हाल में ही चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी
स्थापना की शतवार्षिकी मनायी । उस अवसर पर तो खासकर लेकिन विगत कई सालों से वैसे
भी चीन के बारे में पूरी दुनिया में गम्भीरता के साथ बहस चल रही है । मशहूर लेखक
पंकज मिश्र ने बारम्बार इस बात को कहा कि चीन का पड़ोसी होने के बावजूद भारत में
उसके बारे में सबसे कम लिखा पढ़ा जाता है । भारत की जनता के साथ बौद्धिकों में भी
1962 की लड़ाई से बाहर निकलकर नया सोचने की पहल नहीं देखी जाती । इसके बरक्स दुनिया
के ढेर सारे छोटे देशों में भी चीन के बारे में गम्भीर लेखन प्रचुरता से उपलब्ध है
। हमारे देश में उसके समर्थन और विरोध में जो भी तर्क दिये जाते हैं उनमें तथ्यों
से अधिक वैचारिक आग्रह का योगदान होता है । विरोध के लिए उसका कम्युनिस्ट होना ही
पर्याप्त होता है । ऐसे लोगों के लिए तमाम किस्म का मसाला पश्चिमी संचार माध्यम
मुहैया कराते रहते हैं । लेकिन ऐसा नहीं कि समर्थन भी सभी कम्युनिस्ट करते हों ।
उनका एक हिस्सा माओ के बाद के चीन को पूंजीवादी मानता है । कुछ अन्य लोग इसकी अवधि
को वैश्वीकरण के साथ जोड़ देते हैं । तिब्बत और उइगुर के सवाल पर समर्थक भी
शर्मिंदा महसूस करते हैं ।
कुल मिलाकर चीन एक गुत्थी है । वैश्वीकरण की
प्रक्रिया का दुनिया भर के वामपंथियों ने विरोध किया । लैटिन अमेरिकी देशों में
वाम ताकतों ने सकारात्मक विरोध रचते हुए विश्व आर्थिक मंच के समानांतर विश्व
सामाजिक मंच की अनूठी पहल की । इन सब कार्यवाहियों के मुकाबले चीन ने वैश्वीकरण की
समूची प्रक्रिया का लाभ उठाया । उसने इसके लिए खुद को तैयार किया था । इस
प्रक्रिया में खुद उसके समाजार्थिक जीवन में तमाम विकृतियों का प्रवेश हुआ । तिएन
आन मेन जैसे कुछेक विस्फोटक उभारों को यदि छोड़ दें तो भी देहातों से विस्थापन,
नगरों में मजदूरों के प्रतिरोध की खबरें समय समय पर सुनायी देती रहीं । स्त्री
पुरुष अनुपात भी एक संतान नीति के दौरान असतुलित हुआ था । इस समय चीन की चर्चा
अमेरिका के साथ होड़ के प्रसंग में अक्सर सुनायी देती है । शुरू से ही उसने अपने
लिए भिन्न रास्ता चुनते हुए उसे चीनी विशेषताओं के साथ जोड़ा । इस पुस्तक सूची से
समस्या और समाधान के स्तर पर बहुआयामिता की झलक मिलती है ।
प्रयास किया गया है कि वैचारिक पूर्वाग्रहों के
मुकाबले समस्याओं को देखने में मदद मिले । शासन में कम्युनिस्ट पार्टी के होने की
वजह से उसका जिक्र अवश्यम्भावी था । उसका दावा समाजवादी निर्माण का है इसलिए
प्रसंगवश उसे भी देखना जरूरी लगा । चीनी क्रांति के नेता माओ और उनके द्वारा शुरू
की गयी सांस्कृतिक क्रांति तथा उसके बाद सुधार के दौर चीन के इतिहास में आये बदलावों
के विभिन्न चरण हैं । आज के चीन को जानने के लिए इन प्रसंगों को भी समझना जरूरी है
। फिलहाल चीन सड़क और यातायात की एक विशाल परियोजना के कारण दुनिया भर में चर्चा का
विषय बना हुआ है । इसे बहुतेरे लोग उसके विस्तारवाद का सबूत मानते हैं जबकि अन्य
लोग चीन को वर्तमान साम्राज्यवादी वैश्वीकरण का विकल्प बनाने में व्यस्त बताते हैं
। धारणाओं के इस टकराव की झलक भी इस सूची से मिलेगी ।
1995 में प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी प्रेस से यान सुन की किताब ‘द चाइनीज रीअसेसमेन्ट आफ़ सोशलिज्म, 1976-1992’ का प्रकाशन हुआ । चीन में रहते हुए
लेखिका के बारे में समझा जाता था कि उनको राजनीति की कक्षाओं में कोई रुचि नहीं है
। दुनिया के मामलात के विश्लेषण के लिए मार्क्सवादी विश्लेषण सीखने की सलाह भी दी
जाती थी । उन्हें 1984 में एक बार विचित्र बहस का पता चला । कुछ विद्यार्थियों ने
कहा कि मार्क्स के मुताबिक हमारे देखने पर चांद का अस्तित्व निर्भर नहीं है लेकिन
इसके विपरीत उन विद्यार्थियों के अनुसार हमें उसके होने का पता तभी चलता है जब हम
उसे देखते हैं । विद्यार्थियों के इस कथन का प्रतिवाद हो रहा था । लेखिका को इस
विवाद की गम्भीरता का मतलब समझ नहीं आया । एक और अभियान आध्यात्मिक प्रदूषण के
विरोध में भी चला । इसकी जरूरत भी लेखिका को समझ नहीं आयी । लेकिन 1986 में जब एक
राजनीतिक अभियान चला तो जान्स हापकिंस विश्वविद्यालय में अध्ययन करते हुए भी वे
उससे निरपेक्ष न रह सकीं । इस बार यह अभियान बुर्जुआ उदारता के विरोध में चलाया जा
रहा था । विदेशों में लोग इस तरह के अभियानों का महत्व नहीं समझते और चीन पर अतीत
से न सीखने का आरोप लगाते हैं । इसी तरह की नादानी को साफ करने के लिए लेखिका ने
यह किताब लिखने का फैसला किया । इसमें माओ के बाद समाजवाद के बारे में चीनी लोगों
के विश्लेषण को प्रस्तुत किया गया है । यह विश्लेषण विविधतापूर्ण और पर्याप्त
जटिलता लिये हुए है । किताब में समाजवादी विचार और समाजवादी व्यवस्था, समाजवाद और
उसमें सुधार, आधिकारिक और अनौपचारिक विश्लेषणों में अंत:क्रिया तथा इन विश्लेषणों
की गतिकी और राजनीति पर ध्यान केंद्रित किया गया है । इस काम में माओ के बाद उभरने
वाली बहसों की विविधता और काफी संख्या में प्रकाशित होने वाली तमाम विचारों की
पत्रिकाओं से भरपूर मदद मिली है । आम समझ के विपरीत सबसे मशहूर प्रकाशनों में भी उनके
सरकारी होने के बावजूद एक ही तरह के विचार नहीं छपते । विरोधी विचारों को भी उनमें
जगह दी जाती रही है । इस काम की शुरुआत 1989 में हुई जब एक के बाद एक समाजवादी देश धराशायी हो रहे
थे । चीन की सापेक्षिक स्थिरता का रहस्य इस किताब में प्रस्तुत विश्लेषण से खुलता है
।
2005 में रौमान & लिटिलफ़ील्ड से आरिफ़ दिर्लिक की
किताब ‘मार्क्सिज्म इन द चाइनीज रेवोल्यूशन’ का प्रकाशन हुआ । तीस सालों में
प्रकाशित लेखों को इस किताब में एकत्र कर दिया गया है । इनका प्रकाशन सारी दुनिया
में होता रहा था । पहला लेख 1974 में छपा था और आखिरी बस पिछले साल । बहुत सारे
लोगों ने उन सबको नहीं देखा होगा इसलिए उन सबको इसमें एक जगह कर दिया गया है ।
इनके छापने का एक कारण तो यह है कि भूलने की आदत व्याप्त हो गयी है । इस बीमारी की
शिकायत इतिहासकार बहुत करते हैं लेकिन वे खुद ही इसके शिकार होते हैं । बहुधा बीस
पचीस साल पहले की बात को भी सुदूर अतीत समझा जाने लगता है । चीन के तो सिलसिले में
यह विस्मरण अस्सी के बाद बुरी तरह से फैल गया है । वहां पूंजीवाद के प्रवेश करते
ही उसका पूरा क्रांतिकारी अतीत भुला दिया गया है । जो लोग चीनी क्रांति के बेशर्त
समर्थक थे उन्होंने उसकी क्रांतिकारी भूमिका को रत्ती भर मंजूर करने से इनकार कर
दिया है । सोवियत संघ के बिखरने के महज बीस पचीस साल बाद क्रांतिकारी अतीत और
समाजवाद को पूरी तरह शोध और विश्लेषण की दुनिया से भगा दिया गया है । यह विस्मरण
अनजाने नहीं हो रहा है । वैसे कभी कभी सचेत विस्मरण जरूरी होता है लेकिन इस
विस्मरण का वैचारिक पहलू बहुत स्पष्ट है ।
2005
में ही मंथली रिव्यू प्रेस से मार्टिन हार्ट-लैंड्सबर्ग और
पाल बुर्केट की किताब ‘चाइना ऐंड सोशलिज्म: मार्केट रिफ़ार्म्स ऐंड क्लास स्ट्रगल’ का प्रकाशन हुआ । इसकी
