राहुल सांकृत्यायन की ‘दर्शन
दिग्दर्शन’ का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष दर्शन के क्षेत्र में इस्लाम की विस्तृत चर्चा
है । हिंदी साहित्य के किसी भी विद्यार्थी के लिए इस्लाम का संदर्भ सूफी दर्शन की
मार्फत ही बनता है । राहुल जी ने इस प्रसंग में सबसे पहले इस बात का जिक्र किया है
कि दर्शन के बतौर सूत्रबद्ध होने से पहले भी ये सूफी लोग मौजूद थे । दर्शन के
क्षेत्र में जिस तरह केवल चिंतन और चिंतकों का प्रभुत्व समझा जाता है उसके मुकाबले
राहुल जी उसके सामाजिक
अस्तित्व और प्रकार्य पर भी सतर्क निगाह रखते हैं । इसी रूप में उन्हें घुमक्कड़ों
के बतौर सूफी संतों की मौजूदगी पर जोर देना जरूरी लगा । इन घुमक्कड़ संतों के प्रसंग में उन्होंने एक लम्बी परम्परा का जिक्र किया है जिसमें भारत के योगी भी आते हैं । उनका कहना है कि ईसाई साधक और हिंदू-बौद्ध योगी का आदर्श
इन सूफियों के सामने था इसलिए इस्लाम में भी गृहस्थ या त्यागी फ़कीरों की यह नयी जमात
तैयार हुई थी । इन सूफी संतों
की मान्यताओं को दार्शनिक स्वरूप
देने में जिस चिंतक के योगदान को वे सबसे अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं उन अल ग़ज़ाली
का नाम हिंदी साहित्य के विद्यार्थी मुक्तिबोध की एक कविता ‘भूल गलती’ में पढ़ते
हैं । ग़ज़ाली का कहना था कि सूफी पन्थ ज्ञान और आचरण के मिश्रण का नाम है । राहुल
जी ने इन ग़ज़ाली की जो जीवनी दी है उससे वे परम विद्रोही प्रतीत होते हैं ।
इस्लाम में दर्शन की चर्चा में इस
बात का जिक्र भी जरूरी है कि अरब में पैदा होने के बाद इस्लाम का निरंतर भौगोलिक
विस्तार हुआ । सबसे पहले फ़ारसी भाषा के इलाके उसके घेरे में आये और जैसे जैसे यह
विस्तार होता गया वैसे वैसे इस्लाम के भीतर अरब के बाहर के चिंतक प्रभावी होते गये
। इसको राहुल जी ने अन अरबी लिखा है । इनमें वे सबसे पहले
अबू-याकूब किंदी का जिक्र करते हैं और उसके बारे में सूचित करते हैं कि उसका कबीला
तो अरबी था लेकिन उसका परिवार कई पुश्तों से इराक में बसा हुआ था । इसके बाद वे अल-फ़ाराबी
का जिक्र करते हैं और उसके बारे में बताते हैं कि केवल दो पीढ़ी पहले वह मुसलमान
बना था । उसके पितामह तुर्क थे । उसकी जन्मभूमि में बौद्ध दार्शनिक परम्परा जीवित
थी । इसके चलते शुरू में बुद्धि स्वातंत्र्य की कुछ हल्की हवा उसे लगी थी । बाद
में उच्च अध्ययन के लिए जब वह बगदाद आया तो उसने योहन्ना नामक ईसाई विद्वान को
अपना गुरु चुना । दर्शन के अतिरिक्त उसने साहित्य, गणित, ज्योतिष और वैद्यक की
शिक्षा पायी । वह बहुभाषी था क्योंकि तुर्की उसकी मातृभाषा थी, फारसी उसकी जन्मभूमि
में व्याप्त थी और अरबी इस्लाम की भाषा थी । इनके अलावे भी वह अनेक भाषाओं का
जानकार था । फ़ाराबी के प्रसंग में यह भी बताया है कि वह ‘हाल में ही बौद्ध से
मुसलमान हुए देश और परिवार में पैदा ही नहीं हुआ था, बल्कि बौद्ध भिक्षुओं की ही
भांति वह शान्ति और एकान्त जीवन को बहुत पसन्द करता था । इस्लाम में सूफ़ियों का ही
