामिल हैं, के स्रोत इस व्यापक सामाजिक व्यवहार में ही खोजे जा सकते हैं । इस सामाजिक व्यवहार में भावावेग भी शामिल हैं और बुद्धिग्राह्य तर्क भी । इसीलिए कविता की छायाएँ मात्र भावावेग को छूकर उड़ती नहीं फिरतीं बल्कि वह बुद्धि द्वारा समझी भी जाती है । लेकिन यदि कविता अथवा साहित्य मात्र इतने ही होते तो लोकगीतों और लोगों की आपसी बातचीत से भी काम चल जाता । हालाँकि अर्थ के संप्रेषण के सबसे अधिक साधन इसी खजाने में से प्राप्त किए जा सकते हैं । लेकिन आधुनिक या छपा हुआ साहित्य भाषा के सामाजिक पुनरुत्पादन के सबसे जटिल और उत्तम प्रयास हैं । यथार्थ की जटिलता को समझने और उसे अभिव्यक्त करने के ये नवीनतम प्रयास हैं । उनके सृजन और ग्रहण में वही सामाजिक प्रक्रिया मूर्तिमान होती है । इसीलिए जो साहित्य यथार्थ की सबसे सही तस्वीर पेश करता है वह मात्र समाज से भाषा लेता नहीं बल्कि समाज को नई भाषा देता भी है ।
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सरकारी कर्मचारियों पर 311 की तलवार लटकी हुई है और इसके विरोध में विभिन्न यूनियनों ने कार्यवाही शुरू कर दी है । इन्हीं यूनियनों में एक है बी एम एस । इनकी भी एक जगह सभा चल रही थी और कोई सज्जन मजदूरों की समस्याओं और यूनियन द्वारा उन पर ली गई पहलकदमी का ब्यौरा पेश कर रहे थे । सभा खत्म होते वक्त अंत में यूनियन के प्रमुख नारे लगना शुरू हुए । इन्हीं में एक नारा था- देशभक्त मजदूरों एक हो । मैं चकित । अब तक तो मजदूर एकता जिंदाबाद के नारे सुनता आ रहा था । ये देशभक्त मजदूर कौन होते हैं? और क्या उत्पादन में लगा हुआ मजदूर भी देशद्रोही होता है?
परेशान हो गया इन्हीं सवालों पर सोचते सोचते । एक परिचित मिल गये । मजदूर ही थे नेता नहीं । पटती थी सो उन्हें अपना यह अनुभव सुनाया और अपनी चिंता उनके सामने रख दी । उन्होंने कहा- आप नहीं समझे इसका अर्थ? अरे महाराज उत्पादन के बाद जो मजदूर मेहनत का मेहनताना माँगे वह देशद्रोही ही तो है । कहकर वे बड़ी तेजी से हँसने लगे । मैं चुप । सच ही तो है । मजदूर भी दो तरह के होते हैं । एक हक़ माँगते हैं मजबूती से दूसरे गिड़गिड़ाकर । पर यह तो मजदूर यूनियन थी । तो क्या बी एम एस ऐसे ही देशभक्त मजदूरों की यूनियन है ?
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मुख्यमंत्री की घोषणा के मुताबिक सूती मिल मजदूरों की तनख्वाह में 60 रुपये की बढ़ोत्तरी हो गई थी । पर मिल मालिक और एन टी सी उसका भुगतान नहीं कर रहे थे । खुदा जाने मजदूरों के तेवर जुझारू न होने से या सरकारी काम की सुस्त रफ़्तारी से । बहरहाल सभी यूनियनें तुली हुई थीं कि 60 रुपये दिलवा ही देने हैं । इसी सिलसिले में एक सभा चल रही थी लाल झंडा यूनियन के नाम से मशहूर सीटू की । भाषण चल रहा था कानपुर की नेत्री सुभासिनी अली का ।
'तो भाई अर्जुन को जैसे मछली की आँख की पुतली पर निशाना लगाना था तो कहा गया कि पानी देखो देखकर अनदेखा कर दो । पानी में मछली देखो देखकर अनदेखा कर दो । मचाली की आँख देखो देखकर अनदेखा कर दो । आँख में पुतली देखो और बस पुतली ही पुतली देखते जाओ । जैसे ही पुतली आए निशाना छोड़ दो । वैसे ही मंत्रियों के झगड़े देखो देखकर अनदेखा कर दो । फ़ाइलों का आना जाना देखो देखकर अनदेखा कर दो । मैनेजमेंट के लटके झटके देखो देखकर अनदेखा कर दो । नजर गड़ाए रहो 60 रुपयों पर । खुदा खुदा !