प्रस्तावना हैरी मैगडाफ़ और जान बेलामी फ़ास्टर ने लिखी है । उनका कहना है कि माओ के
बाद चीन में बाजारोन्मुखी सुधारों के बारे में ढेरों किताबें हैं । इस किताब का
महत्व यह है कि मार्क्सवादी नजरिये से ही बताया गया है कि कैसे कोई क्रांतिकारी
समाज क्रांति के बाद समाजवाद से दूर हो जाता है और पूंजीवादी आर्थिकी को अपना लेता
है । इससे यह भी पता चलता है कि पूंजीवादी रास्ता अपनाने के साथ ही गरीबी, विषमता
और पर्यावरण के नाश जैसी बीमारियां भी प्रवेश कर जाती हैं । वैसे भी समाजवाद का
निर्माण राजनीतिक, आर्थिक और मानवीय बुनियाद रखने की लम्बी प्रक्रिया के बिना नहीं
हो सकता । क्रांति के बाद के समाजों की निर्मम आलोचनात्मक छानबीन जरूरी है ताकि
पूंजीवाद के विकल्प के रूप में समाजवाद को खड़ा किया जा सके । 2006 में ड्यूक यूनिवर्सिटी प्रेस
से लिन चुन की प्रकाशित किताब ‘द ट्रान्सफ़ार्मेशन आफ़ चाइनीज सोशलिज्म’ का जोर भी इसी प्रक्रिया को समझने पर
है ।
चीन के भीतर जो सुधार हुए उनका एक आयाम बड़े पैमाने का
नगरीकरण था । इससे देहात और शहर के बीच विषमता तो पैदा हुई लेकिन शहरी जीवन को
समझने का प्रयास भी हुआ । 2007 में रटलेज से टी जी मैकगी, जार्ज सी एस लिन, एंड्र्यू एम मार्टन, मार्क वाइ एल वांग और जिया पिंग वू
की किताब ‘चाइना’ज अर्बन स्पेस: डेवलपमेंट अंडर मार्केट सोशलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । चीन के नगरीकरण
ने बड़े पैमाने पर मजदूर आंदोलनों को जन्म दिया । सबूत के तौर पर 2007 में यूनिवर्सिटी आफ़ कैलिफ़ोर्निया प्रेस
से चिंग क्वान ली की किताब ‘अगेन्स्ट द ला: लेबर प्रोटेस्ट्स इन चाइना’ज रस्टबेल्ट ऐंड सनबेल्ट’ का प्रकाशन हुआ । ये नये नगर
आधुनिक नगरीकरण की तमाम समस्याओं से ग्रस्त हैं । इस मामले के खास पहलू को स्पष्ट
करते हुए 2015 में ज़ेड बुक्स से वाडे शेपर्ड की किताब ‘घोस्ट सिटीज आफ़ चाइना: द स्टोरी आफ़
सिटीज विदाउट पीपुल इन द वर्ल्ड’स मोस्ट पापुलेटेड कंट्री’ का प्रकाशन हुआ ।
2007 में वर्सो से जिओवान्नी अरीगी की
किताब ‘एडम
स्मिथ इन बीजिंग: लीनिएजेज आफ़ द ट्वेंटी-फ़र्स्ट सेंचुरी’ का प्रकाशन हुआ । लेखक के अनुसार
यह किताब उनकी इसके पहले प्रकाशित दो किताबों के क्रम में और उनकी मान्यताओं को
विस्तार देते हुए लिखी गई है । आधुनिक काल में विश्व राजनीति को प्रभावित करनेवाले
दो तत्वों- अर्थतंत्र
और समाज के बदलावों को समझने की कोशिश इस किताब में की गई है । लेखक का कहना है कि
एक ओर अमेरिकी सदी का पराभव हो रहा है तो दूसरी ओर एशियाई आर्थिक जागरण के नेता के
रूप में चीन का उदय हुआ है । तमाम सरकारी और गैर सरकारी कारकों ने मिलकर इन
बदलावों को जन्म दिया है लेकिन लेखक ने स्वाभाविक रूप से इन दोनों देशों की
सरकारों की भूमिका पर अधिक ध्यान दिया है ।
चीन में जारी प्रक्रिया को समाजवाद से उसका विचलन
मानते हुए 2008 में कार्नेल यूनिवर्सिटी प्रेस से ली ज़ांग और आइवा ओंग के संपादन में ‘प्राइवेटाइजिंग चाइना: सोशलिज्म फ़्राम अफ़ार’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की
प्रस्तावना और राल्फ लिटज़िंगेर के उपसंहार के अतिरिक्त किताब में कुल तेरह लेख
संकलित हैं । इन्हें दो हिस्सों में संयोजित किया गया है । पहले हिस्से में
संपत्ति की ताकत के तहत वर्ग आधारित व्यवहार, जमीन और धन का संचय और नवउदारवादी
मूल्यों की प्रतिष्ठा का विश्लेषण है । इसके बाद व्यक्तियों की निजी ताकत के इजहार
का वर्णन है । इसमें सेहत संबंधी सुविधाओं, पेशेवर प्रबंधन और आम लोगों के बीच कुछ
व्यक्तियों के महत्व की बढ़ती प्रवृत्ति का बयान किया गया है । इस तरह यह किताब
समाजवाद के भीतर निजी पूंजी को मान्यता देने से उपजी कुछ नयी प्रवृत्तियों की पहचान
कराती है और वैचारिक संघर्ष के नये मोर्चों को भी चिन्हित करती है ।
दुनिया में चीन की वर्तमान भूमिका को एक अन्य संदर्भ
में देखने के लिए 2008 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से
बैरी आइकेनग्रीन, चार्ल्स वाइ प्लोज़ और युंग चुलपार्क के संपादन में ‘चाइना, एशिया, ऐंड द न्यू वर्ल्ड इकोनामी’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की
प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब में चौदह लेख संकलित हैं । संपादकों का मानना है कि
चीन के चलते विश्व अर्थतंत्र में एशिया का उभार इस समय की सबसे महत्व की बात है । आश्चर्य
नहीं कि इस समय दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद में एशिया का हिस्सा लगातार बढ़ रहा है
। इसी तरह चीन के उत्थान को पश्चिमी पूंजीवाद की गिरावट से जोड़ते हुए 2008 में प्लूटो प्रेस से मिंकी ली की
किताब ‘द
राइज आफ़ चाइना ऐंड द डिमाइस आफ़ द कैपिटलिस्ट वर्ल्ड-इकोनामी’ का प्रकाशन हुआ । किताब इस धारणा
का विरोध करने के लिए लिखी गई है कि चीन भी पूंजीवाद के रास्ते पर ही चल पड़ा है ।
चीन के उत्थान से पुरानी विश्व व्यवस्था में बड़े
पैमाने पर उलटफेर हुआ है । 2009 में द
पेंग्विन प्रेस से मार्टिन जैक़्स की किताब
‘ह्वेन चाइना
रूल्स द वर्ल्ड: द एन्ड आफ़ द
वेस्टर्न वर्ल्ड ऐंड द बर्थ आफ़ ए न्यू ग्लोबल आर्डर’ का प्रकाशन हुआ । 2009
में ही पालग्रेव मैकमिलन से इलन आलोन,
जूलियन चांग, मार्क फ़ेट्स
चेरिन, क्रिस्ताफ़ लेटेमान और जान
आर मैकिन्टायर के संपादन में
‘चाइना रूल्स: ग्लोबलाइजेशन ऐंड पालिटिकल ट्रांसफ़ार्मेशन’ का प्रकाशन हुआ । सभी
मानते हैं कि मुल्क के बतौर भूमंडलीकरण के इस दौर का लाभ लेने के लिए चीन ने बड़े
बदलाव किए और सचमुच इस समय का सबसे अधिक लाभ उठाया है ।
चीन की स्थिति को समझने के लिहाज से 2009 में सेज से प्रेमशंकर झा लिखित आबजर्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन की
किताब ‘मैनेज्ड केआस: द फ़्रेजिलिटी आफ़ द चाइनीज मिरैकल’ का प्रकाशन हुआ । इससे यह भी पता चलता है कि बाहर से जो कुछ
अव्यस्था की तरह नजर आता है वह चीनी शासन के लिए अब भी बेकाबू हालत नहीं है । इस
क्रम में 2009 में ही द जान
हापकिंस यूनिवर्सिटी प्रेस से हो-फ़ुंग हुंग के संपादन
में ‘चाइना ऐंड द
ट्रांसफ़ार्मेशन आफ़ ग्लोबल कैपिटलिज्म’
का प्रकाशन हुआ । संपादक के मुताबिक 1978 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने
अर्थतंत्र को गति प्रदान करने के मकसद से साहसिक निर्णय लिया । उसने केंद्रीकृत
योजना की जगह बाजार व्यवस्था को अपनाने का फैसला किया और विदेशी निवेश का भी
स्वागत किया । यह बदलाव उसी समय हुआ जब विश्व अर्थतंत्र में भी गहरे बदलाव की
शुरुआत हो रही थी । इस बदलाव को हम वैश्वीकरण के नाम से जानते हैं । इस वजह से भी
वैश्वीकरण का लाभ उसने सबसे अधिक उठाया । इस बदलाव के तीस साल बाद अब चीन कोई सामान्य विकासशील देश या ऐसा
समाजवादी अर्थतंत्र नहीं रह गया है जो विश्व पूंजीवाद की चुनौतियों से जूझे जा रहा
हो । अब उसे ऐसी हैसियत प्राप्त है कि वह विश्व पूंजीवाद की संरचना को आकार दे सके
