Friday, June 28, 2024

विभाजन की औपन्यासिक दास्तान

 

          

                                      

भारत का विभाजन मानव जाति की कुछेक भयावह त्रासदियों में से है । इसके बारे में अब भी सोच विचार चलता है । ऐतिहासिक और सामाजिक शोधपरक लेखन के अतिरिक्त साहित्य में भी इसकी मौजूदगी रही है । हिंदी साहित्य में इस मसले पर सबसे जोरदार लेखन यशपाल का उपन्यास ‘झूठा सच’ है । इस दीर्घकाय उपन्यास को दो हिस्सों में बांटा गया है । पहला हिस्सा ‘वतन और देश’ है तो दूसरा हिस्सा ‘देश का भविष्य’ है । ये क्रमश: 1958 और 1960 में विप्लव कार्यालय द्वारा छपे थे । पुस्तकाकार प्रकाशन से पहले इसे ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में धारावाहिक रूप से 1956 में ही छापना शुरू कर दिया गया था । इसका अंग्रेजी अनुवाद करनेवाले उनके पुत्र आनंद यशपाल ने इसके लेखन की पृष्ठभूमि की सूचना फोन पर देते हुए बताया कि 1955 में वे जब लाहौर गये तो उनकी यादें जागीं और इसे लिखने का निश्चय किया । पत्रिका में ही इसके पहला भाग होने की सूचना थी तो पाठकों की जबर्दस्त उत्सुकता ने दूसरा भाग भी लिखवा लिया । वह भी पहले पत्रिका में छपा और फिर पुस्तकाकार हुआ ।     

इस उपन्यास का शीर्षक ही साहित्य के शास्त्र की बुनियाद रख देता है । साहित्य के झूठे होने से उसके सच होने का रिश्ता ही उसकी रचनात्मकता की बुनियाद है ।  लेखक अपने पाठकों के सामने झूठ परोसता है इस झूठ को बनाने में उसे बहुत मेहनत करनी पड़ती है अक्सर यह झूठ सच से अधिक विश्वसनीय सिद्ध होता है राजनीतिक यथार्थ के साथ कथा साहित्य की तुलना करते हुए आचार्य शुक्ल ने साहित्य को तत्कालीन मानव समाज की मनोदशा का अधिक प्रामाणिक चित्र प्रस्तुत करने वाला बताया है इस कसौटी पर यशपाल के इस उपन्यास की परीक्षा आज और भी अधिक आवश्यक हो गयी है विगत दस सालों में हमने विभाजन के समय जैसा ही वातावरण बनते हुए देखा उपन्यास का समर्पण भी उसे पूरी तरह समकालीन बना देता है जिसमें लेखक ने जन समुदाय को सौंपते हुए कहा कि वह ‘सदा झूठ से ठगा जाकर भी सच के लिए अपनी निष्ठा और उसकी ओर बढ़ने का साहस नहीं छोड़ता ।’ इसलिए भी ताजा अनुभव की रोशनी में इसका सघन पाठ जरूरी है शीर्षक में वतन और देश का द्वंद्व जिस तरह शुरू में ही प्रस्तुत कर दिया गया है उससे दक्षिण एशिया में राष्ट्र राज्य के निर्माण और नागरिकता के साथ जुड़ी विडम्बना कुछ अधिक ही साफ तौर पर प्रत्यक्ष हो जाती है । इसका वतन तो लाहौर है लेकिन देश भारत है । इसके पात्र लाहौर से विभाजन में उखड़कर पंजाब के जालंधर और राजधानी दिल्ली में आ जाते हैं । इस तरह जिनका वतन लाहौर था उन्हें देश के बतौर भारत मिलता है ।

वतन से उखड़कर देश में आने का चित्रण इतना भयावह है कि उस दृश्य की कल्पना ही की जा सकती है जब बस में भरकर भारत पहुंचने वाली ‘तारा आंखें मूंदे, एक हाथ से नाक दबाये, दूसरे हाथ से मक्खियों को चेहरे पर न बैठने देने के लिए हिलाती जा रही थी ।---उसका मस्तिष्क जन्म के देश को छोड़कर दूसरे देश में प्रवेश करने की सिहरन से थर्रा रहा था ।’ उपन्यास के पहले खंड की समाप्ति देश ले आने वाले बस के ड्राइवर के इस अद्भुत कथन से होती है ‘वह काफिला भी वतन छोड़कर अपने देश को जा रहा है । मनुखों के देश धर्मों के देश बन गये---रब्ब ने जिन्हें एक बनाया था, रब्ब के बन्दों ने अपने वहम और जुल्म से उन्हें दो कर दिया ।’

