Saturday, August 5, 2023

चीन और अफीम के बारे में अमिताभ घोष

 

2023 में 4थ एस्टेट से अमिताभ घोष की किताब ‘स्मोक ऐंड ऐशेज: ए राइटर’स जर्नी थ्रू ओपियम’स हिडेन हिस्ट्रीज’ का प्रकाशन हुआ । सबसे पहले उन्होंने अपने जीवन में चीन की मौजूदगी का जिक्र किया है । उनका जन्म कलकत्ता में हुआ था जहां चीनी लोगों की ठीक ठाक आबादी है । इसके बावजूद चीन के इतिहास, भूगोल या संस्कृति में उनकी रुचि न पैदा हो सकी । दिल्ली के मुकाबले चीन की दूरी कम होने के बावजूद कभी यात्रा भी नहीं की । अफीम सागर के लेखन की तैयारी के दौरान चीन जाने की जरूरत महसूस हुई लेकिन जाना नहीं हो सका । जिस जमाने की कहानी उसमें थी उस समय समुद्र के रास्ते भारत से पश्चिम के मुकाबले चीन के कैंटन को आवागमन अधिक होता था । जिज्ञासा पैदा हुई कि नाविकों को उस शहर से इतनी दोस्ती कैसे हुई ।

चीन की इस निकट मौजूदगी के बावजूद उत्सुकता या जानकारी न होने की वजह न केवल भारतीय बल्कि अमेरिकी और यूरोपीय चेतना में भी चीन की ऐसी छवि है जो विश्व इतिहास से उसे गायब कर देती है । जैसे जैसे चीन का उभार हो रहा है वैसे वैसे भारत और अमेरिका में चीन की यह रूढ़ छवि पुख्ता होती जा रही है । इस मुद्दे के बारे में सोचने पर पता चलता है कि हम दुनिया को किस तरह देखते और समझते हैं । भारत के लोग तो चीन के बारे में सोचते हुए 1962 की पराजय से मुक्त ही नहीं हो पाते हैं । उस समय लेखक की उम्र महज छह साल थी । इसके बावजूद उन्हें याद है कि माता ने सोने के कंगन युद्ध में मदद के लिए दान किये थे । पिता ने मोर्चे पर भेजने के लिए कम्बल एकत्र किया था । सभी लोग इस हार के कारणों के बारे में उत्तेजना के साथ बहस किया करते थे । उस सवाल पर आज भी कोई सर्वसम्मति नहीं बन सकी है । अधिकांश लोग नेहरू की अदूरदर्शिता को इसके लिए जिम्मेदार मानते हैं । हो सकता है उस दुर्भाग्यपूर्ण युद्ध के बारे में पूरा सच कभी पता न चले । जो भी हो तय है कि उस युद्ध में दिमागी हिमालय की बड़ी भारी भूमिका रही ।

जिन सवालों को लेकर वह युद्ध हुआ वे अब भी हल नहीं हो सके हैं । भारत चीन सीमा पर लगातार झड़पें होती रहती हैं । हल होने के कोई आसार भी नहीं हैं क्योंकि चीन आक्रामक होता जा रहा है और भारत भी अपनी जगह से हिलना नहीं चाहता । इन सारी झड़पों ने चीन के प्रति भारत के रुख में भय, विक्षोभ और शत्रुता को भर दिया है । चीन के विरुद्ध जैसी शत्रुता अमेरिका में उपजी है वैसी ही शत्रुता भारत में बहुत समय से व्याप्त है । शत्रुता तो पाकिस्तान के साथ भी है लेकिन उसकी वजह से पाकिस्तान में हमारी रुचि कम नहीं होती । भारत और पाकिस्तान को एक दूसरे की राजनीति, संस्कृति, इतिहास, खेल और अन्य चीजों में बहुत अधिक रुचि रहती है । ऐसा होता भी है । अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला होने के बाद अरबी जानने की उत्सुकता बढ़ गयी । जिन देशों (इराक और अफ़गानिस्तान) से उसका युद्ध हुआ उनके बारे में तमाम साहित्य और सिनेमा पैदा हुआ । 1962 के बाद भारत में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ । उत्सुकता की जगह झेंप, शंका और भय का वातावरण बना रहा ।