। इसी तरह चीन की रणनीति का विश्लेषण करते
हुए 2009 में ही प्लूटो प्रेस से जेनी क्लेग की किताब ‘चाइना’ज ग्लोबल स्ट्रेटेजी:
टुवर्ड्स ए मल्टीपोलर वर्ल्ड’ का प्रकाशन हुआ ।
2010
में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से जेफ़्री एन वासरस्ट्राम की किताब ‘चाइना इन द 21स्ट सेंचुरी: ह्वाट एवरीवन नीड्स टु नो’ प्रकाशित हुई । चीन के संबंध में भारत में फैली अधकचरी
जानकारी के मुकाबले पूरी दुनिया में गंभीर विद्वत्तापूर्ण अध्ययनों की भरमार है ।
उसी कड़ी में इस किताब में चीन की वैचारिक और राजनीतिक थाती को उजागर किया गया है
ताकि क्रांतियों की परिघटना पर ध्यान देते हुए इस देश के वर्तमान और भविष्य पर
विचार किया जा सके । 2010 में ही ड्यूक यूनिवर्सिटी प्रेस से रेबेका ई कार्ल की
मजेदार किताब ‘माओ ज़े दोंग ऐंड चाइना इन द ट्वेन्टीएथ-सेन्चुरी वर्ल्ड: ए कन्साइज
हिस्ट्री’ का प्रकाशन हुआ । लेखिका का
कहना है कि चीन को जानने वालों के बीच माओ का नाम आते ही उनकी क्रूरता के किस्से
याद दिलाये जाने लगते हैं । उनके नाम पर बहस में तीखापन पैदा हो ही जाता है । चीन
के भीतर तो हाल और भी बुरा है । उनके नाम का मतलब देंग की नीतियों का विरोध समझा
जाता है । माओ को बाजार ने अपनी तरह से उपभोक्तावाद के हवाले कर दिया है और बेच
रहा है । इस किताब में माओ और उनके चीन को गम्भीरता से देखने का दावा किया गया है
। चीन के समाजवाद को बीसवीं सदी के विश्व इतिहास का अभिन्न अंग माना गया है । चीनी
और विश्व समाजवाद के तथा पिछली सदी में क्रांति और आधुनिकता के इतिहास के लिए माओ
की केंद्रीय भूमिका मानी गयी है । इस मामले में भी वर्तमान सोच आजादी बनाम
तानाशाही के बंटवारे में चीन और उसके समाजवाद को तानाशाही के खाते में डाल देती है
। लेखक ने इस तरह के सरलीकरण का प्रतिवाद इस किताब में किया है । किताब में जटिलता
से जी नहीं चुराया गया है । माओ की कालक्रमिक जीवनी की जगह चीन और दुनिया की
बीसवीं सदी में रखकर उन्हें देखा गया है । जिस तरह आधुनिक चीन के बारे में माओ के
बिना बात नहीं हो सकती उसी तरह माओ के बारे में भी चीन और दुनिया के बगैर बातचीत
सम्भव नहीं है ।
इसी क्रम में 2011 में सेवेन स्टोरीज प्रेस से
लोरेत्ताने पोलेओनी की किताब ‘माओनोमिक्स: ह्वाई चाइनीज कम्युनिस्ट्स मेक बेटर कैपिटलिस्ट्स दैन
वी डू’ का
प्रकाशन हुआ । किताब में बहुत ही नए तरीके से चीन और पश्चिमी दुनिया की आपसी होड़
को देखा गया है । लेखक ने इस सवाल की छानबीन से शुरुआत की है कि वैश्वीकरण से चीन
को अधिक लाभ हुआ या अमेरिका को । स्वाभाविक तौर पर इसका लाभ सबसे अधिक चीन ने
उठाया है । उसने विषमता दूर करने में काफी सफलता पायी है । इसकी वजह समझने के क्रम
में उन्होंने कहा कि लोकतंत्र का अर्थ दोनों जगहों के लिए अलग अलग रहा है ।
पश्चिमी जगत ने उसे चुनाव से जोड़कर देखा और उसके आर्थिक आयाम से उसे विच्छिन्न कर
दिया जबकि चीन में उसे जनता की खुशहाली से जोड़कर देखा गया । संसाधनों तक जन
सामान्य की पहुंच को लोकतंत्र मानने के कारण ही माओ अपने देश की व्यवस्था को
पश्चिमी देशों के मुकाबले अधिक लोकतांत्रिक कहते थे । मानवाधिकार के मोर्चे पर भी
उसने अपनी स्थिति सुधारी है । लेखक ने अस्सी के दशक के अंत में एक साथ घटी दो
घटनाओं के वैपरीत्य के सहारे समय को समझने का प्रयास किया है । बर्लिन की दीवार का
गिरना और तिएन आन मेन की घटना ने शुरू में पश्चिमी लोकतंत्र को प्रोत्साहित किया
लेकिन फिर थोड़े दिनों बाद ही बाजी पलटनी शुरू हो गई है । लेखक का यह भी कहना है कि
अर्थशास्त्र और मनोविज्ञान में साझा है । मनोविज्ञान में तो युंग ने फ़्रायड की
मान्यताओं को पलट दिया था लेकिन अर्थशास्त्र में एडम स्मिथ की मान्यताओं पर सवाल
उठानेवाले मार्क्स को वैचारिक कारणों के चलते अपनाया नहीं गया । चीन में
मार्क्सवाद की गहरी पढ़ाई जारी है इसलिए भी उसने पश्चिमी दुनिया के अर्थशास्त्र की
सीमाओं का अतिक्रमण करने में सफलता पायी । बहुत हद तक इसके चलते ही वह मंदी की मार
से न केवल बचा बल्कि उसी दौरान विकास भी करता रहा । माओ की मौजूदगी ऊपर तो है ही
नीचे भी वे फिर से चर्चा में आये हैं । इस तथ्य के सबूत के बतौर 2015 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से जेरेमी ब्राउन और मैथ्यू
डी जानसन के संपादन में ‘माओइज्म ऐट द ग्रासरूट्स: एवरीडे लाइफ़ इन चाइना’ज एरा आफ़ हाइ सोशलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की भूमिका तथा एक अन्य लेखक के
उपसंहार के अतिरिक्त किताब में चार भाग हैं । पहला भाग अपराध, दोषारोप और दंड के बारे में चार लेखों का संकलन है जिनमें
से एक जेरेमी ब्राउन का ही है । दूसरा भाग माओ से प्रभावित विभिन्न गोलबंदियों के
बारे में तीन लेखों का संग्रह है जिसमें फिर जेरेमी ब्राउन का एक लेख है । तीसरा
भाग संस्कृति और संचार का है जिसमें अखबारों आदि के बारे में लिखे तीन लेखों में
से एक मैथ्यू डी जानसन का है । आखिरी चौथे भाग में जनविक्षोभों में मौजूद माओ का
विवेचन तीन लेखों के जरिए किया गया है ।
चीन के पूंजीवाद को समझने के सिलसिले में 2012 में
प्लूटो प्रेस से बेहज़ाद यागमाइयां की किताब ‘द एक्सीडेन्टल कैपिटलिस्ट: ए पीपुल’स
स्टोरी आफ़ द न्यू चाइना’ का प्रकाशन हुआ । इस पूंजीवाद के चलते जो हुआ उसको देखने
के लिए 2012 में वर्सो से सियाओ-हुंग पाइ की किताब ‘स्कैटर्ड सैन्ड: द स्टोरी आफ़
चाइना’ज रूरल माइग्रैन्ट्स’ का प्रकाशन हुआ । इस किताब की भूमिका ग्रेगोर बेंटन ने
लिखी है । उसमें उनका कहना है कि इस समय के चीन के किसानों का देहात के भीतर और
देहात से शहर की ओर तथा चीन से सारी दुनिया में और दुनिया भर में आप्रवास इतिहास
का सबसे विशाल प्रवास साबित होगा । इस नाते अफ़्रीका के साथ उसके नये किस्म के
रिश्तों को उजागर करते हुए 2014 में अल्फ़ेड ए
नाफ़ से हावर्ड डब्ल्यू फ़्रेंच की किताब
‘चाइना’ज सेकंड कंटीनेन्ट: हाउ ए मिलियन माइग्रेंट्स आर बिल्डिंग ए न्यू एम्पायर इन
अफ़्रीका’ का प्रकाशन
हुआ । किताब चीन द्वारा अफ़्रीका में भारी निवेश की परिघटना का गहराई से विश्लेषण
करती है और इस नाते मूल्यवान है । चीन के भीतर के प्रवास की इस हालिया परिघटना को समझने के क्रम में 2016 में पोलिटी से पुन न्गाई की
किताब ‘माइग्रैन्ट
लेबर इन चाइना: पोस्ट-सोशलिस्ट ट्रान्सफ़ार्मेशंस’ का प्रकाशन हुआ । किताब चाइना टुडे
नामक पुस्तक श्रृंखला के तहत छपी है । लेखक चीन को दुनिया की नई कार्यशाला मानते
हैं । इसके संचालक चीन के आंतरिक प्रवासी मजदूरों से निर्मित नया मजदूर वर्ग है ।
देहाती इलाकों से शहरों में आया हुआ यह प्रवासी मजदूर आज के चीन को माओ के चीन से
एकदम अलग चीन बना रहा है । पिछले दो दशकों में इसी मजदूर वर्ग ने अपने अनुभवों को
जिस तरह लेखक के सामने प्रस्तुत किया है उसी के आधार पर उसकी कहानी लेखक ने बयान