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जो कुछ हम कर रहे हैं अगर उसके लिए हमारे पास तर्क नहीं है तो जिंदगी की सबसे खतरनाक घटनाएँ घटने लगती हैं और ऐसे में आप जरूरी नहीं कि किसी समझदार आदमी के सामने किसी साधारण आदमी के सामने भी नंगे हो जा सकते हैं । ऐसे में ही आदमी या तो बहुत ज्यादा सोचने लगता है या फिर सोचना बंद कर देता है ।
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एक पौधा जब एक जगह से उखाड़कर दूसरी जगह ले जाया जाता है तो उसके साथ थोड़ी सी मिट्टी भी ले ली जाती है । अगर मिट्टी न रहे तो पौधे के सूख जाने की संभावना ज्यादा रहती है । आम तौर पर ऐसा होता है लेकिन विशेष रूप से असफलता हाथ लगने पर व्यक्तित्व निर्माण संबंधी प्रश्न सबसे तीखे ढंग से सामने आने लगते हैं ।
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शहर में आकर गाँव के बारे में कविता लिखना सबसे आसान काम है । सचमुच लोग गाँव जानते ही नहीं और फ़ैशन की तरह उससे प्यार करना चाहते हैं । दूसरे नंबर का आसान लेकिन थोड़ा मुश्किल काम है जनता के लिए लिखना । आपके साथ कोई समस्या नहीं अब जनता की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करना है । तीसरे नंबर का आसान लेकिन थोड़ा और मुश्किल काम है ऐसी कविताएँ लिखना जिनका कोई अर्थ ही न हो । आप अगर इन सबसे बचना चाहते हैं तो आपके साथ दिक्कतें ज्यादा होती जाती हैं और आसानियाँ कम ।
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पहले जैसे रस, छंद, अलंकार पर ढेर सारी पुस्तकें लिखी और छपाई जाती थीं जो आलोचना के मुख्य अंग का निर्माण करती थीं और परीक्षा के लिए उपयोगी होने के कारण बिकती भी थीं ठीक उसी तरह आजकल जहाँ भी जाइए 'यथार्थवाद' 'समाजवादी यथार्थवाद' 'मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र' पर खँचियन किताबें मिल जाएँगी । एक नये तरह का यह रीतिवाद भी परीक्षा के इर्द गिर्द ही विकसित हो रहा है । दरअसल साहित्य या आलोचना में कोई नमूना बनाकर पिष्टपेषण ज्ञान को नहीं ज्ञानहीनता को ही जन्म देता है । रोमांटिक आलोचना की आज फिर से जरूरत है ।
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पहले थोड़ा भरे पूरे बदन वाली नायिकाएँ लोगों को पसंद आया करती थीं । आजकल सूखी हुई, नुकीली और छरहरी नायिकाओं का जमाना है । उसी तरह कविता में शेर की तरह दो या तीन पंक्तियाँ, जो अपनी अभिव्यक्ति की अदा के लिए अच्छी होती हैं, डालकर ही पूरी कविता को नुकीला और कमनीय बनाया जाता है । सिर्फ़ एक वाक्य और कभी कभी गजल की तरह दाद देने को जी करने लगता है । अर्थ पूरी कविता में से नहीं उस एक वाक्य के चमत्कार के सौंदर्य में से प्रकट होता दीखता है ।
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जीवन में कुछ ऐसे क्षण होते हैं जब भावना के सामने मनुष्य अपना स्वतंत्र अस्तित्व तक भूल जाता है । कथा साहित्य में मुख्यतः लेखक की परख ठीक ऐसे क्षणों के वर्णन में होती है । वह स्वाभाविकता के कितना निकट है और कि कितनी दूर तक भाषा ऐसे वर्णन में समर्थ सिद्ध हुई है । तनाव को देर तक सँभाले रखना हर लेखक के वश की बात नहीं । अक्सर लोग ऐसे वर्णनों से या तो बच निकलते हैं या फिर बिंबों, रूपकों और प्रतीकों की दुनिया में चले जाते हैं या बिखर जाते हैं ।
