Monday, July 25, 2011
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का इतिहास दर्शन
Wednesday, July 20, 2011
उपन्यास के सवाल पर एक बहस
साहित्य की महत्वपूर्ण विधाओं की दुनिया में उपन्यास सबसे नया है । संभवत: इसीलिए इसे 'नावेल' कहा गया । जीवन की समग्रता को समेटने वाली अन्य सृजनात्मक विधाओं में जहाँ श्रव्य माध्यमों का भी सहारा लिया जाता है वहीं उपन्यास में मुद्रित शब्द ही एकमात्र माध्यम होते हैं । गद्य आधारित विधा होने के कारण सांगीतिक विधान भी इससे छिन जाता है । अपनी इस अंतर्निहित सीमा के बावजूद उपन्यास नाटक या फ़िल्म जैसी महाकाव्यात्मक प्रस्तुति में सक्षम होता है । यह ऐसी विधा है जो अब तक असंख्य प्रयोगों को अनुमति देती और पचाती आ रही है । इसने उपन्यास को ऐसी विविधता दी है कि कोई सर्वमान्य परिभाषा मुश्किल हो जाती है । प्रत्येक नई कृति पुरानी धारणा के लिए चुनौती पैदा कर देती है ।
आलोचना जगत में एक परिभाषा को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त है- 'उपन्यास मध्यवर्ग का महाकाव्य है ।' यह परिभाषा प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक हेगेल ने दी थी । ध्यान देने की बात यह है कि यह परिभाषा साहित्यिक विधाओं की पुरानी परिभाषाओं की तरह बाहरी रूपाकार पर ध्यान नहीं देती बल्कि काल, आधार और अंतर्य पर जोर देती है । इसमें मध्यवर्ग थोड़ा भ्रामक है । हेगेल के समय मध्यवर्ग का उस अर्थ में प्रयोग नहीं होता था जिस अर्थ में आज होता है । तब इसका अर्थ 'बुर्जुआजी' था । उन्हें 'बर्गर' भी कहा जाता था । ग्रामीण जागीरदारों और भूदासों से भरे कृषक समुदाय की दुनिया के बाहर शहरों के उदय से यह नया वर्ग आया था । इस वर्ग का उदय पूँजीवाद के उदय से जुड़ा हुआ था । इस अर्थ में हम कह सकते हैं कि उपन्यास पूँजीवाद के दौर का महाकाव्य है । पूँजीवाद के उदय से जुड़ी कुछेक परिघटनाओं ने उपन्यास का रूप तय किया ।
एक तो है व्यक्ति का उदय । पूँजीपति वर्ग ने अपने लिए स्वतंत्र कामगार जुटाने के क्रम में सामुदायिक जीवन को नष्ट किया । व्यक्तिवाद की इस असलियत को ई एच कार ने 'इतिहास क्या है?' में व्यक्त किया है । बहरहाल आधुनिक काल का यह व्यक्ति सामुदायिक जीवन के मनुष्य से भिन्न था । महाकाव्य के सामाजिक आधार को व्याख्यायित करते हुए गोर्की ने 'व्यक्तित्व का विघटन' में बताया है कि महाकाव्यों के नायक महाबलशाली होते थे क्योंकि समुदाय के किसी एक व्यक्ति की शक्ति समूचे समुदाय की सामूहिक शक्ति के बराबर होती थी । मृतक व्यक्ति की अनुपस्थिति के अहसास से सबसे पहले 'वह' सर्वनाम पैदा हुआ होगा । इसी प्रसंग में राल्फ़ फ़ाक्स की टिप्पणी पर भी ध्यान देना उचित होगा । वे बताते हैं कि महाकाव्यों के चरित्र आम तौर पर दैवी शक्तियों से संघर्ष करते थे । आधुनिक समाज में व्यक्ति की लड़ाई दैवी शक्तियों से नहीं बल्कि मनुष्यों से ही है । अपने जीवन के लिए मनुष्य को अब अपने आस पास के समाज से ही संघर्ष करना पड़ता है पहले की तरह प्राकृतिक शक्तियों से नहीं जिन्हें दैवी शक्तियों के जरिए प्रतीकायित किया जाता था । कुल मिलाकर इसी स्थिति ने 'व्यक्तिवाद' को जन्म दिया । व्यक्तिवाद ने उपन्यास को चरित्र दिए और उन चरित्रों को विश्वसनीय बनाने के लिए ऐसे नाम रखे गए जो आस पास दिखाई पड़ते थे ।
चूँकि व्यक्ति को समाज में अपनी जगह बनाने के लिए समाज में निरंतर संघर्षरत रहना पड़ता है इसलिए उपन्यास की कथा में समय की जो धारणा प्रकट हुई वह 'ऐतिहासिक समय' था । इसके विपरीत महाकाव्यों में वर्णित समय 'पौराणिक समय' था । इसी के साथ यह अंतर भी ध्यातव्य है कि महाकाव्य का स्रोत जहाँ स्मृति है वहीं उपन्यास का स्रोत ज्ञान है । महाकाव्य में जहाँ पाठक को विख्यात कथा की काव्यात्मक प्रस्तुति का साक्षी होना होता था वहीं उपन्यास की कथावस्तु नवीन और अज्ञात होने के कारण औत्सुक्य का तत्व उसमें आवश्यक होता था । इसीलिए महाकाव्य में अतीत का वर्णन होता है लेकिन उपन्यास में वर्तमान का । ऐतिहासिक उपन्यासों को भी ध्यान से देखें तो अतीत को देखने नजरिया लेखक के वर्तमान का होता है । इसी वर्तमान को हम ऐतिहासिक समय कह रहे हैं । कहने की जरूरत नहीं कि ऐतिहासिक समय की धारणा में कार्यकारणत्व निहित था । इसने उपन्यास को उस कथा प्रवाह का ढाँचा दिया जो चरित्रों के क्रिया व्यापार से संचालित होता था । इस तरह उपन्यास 'नियति से संचालित मानव परिस्थिति' को बदलने के मानवीय प्रयास की गाथा बना । यह प्रयास ही उपन्यास के घटना प्रवाह का संचालक होता था । इस संघर्ष में मनुष्य को किसी दैवी शक्ति का आशीर्वाद प्राप्त नहीं होता था । इसलिए उसे अपनी ही अंतर्निहित शक्तियों को काम में लगाना पड़ता था । पात्रों की स्थापना इसी क्रम में होती थी ।