वतन से उखड़कर जहां आये उसी नये देश को गढ़ने की कोशिश वे लोग करते हैं जिन्हें यह उपन्यास समर्पित है उनकी जिजीविषा का ही सबूत है कि भारत आने के कुछ ही समय बाद उन्होंने खुद को शरणार्थी कहलाने की जगह पुरुषार्थी कहलाना शुरू कर दिया । विभाजन के कुछ ही महीने बाद जब पाकिस्तान से आये लोगों की शादी का एक समारोह होता है तो लेखक ने खुद अचरज व्यक्त किया है कि इनके कुछ ही समय पहले की तकलीफ का कोई अनुमान नहीं लगा सकता । उनके नये देश में धीरे धीरे भ्रष्टाचार का घुन लगना शुरू होता है । नये देश के शासन को काबू करने की उनकी कोशिश का एक पहलू चुनाव भी हैं । चुनावों में उनके हस्तक्षेप  के बारे में उपन्यास के अंत में एक पात्र की टिप्पणी बेहद महत्वपूर्ण है वे कहते हैं किजनता निर्जीव नहीं है देश का भविष्य नेताओं और मंत्रियों की मुट्ठी में नहीं है, देश की जनता के ही हाथ में है यह टिप्पणी पहले आम चुनाव में एक भ्रष्ट नेता के हारने पर की गयी है इस उपन्यास की प्रासंगिकता के पक्ष में इस टिप्पणी से अधिक बड़ा सबूत और क्या हो सकता है                          

इसी उपन्यास से हमें उपन्यासों की उस धारा की शुरुआत मानना होगा जिनमें इतिहास को उपन्यास का विषय बनाया जाता है । इस धारा में हम गिरिराज किशोर के ‘पहला गिरमिटिया’ को रख सकते हैं । तस्लीमा की ‘लज्जा’ को भी इसके भीतर रखना चाहिए । उपन्यास के लक्षण निर्धारित करने वाले विद्वज्जन इन उपन्यासों को अपनी कसौटी पर खरा नहीं पाते । असल में किसी भी विधा को प्रासंगिक रहने के लिए लगातार बदलाव करने होते हैं । उपन्यास में इस तरह के लचीलेपन की गुंजाइश बहुतों ने पहचानी है । वैसे भी उसका गहरा रिश्ता साहित्य में यथार्थवाद से रहा है । सामाजिक यथार्थ को कथा में लाने के लिए उसने तमाम रूपगत बदलाव किये हैं । यथार्थ की प्रस्तुति और उपन्यास की रूपगत संरचना के बीच तनाव हमेशा से रहा है । यशपाल ने अपने इस उपन्यास में विधा की सरहदों को लगभग पार कर लिया है । शायद इसी कारण शुरू में ही सफाई दी गयी है कि ‘उपन्यास के वातावरण को ऐतिहासिक यथार्थ का रूप देने और विश्वसनीय बना सकने के लिए कुछ ऐतिहासिक व्यक्तियों के नाम ही आ गये हैं परन्तु उपन्यास में वे ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं, उपन्यास के पात्र हैं ।’ यह सफाई ही उपर्युक्त तनाव का सबूत है ।     

हिंदी के आधुनिक कथाकारों में यशपाल को उनके स्त्री संबंधी चित्रण को लेकर बहुत कुछ कहा गया है । उन पर आरोप की तरह यह बात बहुधा कही जाती है कि इस चित्रण में स्त्री की यौनेच्छा की अभिव्यक्ति उनके लेखन के केंद्र में है । इस उपन्यास में भी शुरू में ही स्त्री की यौनेच्छा की अकुंठ अभिव्यक्ति मिलेगी । स्त्री के केंद्र में होने से विभाजन का एक और भी उपेक्षित पहलू खुलता है । विभाजन संबंधी लेखन में इस पहलू को कई बार ओझल कर दिया जाता है । पारिवारिक जीवन भी किसी आदर्श स्वरूप में होने की जगह शुरू से अपनी समूची जटिलता के साथ उपस्थित होता है । जीवन के सामान्य खटराग से उपन्यास की शुरुआत होती है और धीरे धीरे साम्प्रदायिक विभाजन की उपस्थिति रेंगते हुए कथानक में प्रवेश करती है ।