गिरोह था, जो कि उसकी तबियत से अनुकूलता रखता था, इसीलिए फ़ाराबी सूफ़ियों की पोशाक
में रहा करता था ।’ उसके लेखन के बारे में वे बताते हैं कि ‘अपने परिपक्व ज्ञान का
परिचय उसने अरस्तू के ग्रन्थों के अध्ययन और व्याख्याओं में दिया है जिसके ही लिए
उसे “द्वितीय अरस्तू” या “हकीम सानी” (दूसरा आचार्य) कहा गया ।’ खास बात कि ‘अरस्तू को
पुनरुज्जीवित करने में फ़ाराबी की सेवाएँ अमूल्य हैं ।’ उसने वैद्यक का भी अध्ययन तो
किया था लेकिन ‘उसका सारा ध्यान तर्कशास्त्र, अध्यात्मशास्त्र और साइंस
(भौतिकशास्त्र) पर केन्द्रित था ।’ राहुल जी इसकी भी निशानदेही करते हैं कि इन सभी
चीजों का रिश्ता यूरोप के पुनर्जागरण से बहुत गहरा रहा है । इस तरह वे यूरोपीय
पुनर्जागरण से इस्लाम के रिश्ते को समझने की पूर्वपीठिका भी तैयार
करते हैं ।
मुक्तिबोध की इसी कविता में इस्लाम
के एक दार्शनिक इब्न सिन्ना का भी जिक्र आया है जिसे राहुल जी ने बू अली सीना के
नाम से पेश किया है । उसके बारे में राहुल जी कहते हैं कि ‘उसके रूप में पूर्वी
इस्लामिक दर्शन उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँचा ।’ उसके जीवन के प्रसंग में राहुल
जी ने सूचित किया है कि उस समय किसी भी विद्वान के लिए किसी शासक का आश्रय लेना
लगभग जरूरी था लेकिन सीना के भीतर ‘आत्म-सम्मान और स्वतंत्रता का भाव इतना अधिक
था, कि वह बहुत बड़े दरबार में टिक न सकता था । छोटे दरबारों में वह बहुत कुछ
समानता के साथ निर्वाह कर सकता था, इसलिए उसने अपनी दौड़ को वहीं तक सीमित रखा ।
वहाँ भी, एक दरबार में यदि कोई तबियत के विरुद्ध बात हुयी तो दूसरा घर देखा ।’ उसकी
खास बात यह थी कि उसने यूनानी दार्शनिकों की कृतियों पर कोई टीका या विवरण नहीं
लिखा । वह उन पर विचार करके स्वतंत्र निश्चय पर पहुँचने का हामी था । वह दार्शनिक
होने के साथ ही वैद्य भी था । राहुल जी कहते हैं कि वैद्यक के आचार्य के तौर पर
बहुत पीछे तक यूरोप उसका सम्मान करता रहा ।
अपनी ऐसी सोच के कारण ही‘सीना अपने से पहले के इस्लामिक दार्शनिकों से कहीं ज्यादा फलित ज्योतिष और कीमिया- उस समय के दो जबरदस्त मिथ्या विश्वासों- का सख्त विरोधी था ।’राहुल जी के अनुसार ‘सीना के दर्शन में सबसे ज़्यादा ज़ोर जीव (आत्मा) पर दिया गया है, किसी भी दार्शनिक विवेचन के वक्त उसकी दृष्टि सदा मानव जीव पर रहती है । इसी जीव का ख्याल रखने के कारण ही उसने अपने सबसे महत्त्वपूर्ण दर्शन-ग्रन्थ का नाम “शफ़ा” (चिकित्सा) रखा है जिसका भाव है जीव की चिकित्सा ।’जीव कहने से भ्रम न हो इसलिए राहुल जी कहते हैं कि उसका यह जीव शरीर से अलग है । हर एक शरीर को अपना-अपना जीव ऊपर से मिलता है और‘शरीर में रहते हुए सारे जीवन भर जीव अपने वैयक्तिक विकास को जारी रखता है ।’मनन करना इस जीव की सबसे बड़ी शक्ति है । बुद्धि जीव की शक्तियों की चरमसीमा है । इसमें चिंतन की क्षमता छिपी रहती है लेकिन इंद्रियों
द्वारा प्रस्तुत ज्ञानसामग्री उसकी इस क्षमता को प्रकट कर देती है । बुद्धि का धारक