साफ है कि यह घटनाक्रम चूँकि एक संघर्ष का वर्णन होता था इसलिए वह आलोचना से बच नहीं सकता था । सामंती समाज के भीतर उपन्यास को पूँजीवाद की शुरुआती क्रांतिकारिता का वाहक होने के नाते आलोचना के धर्म और परिवर्तनकामी उद्देश्य से संचालित होना ही था ।
अब तक की बातचीत से स्पष्ट है कि उपन्यास की कोई भी धारणा उसकी अंतर्वस्तु पर ही बल देती है । इसी के कारण वह विभिन्न अनुशासनों की सीमाओं को छूता चलता है । समाजशास्त्र और इतिहास जैसे अनुशासन पहले भी उपन्यासों की सहायता से किसी खास दौर की सामाजिक संरचना और मनोरचना को समझने की कोशिश करते रहे हैं । कारण यह कि काल का स्पष्ट निर्देश न होने के बावजूद उपन्यास घटनाक्रम के वर्णन में अपने दौर के न सिर्फ़ निशानात छोड़ जाता है बल्कि ढेर सारी घटनाओं के भीतर से किसी विशेष घटनाक्रम का वह चुनाव करता है । जिस घटनाक्रम का चुनाव उपन्यास करता है वह अपनी प्रातिनिधिकता के कारण ही उस समय विशेष का एक हद तक प्रामाणिक दस्तावेज बन जाता है । इधर के दिनों में इतिहास के भीतर की मनोरचना पर जोर देने के चलते उपन्यास को इतिहास का स्थानापन्न भी समझा जाने लगा है किंतु दोनों अनुशासनों में एक बुनियादी फ़र्क है- इतिहास जहाँ अधिक वैज्ञानिक तरीके से किसी खास दौर में कार्यरत सामाजिक प्रक्रियाओं की जाँच पड़ताल करता है वहीं साहित्य कभी कभी आकस्मिकता का सहारा लेते हुए भी व्यक्तियों के भीतर सामाजिक आलोचना की छाप को प्रस्तुत करता है ।
यूरोप में अपने उदय और विकास के इन्हीं जन्मचिन्हों के साथ जब उपन्यास भारत में आया तो यहाँ के बौद्धिक जगत ने पश्चिम के अन्य उपयोगी साधनों मसलन छापाखाना के साथ साथ इसे भी हाथों हाथ उठाया । मैं विशेष रूप से हिंदी साहित्य के वातावरण से परिचित हूँ इसलिए उसी की मार्फ़त इस पर विचार करूँगा । उपन्यास की भारतीयता के कुल शोरगुल के बावजूद सच्चाई यही है कि सामाजिक यथार्थवाद की धारा ने उपन्यास को भारत की कथा कहने में सक्षम बनाया । यहाँ प्रेमचंद के जरिए दो बातों की ओर ध्यान दिलाना जरूरी है । एक तो है उनकी 'आदर्शोन्मुख यथार्थवाद' की धारणा और दूसरी उनके उपन्यासों की विषय वस्तु ।
उपन्यास के साथ यथार्थवाद का गहरा संबंध है । आयन वाट ने 'उपन्यास का उदय' में इस तथ्य को भी पुनर्जागरण की चेतना से जोड़कर देखा है । निर्मल वर्मा को भले यथार्थवाद भारतीय संवेदना को प्रकट करने में अक्षम प्रतीत हुआ हो पर रामचंद्र शुक्ल ने 1910 में ही 'उपन्यास' शीर्षक जो लेख लिखा था उसमें यह समझ और इसका स्वीकार दिखाई पड़ता है । वे लिखते हैं- '---उच्च श्रेणी के उपन्यासों में वर्णित छोटी छोटी घटनाओं पर यदि विचार किया जाय तो जान पड़ेगा कि वे यथार्थ में सृष्टि के असंख्य और अपरिमित व्यापारों से छाँटे हुए नमूने हैं ।---सामाजिक उपन्यास जिन जिन चरित्रों को सामने लाते हैं वे या तो ऐसे हैं जो सामाजिक व्यापारों के औसत में अथवा जिनका होना मानव प्रवृत्ति की चरम सीमा पर संभव है ।' प्रेमचंद के कथन का जो तात्पर्य था उसे शुक्ल जी ने इस लेख में पूर्वाभासित किया है- 'कहीं पर ये उपन्यास यह दिखलाते हैं कि समाज को कैसा होना चाहिए । ये कहीं से उन असंख्य व्यापारों में से, जिनसे हम घिरे हैं, कुछ एक को ऐसे स्थान पर लाकर अड़ा देते हैं जहाँ से हम उनका यथार्थ रूप और सृष्टि के बीच उनका संबंध दृष्टि गड़ाकर देख सकते हैं । और कहीं उन संभावनाओं की सूचना देते हैं जिनसे यह मनुष्य जीवन देव जीवन और यह धराधाम स्वर्गधाम हो सकता है ।' शुक्ल जी ने इसी तरह की बातें हिंदी साहित्य का इतिहास में भी लिखीं- 'समाज जो रूप पकड़ रहा है उसके भिन्न भिन्न वर्गों में जो प्रवृत्तियाँ उत्पन्न हो रही हैं उपन्यास उनका विस्तृत प्रत्यक्षीकरण ही नहीं करते आवश्यकतानुसार उनके ठीक विन्यास, सुधार अथवा निराकरण की प्रवृत्ति भी उत्पन्न कर सकते हैं ।'