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दिल्ली फिर से मेरे एक साथी को खा रही है । जीवन में सब कुछ देख लेने के उत्साह के सामने जीवन की सबसे कोमल चीजों की बलि देने वाला फक्कड़ साहसी नौजवान अंदर से धीरे धीरे खोखला होता जा रहा है । अब वह अपने और दोस्तों के सवालों से बचने के लिए या तो काम में डूबा रहता है या फिर सोता रहता है ।
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लिखने से यश मिलता है, डिग्री मिलती है, धन मिलता है । लिखने से संतोष भी मिलता है या नहीं यह प्रश्न अनुत्तरित है । इसका उत्तर तो वे ही दे सकते हैं जिनका संतोष यश, डिग्री और धन से बड़ा हो ।
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एक बार फिर रामकथा
'हरि अनंत हरि कथा अनंता' जब तुलसीदास ने लिखा था तो उनके सामने रामकथा के ही अनंत संस्करण और रूप रहे होंगे । रामकथा के रूप केवल लिखित परंपरा में ही भिन्न भिन्न नहीं हैं मौखिक परंपरा में भी अनंत हैं । इनमें से एक तो वह प्रसिद्ध सोहर ही है जिसमें रामचंद्र जी की छठी पर होने वाले भोज के लिए मारे गए हिरन की हिरनी कौशल्या जी से हिरन की खाल भर माँगने जाती है और उसे वह भी नहीं मिलती । मारे गए हिरन की खाल से राम जी के खेलने के लिए खँजड़ी मढ़वा ली जाती है ।
जनता के अनेक प्रकार के हर्ष विषाद, सुख दुख इस कथा के भिन्न भिन्न रूपों के जरिए अभिव्यक्त हुए हैं । राम का नाम भी जनजीवन में अनेक प्रकार से प्रयोग में आता है । इन्हीं में से एक है एक कहावत जो भोजपुरी इलाकों में बोली जाती है- परलें राम कुकुर के पाले । इस कहावत का स्रोत मुझे किसी रामकथा में नहीं मिला । शायद ही किसी रामकथा में रामचंद्र जी की कुत्तों से किसी भिड़ंत का जिक्र हो । संभव है अयोध्या से निकल जाने के बाद जंगल पैड़े में ऐसी कोई घटना हुई हो लेकिन अब इस कहावत का उपयोग ऐसी परिस्थिति को बतलाने के लिए होता है जिसमें कोई सीधा आदमी किसी दुष्ट के हाथों पड़ गया हो ।
लोक चेतना से उत्पन्न दोनों उदाहरणों से स्पष्ट है कि राम नाम का मिथक जनता के क्रोध और सहानुभूति दोनों का पात्र रहा है । इस विरोध का स्रोत स्वयं वह मिथक ही है । एक तरफ़ रघुवंशी प्रतापी क्षत्रिय राजा और दूसरी तरफ़ राज्य से निकला हुआ, जंगल जंगल घूमता, पत्नी के वियोग में दुखी मनुष्य । इन दो छोरों को छूता हुआ एक ही व्यक्तित्व भाँति भाँति की कथाओं, काव्यों, कहावतों और कपोल कल्पनाओं का आलंबन बना । लेकिन दूरदर्शन पर रामानंद सागर ने जब से रामनामी दुपट्टा ओढ़कर रामायण का नया संस्करण उपस्थित किया तब से भाजपाइयों को रामलला को किसी भी अन्य रूप में देखना बरदाश्त नहीं होता । वैसे इसका एक कारण उस मध्यम वर्ग का विकास और विस्तार भी है जिसके नौजवान ही नहीं अधेड़ भी दुनिया और उसी तरह भारतीय साहित्य और संस्कृति के बारे में उतना ही जानते और समझते हैं जितना उन्होंने टी वी में देखा और सुना है । भाजपाइयों ने इसके लिए एक अजीब किस्म का तर्क ढूँढ़ निकाला है । उनका कहना है कि रामकथा का जो संस्करण वे उचित समझते हैं उसके अतिरिक्त किसी भी चीज का लेखन और प्रचार हिंदू भावनाओं को चोट पहुँचाता है । जैसे हिंदू भावनाएँ न हुईं कोई आवारा आशिक हो गया जिसे माशूका की हर उस हरकत से चोट पहुँच जाती है जो उसके मन माफ़िक न हो ।