भारत में रहने वाले चीनी लोगों का इतिहास अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध से शुरू होता है जब कलकत्ता के निकट उनकी बस्ती बनी । उन्होंने स्कूल खोले, मंदिर बनवाये और अखबारों से जुड़े । उनमें से बहुतेरे तो कभी चीन गये भी नहीं और कम्युनिस्ट विरोधी रहे । इसके बावजूद 1962 के युद्ध के बाद वे सरकार की निगाह में संदिग्ध हो गये । हजारों चीनियों को भारत छोड़ना पड़ा और बहुतेरे शरणार्थी हुए । हजारों को सालों साल बिना मुकदमा चलाये कैद में रहना पड़ा । जब उनकी रिहाई हुई तो पता चला कि उनके घर और व्यवसाय जब्त हो चुके हैं । सालों साल प्रति माह उन्हें थाने में हाजिरी लगानी पड़ती । संदेह इतना गहरा था कि चीन के अनेक भारतीय अध्येता भी परेशान किये गये । कलकत्ते के चीनी लोगों की तादाद आधी रह गयी । उन्हें पुरानी रिहाइश छोड़कर नयी जगह बसना पड़ा । नुकसान चीनी समुदाय को ही नहीं हुआ, कलकत्ते को भी हुआ । चीनी समुदाय अपने व्यावसायिक उद्यम के कारण भी विदेशी धन के आगमन का स्रोत हो सकता था और तब कलकत्ते का जो कायाकल्प होता वह इस पलायन की भेंट चढ़ गया । लेखक को इसका अंदाजा तब हुआ जब वे एक बार मकाऊ में होटल में रुके थे जिसके मालिकान कलकत्ते के रहने वाले थे लेकिन भागकर वहां आ गये थे । वे चीनी भाषा की जगह बांग्ला अधिक सहज ढंग से बोल समझ रहे थे ।

बाद में लेखक जब चीन गये तो लौटकर महसूस हुआ कि रोज के जीवन में चीन कितना मौजूद है । सबसे पहले चाय, उसके पीने के लिए बने चीनी मिट्टी के बरतन और घोलने के लिए चीनी के रूप में चीन तो था ही, मूंगफली के लिए चीनियाबादाम का नाम भी चीन से जुड़ा होना चाहिए । इसी तरह आधुनिक इलेक्ट्रानिक सामानों के रूप में भी चीन हमेशा हमारे साथ रहता है । इसके बावजूद उसकी अनुपस्थिति की वजह वस्तुओं के संप्रेषण को ग्रहण करने में हमारी अक्षमता है । चाय नामक इस पेय की उपस्थिति के जरिये उन्होंने कुछ अन्य पहलुओं को भी उजागर किया है । मनुष्य के मुकाबले पेड़ पौधों के अधिक महत्व के पीछे के विश्वास का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया है कि पेड़ धरती के ऊपर होने के साथ उसके नीचे भी पसरे होते हैं । पादप विज्ञानी इस विश्वास को जानते हैं जिसके अनुसार पेड़ धरती को जकड़कर स्थिर रखते हैं ।

चाय नामक यह पौधा ब्रिटिश राज को सबसे अधिक राजस्व प्रदान करने वाली चीज था । दुनिया के अनेक हिस्सों में होने वाले युद्धों का खर्च चाय पर लगे आयात शुल्क से निकलता था । इसकी भरपूर आपूर्ति इतनी जरूरी समझी गयी कि ईस्ट इंडिया कंपनी को साल भर की आपूर्ति के लिए माल बचाकर रखने का शासनादेश दिया गया । चाय पीने की आदत को फैलाने के लिए जो विज्ञापन किया गया वह उपभोक्ता वस्तुओं को लोकप्रिय बनाने के लिए होने वाले विज्ञापनों की प्रवृत्ति का जनक साबित हुआ । चाय के लिए चीन पर ब्रिटेन की एकांगी निर्भरता शासक समूह के लिए चिंताजनक थी । इसके लिए चीन को सोना जैसी कीमती धातु देनी पड़ती थी । सोने की कमी को दूर करने का रास्ता अमेरिकी महाद्वीप में सोने की खुदाई से खुला । इसका कारण यह था कि पश्चिम की चीजों की खपत चीन में नहीं थी । भारत का सूती वस्त्र भी चीन को चाय के बदले निर्यात किया जाता था ।