की है । नवउदारवादी संसार में चीन की स्थिति को समझने के लिए इस वर्ग की वर्ग
चेतना की जानकारी जरूरी है ।
2012 में बेसिक बुक्स से आड आर्ने वेस्टैड
की किताब ‘रेस्टलेस
एम्पायर: चाइना
ऐंड द वर्ल्ड सिन्स 1750’ का प्रकाशन हुआ । किताब का मकसद आधुनिक चीन द्वारा दुनिया
में निभाई जा रही भूमिका को समझने के लिए पिछले ढाई सौ सालों में चीन के साथ दुनिया
के संपर्कों का अध्ययन है । पूरी दुनिया में चीन को समझने की कोशिशों में जबर्दस्त
बढ़ोत्तरी हुई है और उसका कारण इस सदी में आर्थिक और राजनीतिक मोर्चे पर उसका उभार है
। समाजवादी देश के बतौर उसके अध्ययन के मुकाबले फिलहाल अमेरिका को टक्कर देनेवाली शक्ति
के रूप में उसे देखा और समझा जा रहा है । विश्व इतिहास और शीतयुद्ध के विशेषज्ञ के
रूप में वेस्टैड इस दिशा में आधिकारिक योगदान की उम्मीद जगाते हैं । प्रस्तुत किताब
में वे सबसे पहले चीन को देश के मुकाबले साम्राज्य मानने का आग्रह करते हैं । किताब
को समझने के लिए साम्राज्य और साम्राज्यवाद के बीच अंतर पर ध्यान देना जरूरी है । पुराने
जमाने के साम्राज्य आधुनिक साम्राज्यवाद की तरह नहीं होते थे । उनमें राजनीतिक प्रभाव
का विस्तार मात्र करना उद्देश्य होता था । विजय के उपरांत पुराने शासक को ही बने रहने
दिया जाता था । आर्थिक दोहन की व्यवस्था आधुनिक साम्राज्यवाद की विशेष पहचान है । लेखक
ने चीन को उसी पुराने अर्थ में साम्राज्य कहा है । उनका कहना है कि इक्कीसवीं सदी में
चीन वैश्विक मामलों में केंद्रीय भूमिका निभाने की ओर बढ़ रहा है । दुनिया का सबसे अधिक
आबादीवाला देश होने के बावजूद कभी कभी ऐसा समय आया कि वह कमजोर और विभाजित रहा लेकिन
ऐसा बहुत कम हुआ । ऐसा अनुमान है कि आगामी दो दशकों में वह अमेरिका को पीछे छोड़कर दुनिया
की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा । चीन का अपना अनुमान है कि वह उस समय तक जीवन प्रत्याशा
को अस्सी साल तक बढ़ा लेगा । लेकिन उसके पड़ोसी देशों को भय है कि वह केवल आर्थिक समृद्धि
या तकनीकी बरतरी तक सीमित नहीं रहेगा वरन सामरिक ताकत भी बढ़ाकर धौंस धमकी से काम लेगा
। अनुमान जो भी हो इतिहास की गति कभी एकरेखीय नहीं होती । फिलहाल भी उसका विकास समस्यारहित
नहीं है । नतीजे सकारात्मक हों या नकारात्मक प्रभाव केवल चीन तक ही नहीं रहेगा । उनके
लाभ हानि में दुनिया की हिस्सेदारी भी रहेगी । इसलिए चीन के लोगों के सोचने के तरीके
और विश्वास, सरकार
और समाज का गठन तथा उसकी आर्थिक और संसाधनों की जरूरत के बारे में जानना जरूरी है ।
2015 में पोलिटी से जोनाथन होल्सलाग की किताब
‘चाइना’ज कमिंग वार विथ एशिया’ का प्रकाशन हुआ । लेखक ने इस भड़काऊ शीर्षक के चलते
सफाई में कहा है कि एशिया में पैदा होने वाले तनावों के लिए वे चीन को जिम्मेदार
नहीं समझते । चीन के लक्ष्य किसी शांतिपूर्ण व्यवस्था के विरोध में नहीं हैं, बहुत
हद तक वे रक्षात्मक भी हैं । चीन की कूटनीति में लचीलापन है । उसके अधिकारी खुले
मन से काम करते हैं । इसके बावजूद वह उभरती हुई ताकत है और ऐसी किसी भी ताकत की
तरह उसे अपनी आकांक्षा के चलते युद्ध और शांति संबंधी दुविधा का सामना करना पड़ रहा
है । चीन की वर्तमान हालत को देखने का यह नजरिया उपयोगी है ।
2016 में प्लूटो प्रेस से मिंकी ली की किताब ‘चाइना ऐंड द 21स्ट सेन्चुरी क्राइसिस’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि 2008 के पहले पूंजीवाद ही इतिहास का आखिरी
पन्ना समझा जाता था लेकिन 2008 के संकट ने इस धारणा को पूरी तरह खत्म कर दिया । इतिहास
के अंत का ही अंत हो गया । पश्चिमी जगत में सामाजिक बदलाव की आकांक्षा जोर पकड़ने लगी
। मध्यपूर्व में तानाशाहियों को दफ़्न कर दिया गया । लेखक का अनुमान है कि आगामी दिनों
में चीन और पूंजीवाद के लिए बड़े संकटों का आना तय है । इसका समाधान पूंजीवाद के ढांचे
के भीतर ही खोजना संभव नहीं रह गया है । असल में पूंजीवाद ऐसी व्यवस्था है जो
पूंजी के अनंत संचय पर आधारित है । आधुनिक पूंजीवादी विश्व व्यवस्था का जन्म
पश्चिमी यूरोप में सोलहवीं सदी में हुआ और उन्नीसवीं सदी में यह पूरी दुनिया में
प्रभावी हो गयी । विश्व पूंजीवाद का उदय सस्ते और प्रचुर श्रम, ऊर्जा और भौतिक
संसाधनों पर निर्भर था । वर्तमान सदी में इनकी उपलब्धता पर संकट आ खड़ा हुआ है ।
विश्व पूंजीवादी व्यवस्था का संचालन विविध राजनीतिक संरचनाओं के साथ हो रहा है ।
इसके लिए एक ही तरह की राजनीतिक व्यवस्था की जरूरत नहीं रह गयी है । विभिन्न देशों
के बीच होड़ के चलते वे पूंजी संचय के लिए अनुकूल माहौल बना रहे हैं । इस होड़ के
कारण व्यवस्था के दूरगामी हितों को नुकसान पहुंच रहा है और समूची व्यवस्था के ही
लिए खतरा पैदा हो गया है । ऐसी स्थिति में इस होड़ को नियंत्रित करने के लिए एक
प्रबल सत्ता की जरूरत पड़ रही है । अतीत में एक के बाद एक हालैंड, ब्रिटेन और
अमेरिका ने यह भूमिका निभायी । अमेरिका के नेतृत्व में बीसवीं सदी के मध्य में
विश्व पूंजीवाद का जो रूप बना उसनें विश्वयुद्धों के बीच की अराजकता पर काबू पाया
और पचास से लेकर सत्तर के दशक तक पूंजीवादी अर्थतंत्र का सुनहरा दौर आया । इस
सफलता का बड़ा कारण यह भी था कि पश्चिमी देशों के मजदूर वर्ग और नव स्वाधीन देशों
के आंदोलनों की तथा कुछ हद तक कम्युनिस्ट देशों की भी सामाजिक ताकतों को पूंजीवादी
व्यवस्था के भीतर समायोजित कर लिया गया ।
आधुनिक कम्युनिस्ट आंदोलन का जन्म बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में सामाजिक जनवाद
के वाम पक्ष से हुआ था लेकिन फिर बीसवीं सदी के मध्य तक उसने राष्ट्रीय मुक्ति
आंदोलनों की क्रांतिकारी धारा का रूप ग्रहण कर लिया । रूस और चीन जैसे परिधीय
देशों में शासक वर्ग पूंजीवादी संचय के लिए आवश्यक सामाजिक माहौल नहीं बना सका ।
ऐसे में व्यापक जनता की गोलबंदी करके कम्युनिस्ट आंदोलन ने पूंजीवादी विश्व
व्यवस्था से होड़ लेने लायक वैकल्पिक व्यवस्था बनाने की कोशिश की । पचास से सत्तर
की वैश्विक आर्थिक समृद्धि ने नयी सामाजिक ताकतों को जन्म दिया जिनके आधार पर
व्यवस्था विरोधी मजबूत आंदोलन खड़े हुए । इस दौर में मजदूर वर्ग की मांगों में खासी
बढ़ोत्तरी आयी जिसे पूरा करना व्यवस्था के लिए सम्भव नहीं रह गया । मुनाफ़े की दर
में घटोत्तरी के चलते समूची व्यवस्था आर्थिक और राजनीतिक संकट का शिकार हो गयी ।
संकट के नाम पर विश्व पूंजीवाद ने मजदूर वर्ग विरोधी हमलावर रुख अपनाया । इस वर्ग संघर्ष का महत्वपूर्ण केंद्र चीन था । सत्तर दशक के
अंत तक इस संघर्ष में पूंजीपति वर्ग निर्णायक रूप से जीत गया । विश्व पूंजीवादी व्यवस्था
में चीन के एकीकरण से सस्ते श्रम की उपलब्धता हुई और बीसवीं सदी के अंत तक पूंजीपति
वर्ग की जीत दुनिया के पैमाने पर हुई । नयी व्यवस्था को नवउदारवाद कहा गया जिसमें पूंजी
संचय लायक माहौल बनाया गया । इस दौरान आय के बंटवारे में मजदूरों के मुकाबले पूंजीपतियों
का हिस्सा बढ़ने लगा । नतीजतन कामगारों के जीवन स्तर में गिरावट आने लगी । जीवन स्तर