यह सिलसिला कुछ ही दिनों से शुरू हुआ है । जब से भाजपाइयों ने राममंदिर बनाने की ठानी तब से उनके लिए यह आवश्यक हो गया कि इसके लिए जरूरी सब कुछ वे हस्तगत कर लें । उन्होंने यह जिद ठान ली कि इस प्रसंग में वे जो कुछ भी कहेंगे वही सही होगा और किसी भी विरोधी बात को झूठ और उन्माद के जरिए वे दबा देंगे । अब तक भाजपाइयों ने जिस भी विरोध को दबाया है केवल झूठ, कुतर्क और उन्माद के जरिए । सहमत के प्रसंग में भी उन्होंने ऐसा ही किया । उनका ताजा हमला हुआ है लोहिया और उनके अनुयायियों द्वारा स्थापित रामायण मेला के अवसर पर प्रकाशित जनमोर्चा के संपादक शीतला सिंह द्वारा संपादित स्मारिका तुलसी दल और उत्तर प्रदेश की सपा बसपा सरकार के एक विधायक की सीता के बारे में की गई एक टिप्पणी पर । इन वक्तव्यों और लेखों के समर्थन और बचाव में रामकथा की अनेक परंपराओं और कथाओं में से तर्क खोजे जा सकते हैं और शीतला सिंह ने तो कहा भी है कि उन्होंने वही कुछ छापा है जो कल्याण के रामांक में छपा है । लेकिन इन सबसे महत्वपूर्ण है उस उन्मादी मानसिकता से लड़ना जो अपने विरोध में कुछ भी नहीं सुनना चाहती । भाजपाइयों ने तो कहा भी है कि तुलसी दल पर उसी तरह प्रतिबंध लगा देना चाहिए जिस तरह सलमान रश्दी की शैतानी आयतों पर लगा दिया गया । इस तरह हिंदुओं के अपने खोमैनी भी तैयार हो रहे हैं जो किताबों पर प्रतिबंध लगाएँगे धार्मिक भावनाओं के आधार पर और लेखकों की मौत के फ़तवे जारी करेंगे । सूरत, बंबई में जो कुछ हुआ वह तो दबी हुई हिंदू भावनाओं का विस्फोट था और सहमत तथा तुलसी दल की उपस्थिति से हिंदू भावनाओं को चोट पहुँचती है ! इसी तरह के तर्कों के जरिए फ़ासीवादी ताकतें भीड़ के किसी भी अमानवीय उन्माद को जायज़ ठहराती हैं ।
दयनीय तो है इन दानवों से लड़नेवालों का साहस । एक हैं अर्जुन सिंह । भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय के मुखिया । कांग्रेस के भीतर नरसिंह राव से होड़ करते हुए 6 दिसंबर के बाद से सांप्रदायिकता विरोधी शक्तियों का अपने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए लगातार इस्तेमाल करते आ रहे हैं । सहमत और शीतला सिंह जी इनको अपने अभियान का नायक बनाने की सोच भी रहे थे लेकिन अर्जुन सिंह को इनसे क्या लेना देना ! सहमत को पैसा भी दे दिया और भाजपाइयों ने जब हल्ला मचाया तो कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने बिना मामले की तहकीकात किए इसकी निंदा भर्त्सना भी कर दी । अयोध्या और फ़ैजाबाद की पुलिस ने भी सहमत और शीतला सिंह पर शांति भंग और न जाने किस किस चीज के मुकदमे दायर कर दिए । मेंड़ ने ही खेत चरना शुरू कर दिया और कुछ हैं कि देखकर भी देखना नहीं चाहते ।
दूसरे हैं परंपरागत वामपंथी पार्टियाँ । सांप्रदायिक फ़ासीवादी प्रवृत्तियों से लड़ने का जो तरीका इन्होंने ईजाद किया है वह है एक स्वर से यह अरण्यरोदन कि कम्युनिस्टों ने धर्म को समझने में अब तक भारी भूल की है । भूल सुधार के इस सुनहरे मौके के इस्तेमाल का तरीका भाकपा को अभी तक समझ में नहीं आया है लेकिन माकपा ने उदार हिंदू परंपरा के पुनर्सृजन का बीड़ा उठाकर इस काम को अंजाम दिया है । ई एम एस ने बहुत पहले केरल के लिए आदि शंकराचार्य को खोज लिया था, पश्चिम बंगाल के लिए विवेकानंद और हिंदी प्रदेश के लिए महात्मा गांधी हाल के आविष्कार हैं । इसके एक अक्षर आगे पीछे हटने बढ़ने को वे तैयार नहीं हैं । इसीलिए सहमत पैनल पर जब बजरंगियों और संघियों ने हमला बोला तो भाई लोग भी चुप्पी तो साध ही गए समय और स्थान का ध्यान रखने की दोस्ताना सलाह भी पेश कर दी !