जीव अपने से हीन भौतिक वस्तुओं का स्वामी होता है किन्तु ऊपर की वस्तुओं का ज्ञान उसे
जगदात्मा द्वारा मिलता है । इस तरह दोनों को पाकर वह वास्तविक मनुष्य बनता है । वे
बताते हैं कि‘जब तक मानव-जीव शरीर और जगत में रहता है,
तब तक वह उनके द्वारा अधिक शिक्षित, अधिक विकसित
होने का अवसर पाता है; किन्तु जब शरीर मर जाता है, तो जीव जगदात्मा का समीपी-सा ही बना रहता है । यही जगदात्मा
की समीपता-समान नहीं- नेक ज्ञानी जीवों
की धनधान्यता है ।’यह भी मानव जीव को उतना ही मिलता है जितना उसने इस शरीर
में अपने आत्मिक स्वास्थ्य यानी बोध को प्राप्त किया है । साफ है कि शरीर का स्वास्थ्य
सीना के लिए केंद्रीय विषय था । इसलिए राहुल जी का कहना है कि ‘सीना दार्शनिक और
वैद्य (हकीम) दोनों था । रोश्द ने दर्शन क्षेत्र-में उसकी कीर्तिछटा को मन्द कर दिया, तो भी वैद्यक के आचार्य के तौर पर बहुत पीछे तक
यूरोप उसका सम्मान करता रहा’।
इसके बाद राहुल जी ने विस्तार से अल ग़ज़ाली का जिक्र किया है । इससे हमें तसव्वुफ़
की विद्रोही भूमिका भी समझ आती है । उनके समय की विशेषता बताते हुए राहुल जी कहते हैं
कि इस्लाम की प्रगतिशीलता तब तक समाप्त हो चुकी थी । अब उसमें भी सामंत और पुरोहित
पैदा हो गये थे जो कोई कम खर्चीले नहीं थे खासकर नये सामंत तो विलासप्रियता मे शाहंशाहों
से भी आगे थे । हालात को समझाने के लिए राहुल जी ने ग़ज़ाली का एक वाक्य उद्धृत किया
है‘अफ़सोस मुसलमानों की गर्दनें मुसीबत और तकलीफ से टूटी जाती हैं और तेरे (सुल्तान
संजर के) घोड़ों की गर्दनें सोने के हमेलों के बोझ से दबी जा रही
हैं ।’न केवल इतना बल्कि‘सुल्तान और अमीर हद से
ज्यादा बिलासी और कामुक होते जाते थे । ---किन्तु पंडित-पुरोहित रोक-टोक नहीं कर सकते थे ।' यह किताब राहुल जी ने हिंदी में भारत के लोगों के लिए लिखी थी इसलिए उन्होंने
उलमा को पंडित-पुरोहित कहा है । इन अल ग़ज़ाली के पिता खुद तो
अनपढ़ थे लेकिन पुत्र को अच्छी शिक्षा दिलाना चाहते थे । उस समय तक कागज
का आविष्कार हो चुका था इसलिए ग़ज़ाली ने शिक्षक से जो भी सुना उसे लिख रखा था ।
उनकी विद्वत्ता में उस समय के बगदाद के पर्याप्त उदार बौद्धिक माहौल का भरपूर योगदान
था । कारण कि ‘तीन सदियों से वहाँ ईसाई, यहूदी, पारसी, मोतजली,
बातनी, सुन्नी सभी शान्तिपूर्वक साधारण ही नहीं, बौद्धिक जीवन बिताते आ रहे थे---।‘
ऐसे उदार माहौल में ग़ज़ाली ने सच की खोज में सभी सम्प्रदायों से जानकारी प्राप्त
करनी शुरू की और सूफ़ी मत को सही पाया । राहुल जी ने उनकी दुविधा का बयान करते हुए
लिखा कि ‘ग़ज़ाली न पूर्ण मूढ़ विश्वास को अपना सकते थे और न केवल बुद्धि पर ही चल
सकते थे इसलिए उन्होंने सूफ़ियों के रास्ते को पकड़ा ।’ फिर बगदाद के जीवन को आखिरी
सलाम कह 38 वर्ष की उम्र में ग़ज़ाली ने कमली कंधे पर रख दमिश्क का रास्ता लिया । दो
साल बाद यरूशिलम आदि घूमते-घामते हज के लिए मक्का मदीना गये । इसी यात्रा में