इस पूर्वपीठिका पर हम प्रेमचंद की धारणा को अच्छी तरह समझ सकते हैं । ऐसा लगता है कि उस समय 'प्रकृत यथार्थवाद' को ही यथार्थवाद समझा जाता था । प्रेमचंद के लेख 'उपन्यास' में यथार्थवाद की यही धारणा है- 'यथार्थवादी अनुभव की बेड़ियों में जकड़ा होता है और चूँकि संसार में बुरे चरित्रों की प्रधानता है, यहाँ तक कि उज्ज्वल से उज्ज्वल चरित्रों में भी कुछ न कुछ दाग धब्बे रहते हैं, इसलिए यथार्थवाद हमारी दुर्बलताओं, हमारी विषमताओं और क्रूरताओं का नग्न चित्र होता है ।' आज यह पढ़कर आश्चर्य होता है कि उस समय प्रेमचंद को यथार्थवादी नहीं आदर्शवादी समझा जाता था । ऐसा उस समय प्रचलित यथार्थवाद की धारणा के कारण था । प्रेमचंद ने लिखा है- 'इसलिए हम वही उपन्यास उच्च कोटि का समझते हैं जहाँ यथार्थवाद और आदर्शवाद का समन्वय हो गया हो । उसे आप आदर्शोन्मुख यथार्थवाद कह सकते हैं ।' जैनेंद्र को लिखी चिट्ठी में भी इसी पहलू पर जोर है- 'यथार्थवादी हममें से कोई भी नहीं है । हममें से कोई भी जीवन को उसके यथार्थ रूप में नहीं दिखाता बल्कि उसके वांछित रूप में ही दिखाता है । मैं नग्न यथार्थवाद का प्रेमी भी नहीं हूँ ।'
यथार्थवाद संबंधी प्रेमचंद की धारणाओं पर विचार करने के बाद राम कृपाल पांडे ने अपने लेख 'प्रेमचंद और हिंदी का मार्क्सवादी सौंदर्य चिंतन' में सही निष्कर्ष निकाला है- 'मेरा दृढ़ मत है कि अगर आदर्शवाद को उसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि के साथ सही मायने में भावनावाद के अर्थ में ग्रहण किया जाय तो प्रेमचंद को आदर्शवादी या आदर्शोन्मुख यथार्थवादी कहना बिलकुल गलत है । और अगर आदर्शवाद को महज सुलक्ष्यवाद या सदुद्देश्यवाद के साधारण अर्थ में ग्रहण किया जाय तो उन्हें आदर्शोन्मुख यथार्थवादी कहना ठीक होगा । स्वयं प्रेमचंद ने आदर्शवाद को सदुद्देश्यवाद के साधारण अर्थ में ग्रहण किया है ।' इससे आगे बढ़कर यह भी कहा जा सकता है, और ऐसा कहना उनके उपन्यासों का विश्लेषण करने पर अतिकथन नहीं लगेगा, कि उनका 'आदर्शोन्मुख यथार्थवाद' वस्तुत: 'आलोचनात्मक यथार्थवाद' की धारणा के अधिक निकट है । जिन विदेशी उपन्यासकारों (डिकेंस, तोलस्तोय, गोर्की) को पसंदीदा लेखकों के बतौर उन्होंने गिनाया है उससे भी यही प्रमाणित होता है ।
यूरोप से उपन्यास की जो परंपरा भारत आई उसमें सामंतवाद की आलोचना का तत्व तो था किंतु भारतीय अनुभव ने आलोचना के क्षेत्र विस्तार की जरूरत पैदा कर दी । प्रेमचंद को साम्राज्यवाद और सामंतवाद के विचित्र गँठजोड़ का सामना करना पड़ा । उनकी कृतियों में सामंती उत्पीड़न और उसे संरक्षण देने वाले अंग्रेजी राज दोनों की मुखर आलोचना दिखाई पड़ती है । न सिर्फ़ इतना बल्कि कांग्रेस के मध्यवर्गीय नेतृत्व में जो स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था उसकी भी सीमाओं को वे देख रहे थे । शुरुआती उपन्यासों में अवश्य उस समय मौजूद विकल्पों के प्रति मोह दिखाई पड़ता है लेकिन 'रंगभूमि' के बाद उन्हें इन तथाकथित आश्रमों से कोई मोह नहीं रह गया ।
नामवर सिंह ने प्रेमचंद की विशिष्टता को रेखांकित करते हुए किसान समुदाय की व्यथा के चित्रण पर जोर दिया है । ऐसा संभवत: उन्होंने यूरोपीय उपन्यासों से प्रेमचंद का पार्थक्य बताने के लिए किया है । मेरा विनम्र निवेदन है कि प्रेमचंद महज किसान समुदाय और ग्रामीण जीवन के रचनाकार नहीं थे अन्यथा इसका रोमांटिक आदर्शीकरण उनमें अवश्य पाया जाता । वे भारत में औपनिवेशिक शासन के कारण आए समाजार्थिक परिवर्तनों के कथाकार थे । उनके गाँव समग्र सामाजिक आर्थिक औपनिवेशिक बुनावट के बीच अवस्थित हैं । उन्हें औपनिवेशिक शासन से मुक्ति की आकांक्षा तो थी ही उपनिवेशोत्तर भारत की भी चिंता थी । प्रेमचंद के उपन्यासों की कथाभूमि और उपन्यासों के पात्रों की गतिमान वर्गीय संरचना की दृष्टि अब भी कोई बेहतर अध्ययन नहीं हुआ है ।