में गिरावट के चलते मांग में भारी कमी आयी । इसी स्थिति में पूंजी प्रवाह वित्तीय क्षेत्र
में तेज हुआ । देशों की सीमाओं के आर पार मुक्त वितीय प्रवाह ने वित्तीय बुलबुले पैदा
किये और संकट भयावह होते गये । वित्तीय अस्थिरता और ठहराव नजर आने लगा । थोड़े समय तक
अमेरिकी उपभोक्ताओं ने कर्ज लेकर दुनिया भर के अतिरिक्त उत्पादन की खपत की । कुछ ही
समय बाद यह वित्तीय असंतुलन बरकरार रखना असम्भव हो गया ।
2008-09 की मंदी
पूंजीवाद की 1945 के बाद सबसे गहन संकट के बतौर प्रकट हुई । आर्थिक
केंद्र विकसित देशों की जगह उदीयमान अर्थतंत्र की ओर खिसक आया । वैश्विक आर्थिक वृद्धि
में अमेरिका और यूरोपीय संघ के मुकाबले चीन और भारत का हिस्सा तेजी से बढ़ने लगा ।
2008 के पहले चीन की आर्थिक वृद्धि निवेश और निर्यात से संचालित थी ।
उसके बाद निवेश इसका प्रमुख कारण बनता गया । पश्चिमी पूंजीवाद कर्ज संकट और ठहराव का
सामना कर रहा था जिसके कारण एक ओर निर्यात में कमी आयी तो निवेश में भारी इजाफ़ा हुआ । इसके
बाद वहां भी मुनाफ़े की दर में गिरावट आना शुरू हो गयी । इससे पूंजी संचय में कमी आयी
। इसने वित्तीय संकट को जन्म दिया । 2008 से पहले अमेरिका विश्व
पूंजीवादी अर्थतंत्र को स्थिर रखने का काम करता था । उसके बाद से चीन ही विश्व आर्थिक
वृद्धि की चालक शक्ति बना हुआ है । अमेरिका के साथ ही चीन के भी संकट में फंस जाने
के चलते समूचा ही पूंजीवादी अर्थतंत्र चकरघिन्नी खाता हुआ गिरता जा रहा है ।
बहुतेरे लोगों को लगता है कि चीन के वर्तमान शासन के साथ
मार्क्सवाद का कोई लेना देना नहीं रह गया है लेकिन आश्चर्यजनक रूप से वहां
मार्क्सवाद का व्यवस्थित अध्ययन तो चल ही रहा है,
वहां के विद्वान चीन के हालात के मद्देनजर शास्त्रीय मार्क्सवाद के साथ उसके
तमाम नवाचारों से भी लगातार संवाद बनाए हुए हैं । विश्लेषणात्मक मार्क्सवाद के
राबर्ट वेयर नामक एक कनाडा के विद्वान ने समय समय पर चीन में जाने और वहां के
मार्क्सवाद संबंधी माहौल का विस्तार से जिक्र करते हुए ‘सोशलिज्म ऐंड
डेमोक्रेसी’ के वाल्यूम 27, इशू 1, 3013 में ‘रिफ़्लेक्शंस आन चाइनीज मार्क्सिज्म’ शीर्षक लेख लिखा । शुरुआत ही उन्होंने चीन के बारे में
प्रचलित इस मान्यता से की है कि संविधान में लिखित होने के बावजूद दुनिया में शायद
ही कोई चीन को समाजवादी मुल्क मानता होगा । फिर भी उनका कहना है कि चीन में
समाजवाद आज भी मजबूत ताकत है और मार्क्सवाद गवेषणा का गंभीर विषय बना हुआ है ।
इसकी भूमिका के महत्व और इसकी जटिलताओं पर विचार करना लेखक को जरूरी लगता है । चीन
में मार्क्सवाद के महत्व की तुलना पश्चिमी दुनिया में लोकतंत्र के महत्व से करना
मजेदार होगा । दोनों ही मामलों में आचरण में इनकी मौजूदगी उल्लेखनीय नहीं है लेकिन
मार्क्सवाद और लोकतंत्र जनता के जीवन में सुधार की कोशिशों को वैधता तो देते ही
हैं, संघर्ष हेतु मौका भी
उपलब्ध कराते हैं । उनका वास्तविक असर बेहद कम है लेकिन राजनीतिक और बौद्धिक
कारणों के चलते इनका विवेचन जरूरी है । इसी नजरिए से लेखक ने चीन में मौजूद
समाजवाद और मार्क्सवाद के प्रकारों का परिचय देने के साथ इस बात की भी छानबीन की
है कि किन मुद्दों को खारिज किया जा रहा है और किनकी अनदेखी हो रही है । उनके
अनुसार चीन में मार्क्सवाद समेत किसी भी विषय का अध्यापन इस समय बेहद रोमांचक
अनुभव है । इसका कारण चीन में चल रहा विकास और उससे उत्पन्न ऊर्जा तथा उसकी जटिलता
और अव्यवस्था भी है । लेखक के वक्तव्य
2007 के बाद की उनकी चीन यात्राओं पर आधारित हैं । जाते तो वे काफी पहले से रहे थे
लेकिन इस लेख में उनका उद्देश्य हाल के विकासों की जानकारी देना है इसलिए 2007 के बाद के अनुभवों को ही उन्होंने आधार बनाया । इसमें वे
शांघाई विश्वविद्यालय द्वारा 2007 में ‘कैपिटल’
की 140 वीं जयंती पर आयोजित
सम्मेलन का जिक्र करते हैं जहां सैकड़ों चीनी अर्थशास्त्रियों ने विचार-विमर्श में हिस्सा लिया । ग्रुंड्रिस की 150 वीं सालगिरह पर भी केंद्रीय कंपाइलेशन और अनुवाद ब्यूरो की
ओर से ऐसा ही समारोह हुआ था । 2011 में बीजिंग
विश्वविद्यालय में लेखक ने जी ए कोहेन के विश्लेषणात्मक मार्क्सवाद का पाठ्यक्रम
पढ़ाया । पहली परीक्षा के लिए
‘मैं क्यों
समाजवादी हूं या नहीं हूं’
विषय पर लेख लिखने के लिए दिया । तीस में से बीस ने होने के पक्ष में और दस ने
न होने के पक्ष में तर्क प्रस्तुत किए । लेखक को अचरज हुआ कि उनके दो तिहाई
विद्यार्थी अपने को समाजवादी मानते हैं । इस नाते अन्य चीजों के अलावे एक किताब का
जिक्र जरूरी है । गोटिंगेन विश्वविद्यालय की ओर से
2014 में झांग यिबिंग की किताब
‘बैक टु
मार्क्स’ का प्रकाशन
हुआ है । किताब का उपशीर्षक
‘चेंजेज आफ़
फिलासाफिकल डिस्कोर्स इन द कांटेक्स्ट आफ़ इकोनामिक्स’ है । अंग्रेजी अनुवाद थामस मिचेल ने किया है और इसके संपादक
ओलिवर कार्फ़ हैं ।
2017 में यूनिवर्सिटी आफ़ कैलिफ़ोर्निया
प्रेस से वांग झेंग की किताब ‘फ़ाइंडिंग वीमेन इन द स्टेट: ए सोशलिस्ट फ़ेमिनिस्ट रेवोल्यूशन
इन द पीपुल’स
रिपब्लिक आफ़ चाइना, 1949-1964’ का प्रकाशन हुआ । किताब में चीन की उन स्त्रियों का
वर्णन किया गया है जो मार्क्सवाद के प्रभाव में क्रांति में शरीक हुईं और क्रांति
के बाद सरकार में भी शामिल हुईं ।
2018 में पोलिटी से रिचर्ड पी एपलबाम, कांग काओ, जुएइंग हान, राचेल पार्कर और डेनिस सिमोन की
किताब ‘इनोवेशन
इन चाइना: चैलेन्जिंग द ग्लोबल साइंस ऐंड टेकनालाजी सिस्टम’ का प्रकाशन हुआ । किताब के शुरू में
1894 के प्रथम चीन-जापान युद्ध से लेकर शी जिन पिंग का कार्यकाल अनंत समय तक बढ़ाने
वाली 2018 की कांग्रेस तक की समय सारिणी दी गयी है । इस किताब में प्रमुख जोर
विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में चीन की नवीन उपलब्धियों को उजागर करने पर दिया
गया है ।
2018 में प्लूटो प्रेस से मोबो गाओ की किताब ‘कनस्ट्रक्टिंग चाइना: क्लैशिंग
व्यूज आफ़ द पीपुल’स रिपब्लिक’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि चीनी लोग इस समय
काफी परेशान हैं कि उनके ज्ञान को पश्चिमी दुनिया में मान्यता क्यों नहीं मिलती ।
उनके अनुसार चीन के लोग अफीम युद्ध के बाद सौ सालों के निरंतर पराजय के अपमान से
और लम्बे समय से जारी भूख के अपमान से माओ के बाद के सुधारों के चलते मुक्त हो
चुके हैं लेकिन फिलहाल वे उपदेश के अपमान का सामना कर रहे हैं । यह उपदेश उन्हें
पश्चिमी विचारकों से लगातार सुनना पड़ता है । उन्हें नैतिक हीनता, लोकतंत्र के अभाव और मानवाधिकारों
के हनन और पश्चिमी तकनीक की नकल के बारे में सुनना पड़ता है । कुल मिलाकर उनकी
सरकार को अवैध करार दिया जाता है ।
2019 में लेक्सिंगटन बुक्स से यी एडवर्ड यांग की वेइ
लियांग के साथ संपादित किताब ‘चैलेन्जेज टु चाइना’ज इकोनामिक स्टेटक्राफ़्ट: ए
ग्लोबल पर्सपेक्टिव’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब
में शामिल ग्यारह लेख तीन हिस्सों में संयोजित हैं । पहले हिस्से में द्विपक्षीय
रिश्तों में चीन के आर्थिक प्रशासन को, दूसरे में क्षेत्रीय रिश्तों में और तीसरे
हिस्से में अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के बनाने के लिहाज से चीन के आर्थिक प्रशासन
को परखा गया है ।
2019 में ज़ेड बुक्स से टाम मिलर की किताब ‘चाइना’ज
एशियन ड्रीम: एम्पायर बिल्डिंग एलांग द न्यू सिल्क रोड’ का डिजिटल प्रकाशन हुआ ।
2017 में पहली बार इसे छापा गया था । लेखक ने दो साल तक चीन के सरहदी इलाकों और
एशियाई मुल्कों की यात्रा की । किताब की शुरुआत शी जिनपिंग द्वारा चीन के नये युग
की घोषणा से होती है । लेखक के अनुसार इसका मतलब घरेलू मोर्चे पर सत्ता पर अपनी और
समाज पर कम्युनिस्ट पार्टी की पकड़ मजबूत करना तथा विदेशी मोर्चे पर दुनिया में चीन
की अगुआई को स्थापित करना है । वह समूची दुनिया को अपने हितों के मुताबिक ढालना चाहता
है । शी के मजबूत नेतृत्व में चीन अपनी आर्थिक गतिविधियों के जरिये समुद्र पार और अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर बरतरी हासिल करना चाहता है । इसके लिए चीन जिस रणनीति पर अमल कर रहा है उसमें
एक तो तकनीकी विशेषज्ञता के आधार पर सेना और उद्योग के मोर्चे पर सबसे आगे निकल जाना
और दूसरे आर्थिक मोर्चे पर अमेरिका को गम्भीर चुनौती देते हुए दुनिया में अपना नेतृत्व
स्थापित करना शामिल हैं । इसके लिए चीन ने बेल्ट ऐंड रोड इनीशियेटिव नामक परियोजना
चालू की है । इस परियोजना के बारे में ही किताब में बताया गया है ।
2019 में पालग्रेव मैकमिलन से जो इंगे बेकेवोल्ड और
बोबो लो के संपादन में ‘साइनो-रशियन रिलेशंस इन द 21स्ट सेन्चुरी’ का प्रकाशन हुआ । बोबो लो की
प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब में शामिल बारह लेख चार भागों में बांटे गए हैं ।
पहले भाग में व्यापक रणनीतियों से जुड़े लेख हैं । दूसरे भाग में द्विपक्षीय और
क्षेत्रीय बदलावों की बात की गई है । तीसरे भाग के लेखों में चीन, रूस और समूची
दुनिया के आपसी रिश्तों की छानबीन की गई है । अंतिम चौथे भाग में उपसंहार है जिसे
जो इंगे बेकेवोल्ड ने लिखा है और इसमें दोनों की रणनीतिक भागीदारी के भविष्य की
चर्चा की गई है ।
2020 में पोलिटी से यिफ़ेइ ली और जूडिथ शपीरो
की किताब ‘चाइना
गोज ग्रीन: कोएर्सिव
एनवायरनमेंटलिज्म फ़ार ए ट्रबल्ड प्लैनेट’ का प्रकाशन हुआ । लेखकों के अनुसार वर्तमान सदी के एकाध
दशक बाद से ही चीन के नीति निर्माताओं ने पर्यावरण संरक्षण के मामले में दुनिया का
नेतृत्व करने का बीड़ा उठा लिया । कुछ साल पहले ही वे लोग विकासशील देशों के लिए अलग
किस्म के पैमाने की वकालत करते रहे थे ।
2020 में वर्सो से रेबेका ई कार्ल की किताब ‘चाइना’ज
रेवोल्यूशंस इन द माडर्न वर्ल्ड: ए ब्रीफ़ इंटरप्रेटिव हिस्ट्री’ का प्रकाशन हुआ ।
किताब की शुरुआत 1926 में लिखे माओ के ‘चीनी समाज में वर्गों का विश्लेषण’ से होती
है जिसमें माओ ने क्रांति के दुश्मनों और दोस्तों को पहचाना था । चीन की तत्कालीन
सामाजिक संरचना को ठोस मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य में देखने के चलते माओ ने चीन के
अतीत और वर्तमान को उसका भविष्य प्राप्त करने के लिए आवश्यक क्रांतिकारी चरणों के
रूप में प्रस्तुत किया था । अतीत, वर्तमान और भविष्य के बारे में इस किस्म की सोच
समस्त आधुनिक ऐतिहासिक विश्लेषण की विशेषता है ।
2021 में रटलेज से राहुल नाथ चौधरी के संपादन में ‘द
चाइना-यू एस ट्रेड वार ऐंड साउथ एशियन इकोनामीज’ का प्रकाशन हुआ । संपादक की
प्रस्तावना और उपसंहार के अतिरिक्त किताब के बारह लेख चार हिस्सों में संयोजित हैं
। पहले हिस्से के लेखों में चीन और अमेरिका के बीच व्यापार युद्ध के वैश्विक
आर्थिक असर, दूसरे में क्षेत्रीय अर्थतंत्र की सम्भावना, तीसरे में हिस्से में
वरीयता प्राप्त सहभागियों के लाभ और आखिरी चौथे हिस्से में तकनीकी श्रेष्ठता से
जुड़े लेख शामिल किये गये हैं ।
2021 में स्प्रिंगेर से रोलैंड बोअर की किताब
‘सोशलिज्म विथ चाइनीज कैरेक्टरिस्टिक्स: ए गाइड फ़ार फ़ारेनर्स’ का प्रकाशन हुआ । किताब
की शुरुआत मास्को में अध्ययनरत चीनी विद्यार्थियों के समक्ष माओ के भाषण से हुई है
जिसमें वे पारम्परिक शिक्षा से मिले प्रभावों को मिटा देने की वकालत करते हैं । लेखक
के मुताबिक माओ के इस कथन का महत्व इस समय भी बना हुआ है । निजी संदर्भ यह कि चीनी
समाजवाद को समझने के लिए लेखक को भी इस किस्म के प्रभावों से दसियों साल तक लड़ना पड़ा
। असल में विदेशी लोग चीन में बनी बनायी धारणा के साथ प्रवेश करते हैं । पश्चिमी
देशों के लोगों के साथ तो ऐसा अनिवार्य रूप से होता है । उनके मुकाबले समाजवादी
देशों के लोग चीनी समाजवाद को अधिक अच्छी तरह समझ पाते हैं । इसी तरह विकासशील
देशों के लोग भी चीन को समझने में कम मुश्किल का सामना करते हैं । चीन में
मार्क्सवाद को समाजवाद के निर्माण में व्यवहार और विश्लेषण के मार्गदर्शक की तरह
अपनाया जा रहा है । चीनी समाजवादी निर्माण में मार्क्सवाद की केंद्रीय भूमिका है ।
लेखक का मानना है कि चीन की परियोजना समाजवादी परियोजना ही है । इसीलिए चीन को
समझने के लिए चीनी मार्क्सवाद को समझना भी जरूरी है । जो इसे नहीं समझते वे चीन के
बारे में गलत जानकारी का शिकार हो जाते हैं । इस किताब में लेखक का जोर
अंतर्विरोधों के विश्लेषण और समाजवादी जनवाद पर होने की जगह सुधार और खुलेपन को
समझने पर है । इसके लिए चीनी मार्क्सवादी विद्वानों के अध्ययन से लाभ उठाया गया है
। आम तौर पर ये अध्ययन चीनी भाषा में हुए हैं इसलिए बाहरी दुनिया को सुलभ नहीं हो
सके हैं । इसके ही चलते कुछेक अपवादों को छोड़कर अधिकांश पश्चिमी विचारक चीन को
समझने में पाश्चात्य कोटियों का इस्तेमाल करने की भारी गलती कर बैठते हैं ।
2021 में रटलेज से इजाबेला एम वेबर की किताब ‘हाउ
चाइना एस्केप्ड शाक थेरापी: द मार्केट रिफ़ार्म डिबेट’ का प्रकाशन हुआ । लेखिका का
कहना है कि चीन विश्व अर्थतंत्र के साथ गहरे जुड़ा है फिर भी क्रमिक बाजारीकरण से
उसे लाभ हुआ है । लाभ उठाते हुए भी वह वैश्विक नवउदारवाद में पूरी तरह एकीकृत होने
से बचा हुआ है । चीन का रास्ता तय करने वाले आर्थिक सुधारों के बारे में भयंकर
विवाद है । माओ के बाद के प्रथम दशक में सुधारकों के बीच तीखा विभाजन रहा । इस बात
पर तो सहमति थी कि अर्थव्यवस्था में सुधार और बाजारीकरण की जरूरत है लेकिन इसे
करने के तरीके पर मतभेद थे । विवाद था कि समाजवादी ढांचे को समाप्त कर दिया जाये
या इन संस्थाओं के सहारे बाजार का निर्माण किया जाये । इसी दुबिधा के चलते रूस की
व्यवस्था भहरा गयी । 1980 दशक में चीन इस मामले में चौराहे पर था ।
2022 में लेक्सिंगटन बुक्स से सबेला ओगबोबोडे आबिद्दे
के संपादन में ‘अफ़्रीका-चाइना-ताइवान रिलेशंस, 1949-2020’ का प्रकाशन हुआ ।