कुत्तों का जब जिक्र चला तो याद आया । हिंदी में एक और जगह राम और कुत्ते का साथ साथ जिक्र है- कबीर कूता राम का मुतिया मेरा नाँव । इन्हीं कबीर ने कहा था कि राम को सारी दुनिया दशरथ सुत के रूप में जानती है लेकिन राम नाम का मरमु है आना । अब तक तमाम तरह के वामपंथी लोकतांत्रिक प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष लोग अधिकतम यह कहने का साहस जुटा सके हैं कि रामकथा के अनेक संस्करण हैं, उसकी अनेक परंपराएँ हैं और किसी एक ही कथा और परंपरा को अधिकृत बनाकर पेश नहीं किया जा सकता । लेकिन अब यह कहने का साहस जुटाने की जरूरत है कि भाजपाई अंधश्रद्धा, अज्ञान और कुतर्क के जरिए जिस राम को स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं राम का मर्म तो उससे एकदम भिन्न है । भाजपाइयों को छेड़िए मत, क्या जरूरत है यह सब बोलने की ये तर्क अब तक उनके ही काम आये हैं । संकट के समय तो सर्वाधिक स्पष्ट रूप से सच के पक्ष में खड़ा होना पड़ता है और जब हमारी आवाज दबाई जा रही हो तभी सबसे ऊँचा भी बोलने की जरूरत पड़ती है । लेकिन महौल तो यह है कि समय और स्थान का ध्यान रखने का ऐसा कायर तर्क दिया जा रहा है जो कुछ लोगों के मुताबिक लेखक का अपने ऊपर लागू किया गया सबसे कठिन और खतरनाक सेंसर है ।जब जैसी हवा चले उसी के मुताबिक पीठ दे देने से और कुछ भले ही हो जाय माहौल नहीं बदला जा सकता ।
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करोड़ों लोगों के जुलूस के पाँव तले धरती काँप रही है । उनके एक एक कदम पड़ते हैं और दुनिया हिल हिल जाती है । यह जुलूस यहाँ से वहाँ तक पूरी पृथ्वी को चारों तरह से लपेटे हुए है । इसमें शामिल हैं स्कर्ट और शर्ट पहने अंडे और सब्जी के पैकेट उठाए लोग, लंबे स्कर्ट पहने कंप्यूटर पर थिरकती उंगलियों का संगीत रचते लोग, सुनहरे, लाल अथवा काले; घुँघराले अथवा सीधे; चोटी किए हुए अथवा खुले, लंबे अथवा छोटे बाल लहराते हुए इस जुलूस की सादगी तो देखिए । घर, सड़क, ट्रेन, पुल हर कहीं इसका एक हिस्सा बिखरा है ।
खेतों में कछनी मारकर झुके झुके दिन भर टखनों से ऊपर पानी में धान रोपते, पीठ पर अपने बच्चे बाँधे, जरा सी उत्तेजना में भभक भभक उठते चेहरे, अनंत बिवाइयों भरे या फिर मखमली जूती में पाँव, ठीक कमर पर हाथ रखकर कोई स्त्री जब आत्मविश्वास से भरा चेहरा ऊपर उठाती है तो लगता है पूरी सृष्टि से जूझ लेने की ताकत बटोर रही हो ।
इस स्त्री की उंगलियों की छाप हर कहीं पड़ी हुई है । सभी चीजें उसकी मेहनत की गवाही देती हैं । अगरबत्ती से लेकर कपड़ों तक, फ़सलों से लेकर मकान तक सब कुछ बनाने के बाद जब वह सोती है तो कभी गौर से उसका चेहरा देखिए । मान्यताएँ, रूढ़ियाँ और मर्दानगी जब सब उसे परेशान करने के लिए चौबीसों घंटे तैयार रहते हैं तब भी निश्चिंतता का एक एक क्षण वह भरपूर जीती है । आपस में कभी उन्हें बात करते देखिए बच्चों सी उत्सुकता और नटखटपन; और उसी तरह दूसरे का दुख सुनने का अपार धीरज ।