प्रेमचंद द्वारा निर्मित इस ठोस जमीन पर हमें हिंदी उपन्यास के आगामी विकास को देखना चाहिए । दुख के साथ कहना पड़ता है कि कुल विविधता के बावजूद हिंदी उपन्यास सचमुच मध्यवर्ग का महाकाव्य तो नहीं उसका आदर्शीकरण और रुदन बनकर रह गया । अनेक लेखकों को प्रेमचंद की परंपरा में घोषित किया गया लेकिन समकालीन जीवन की वैसी भरी पूरी समझ से संपन्न परिवर्तन की वैसी बेचैनी से उत्पन्न वैसी तीखी आलोचना वाला उपन्यास हिंदी में नजर नहीं आया । इसे समकालीन माहौल से मेरी अपेक्षा के बतौर ही ग्रहण किया जाय ।
Tuesday, July 19, 2011
मैनेजर पांडे के सरोकार
(अध्यापकों के बतौर जिनसे सीखा उनमें मैनेजर पांडे अनन्य हैं । इस आयु में भी उनका परिश्रम हमारे लिए स्पृहणीय है । जे एन यू में उनकी कक्षा में बहुधा ऐसा हुआ कि डेढ़ दो घंटे तक कलम रुकती ही नहीं थी और कई बार ऐसा भी हुआ कि लिखने में तर्क की धारा छूट जाएगी यह सोचकर कुछ नोट ही नहीं किया । शोध करते हुए उनसे एक संकोचपूर्ण नजदीकी बनी जो अब तक जारी है । उनके लिखे को पढ़कर चुपचाप गर्व करना और मिलने पर कुछ न कहना आदत सी बन गई । बहरहाल गोरखपुर में उनके सम्मान समारोह के अवसर पर यह पर्चा लिखा लेकिन जा न सका । बाद में समकालीन जनमत में छप गया और अब इसे कुछ जोड़ तोड़ कर आपके पास भेज रहा हूँ शीर्षक बदले बगैर । गोपाल प्रधान)
नागार्जुन, प्रेमचंद, रामचंद्र शुक्ल और मुक्तिबोध- यह सूची उन लेखकों की है जिनकी ओर से मैनेजर पांडे ने आज के समय में आलोचना की भूमिका तलाशी है । इस सूची के अधूरा होने पर बहस की जा सकती है लेकिन एक बात सिद्ध है । ये सभी लेखक आधुनिक हिंदी साहित्य के स्तंभ हैं । जो लेखक प्रामाणिक रूप से हिंदी में जनपक्षधर लेखन की परंपरा का निर्माण करते हैं, आखिर उनकी रक्षा की जरूरत क्या है ? असल में हरेक दौर में वैचारिक लड़ाई चलती रहती है और उस लड़ाई में फिर फिर जनता से जुड़े रचनाकारों को गलत व्याख्या से बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है । इससे ही वह समकालीन संदर्भ बनता है जिसमें आलोचना की एक खास तस्वीर मैनेजर पांडे बनाते हैं । सबसे पहले इस समय की जो पहचान मैनेजर पांडे ने की है उसे देखना जरूरी है ।
'आलोचना की सामाजिकता' की भूमिका में वे लिखते हैं- 'आजकल भारत पूँजीवादी सभ्यता के आतंककारी प्रभावों का सामना कर रहा है ।' यह महत्वपूर्ण वाक्य उन्होंने 2005 में लिखा जब प्रख्यात मार्क्सवादी चिंतक रणधीर सिंह ने चिंता जाहिर की थी कि उत्तर आधुनिक चिंतकों के मुताबिक पूँजीवाद लुप्त और गुप्त हो गया है, न सिर्फ़ इतना बल्कि मार्क्सवादी बौद्धिक विमर्श से भी यह अभिधान गायब होता जा रहा है । कुछ दिनों पहले ही नक्सलबाड़ी से संबंधित एक संपादित पुस्तक की भूमिका में वीरभारत तलवार ने अपने लेनिनवादी अतीत को श्रद्धांजलि अर्पित की थी । मार्क्सवादी शब्दावली से पीछा छुड़ाने की इस भगदड़ के माहौल में ही उस जिद के महत्व को समझा जा सकता है जिसके साथ मैनेजर पांडे वर्तमान दौर को समझने और इसमें आलोचना का कार्यभार तय करने के लिए निरंतर इस शब्दावली का उपयोग करते हैं । इस बात पर एक और कोण से विचार करना जरूरी है । मार्क्सवाद के अनेक विरोधियों का कहना है कि मार्क्सवाद न सिर्फ़ विदेशी है बल्कि उसका संबंध तो लोहा लक्कड़ और रुपये पैसे जैसी ठोस चीजों से है साहित्य संस्कृति जैसे अमूर्त व्यवहार से उसका क्या लेना देना । मैनेजर पांडे ने इस धारणा से लड़ने के लिए सांस्कृतिक व्यवहार की सामाजिकता को पहचाना और उसे व्याख्यायित करने में विश्लेषणात्मक बुद्धि और अध्यवसाय के बल पर मार्क्सवाद की भूमिका को स्थापित किया ।
पूँजीवाद के वर्तमान दौर ने आलोचनात्मक विवेक को सबसे अधिक नुकसान पहुँचाया है । इस स्थिति की शिनाख्त करते हुए वे 'आलोचना : सार्थक और निरर्थक' शीर्षक निबंध में लिखते हैं- 'यह ठीक है कि हिंदी में आलोचना की स्थिति अच्छी नहीं है । लेकिन आलोचना की यह स्थिति केवल हिंदी में हो, ऐसा नहीं है । आजकल सारी दुनिया में आलोचना संकट में है, बल्कि आलोचना का संकट व्यापक सांस्कृतिक संकट का हिस्सा है । आज के उत्तर आधुनिक दौर में एक वैचारिक अनुशासन और साहित्य विधा के रूप में आलोचना कई तरह के संकटों का सामना कर रही है । पूँजीवाद के विजय, उपभोक्तावाद के सर्वग्रासी प्रसार, विवेक के साथ अर्थ के अंत और सामाजिक की मृत्यु की घोषणा के कारण जब आलोचनात्मक चेतना ही संकट में है तब उसकी क्रियाशीलता का एक रूप साहित्य की आलोचना उस संकट से कैसे बच सकती है ?'