संपादकीय प्रस्तावना और एक अध्याय से जुड़ी तालिकाओं के परिशिष्ट के अतिरिक्त किताब
में शामिल तेरह लेख तीन हिस्सों में संयोजित हैं । पहले में चीन की विदेश नीति और
उसके असरात, दूसरे में मुद्दों और रणनीतियों तथा तीसरे हिस्से में अफ़्रीका के साथ
चीन और ताइवान के रिश्तों से जुड़े लेख रखे गये हैं । संपादक के अनुसार अफ़्रीका के
साथ ही दुनिया के अन्य हिस्सों में चीन और ताइवान के बीच जारी आपसी होड़ असल में
चीन के गृहयुद्ध का ही विस्तार है । इसके पीछे मान्यता का सवाल भी है हालांकि चीन
की कम्युनिस्ट सरकार को ही आधिकारिक मान्यता हासिल है । इसके बावजूद अफ़्रीका पर
कब्जा पाने के लिए दोनों ही धौंस धमकी समेत तमाम उपाय अपना रहे हैं ।
2022 में रौमान & लिटिलफ़ील्ड से जोसेफ डब्ल्यू एशेरिक
की किताब ‘चाइना इन रेवोल्यूशन: हिस्ट्री लेसन्स’ का प्रकाशन हुआ । चीन के वर्तमान
उत्थान के चलते उसके अतीत की छानबीन की जरूरत पड़ रही है । इस नयी महाशक्ति के उभार
की व्याख्या इस समय की सबसे बड़ी चुनौती है । आसान जवाब तलाशने वालों को इस किताब
से संतोष नहीं होगा । इसमें चीनी क्रांति और आधुनिक चीन के विकास के सिलसिले में
इतिहासकारों के सरोकार बयान किये गये हैं । इसे लेखक ने आधुनिक चीन के अध्ययन के
अपने पचास वर्षीय उपक्रम की गाथा माना है । चीन का सरकारी मीडिया लगातार सौ साला
अपमान की बात करता है जब कमजोर चीन का पश्चिमी और जापानी साम्राज्यवाद ने शिकार
किया था । इसमें चीनी राष्ट्रवाद के उभार में साम्राज्यवाद की भूमिका और उसके असर
पर भी विचार किया गया है । आम तौर पर पश्चिमी दुनिया में चीन के बारे में स्थिरता
और एकता की बात की जाती है लेकिन इस किताब में चीन के समाजार्थिक जीवन में विविधता
और बदलाव पर जोर दिया गया है । चीन की अपरिवर्तनशील छवि से मुक्त होकर ही उसके
वर्तमान तीव्र बदलाव को समझा जा सकता है । साम्राज्य से राष्ट्र में बदलाव के
दौरान भी चीन अपनी साम्राज्यी सरहदों को बरकरार रखने में कामयाब रहा ।
2022 में रटलेज से शियाओलिंग झांग और कोरी शुल्ज़ के संपादन में ‘चाइना’ज
इंटरनेशनल कम्युनिकेशन ऐंड रिलेशनशिप बिल्डिंग’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की
प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब में शामिल पंद्रह लेख तीन हिस्सों में हैं । पहले
हिस्से में चीन के वैश्विक संचार की अतीत और वर्तमान की रणनीतियों, दूसरे में
दुनिया को सुनाने के लिए चीन के वृत्तांतों तथा तीसरे हिस्से में इन कहानियों के
प्रति विदेशियों की समझ के बहाने दूसरों की निगाह में चीन का विश्लेषण करने वाले
लेख संकलित हैं ।
2022 में रटलेज से मार्क ब्लेचर, डेविड एस जी गुडमैन,
यिंगजी गुओ, ज्यां-लुइ रोक्का और टोनी सैच की किताब ‘क्लास ऐंड द कम्युनिस्ट
पार्टी आफ़ चाइना, 1921-1978: रेवोल्यूशन ऐंड सोशल चेंज’ का प्रकाशन हुआ । दो खंडों
में प्रकाशित किताब का यह पहला खंड है जिनमें चीनी समाज में कम्युनिस्ट पार्टी
द्वारा लाये गये बदलावों का अध्ययन है । इस खंड में 1978 तक की स्थिति का विवेचन
किया गया है जब कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी नीति में बदलाव किया था । इसमें डेविड
गुडमैन की प्रस्तावना और टोनी सैच के उपसंहार के अतिरिक्त आठ लेख शामिल हैं ।
विश्लेषण में जोर वर्ग और विषमता पर दिया गया है । एकाधिक लेखकों के बीच सहमति
विकसित होने की प्रक्रिया लम्बी रही है । पिछले बीस सालों में चीन संबंधी शोध और
अध्ययन में काफी विस्तार आया है । उन सभी विद्वानों से भी किताब के व्यक्त विचारों
के विकास में सहायता मिली है । गुडमैन का कहना है कि शुरू से ही कम्युनिस्ट पार्टी
चीन के समाजार्थिक और राजनीतिक बदलाव से प्रतिबद्ध थी । उसके अनुरूप वह किस हद तक
कामयाब रही इसकी परीक्षा इस किताब में की गयी है । यह बदलाव संपत्ति, सत्ता और
हैसियत के मामले में लाया गया । चीनी समाज में कम्युनिस्ट पार्टी के आगमन से पहले
भी भेदभाव का बहुत व्यवस्थित ढांचा मौजूद था । यूरोप में उन्नीसवीं सदी में
उद्योगीकरण के चलते कम्युनिस्ट धारा की पैदाइश हुई थी । वर्ग संघर्ष के जरिये
सर्वहारा की सत्ता कायम करना इसका घोषित ध्येय था । इसके विपरीत चीन में उसका आगमन
राष्ट्रीय मुक्ति और आधुनिकीकरण के राष्ट्रीय आंदोलन के साथ हुआ । कोमिंटर्न की
सहायता से इसकी स्थापना हुई और इसके लक्ष्य राष्ट्रीय जागरण के मेल में थे । फिर
भी इसने खुद को हमेशा वर्गाधारित ही माना । मजदूर वर्ग के साथ चीनी जनगण और चीनी
राष्ट्र के प्रतिनिधित्व की इसने हमेशा कोशिश की । चीन की समाजार्थिक स्थिति और
कम्युनिस्ट पार्टी की वर्गीय सोच के बीच तनाव हमेशा बना रहा । यह तनाव राष्ट्रवाद
और कम्युनिज्म के बीच का तनाव था । चीनी समाज में सर्वहारा की खोज के चलते
कम्युनिस्ट पार्टी ने किसानों के ही एक हिस्से को सर्वहारा मान लिया । सत्ता पर कब्जा करने और उत्पादन के साधनों के
अधिग्रहण के बाद देहात में जमींदारों तथा गरीब किसानों के बीच और शहरों में
सर्वहारा तथा पूंजीपति के बीच वर्ग संघर्ष के अंत की घोषणा कर दी गयी लेकिन दो ही
साल बाद पूंजीपति वर्ग की मौजूदगी को स्वीकार किया गया और उससे लड़ने की जरूरत भी
बतायी गयी । 1980 दशक की शुरुआत के सुधारों के बाद सामाजिक बदलाव के अभिकर्ता के
रूप में मध्य वर्ग के महत्व पर जोर दिया गया । इसलिए कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना
के बाद से वर्ग के परिप्रेक्ष्य में चीन का अध्ययन जरूरी लगता है । अतीत पर इससे
रोशनी तो पड़ती ही है, वर्तमान और भविष्य के बदलाव को समझने के लिए भी यह
परिप्रेक्ष्य कारगर है । इस शोध की आधारभूत सामग्री का स्रोत कम्युनिस्ट पार्टी ही
है । खतरा है कि कम्युनिस्ट पार्टी की सैद्धांतिक समझ का ही शिकार यह अध्ययन भी हो
जाये । कम्युनिस्ट पार्टी का विश्लेषण तात्कालिक लक्ष्य से संचालित होता रहा
है इसलिए उस वर्ग विश्लेषण को यथावत मान
लेने की जगह स्वतंत्र परीक्षण भी उचित होगा । उदाहरण के लिए जमींदार का उत्पीड़क
होने के चलते उसका धनी होना भी जरूरी नहीं है । कम्युनिस्ट पार्टी का वर्ग
विश्लेषण कार्यकर्ता भर्ती करने और समाज सुधार के लिहाज से संचालित रहा है । इसलिए
समय समय पर वर्ग विश्लेषण में बदलाव आता रहा है । चीन ने अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा
क्रांति को कभी अपने प्राथमिक कार्यभार के रूप में नहीं देखा । उसकी जगह मजबूत चीन
को विश्व नेता बनाना उसका लक्ष्य रहा है । इसी तरह देश के भीतर भी समूची चीनी जनता
को गोलबंद करने पर उनका ध्यान रहा । आर्थिक वृद्धि और जीवन स्तर में उन्नति के लिए
अक्सर ऐसा किया गया । सामाजिक बदलाव के लिहाज से पार्टी के वर्गीय नजरिये में अंतर
आता रहा है । वर्ग संबंधी कम्युनिस्ट पार्टी के रुख को समझने के लिए स्थापना के
बाद से वर्ग की धारणा के उसके बरताव को देखा गया है । इसी क्रम में विभिन्न वर्गों
और सामाजिक समूहों के साथ पार्टी के रिश्तों की परीक्षा की गयी है । साथ ही चीन