उन्होंने सिकन्दरिया और काहिरा को भी देखा । उन्होंने तीन संकल्प भी इसी दौरान किये । पहला कि किसी बादशाह के दरबार में न जाऊँगा । दूसरा कि किसी बादशाह के धन को स्वीकार न करूँगा । तीसरा कि किसी से वाद-विवाद न करूँगा । इस यात्रा के बाद घरबार के आकर्षण से वे अपनी जन्मभूमि लौट आये । उसी दौरान उनको नास्तिक मतों की शिक्षा देने का अपराधी प्रचारित किया गया । सुल्तान संजर ने उनको दरबार में हाजिर होने का हुक्म दिया । ग़ज़ाली ने अपने संकल्प का जिक्र करके दरबार न जाने की कोशिश की लेकिन अहंकारी संजर ने उनकी प्रार्थना नहीं मानी और उन्हें दरबार में हाजिर होना पड़ा । दरबार में उनका सम्मान हुआ फिर भी उन्होंने वह बात कही जिसका जिक्र पहले हो चुका है । उनसे बगदाद में अध्यापन का भी अनुरोध किया गया लेकिन उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया । राहुल जी ने उनकी लिखी किताबों की संख्या 78 अल्लामा शिब्ली नेअमानी के हवाले से बतायी है ।
इस्लामी दर्शन के विकास का अगला चरण स्पेन से शुरू
होता है । इस्लाम के स्पेन पहुंचने की राह बताते हुए राहुल जी कहते हैं कि अरब से
पूरब की ओर जब इस्लाम चला तो पश्चिम की ओर मिस्र में भी उसने दस्तक दी । वहां से
मोरक्को होते हुए इस्लाम स्पेन आ पहुंचा । ध्यान देने की बात है कि इस्लाम का
भौगोलिक विस्तार अब उसे यूरोप के मुहाने तक लेता गया था । राहुल जी के मुताबिक
स्पेन में इस्लाम की वही हालत हुई जो बगदाद में हुई थी । लिखा है कि ‘दोनों ही जगह
उसे एक पुरानी संस्कृत जाति के संपर्क में आने का मौका मिला ।’ बगदाद में वह ईरानी
सभ्यता के साथ जुड़ा तो स्पेन में रोमन सभ्यता के साथ उसका मेल हुआ । स्पेन के
मुस्लिम शासक पुस्तकों और दार्शनिकों के अनुरागी रहे । इनमें हकम द्वितीय के
पुस्तकालय में चार लाख किताबें होने की सूचना राहुल जी ने दी है । उनमें ‘दर्शन की
पुस्तकों का संग्रह बहुत जबर्दस्त था’ । स्पेन की इस विद्वत्ता में यहूदी
दार्शनिकों का भी योगदान था । राजधानी कार्दोवा में नाना देशों के विद्यार्थी
अध्ययन हेतु आते थे । स्पेन के इस्लामी दार्शनिकों में राहुल जी ने इब्न-बाजा, इब्न-तुफैल और इब्न-रोश्द का विस्तार से
जिक्र किया है । इन्हीं इब्न-रोश्द के दार्शनिक ग्रंथों के लातीनी अनुवादों के
माध्यम से यूरोप को यूनानी दर्शन का बोध हुआ । उनके ग्रंथों की संख्या भी ग़ज़ाली से होड़ लेती है । उसने सारी किताबें अरबी में लिखीं लेकिन राहुल जी के मुताबिक अब उनके
इब्रानी या लातीनी अनुवाद ही उपलब्ध हैं । उनकी दर्शन संबंधी पुस्तकों के तीन
प्रकार राहुल जी ने बताये हैं । एक, अरस्तू तथा कुछ अन्य यूनानी दार्शनिकों की
पुस्तकों की टीका । दूसरा, अरस्तू का पक्ष लेकर सीना और फ़ाराबी का खंडन । तीसरा,
दर्शन का पक्ष लेकर ग़ज़ाली का खंडन । उन्होंने जीवन भर अरस्तू की किताबों की टीकाएं
लिखीं । इन टीकाओं के भी राहुल जी ने तीन प्रकार बताये हैं । इनमें पहले प्रकार को