आलोचनात्मक विवेक के इस विनाश का एक प्रमुख कारण मार्क्सवादी बौद्धिक विमर्श में आई गिरावट है । आजाद भारत में एक तो शिक्षा संस्थानों के जरिए ही आलोचनात्मक प्रभुत्व पाने की रणनीति ने इसे सभी तरह के दक्षिणपंथी प्रभावों के समक्ष अरक्षणीय स्थिति में पहुँचा दिया और इसीलिए सोवियत संघ के बिखरते ही लाभान्वितों ने दूसरे चरागाहों की ओर मुँह फेरा । इसके विपरीत खासकर नक्सलवादी आंदोलन के उभार ने इसके सकारात्मक मूल्यों- मान्यताओं के विकास का दबाव बनाया । मैनेजर पांडे को इसी क्रांतिकारी वाम दबाव के प्रतिनिधि के रूप में समझा जा सकता है । जब साहित्य और उसकी आलोचना के क्षेत्र में दक्षिणपंथी दबाव बनता है तो सबसे पहले साहित्य को जनसमुदाय, जनांदोलन और जनराजनीति से अलग करने का प्रयास होता है । न सिर्फ़ उसके सृजन, ग्रहण और मूल्यांकन के क्षेत्र से जनता को गायब कर दिया जाता है बल्कि आलोचना के ऐसे मानदंड भी विकसित किए जाते हैं जो कृति की संरचना में ही उसके सौंदर्य को अपघटित कर दें । मैनेजर पांडे ने इन सभी मोर्चों पर न सिर्फ़ रक्षात्मक बल्कि अनेकश: आक्रामक युद्ध भी लड़ा है ।
आलोचना के क्षेत्र में जनांदोलनों के योगदान को मुक्त कंठ से स्वीकार करने वाले संभवत: अकेले आलोचक मैनेजर पांडे हैं । 'आलोचना की राजनीति' शीर्षक लेख में वे लिखते हैं- 'आज के समय में आलोचनात्मक चेतना के निर्माण और विकास का एक स्रोत जनांदोलन है । ज्ञान का विकास केवल एकांत साधना से नहीं होता, सामाजिक आंदोलनों से भी होता है । सामाजिक आंदोलनों से उपजा ज्ञान एकांत साधना से अर्जित ज्ञान की तुलना में अधिक ऊर्जावान और दीर्घगामी होता है ।' इसी पारगामी दृष्टि के कारण वे अकादमिक संस्थाओं की दुनिया में रहते हुए भी उनकी सीमाओं में न बँधकर हिंदी समाज में चलने वाली उथल पुथल से अपनी आलोचना को जोड़ सके ।
चूँकि उन्होंने आलोचना के प्रसंग में और अन्य प्रसंगों में भी राजनीति की चर्चा की है इसलिए राजनीति के जरिए कुछ बातें करना अनधिकार चेष्टा न होगी । प्रगतिशील आलोचना के उत्थान पतन को भारत की परंपरागत वामपंथी राजनीति के संदर्भ से समझना आवश्यक है । नामवर सिंह प्रगतिशील हिंदी आलोचना की सर्वाधिक सक्रिय उपस्थिति रहे हैं । उनके वैचारिक निर्माण में तेलंगाना आंदोलन के पतन के बाद व्यवस्था में समायोजन की वामपंथी कार्यनीति ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । उनके आलोचनात्मक लेखन ने हिंदी साहित्य की जनपक्षधर परंपरा के साथ बहुधा न्याय नहीं किया । मुक्तिबोध को उन्होंने नेहरू के समर्थन में खड़ा कर दिया और उनके लेखन के क्रांतिकारी सार को 'अस्मिता की खोज' के रहस्यमय मुहावरे के नीचे दबा दिया । नागार्जुन जैसे जनसंघर्षों के पक्षधर कवि का मूल्यांकन 'दूसरे काव्यशास्त्र' के निर्माण तक के लिए स्थगित कर दिया गया । प्रेमचंद प्रयोगों की नवीनता के प्रति उपजे आकर्षण के कारण पुराने पड़ गए । रामचंद्र शुक्ल को 'ब्राह्मणवादी' और 'वर्णाश्रम का समर्थक' बनाया गया ताकि नए सामाजिक आंदोलनों से उनके एजेंडे पर ही तालमेल बिठाया जा सके । इस तरह प्रगतिशील आलोचना ने अपनी ही विरासत को नकारकर अपनी जगह बनानी चाही ।
इसी वातावरण में मैनेजर पांडे के वैचारिक संघर्ष का ऐतिहासिक महत्व पहचाना जा सकता है । उन्होंने वर्तमान जनांदोलनों का सवाल तो उठाया ही, प्रगतिशील आलोचना की अवसरवादी धारा द्वारा किनारे कर दी गई विरासत को भी नए सिरे से प्रासंगिक बनाया । वर्तमान की चिंताओं ने कैसे परंपरा के पुनराविष्कार की उनकी दृष्टि को रूपायित किया है, इसके लिए रामचंद्र शुक्ल और नाथूराम शर्मा 'शंकर' संबंधी उनकी आलोचना को देखा जा सकता है । इन लेखों के भीतर भारत के पुन:उपनिवेशीकरण की चिंता से प्रभावित होकर स्वतंत्रता आंदोलन के साथ साहित्य के संबंध के रेखांकित करने के प्रयास को देखा- पढ़ा जा सकता है । इसी तरह अंधाधुंध उद्योगीकरण से हाशिए पर पड़ते जा रहे ग्रामीण जनसमुदाय के साथ लगाव को प्रेमचंद के लिए होने वाली लड़ाई के मूल में देखा जा सकता है । नागार्जुन की कविता 'हरिजन गाथा' पर अतिरिक्त बल को भी बिहार के किसान आंदोलन और दलित उभार से पैदा आवेग के परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है ।
समकालीन भारत का यथार्थ मात्र पूँजीवाद का उभार ही नहीं है । तस्वीर का दूसरा पहलू नए सामाजिक आंदोलन भी हैं । इन आंदोलनों के कारण आलोचना में पैदा हुई नई सामाजिकता को रेखांकित करते हुए पांडे जी ने 'आलोचना की सामाजिकता' की भूमिका में लिखा है- '---पिछले कुछ दशकों से हिंदी स्त्री लेखन, दलित लेखन और आदिवासी लेखन का जो विकास हुआ है उससे साहित्य और साहित्यिकता की पुरानी धारणाएँ और मान्यताएँ लगभग ध्वस्त हुई हैं और साहित्य की नई सामाजिकता सामने आई है । यह साहित्य विनोद का साधन नहीं है, वह स्वतंत्रता के लिए बेचैन आत्मा की पुकार है । इस साहित्य की व्याख्या में वही आलोचना सक्षम होगी जो स्त्रियों, दलितों और आदिवासियों की स्वतंत्रता की आकांक्षा की पहचान करेगी और उनके रचने की सामाजिकता का मूल्यांकन करेगी ।' इन आंदोलनों के प्रसंग में थोड़ा विस्तार से विचार करने की जरूरत है ।