विभाजन की इस व्यापक कथा के साथ ही रिश्तों के टूटने की कहानी भी यशपाल ने बेहद कुशलता के साथ गूंथ दी है । रिश्तों की इस टूटन की मार्फत ही स्त्री के सामाजिक संसार का प्रवेश उपन्यास में होता है ।     लाहौर शहर की एक गली पन्यास की कथा के केंद्र में है गली का नाम भोलाराम पांधे की गली है गली बेहद संकरी है लोगों को एक दूसरे के घरों की बातें सुनायी देती हैं विभाजन से पहले के माहौल को लघुतर स्तर पर प्रतिबिम्बित करने की जगह यह गली बन जाती है इस गली के तमाम पात्रों का सामाजिक जीवन तत्कालीन वातावरण का आइना बन जाता है इस गली के युवा शिक्षण संस्थानों में जाते हैं तो उनके साथ तत्कालीन विद्यार्थी राजनीति भी उपन्यास में चली आती है । हमारे सामने विभाजन के आसपास निर्मित हो रहे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का मजबूती से विरोध करनेवाले नौजवानों का समुदाय उभरता है जिनके समस्त प्रयास भी विभाजन को रोक नहीं पाते । युवकों की इन कोशिशों का साथ मजदूर संगठन और कम्युनिस्ट पार्टी भी देते हैं । विभाजन के बाद भी गली के बाशिंदों के साथ साथ गली की यात्रा स्वतंत्र भारत में भी जारी रहती है लेकिन पात्रों की उम्र के साथ उनका परिपक्व जीवन प्रकट होता है । स्वाभाविक तौर पर दूसरे खंड की कथा में उनकी मासूमियत की जगह निजी और राजनीतिक व्यावहारिकता ले लेती है ।    

नवउदारवाद की आंधी ने देश के अधिकांश शहरों का रूपरंग जिस तरह बिगाड़ दिया उससे पहले सभी शहर लगभग लाहौर की तरह ही थे शहरों की उन गलियों में रहने वालों के आपसी रिश्तों नातों के बीच ही युवा स्त्री-पुरुषों की नयी पीढ़ी का मानसिक विकास होता था । इस गली के रहने वाले जयदेव पुरी, उसकी बहन तारा और उसकी प्रेमिका कनक के आसपास समूचा उपन्यास घूमता है । ठीक ठीक कहें तो समूचा उपन्यास तारा की कहानी है कालेज में उसके उच्चतर शिक्षा हासिल करने की उसकी जिद का टकराव उसका विवाह जल्दी कर देने की हड़बड़ी से होता है कालेज में प्रवेश की तैयारी के क्रम में ही उसका परिचय वाम विद्यार्थियों की टोली से होता है इस तारा का प्रेमी असद नामक एक नौजवान है जिससे उसका साथ विभाजन के तुरंत बाद छूट जाता है । बहरहाल तारा की जिद का साथ उसका भाई जयदेव नहीं देता और इसलिए उसकी शादी एक कम पढ़े लिखे युवक से करा दी जाती है युवक को तारा के विरोध का पता था इसलिए उसकी पहली रात पति द्वारा प्रतिशोधात्मक हिंसा को समर्पित हो जाती है संयोग से उसी रात ससुराल पर दंगाई हमला करते हैं और आग लगा देते हैं तारा छत से गली में कूद जाती है और उसकी यह छलांग उसे शोषण और उत्पीड़न के भयावह दु:स्वप्न की ओर ले जाता है । तारा की यह लांग बहुत लम्बी साबित होती है और एक से दूसरे हाथ होते हुए आखिरकार वह भारत ले आयी जाती है । तारा की इस भयावह यात्रा का रूपक लेखक ने समुद्र में डूब जाने और फिर बाहर उतरा आने से दिया है । बीच में वह जिस घर में कैद है उसका वर्णन भी दिल दहला देने वाला है । उसमें दसियों स्त्रियों को निर्वस्त्र कैद रखा गया है । आंगन के हैंडपंप से खुले में शौच और स्नान तथा भोजन हेतु केवल गिनी चुनी रोटियां मिलने के दृश्य सामान्य और स्थिर मध्यवर्गीय जीवन जीने वाले पाठक को हालात की अस्थिरता के बारे में कुछ अधिक ही क्रूर तरीके से झिंझोड़कर सचेत करते हैं । उस घर से तारा की मुक्ति के लिए जो सिपाही जाते हैं उनमें ही उसका प्रेमी असद भी है । इस संयोग का कोई भी सकारात्मक नतीजा नहीं निकलता और तारा शरणार्थी होकर भारत आ जाती है । उसके बारे में सभी यही जानते हैं कि ससुराल में आग लगने से वह भी जलकर मर गयी । भारत आने पर उसके पढ़े लिखे होने से कैम्प में उसे इसी तरह का काम मिलता है । फिर अनेक संयोगों से गुजरते हुए उसे शरणार्थियों के पुनर्वास के महकमे में सरकारी नौकरी मिल जाती है । तारा का यह आर्थिक स्वावलंबन उसके तथा भोलापांधे की गली के अन्य परिचितों के लिए नयी राह खोजने का जरिया बन जाता है । शीलो के अतिरिक्त वह अपनी भाभी कनक की भी मदद करती है । खुद उसका विवाह उसके पूर्व अध्यापक और फिलहाल योजना मंत्रालय के सलाहकार प्राणनाथ से हो जाता है ।     