वे विस्तृत व्याख्या टीका कहते हैं जिसके तहत हर मूल शब्द को उद्धृत कर व्याख्या
की गयी है । दूसरे प्रकार को उन्होंने मध्यम व्याख्या कहा है जिसमें वाक्य के
प्रथम शब्द को उद्धृत कर व्याख्या की गयी है । तीसरे प्रकार में वाक्य को दिये
बिना ही भाव को समझाया गया है । अरस्तू को वे मनुष्य की बुद्धि का उच्चतम विकास
मानते थे इसलिए खुद कुछ भी कहने की जगह उनकी व्याख्या ही अपना मकसद बनाया । रोश्द
ने साहित्य, फ़िका और हदीस का अध्ययन करने के अतिरिक्त वैद्यक और दर्शन में भी गति
हासिल की थी । इस मामले में यूरोप इन इस्लामी दार्शनिकों का ॠणी है ।
ग़ज़ाली का रोश्द ने जो खंडन किया उसके संदर्भ की
सूचना देते हुए राहुल जी कहते हैं कि ग़ज़ाली ने करामात को धर्म की बुनियाद माना और
उसे सही साबित करने के लिए कार्य-कारण नियम को ही मानने से इनकार किया था । उत्तर
देते हुए रोश्द ने कहा कि जो कार्य-कारण को न माने ‘उसको यह मानने की भी जरूरत
नहीं कि हर एक कार्य किसी न किसी कर्त्ता से होता है ।---कुछ ऐसी चीजें भी हैं जिनके
कारण या सबब का पता नहीं लगता, इसलिए क्या एकदम कार्य-कारण नियम से ही इनकार कर
दिया जाये ।’ इसके उलट रोश्द का प्रस्ताव है कि ‘अनुभूत से अननुभूत की खोज करें, न
कि अननुभूत होने की वजह से जो अनुभूत है उससे भी इनकार कर दे ।’ कारणों से इनकार
करने का नतीजा होगा कि ‘सभी ज्ञात को काल्पनिक कहना पड़ेगा । इस तरह पक्का (सच्चा)
ज्ञान दुनिया में न रह जायेगा ।’ इससे एक और भी नुकसान बताते हुए रोश्द कहते हैं
कि फिर ईश्वर की कारीगरी और शिल्प झूठा हो जायेगा । राहुल जी यह भी कहते हैं कि ग़ज़ाली और रोश्द में एक
समानता है- दोनों ही बुद्धि और धर्म में समन्वय कराना चाहते हैं लेकिन इब्न रोश्द
धर्म को बुद्धि के मातहत समझता है और ग़ज़ाली बुद्धि को धर्म के मातहत मानता है । एक
और बात कि रोश्द ने संसार का अस्तित्व गति से माना । रोश्द का कहना था कि अपने
शरीर के अंदर के बदलावों के जरिए ही हम इस दुनिया का अंदाजा लगा पाते हैं । इसीलिए
स्वप्न की हालत में दुनिया का ख्याल ही हमारे दिल से निकल जाता है । इससे सिद्ध है
कि गति से ही इस संसार का अस्तित्व है ।
अरस्तू की तर्ज पर रोश्द ने जीव के तीन भेद बताये ।
पहला वानस्पतिक जीव जिसका काम प्रसव और वृद्धि है । दूसरा पाशविक जीव जिसमें इन
गुणों के अतिरिक्त पहिचान की भी शक्ति होती है । सबसे अंत में तीसरा प्रकार
मानुषिक जीव का है जिसमें इन सबके साथ बुद्धि, चिंतन या विचार की शक्ति भी होती है
। अपनी इस विशेष शक्ति के द्वारा ही मनुष्य इंद्रियों की दुनिया के परे ज्ञान-गम्य
दुनिया को जानने में समर्थ होता है । रोश्द ने ज्ञान की महिमा बहुत अधिक बखानी है
। उसका कहना है कि ज्ञान स्वयं अपनी वांछा है, उसको छोड़ किसी वांछा का अस्तित्व
नहीं । दिक्कत यह है कि मनुष्य भौतिक अस्तित्व है इसलिए उस तक पहुंचना मुश्किल
होता है । हां उसके भीतर ईश्वर की ज्योति जग रही है । वह अपने अपनत्व (मैंपन) को