नए सामाजिक आंदोलनों से उत्पन्न ऊर्जा ने वामपंथी हिंदी बौद्धिक समुदाय के लिए नई चुनौती पेश की । कुछ लोगों ने इसके समक्ष पूरी तरह आत्मसमर्पण कर दिया तो कुछ लोग कभी खारिज करने और कभी इनके उत्तर आधुनिक एजेंडे के साथ तालमेल बिठाने की अतियों के बीच झूलते रहे । इसके बरक्स मैनेजर पांडे ने इनकी सकारात्मकता को रेखांकित किया लेकिन इनकी सीमाओं की ओर भी संकेत करते रहे । मसलन 'आलोचना की सामाजिकता' में उन्होंने लिखा- 'स्त्रीवादी दृष्टि और दलितवादी दृष्टि में एक प्रकार का धुँधलापन है । लेकिन यह धुँधलापन अंधेपन से तो बेहतर ही है ।' इन दोनों धाराओं विशेषकर स्त्री लेखन के प्रसंग में उन्होंने पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा मजबूत की गई सत्ता संरचना की निशानदेही की है । आज जबकि दलित आंदोलन की एक धारा (बसपा) सत्ता संरचना का अंग हो चली है हमें दलित लेखन की धारा के साथ गंभीर बहस चलानी होगी क्योंकि वैसे भी हिंदी दलित लेखन ने कभी उन खेतिहर मजदूरों की पीड़ा को महत्व देते हुए अपनी जगह नहीं बनाई जो दलितों में बहुसंख्यक हैं । इस प्रश्न पर मैनेजर पांडे का लेखन वामपंथी चिंतन का आकाश विस्तारित करने की संभावना प्रस्तुत करता है ।
मार्क्सवादी साहित्य- समाज चिंतन उनके आलोचनात्मक लेखन की आधार भित्ति है । इससे विचलन के विरुद्ध संघर्ष के लिए उन्होंने अपने अग्रज और दीर्घकालीन वरिष्ठ सहयोगी नामवर सिंह को भी नहीं बख्शा । 'नामवर सिंह की आलोचना दृष्टि' शीर्षक लेख किसी भी वरिष्ठ सहकर्मी के योगदान और उसके विचलन के संयत संतुलित आकलन का नमूना है । नामवर सिंह का उनका विरोध किसी चिढ़ का परिणाम नहीं बल्कि प्रगतिशील आलोचना की सच्चाई को सामने ले आने और प्रासंगिक बनाए रखने के कर्तव्य से प्रेरित है ।
भाषा संबंधी संवेदनशीलता का क्षरण उनकी चिंताओं का एक और महत्वपूर्ण आयाम है । याद दिलाने की जरूरत नहीं कि उनकी पहली ही पुस्तक 'शब्द और कर्म' थी । भाषा के मूल में सामाजिक क्रिया होती है, इसे चिन्हित करते हुए वे 'राजनीति की भाषा' में लिखते हैं- 'समाज भाषा की जन्मभूमि है और कर्मभूमि भी । यहीं से नए शब्द पैदा होते हैं, पुराने शब्दों में नया अर्थ भरता है और उन्हें नया जीवन मिलता है । समाज ही भाषा की शक्ति का मुख्य स्रोत है और समाज के कर्ममय जीवन में भाषा की क्रियाशीलता सार्थकता पाती है ।' शासक वर्ग के सामाजिक कर्म ने निरंतर भाषा को क्षरित किया है । ऐसी स्थिति में मनुष्य की सृजनात्मकता में आस्था रखनेवालों को इस शासकवर्गीय दुरभिसंधि के विरुद्ध निरंतर अपने कर्म से भाषा के अर्थ की रक्षा करनी पड़ती है ।
उनके लेखन में 'सार्थकता' को महत्वपूर्ण धारणा की तरह बार बार दोहराया गया है । इसके जरिए वे अतीत की रचनाओं को पुन: पुन: प्रासंगिक बनाते हैं । अश्वघोष की वज्रसूची, दारा शिकोह के मजमुल बहरैन, देउस्कर की देश की बात, महावीर प्रसाद द्विवेदी की संपत्ति शास्त्र, महादेवी वर्मा की शृंखला की कड़ियाँ- इस सूची पर ध्यान दें तो प्रतिरोध की एक भारतीय परंपरा का नक्शा खड़ा हो जाता है ।
सार्थकता की धारणा के सहारे वे रचना की संरचना में ही उसके अर्थ को खोजनेवाली कलावादी दृष्टि का मुकाबला कर रचना को सामाजिक गतिशीलता के बीच ला खड़ा करते हैं । अपनी चिंताओं, सरोकारों और वर्तमान की क्रियाशीलता से संबद्धता तथा मार्क्सवाद में आस्था से अर्जित भ्रमभेदक दृष्टि के कारण वे साहित्य को सामाजिक हलचलों के भीतर रखकर देखनेवालों के लिए जीवंत आश्वासन की तरह लगते हैं । आगे भी वे इस आश्वासन को बनाए रखेंगे, ऐसा उनके परवर्ती लेखन से प्रतीत होता है । आज के समय ने जवाबों की आश्वस्ति छीन ली है और प्रश्नों के समक्ष नई पीढ़ी को खुला छोड़ दिया है । ऐसे में सवालों को सही संदर्भों में अवस्थित करना भी बड़ा काम है । मुक्तिबोध ने कभी बुर्जुआ रणनीति की पहचान करते हुए कहा था- वे प्रश्न छलमय/ और उत्तर और भी छलमय । इस छलना के माहौल को भेदने के लिए निरंतर धैर्यपूर्वक अलगाव झेलते हुए भी सक्रिय रहना अभूतपूर्व रूप से आवश्यक हो गया है और वे लगातार सक्रिय हैं ।
Sunday, July 17, 2011
दिल्ली में कामरेड की हत्या (सरयू पांडे की मौत की खबर सुनकर)
कामरेड ! आज कई घटनाएँ
मेरे साथ घटीं
ग्लानि, सहानुभूति और व्यंग्य का मैं
कई बार शिकार हुआ
लेकिन सबसे बड़ी
दुर्घटना की खबर सबसे
अंत में मिली
माफ़ कर दीजिए कि
चाहकर भी मैं उस लड़के को
सम्मान न दे सका
जो अपने साथ लाया था
यह खबर
कि मेरे साथियों की घृणित
आदतों ने उसे
चोट पहुँचाई
सच मानिए वह मेरा अतीत था
भावना से भरपूर
जोश से छलकता हुआ
वह नहीं जानता था
ठंडे लोग न सिर्फ़ कुछ नहीं सुनना चाहते
वरन बोलने वाले का मुँह भी बंद कर देते हैं
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आप हमारी पूरी पीढ़ी के सामने
मिथक की तरह पेश आये
आपको कई बार मैंने
बोलते हुए सुना है
प्रभावित कभी न हो सका
लेकिन देखता जरूर रहा
आपकी दृढ़ता
बिना कुछ कहे हमारे इलाके के
सबसे टूटे हुए आदमी तक भी
पहुँच जाती थी
हमारी अपनी मिट्टी की
पैदावार थे आप
आपको राजधानी में भी देखा
क्रांति रथ पर सवार
धूर्तों के बीच
ठेठ गँवई किसान
जाने कैसे बैठा रहता था
किस्से सुने हैं कि
आप अपनी जाति से निकाल
दिए गए थे
कि थाने और सामंतों के
सबसे घृणित अत्याचारों
के शिकार रहे थे आप
कि पलटकर आपकी ताकत ने
उनके अत्याचारों का सबसे
कठिन जवाब दिया था
कि सभ्य लोग
अपने लड़कों को
आपके पास जाने से रोकते थे
उस पीढ़ी को
नजदीक से देखा है मैंने
जो जवान हुई थी
आपके साथ
निर्भय सच कहने का उतना
साहस नहीं देखा कहीं और
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याद है मुझे कामरेड !