वह एक भरपूर व्यक्तित्व है । उसे समझने के लिए हमारे उपादान क्या हैं ? उसकी जाँघें, स्तन, पीठ और आँखें हमें कितना सुख देते हैं । अगर निर्वस्त्र नहीं तो यह कि उसके वस्त्र, हाथ पाँव और चेहरे की चिकनाई हमारी आँखों को कितने सुंदर लगते हैं । लेकिन हम निजी जीवन में चाहे जितने घृणित हों सार्वजनिक जीवन में अत्यंत सभ्य होते हैं इसलिए हमने स्त्री मन को एक खास रहस्यमय चीज बना डाला है । इस मन के अनुसंधान के नाम पर उतरते जाइए गहराइयों में और उसे समूचे सामाजिक जीवन से अलग छोटी छोटी सामाजिक इकाइयों में दोयम दर्जे की भूमिका निभाने तक सीमित रखिए ।
सचमुच जिस दिन यह जुलूस शक्ल ले ले उस दिन सब कुछ बदल जाएगा । कोमलता और निर्माण की उस विराट सृष्टि की कल्पना भी अत्यंत दुष्कर है । सपनों के लिए भी मामूली संघर्ष नहीं करना पड़ता ।
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रात के बारह बजे आपके रहस्यों की दुनिया धीरे धीरे सिर उठाती है, अपना काला मुँह खोलती है और गाढ़ा अँधेरा उगलने लगती है । आप इससे बचने के लिए भागते हैं और हाँफते हुए बल्ब जला लेते हैं । लेकिन फिर जब आप नींद और जागरण की संधि रेखा पर होते हैं जैसे गोधूली हो यह दुनिया फिर बोलने लगती है । लगता है मिट्टी की कोई मोटी, मजबूत दीवार जो दिन में आपकी रक्षा करती है रात में तरह तरह के जीव जंतुओं को आश्रय दे बैठी हो । झींगुर बोलने लगते हैं, मेढक टर्राने लगते हैं, कहीं जैसे चारपाई के पाए में कोई कीड़ा चल रहा हो, कहीं कोई कपड़े पर कैंची चला रहा हो, आपकी तकिया और बिछावन भी सरसराने लगते हैं और आप नींद में जाग जाते हैं ।
धीरे धीरे वह दीवार दरकने लगती है और उसमें तरह तरह की दरारें, मोखल और छेद झाँकने लगते हैं । साँपों का एक पूरा झुंड आपकी आहट लेते हुए इन छिद्रों में से अपना सर निकालते हैं और धरन, बँड़ेर, जमीन हर कहीं रेंगने लगते हैं । युगों पुरानी वेश्याएँ लुटे चेहरे पर भद्दी हँसी लेकर हाजिर होती हैं, सफेद कफ़न में लिपटी हुई वे तमाम आत्माएँ जिन्होंने जहर खा लिया या कुएँ में कूदकर जान दे दी, बेडौल बच्चे, सर कटी हुई खून में लिथड़ी बकरियाँ दुर्गंध मवाद टट्टी आप भागने की कोशिश करते हैं लेकिन आपके पाँव उठते ही नहीं ।
इस दुनिया से मेरा क्या रिश्ता है ? क्यों ये लोग मेरे पास आए हैं ? जी हाँ यह आपकी ही दुनिया है । फ़र्क इतना ही है कि आप ज्यादा चालाक, ज्यादा कलाकार हो गये हैं ।
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