मिटाकर उस ओर बढ़ने का प्रयास कर सकता है । ज्ञान की ओर यात्रा के इस आनंद का रोश्द
ने बहुत ही भावाविभोर होकर वर्णन किया है । उसकी शब्दावली से उसके सूफी होने का
भ्रम पैदा हो सकता है इसलिए राहुल जी ने स्पष्ट किया है कि रोश्द के अनुसार मनुष्य
में ज्ञान की योग्यता होती है और वह ‘इस योग्यता को उन्नत कर पदार्थों की
वास्तविकता के तह तक पहुँच जाता है’ । इसलिए उनके मुताबिक ‘दार्शनिकों का असली
मज़हब है विश्व के अस्तित्व का अध्ययन, क्योंकि ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ उपासना केवल
यही हो सकती है, कि उसकी सृष्टि- कारीगरी- का वास्तविक ज्ञान प्राप्त किया जाये ।’
इब्न रोश्द के बारे में राहुल जी ने यह भी सूचना दी
है कि ‘यद्यपि वर्षों वह क़ाज़ी (जज) रहा, किन्तु कभी किसी को मृत्यु-दंड नहीं दिया’
। राहुल जी बताते हैं कि रोश्द मूर्ख शासकों और धर्मान्ध मुल्लों के सख्त खिलाफ था
। मुल्लों को वह विचार-स्वातन्त्र्य का दुश्मन होने से मानवता का दुश्मन मानता था
। उसका मानना था कि समाज में रहना तथा अपनी शक्ति के अनुसार सारे समाज की भलाई के
लिए कुछ करना हर एक आदमी का फर्ज होना चाहिए । सदाचार नियम को वह बुद्धि की उपज
समझता था । राष्ट्र या समाज की भलाई उसके लिए सदाचार की कसौटी थी । सबसे बड़ी बात
कि धर्म के महत्त्व को भी वह सामाजिक उपयोगिता के ख्याल से स्वीकार करता था । बहुधा
ऐसा समझा जाता है कि इस्लाम में सदाचार का तत्त्व ही उसका दार्शनिक पक्ष है ।
सदाचार पर इस्लामी दार्शनिकों के जोर का यह पक्ष अक्सर अनदेखा रह जाता है । स्त्री
की स्वतंत्रता का भी वह प्रबल पक्षधर था ‘क्योंकि वह इसी में समाज का कल्याण समझता
था’ । इस प्रसंग में राहुल जी ने विस्तार से रोश्द की क्रांतिकारी मान्यताओं का
उल्लेख किया है जिनका सार यह है कि स्त्रियों को उनके पतियों की संपत्ति मान लेने
से देश की दरिद्रता बढ़ रही है । वे अपने श्रम से परिवार की समग्र सम्पत्ति को
बढ़ाने की जगह मर्दों पर भार होकर जिंदगी बसर करती हैं । वे अंत में कहते हैं कि
इन्हीं विचारों के कारण रोश्द यूरोपीय समाज में तूफान लाने तथा उसे नई दिशा की ओर
धक्का देने में सफल हुआ ।
राहुल जी ने स्पेन के इस्लामी दार्शनिकों में आखिरी
नाम ऐसे दार्शनिक का लिया है जिनके लेखन में दर्शन की धारणा ही बदल जाती है । इब्न
खल्दून नामक इस स्पेनी दार्शनिक के यहां इतिहास दर्शन का अधिक विचार किया गया है
जिसका अर्थ है कि दर्शन अब मनुष्यों के क्रियाकलाप में अंतर्निहित तर्क खोजने
की कोशिश में जुट गया है । राहुल जी के अनुसार‘खल्दून के मत से इतिहास को साइंस या दर्शन का एक भाग कहना चाहिए’। उसके मुताबिक इसका अर्थ है घटनाओं का संग्रह करना और उनमें कार्य-कारण संबंध को खोजना । इस काम को गंभीर आलोचनात्मक दृष्टि के साथ बिना किसी पक्षपात के करना इतिहासकार का कर्तव्य है । खल्दून के बारे में राहुल जी का कहना है
कि ‘सामाजिक जीवन- या समाज की सामूहिक, भौतिक और बौद्धिक संस्कृति- खल्दून के मत