आपने मुझे बमबाज़ी सिखानेवाला
कहा था
मेरे एक साथी को
चमार भी कहा था आपने
बोगना भी गया हूँ मैं
जहाँ कोआपरेटिव बनाने का
आपका सपना महज़ कुछ नए
धन्नासेठ पैदा करने में
बिखर गया है
जानता हूँ
जिन्होंने आपको बिरादरी
से निकाला था
उनके घरों से चावल के बोरे
आपके पार्टी आफ़िस में
पहुँचाए जाते हैं
यह भी जानता हूँ कि
मेरी गिरफ़्तारी से आप
खुश हुए थे
लेकिन खुश नहीं हुआ मैं
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आपके जीते जी हमने चाहा
आप मरें तो हम आपकी जगह लें
हम जो समझते थे कि
वह शहर जहाँ की हर बात
हमें उत्तेजित करती थी
बहसें करते थे हम और सक्रिय हो जाते थे
वह शहर सचमुच इतना
आंदोलित होगा कि
हमें अपने बारे में सोचने की
फ़ुर्सत ही नहीं मिलेगी
कि हम होंगे और घटनाएँ होंगी
लेकिन यह बहुत मुर्दा शहर है
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आपकी मृत्यु की खबर
यहाँ सुनकर
बहुत दुखी हूँ मैं
नहीं चाहता कि जिन भी
लोगों को जिंदा रहते
पूजने लायक समझा गया
वे मरते जायें और
उनकी खाली जगह में
ईश्वर समाता जाए
कामरेड ! अभी तो आपको
हमारी भी चिंता करनी थी
हमारी ज़मीन और हमारे
सपनों में दरार आ गई है
और हम असहाय हवा में
झूल रहे हैं
अभी तो हमें
आपकी जरूरत थी
प्रेमचंद के स्त्री पात्र (जनसत्ता 17 जुलाई 2011 में प्रकाशित 'महज देह नहीं' का मूल पाठ)
विवादों के कारण ही सही प्रेमचंद का साहित्य फिर से ज़ेरे बहस है । दलित साहित्य के लेखकों ने उनके साहित्य को सहानुभूति का साहित्य कहा है । लेकिन स्त्री लेखन की ओर से अभी कोई गंभीर सवाल नहीं उठाया गया है । पहले एक आरोप जरूर प्रेमचंद के स्त्री चित्रण लगाया गया था कि इसमें मनोवैज्ञानिक गहराई नहीं है । हाल में एकाध लेख ऐसे देखने में आए जिनमें कहा गया था कि कुल के बावजूद प्रेमचंद स्त्री चित्रण में सामंती नैतिकता के घेरे को तोड़ नहीं पाते हैं । उचित होगा कि हम प्रेमचंद के स्त्री चित्रण के सही परिप्रेक्ष्य और उद्देश्य को समझें ।
प्रेमचंद को किसानों का चितेरा बहुतेरा कहा गया है । लेकिन उनके उपन्यासों के स्त्री पात्र भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं । उनके ये सभी पात्र बेहद जीवंत और सकर्मक हैं । इन पात्रों के जरिए प्रेमचंद स्त्री की सामाजिक भूमिका को रेखांकित करते हैं । उनके स्त्री पात्रों की मुखरता और निर्णय लेने की क्षमता प्रत्यक्ष है । आखिर प्रेमचंद को ऐसी स्त्रियों के सृजन की प्रेरणा कहाँ से मिल रही थी ? जब प्रेमचंद अपने उपन्यास लिख रहे थे तो 1857 को साठ सत्तर बरस ही बीते थे । 1857 के बारे में चाहे इतिहास के दस्तावेजों के जरिए देखें या जनश्रुतियों के आधार पर बात करें, स्त्रियों की भूमिका बहुत ही निर्णायक और नेतृत्वकारी दिखाई पड़ती है । झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई अथवा लखनऊ की बेगम हजरत महल महज प्रतीक हैं उन हजारों बहादुर स्त्रियों की जिनकी जिंदगी घर की चारदीवारी के भीतर ही कैद नहीं थी । यह परिघटना हमें इस आम विश्वास पर पुनर्विचार के लिए बाध्य करती है कि अंग्रेजों के आने से पहले भारत में स्त्रियाँ सामाजिक जीवन में मौजूद ही नहीं थीं । असल में 1857 की पराजय के बाद जब अंग्रेजों का शासन अच्छी तरह स्थापित हो गया तभी विक्टोरियाई नैतिकता के दबाव में स्त्री की घरेलू छवि को सजाया सँवारा गया । लेकिन घरों में कैद होने के बावजूद हिंदी क्षेत्र की स्त्रियों के दिमाग से अपने इन लड़ाकू पूर्वजों की याद गायब नहीं हुई थी । घर के भीतर की कैद और बाहरी दुनिया में अपनी भूमिका निभाने की चाहत के बीच द्विखंडित ये पढ़ाकू स्त्रियाँ ही प्रेमचंद के उपन्यासों की पाठक थीं ।