चाय के लिए चीन पर निर्भरता को कम करने के लिए भारत और श्री लंका में चाय की खेती शुरू की गयी और चाय के बदले चीन को देने के लिए अफीम का इस्तेमाल शुरू किया गया । यह इस्तेमाल यूरोपीय साम्राज्यवादी ताकतों ने ही शुरू किया था । अफीम के  पौधे के चिकित्सकीय गुणों के बारे में लोगों को जानकारी बहुत पहले से थी इसलिए बुखार आने, पेट खराब होने या कभी नशे के लिए भी इसको धूम्रपान या द्रव की तरह ग्रहण किया जाता था । व्यावसायिक इस्तेमाल डच लोगों ने शुरू किया और उनसे अंग्रेजों ने सीखा । फिर तो ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसके उत्पादन और व्यापार पर एकाधिकार कायम कर लिया । किसानों को इसे उगाने के लिए मजबूर किया गया । अन्य फसलों के उत्पादन लायक जमीन पर इसकी खेती के लिए पट्टा दिया जाता था । इसमें पानी का खर्च बहुत होता है । धीरे धीरे इसकी फसल का रकबा बढ़ाया गया । नतीजे के तौर पर अकाल की बारम्बारता बढ़ी । इसका उत्पादन इतना जरूरी था कि इसके लिए अलग महकमा खोला गया । इस महकमे का आला अफ़सर सबसे अधिक वेतन पाता था । फसल के समय वह इलाके के दौरे पर निकलता था तो उसके साथ समूचा कार्यालय चलता था । इससे बचे समय में उसे कोई काम नहीं होता था । उत्पादन के लिए दो कारखाने खोले गये । इनमें से पटना वाला कारखाना बंद हो चुका है लेकिन गाजीपुर का कारखाना अब भी औषधीय उपयोग के लिए अफीम का उत्पादन करता है ।

इन कारखानों में मशीन का प्रयोग नहीं होता था और सारा काम हाथ से ही किया जाता था । अफीम इतनी कीमती थी कि कामगारों के शरीर पर भी उसके चिपके होने का संदेह किया जाता था इसीलिए कई बार उन्हें कारखाने से बाहर निकलने से पहले नहलाया भी जाता था । जिन किसानों को पौधे उगाने का पट्टा दिया जाता था उनकी भी निगरानी जरूरी थी क्योंकि अंग्रेजों के मुकाबले अन्य सभी यूरोपीय कंपनियां बेहतर दाम देती थीं और अंग्रेजों की निर्धारित कीमत से किसान की लागत भी नहीं निकलती थी । ऐसे में किसान चोरी चोरी अन्य कंपनियों को भी फसल बेच सकते थे । इसे रोकने के लिए भारी गणित किया जाता था । इसका हिसाब रखा जाता था कि किसान को जितने बड़े खेत में फसल उगाने का ठेका दिया गया उतने में उगने लायक फसल की अफीम उसने कारखाने को बेचा है या नहीं । जाहिर है इसमें भ्रष्टाचार बहुत होता था । इस महकमे का प्रत्येक कर्मचारी रिश्वत लेता था ।