उसका भाई जयदेव एक दूसरी ही नियति का शिकार होता है । उसकी प्रेमिका कनक के परिवारी जयदेव की आर्थिक हैसियत के कारण उससे कनक का रिश्ता नहीं चाहते । जयदेव के पिता स्कूल के साधारण मास्टर थे । जयदेव अपना खर्च चलाने के लिए एक अखबार में नौकरी करता है और धर्म के आधार पर समाज में बढ़ते विभाजन का विरोध करते हुए टिप्पणी लिखता रहता है । इन टिप्पणियों के कारण अखबार से उसकी नौकरी छूट जाती है । नौकरी छूट जाने के बाद एक तो वह विभाजन विरोधी कार्यकर्ताओं के सम्मान का अधिकारी हो जाता है और दूसरे निजी आमदनी के लिए प्रकाशकों को दूसरों के नाम से किताब छपने की सामग्री तैयार करने की कोशिश में जुट जाता है । विभाजन के विरोधियों में वह कम्युनिस्टों के साथ नहीं है और इसीलिए असद के साथ अपनी बहन को देख नहीं सकता । उसकी किताब को छापने का वादा जिस प्रकाशक ने किया था उसकी हत्या दंगे में हो जाती है । उसके बुरे हालात के बावजूद कनक का उसके प्रति समर्पण बना रहता है । ऐसी हालत में कनक को उससे दूर रखने के लिए उसके जीजा उसे लेकर नैनीताल चले जाते हैं । कनक का स्वभाव जिद्दी है इसलिए वह जयदेव को नैनीताल बुला लेती है । वहीं उसकी मुलाकात लखनऊ के कुछ नेताओं से होती है जिनके कारण उसे सरकारी नौकरी मिलने की आशा बंध जाती है । इधर जयदेव उन नेताओं से मिलने जब लखनऊ जाता है तो उसे भीषण उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है । विभाजन के बाद लाहौर जाने की कोशिश में वह भी शरणार्थी होकर जालंधर पहुंच जाता है । संयोग से जालंधर में उसकी मुलाकात स्थानीय कांग्रेसी नेता सूद से होती है और वह उनका दाहिना हाथ बन जाता है । जालंधर से पाकिस्तान गये एक प्रेस मालिक ने अपनी चाभी सूद साहब को पकड़ायी थी । पाकिस्तान से आ रहे शरणार्थी जब उस जगह पर कब्जा करना चाहते हैं तो सूद प्रेस का संचालन शुरू कर देते हैं और उसकी जिम्मेदारी जयदेव को देते हैं । जयदेव को शरणार्थियों में एक पूर्व परिचित परिवार मिलता है जिसे वह प्रेस में ठहरा लेता है । इस परिवार की एक लड़की उर्मिला से पहले भी जयदेव का कुछ अनुराग था । समय पाकर वह परिपक्व होता है और दोनों साथ रहने भी लगते हैं । इधर कनक अपने परिवार से मिलने के चक्कर में दिल्ली आ गयी थी जहां गिल नामक एक पत्रकार के जरिये उसे जयदेव के इस नये ठिकाने का पता चलता है । बिना कोई सूचना दिये कनक जालंधर पहुंचती है तो जयदेव के साथ रहती उर्मिला को देखती है । जयदेव झूठ बोलकर कनक के साथ वैवाहिक जीवन बिताने लगता है । प्रेस से नाजिर नामक अखबार निकलना शुरू होता है तो गिल भी चला आता है । कनक भी उस अखबार के लिए लिखने में व्यस्त रहने लगती है । सूद की कृपा से जयदेव भी चुनाव जीतता है । कनक के साथ उसका वैवाहिक जीवन एक पुत्री के जन्म के बाद से ही गड़बड़ाने लगता है । ऊबकर वह पिता के पास दिल्ली चली आती है और जयदेव से कानूनी मुक्ति पाकर गिल से विवाह कर लेती है । इन्हीं सूद के चुनाव में हारने से उपन्यास में जनता की ताकत की सिद्धि बतायी गयी है ।                        