आयन वाट ने उपन्यास के बारे में कहा है कि इस विधा को उसके पाठकों की रुचि और चाहत ने बेहद प्रभावित किया । प्रेमचंद के इन पाठकों ने उनसे ऐसे स्त्री पात्रों का सृजन कराया जो महानायक तो नहीं थीं लेकिन सामान्य सामाजिक जीवन में भी स्वतंत्र भूमिका निभाती दिखाई पड़ती हैं । अंग्रेजों पर चाकू चलाने वाली कर्मभूमि की बलात्कार पीड़िता से लेकर मालती जैसी स्वतंत्रचेता स्त्री तक प्रेमचंद के स्त्री पात्रों की विद्रोही चेतना किसी भी लेखक के लिए ईर्ष्याजनक है । सही बात है कि प्रेमचंद पर भी विक्टोरियाई नैतिकता का असर दिखाई पड़ता है और यह उनके युग का अंतर्विरोध है । फिर भी वे अपने समय के लिहाज से काफी आगे बढ़े हुए हैं । इस मामले में कुछ आधुनिक नारीवादी धारणाओं की चर्चा करना उचित होगा ।
नारीवादी चिंतक जर्मेन ग्रीयर ने पुरुष और स्त्री देह की तुलना करते हुए साबित किया है कि दोनों के शरीर में बहुत अंतर नहीं है । स्त्री के स्तन उभरे होने और पुरुष के दबे होने के बावजूद दोनों में उत्तेजना और संवेदनशीलता समान ही होती है । यही बात लिंग के बारे में भी सही है । स्त्री का जननांग भीतर की ओर तथा पुरुष का बाहर की ओर होता है । इन्हें छोड़कर पुरुष और स्त्री में कोई बुनियादी भेद नहीं है । प्रेमचंद ने नारीवादी साहित्य पढ़ा हो या नहीं अपने सहज बोध और स्वतंत्रता संग्राम में स्त्रियों की भागीदारी के आधार पर कम से कम अपने उपन्यासों में उन्होंने ऐसी स्त्रियों का सृजन किया जो निर्णायक भूमिका में खड़ी हैं ।
वैसे तो उनके सभी उपन्यासों में स्त्रियों के चित्र बहुत भास्वर हैं लेकिन तीन उपन्यास 'सेवासदन' , 'निर्मला' और 'गबन' तो पूरी तरह स्त्री समस्या पर ही केंद्रित हैं । सेवासदन उपन्यास को अगर ध्यान से पढ़ें तो शुरुआती सौ डेढ़ सौ पृष्ठ पूरी तरह से परिवार की धारणा पर एक तरह का कथात्मक विमर्श हैं । सुमन एक घरेलू स्त्री और उसके सामने रहनेवाली वेश्या भोली । परिवार में सुमन को निरंतर घुटन का अहसास होता रहता है और इस संस्था की सीमाएँ उसके सामने भोली की स्वच्छंदता के साथ जिरह के जरिए खुलती जाती हैं । तालस्ताय की तरह ही परिवार प्रेमचंद के चिंतन का बड़ा हिस्सा घेरता है । निर्मला में भी यह संकट ही उपन्यास के तीव्र घटनाक्रम को बाँधे रखता है । अंतत: गोदान में आकर वे इसका एक उत्तर सहजीवन की धारणा में खोज पाते हैं । उल्लेखनीय है कि परिवार की सुरक्षा स्त्री मुक्ति की राह में एक बड़ी बाधा है ।
प्रेमचंद के लिए वेश्यावृत्ति स्त्री का नैतिक पतन नहीं बल्कि एक सामाजिक संस्था है । इसे गबन की पात्र जोहरा के प्रसंग से भी समझा जा सकता है । यह बात ही बताती है कि प्रेमचंद सामंती नैतिकता की सीमाओं का अतिक्रमण कर सकते थे ।
गबन में उनकी मुख्य चिंता जालपा को उस अंतर्बाधा से मुक्त करने की है जो उसे 'बधिया स्त्री' बनाए रखती है । पति के पलायन के साथ उसे इसकी व्यर्थता का अहसास होता है और एक झटके में वह इस अंतर्बाधा से आजाद हो जाती है । यह आजादी उसे उसकी सामाजिक सार्थकता की ओर ले जाती है । यहीं प्रेमचंद अपने समय की सीमाओं को भी तोड़ देते हैं । अकारण नहीं कि सुमन और जालपा जैसी तर्कप्रवण स्त्रियों के तीखे सवालों के सामने तत्कालीन सामाजिक सुधार आंदोलन के नेता वकील साहबान निरुत्तर हो जाते हैं । उनके ये सभी साहसी पात्र अपने पाठकों के मन में दबी आकांक्षाओं को जैसे मूर्तिमान कर देते हैं । वे क्या किसी को अपने साहित्य के जरिए सामाजिक भूमिका में उतार सके ? यह प्रश्न साहित्य से थोड़ा अधिक की माँग है । साहित्य का कर्तव्य अपने समय के अंतर्विरोधों को वाणी देना है । उनका समाधान साहित्येतर प्रक्रम है ।
गौरतलब है कि अगर प्रेमचंद स्त्री मनोविज्ञान की गहराई में उतरते या उसकी देह तक ही महदूद रहते तो शायद वह भी नहीं कर पाते जो उन्होंने किया । आखिर आज का स्त्री लेखन अपनी कुल साहसिकता के बावजूद एक भी जीवंत और याद रह जाने लायक पात्र का सृजन नहीं कर पा रहा है तो उसे आत्मावलोकन करना चाहिए और इस पुरोधा से टकराते हुए प्रेरणा लेनी चाहिए ।