से इतिहास का प्रतिपाद्य विषय है’ । उसने विभिन्न जातियों के उत्थान और पतन का एक
ढांचा भी प्रस्तुत किया जिसके मुताबिक प्रत्येक जाति
खानाबदोशी समाज, सैनिक राजवंश के अधीनस्थ समाज और नागरिक ढंग का समाज के चरणों से
होकर गुजरता है । इनकी व्याख्या करते हुए कहा कि मनुष्य तीन अवस्थाओं में रहा है-
खानाबदोश, पशुपालक और कृषिजीवी । इन अवस्थाओं में जीविका के लिए उसे युद्ध, लूट और
संघर्ष का सामना करना पड़ा । इसके कारण वे किसी राजवंश की अधीनता को स्वीकार करते
हैं । उस सैनिक नेता को राजधानी की जरूरत पड़ती है । नगरों में समृद्धि बढ़ती है
जिसके कारण विलासिता भी देखने में आती है । सभ्यता के आगे बढ़ने के साथ मनुष्य
दूसरे आदमियों से बिना कुछ दिये काम करवाने लगता है । अमीर लोग विलासिता के कारण
अधिक व्यय करते हैं । साथ ही स्वाभाविक जीवन जीने के कारण उनका शारीरिक और मानसिक
स्वास्थ्य गिरता जाता है । भीतर ही भीतर ऐसा समाज खोखला हो जाता है । तभी कोई
प्रबल खानाबदोश जाति उन पर आक्रमण करती है । नया शासन कायम होता है और विजयी जाति
पुरानी सभ्यता की भौतिक तथा बौद्धिक सम्पत्ति को अपनाती है । इतिहास में यह प्रक्रिया
बार बार दुहराई जाती है । खल्दून की विशेषता राहुल जी ने बतायी कि उसने इतिहास की
व्याख्या ईश्वर या प्राकृतिक उपद्रवों के आधार पर न करके उसकी आन्तरिक भौतिक
सामग्री से करने का प्रयत्न किया । इसके लिए वह जाति, जलवायु, आहार-उत्पादन आदि
सभी स्थितियों पर बारीकी से विचार करता है ।
दर्शन में इस्लाम के इस स्वर्णिम अध्याय का समापन
राहुल जी इस तथ्य के उल्लेख के साथ करते हैं कि यूरोप के विश्वविद्यालय इस्लाम की
बौद्धिक चुनौती का सामना करने में सक्षम ईसाई पादरियों की शिक्षा के लिए खोले गये
थे । उन्होंने इस तथ्य का भी जिक्र किया है कि ये आरम्भिक पश्चिमी विश्वविद्यालय
इस्लामी, खासकर रोश्द के दर्शन की पक्षधरता और विरोध के खेमों में विभाजित थे ।
मसलन पश्चिमी यूरोप में इस्लामिक दर्शन का प्रचार केन्द्र पेरिस था तो सोरबोन
विश्वविद्यालय रोश्द विरोधियों का गढ़ था । यहां तक कि रोश्द के विरोध के लिए
रेमोंद लिली नामक व्यक्ति के विचार बताते हुए राहुल जी कहते हैं कि उसके अनुसार ‘इस्लाम
को खतम करने के लिए एक भारी सेना तैयार की जाये, इस्लामी देशों में काम करने लायक
विद्वानों को तैयार करने के लिए विश्वविद्यालय कायम किये जायें, और रोश्द की
पुस्तकों को धर्म-विरोधी घोषित कर दिया जाये’ । इस तरह के उपायों से किसी भी समाज
में विचारों का प्रसार रोकना सम्भव नहीं होता और यूरोप के प्रसंग में भी यही हुआ ।
इटली के सिसिली द्वीप और स्पेन के रास्ते इस्लामी दर्शन यूरोप में पहुंचा । इटली
के पदुआ विश्वविद्यालय की ख्याति रोश्द के दर्शन के अध्ययन के लिए सदियों तक कायम
रही । रोश्द की पुस्तकों के नये लातीनी अनुवाद भी पदुआ के प्रोफ़ेसरों ने किये । पश्चिमी
सभ्यता और चिंतन के विकास में इस्लाम का यह योगदान अविस्मरणीय है ।
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