उपन्यास की समूची संरचना को ध्यान से देखें तो विभाजन से पहले की कहानियों की विभाजन के बाद अलग अलग परिणतियों के सहारे विभाजन जैसी व्यापक परिघटना के निजी असरात की संश्लिष्ट तस्वीर उभरती है । इन परिणतियों में खास बात स्त्रियों की चाहत की मुक्त अभिव्यक्ति और उसको मिली व्यापक सामाजिक मान्यता है । एकदम शुरू में ही तारा की एक सहेली शीलो का परिचय पाठकों से होता है जो स्त्री की यौन स्वतंत्रता का ऐसा साहसिक मानक प्रस्तुत करती है जिसकी कल्पना आज भी असम्भव है । उसका विवाह हो चुका है लेकिन विवाह पूर्व प्रेमी से मिलने मायके अक्सर चली आती है । यहां तक कि अपनी दोस्तों के बीच अपनी संतान का पिता इस प्रेमी को स्वीकार भी करती है । उपन्यास के अंत में भारत आकर वह अपने इसी प्रेमी के पास आखिरकार चली आती है । इस काम में उसकी मदद तारा ही करती है ।       

उपन्यास की एक और विशेषता संकट के समय जीवन की आपाधापी का चित्रण है । संकट के वर्तमान दौर में उसकी कथा बहुत समकालीन प्रतीत होती है । संकट की अभिव्यक्ति पर्यावरणिक संकट से बेहतर नहीं हो सकती । जो गली इस कथा के केंद्र में है उसके उजड़ने की वजह साम्प्रदायिक माहौल का उसके भीतर प्रवेश ऐसे ही था जैसे बाढ़ का पानी अचानक बस्ती में घुस आया हो । इस किस्म की शब्दावली का व्यवहार लेखक ने ही एकाधिक प्रसंगों में किया है । इस पहलू पर ध्यान देते ही यह उपन्यास हमें विध्वंस को समझने का नया नजरिया देने लगता है । विध्वंस के लिए लेखक ने उजाड़-पुजाड़ की शब्दावली का इस्तेमाल किया है । उन्होंने विभाजन को भूकम्प की संज्ञा भी दी है । इस तरह के अनपेक्षित उथल पुथल का उतने बड़े पैमाने पर इस उप महाद्वीप को पहले कभी अनुभव नहीं हुआ था । इसने अचानक लोगों की जिंदगी को पूरी तरह उलट पुलट दिया था । इस हाहाकारी बदलाव ने भारत आये शरणार्थी समुदाय का जीवन बुनियादी तौर पर बदल दिया था ।   