में वर्गों और सामाजिक कोटियों के विकास को समझने का प्रयास किया गया है । सामाजिक
बदलाव के लिहाज से पार्टी के अनुभव को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है । पहला
स्थापना से लेकर सत्ता पर कब्जे तक । फिर 1978 तक का समय और तीसरा दौर उसके बाद से
अब तक का माना जा सकता है । राजनीतिक इतिहास के लिहाज से 1949 और 1978 को विभाजक
मानने का तर्क साफ है लेकिन इन विभाजकों के बाद भी चीनी समाज की निरंतरता को नहीं
भूलना चाहिए । लेखकों का मानना है कि समाज विज्ञान में वर्ग की धारणा बेहद महत्व
की रही है । उसके अर्थ के मामले में भेद तो रहा है लेकिन सामाजिक बदलाव को समझने
में उसकी भूमिका में कोई संदेह नहीं । दूसरे खंड का शीर्षक ‘क्लास ऐंड द
कम्युनिस्ट पार्टी आफ़ चाइना, 1978-2021: रिफ़ार्म ऐंड मार्केट सोशलिज्म’ है । इसके
लेखकों में शेष सबके साथ टोनी सैच की जगह बेइबेइ तांग हैं । डेविड गुडमैन की
प्रस्तावना के अतिरिक्त सात लेख इस खंड में संकलित हैं ।
2022 में रटलेज से वू शिआओमिंग की चीनी में 2016 में
छपी किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘द सेल्फ़-एसर्शन आफ़ चाइनीज एकेडमिया ऐंड मार्क्सिस्ट
फिलासफी’ प्रकाशित हुआ । अनुवाद झांग यिन, झांग शुआंगली, झांग झीपेंग और झू
शिनशियान ने किया है । किताब में मानविकी और सामाजिक विज्ञानों की बौद्धिक दुनिया
में विदेशों के साथ सम्पर्क संवाद की कथा कहने की कोशिश की गयी है । इस क्रम में
चीनी विद्वत्ता सीखने से आगे बढ़कर स्वतंत्र दावेदारी की स्थिति में आ गयी है । यह
प्रक्रिया बहुत आसान नहीं रही है । लेखक के मुताबिक इसके लिए संस्कृतियों की एकता
की भावना में हमें दीक्षित होना पड़ा ।
2023 में प्लूटो प्रेस से राल्फ़ रुकुस की किताब ‘द लेफ़्ट इन
चाइना: ए पोलिटिकल कार्टोग्राफी’ का प्रकाशन हुआ । विगत दो दशकों में चीन दुनिया
की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है । यहां पर मैनुफ़ैक्चरिंग का काम बहुत
बड़े पैमाने पर होता है और उसकी आपूर्ति दुनिया भर में व्यापार से होती है । मजदूरी
में बढ़ोत्तरी या निर्यात क्षेत्र की समस्या जैसे उसके आर्थिक बदलावों का असर सारी
दुनिया में लोगों के जीवन-स्तर पर पड़ता है ।
2023 में वाइकिंग से केयू जिन की किताब ‘द न्यू चाइना प्लेबुक: बीयान्ड
सोशलिज्म ऐंड कैपिटलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । किताब का दावा चीन को मूल में समझने का
है ताकि अनुवाद में जनता, अर्थतंत्र और सरकार का सच खो न जाये । होता अक्सर ऐसा ही
है । इस बात का अनुभव लेखक को तब हुआ जब वे अमेरिका में उच्च शिक्षा हेतु किशोर वय
में 1997 में आपसी आदान प्रदान के तहत भेजे गये । उनके अध्यापक भविष्य के लिए चीन
का महत्व भांप गये थे इसलिए चीन की प्रामाणिक आवाजों को बौद्धिक जगत में प्रवेश
कराना चाहते थे । लेखक को अमेरिकी राय को समझने में गहरी रुचि थी । सहपाठी उन्हें
कुछ विचित्र निगाह से देखते थे ।
2023 में स्प्रिंगेर से वेइ लिउ के संपादन में
‘चाइना’ज 40 ईयर्स आफ़ रिफ़ार्म’ का प्रकाशन हुआ । चीन में सुधार और खुलापन की
प्रक्रिया 1978 में शुरू हुई थी । इस नाते 2018 में ही उसके चालीस साल पूरे हुए ।
सुधारों की साहसिक शुरुआत के बाद से ही उन पर डटे रहने से चीनी विशेषता वाले
समाजवाद की राह, सिद्धांत, व्यवस्था और संस्कृति के बारे में नया यकीन पैदा हुआ है
। चीन में चालीस की उम्र परिपक्वता का सबूत मानी जाती है ।
2023 में स्प्रिंगेर से बारबरा डारिमोन्ट के संपादन
में ‘इकोनामिक पालिसी आफ़ द पीपुल’स रिपब्लिक आफ़ चाइना’ का प्रकाशन हुआ । किताब में
कुल सोलह अध्याय हैं । किताब के संपादक के अनुसार इस समय चीन विश्वशक्ति के बतौर
अमेरिका की जगह लेना चाह रहा है । शक्ति का यह बदलाव वैश्विक पैमाने पर होने के
आसार हैं । इसमें कई साल लगने की उम्मीद है । इस प्रक्रिया में विश्व अर्थतंत्र
में भारी उलटफेर भी होगा । लोकतांत्रिक देशों में इस तरह के बदलाव चुनाव के जरिये
शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न होते हैं । इस आसन्न बदलाव के नतीजे अभी स्पष्ट नहीं
हैं । अगर ऐसा हुआ तो भविष्य में समूची दुनिया के देशों को चीनी अर्थतंत्र और उसकी
आर्थिक नीतियों से निपटना होगा । बहुतेरे देशों ने इसी को ध्यान में रखते हुए चीन
का अध्ययन गम्भीरता से शुरू कर दिया है ।
2023 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से सुमित गांगुली,
मंजीत एस परदेशी और विलियम आर थाम्पसन की किताब ‘द सिनो-इंडियन रिवाल्री:
इम्प्लिकेशंस फ़ार ग्लोबल आर्डर’ का प्रकाशन हुआ । लेखकों का मानना है कि अमेरिका
की एकध्रुवीय सत्ता के अवसान के बाद भारत और चीन के रूप में दो एशियाई ताकतों का
साथ साथ उदय हुआ है । बहुध्रुवीयता पर बहस हो सकती है लेकिन अधिकतर लोग मानते हैं
कि चीन उभरती हुई ताकत है । चीन के उभार ने आर्थिक और तकनीकी तथा ऊर्जा के क्षेत्र
में भी अमेरिका की श्रेष्ठता को चुनौती दे दी है । चीन का यह उभार भारत से पहले ही
आरम्भ हो गया था और उसके विकास की गति तेजतर होती गयी है । इसके चलते अमेरिका के
साथ उसके टकराव के नतीजों को अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के अध्येता ध्यान से देख रहे
हैं । इसके साथ ही भारत और चीन के टकराव को भी इस लिहाज से देखा जा रहा है । विश्व
व्यवस्था के भविष्य को इस पर निर्भर समझा जा रहा है । एशिया की इन दोनों ताकतों के
टकराव को आगामी शक्ति संतुलन के लिए निर्णायक माना जा रहा है । अमेरिका के साथ चीन
के रिश्तों पर तो बहुत बात होती है लेकिन भारत और चीन की होड़ के इस इलाके पर अभी
यथोचित निगाह अध्येताओं ने नहीं डाली है । इसी कमी को पूरा करना इस किताब का मकसद
है ।
2023 में प्रैक्सिस प्रेस से कार्लोस मार्तिनेज़ की किताब ‘द
ईस्ट इज स्टिल रेड: चाइनीज सोशलिज्म इन द 21स्ट सेन्चुरी’ का प्रकाशन हुआ । लेखक
का कहना है कि साम्राज्यवादी देशों में आधुनिक चीन के बारे में बहुत अज्ञान और
भ्रम व्याप्त हैं । इन सभी देशों में चीन विरोधी प्रचार की बाढ़ आयी हुई है । खासकर
जबसे अमेरिका ने नया शीतयुद्ध शुरू किया है तबसे तो अफवाह का ही बाजार गर्म है ।
चीनी विशेषता वाला समाजवाद और कुछ नहीं समाजवाद ही है । समाजवाद के बुनियादी
सिद्धांतों को भी चीन ने बरकरार रखा है । इसके नेता अपने देश की स्थिति को समाजवाद
की पहली मंजिल ही मानते हैं । इस दौरान उनका जोर उत्पादक शक्तियों को विकसित करने
पर अधिक है ताकि अगली मंजिल में जाने की बुनियाद पक्की की जा सके । इस सिद्धांत को
देंग शियाओ पिंग ने 1965 में ही मुगाबे के साथ बातचीत में स्पष्ट रूप से
प्रतिपादित किया था । उनका मानना था कि प्रचुर भौतिक संपदा के बिना समाजवाद की
विकसित अवस्था में जाना असम्भव है । साथ ही उसे खुद को पूंजीवाद से बेहतर भी साबित
करना होगा ।
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