ऊपर जिन शहरों का जिक्र हुआ है उनसे स्पष्ट है कि इस उपन्यास की कथाभूमि शहर हैं । शहर होने की वजह से शिक्षा केंद्र, विद्यार्थी और छापाखाने तथा अखबार हैं । पंजाब की पढ़ाई लिखाई की दुनिया में भाषा के बतौर पंजाबी, उर्दू और हिंदी के हालात भी रोचक रस्साकशी के शिकार होते रहे हैं । इसके साथ ही भारत के पंजाब में सिख समुदाय की मौजूदगी और हैसियत में उलटफेर की राजनीति चलती रहती है । लोकतांत्रिक राजनीतिक ढांचे में यह सामुदायिक होड़ पैदा होती है और उसका खेल भी उपन्यास की कथा की एक सतह बना रहता है । यह होड़ विभाजन से पहले भी हमारे सामने लाहौर के निवासियों की इस उलझन के रूप में सामने आता है कि लाहौर में हिंदुओं की तादाद कम होने के बावजूद संपत्ति में उनका हिस्सा अधिक है तो विभाजन में वह हिस्सा पाकिस्तान में कैसे जा सकता है । विभाजन के बाद भारत के पंजाब में मुसलमानों की अनुपस्थिति की हालत में सिख और हिंदू आबादी के बीच की तनातनी भी उपन्यास के जरिये व्यक्त हुई है । भाषा इस तनातनी का माध्यम बन जाती है । विभाजन के बाद का राजनीतिक नाटक नये देश की राजधानी दिल्ली में भी खेला जाता है । दिल्ली से मुसलमान समुदाय का विस्थापन और उनकी संपत्ति पर जबरन कब्जे तथा आजादी के आंदोलन के अगुआ गांधी के रुख से हिन्दू सांप्रदायिक माहौल की निर्मिति तथा उस जहरीले माहौल में स्थिरचित्त होकर नव स्वाधीन देश में इस समस्या के समाधान के राजनीतिक और प्रशासनिक कदम भी इस उपन्यास को थोड़ा ऐतिहासिक रंगत प्रदान करते हैं । लाहौर से उखड़कर भारत आये पंजाबियों के भीतर से प्रतिशोध की भावना निकालने में गांधी की हत्या प्रमुख भूमिका निभाती दिखायी देती है ।                                       

यहीं उपन्यास की कुछ कमजोरियों पर भी बात करना अनुचित नहीं होगा । एक समस्या तो विभाजन संबंधी लगभग समस्त हिंदी लेखन में नजर आती है । विभाजन को संयुक्त परिवार के बंटवारे की तरह देखा जाता है जिसकी जिम्मेदारी आम तौर पर छोटे भाई पर डाल दी जाती है । इसी तरह देश के विभाजन का दोष भी बहुत कुछ मुस्लिम सांप्रदायिकता पर थोप दिया जाता है । इसके समर्थन में कहा जा सकता है कि लेखक का जाना बूझा समाज उसकी रचना को प्रभावित करता है और उसका पाठक भी इसी अनुभव की सीमा से प्रभावित होता है । इस अनगढ़ समाजशास्त्रीय तर्क के बावजूद इसे समस्या के रूप में ही स्वीकार किया जाना चाहिए क्योंकि साहित्य का धर्म पाठक की संवेदना का विस्तार करना होता है । हालांकि यशपाल ने अपनी इस रचना में स्त्री को केंद्र में रखकर संतुलन बनाने का प्रयास किया है लेकिन इसके बावजूद यह समस्या इस उपन्यास के साथ भी बनी हुई है । जिस दूसरी समस्या का जिक्र जरूरी है वह हिंदी सिनेमा की तरह भलाई की जीत के साथ कथा के अंत का दबाव है । तारा और कनक की निजी परेशानियों का जिस तरह उपन्यास के अंत में सफल समाधान होता है वह कहीं न कहीं समस्या की वास्तविकता की उपेक्षा की ओर ले जाता है ।

इन समस्याओं के बावजूद उपन्यास में यशपाल कुछ अविस्मरणीय पात्रों की रचना करने में समर्थ हुए हैं । इस क्षमता का सर्वोत्तम उदाहरण बंती नामक एक स्त्री पात्र है जिसे उसके घरवाले पहचानने से इनकार कर देते हैं क्योंकि उसका बलात्कार हुआ और कुछ समय के लिए वह अन्य धर्म के मानने वालों के पास रही । पागलों की तरह वह अपने घरवालों का पता लगाती रही और मिलने पर अपने बच्चों से पागल की तरह लिपट जाती है । इसी वजह से जब उसको अपनाने से इनकार किया जाता है तो वह घर की चौखट पर माथा पटककर जान दे देती है । गली के लोग उसके घरवालों के व्यवहार का विरोध करते हुए बहुत ही रचनात्मक कहावत का इस्तेमाल करते हैं । इस उपन्यास की एक खूबी ऐसी कहावतों का जबर्दस्त इस्तेमाल भी है । जयदेव और कनक के बीच संबंधों के बिखराव के वर्णन में जयदेव के उर्मिला के साथ रहे रिश्ते के उल्लेख के बावजूद यशपाल पति पत्नी के बीच के तनाव का बहुत ही सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक चित्रण करने में कामयाब हुए हैं । इसका समाधान तलाक और कनक के फिर से विवाह करने में निकलता है ।          

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