पटना और गाजीपुर के इन कारखानों के साथ जुड़ी सबसे महत्व की बात यह है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और उससे लगे बिहार में अफीम की खेती बहुत होती थी । इस खेती ने इन इलाकों की अर्थव्यवस्था को जो स्थायी हानि पहुंचायी बहुत कुछ उसके कारण आज भी इन क्षेत्रों को बीमारू माना जाता है । अफीम अन्य क्षेत्रों में भी तैयार की जाती थी लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी का जैसा एकाधिकार इस क्षेत्र की खेती पर था वैसा अन्य जगहों पर नहीं था । पूरा औपनिवेशिक अर्थतंत्र जोर जबर्दस्ती, लूट खसोट और गुलामी पर आधारित था लेकिन उसकी छवि एकदम अलग तरीके की पेश की जाती थी । छवि निर्माण की इस परियोजना का उदाहरण वे तस्वीरें हैं जिन्हें पेशेवर चित्रकारों ने इंग्लैंड के दर्शक समूह के लिए बनाया । इन तस्वीरों में ये कारखाने प्रगति के मानदंड की तरह नजर आते हैं । उन कारखानों में काम करने वाले मजदूरों के हालात या कार्यस्थल की गंदगी छिप जाती है । ये कारखाने किलों की तरह अभेद्य हुआ करते थे । जिस एक तस्वीर का विस्तार से लेखक ने जिक्र किया है उसमें अफीम के ढोके पर ‘चीन के लिए’ लिखा है । इससे अंग्रेजी शासन के मातहत इलाकों की श्रेष्ठता और चीन की हीनता का संदेश जाता है । सच यह था कि अफीम की खपत केवल चीन में नहीं होती थी ।

अफीम का उत्पादन केवल इन्हीं इलाकों में नहीं होता था । मालवा में भी इसका उत्पादन होता था । जिन इलाकों की अफीम पर ईस्ट इंडिया कंपनी का एकाधिकार था उनसे मालवा क्षेत्र की स्थिति अलग थी । वहां किसान अपनी उपज किसी के भी हाथ बेचने के लिए आजाद थे । उसके उत्पादन के लिए भी किलेबंद कारखाने की जगह छोटे छोटे शेड बनाये गये थे । इन दोनों जगहों की फसल के फूल में भी अंतर होता था । गाजीपुर और बिहार के पौधों में सफेद फूल आते थे तो मालवा इलाके के पौधों में तमाम रंगों के फूल खिलते थे । उस इलाके में शासन भी देशी राजाओं का था इसलिए उन्हें कम से कम अफीम के भ्रष्ट अंग्रेजी महकमे से निजात मिली हुई थी । चीन के साथ अफीम का व्यापार ब्रिटिश शासन की धोखाधड़ी का स्पष्ट सबूत है । चीन के शासक इस नशे के खतरनाक नतीजों से परेशान थे इसलिए उन्होंने इस पर प्रतिबंध लगा रखा था । ऐसे हालात में ईस्ट इंडिया कंपनी इसे सीधे चीन में नहीं बेचती थी बल्कि वह इसे अफीम के तस्करों को बेचती थी जो फिर चीन में इसका अवैध व्यापार करते थे । ढिठाई देखिए कि जब चीनी शासन ने इस अवैध तस्करी के विरोध में कदम उठाया और अवैध अफीम को जब्त करके नष्ट कर दिया तो स्वतंत्र व्यापार के नाम पर उसके विरोध में अफीम युद्ध छेड़ दिया गया ।

अफीम से हमारे देश के शहरों का बहुत गहरा रिश्ता है । अंग्रेजों ने पहले मद्रास को बसाया लेकिन अफीम के व्यापार के कारण ही बम्बई और कलकत्ता उससे बहुत आगे निकल गये । ईस्ट इंडिया कंपनी का एकाधिकार जिस अफीम पर था उसे कलकत्ता के रास्ते बाहर भेजा जाता था । मालवा की अफीम बम्बई के रास्ते बाहर जाती थी । अफीम के इन दोनों इलाकों में जो अंतर है उसकी वजह अफीम संबंधी प्रशासन का अंतर था । जिस इलाके में ईस्ट इंडिया कंपनी का एकाधिकार था वहां की सारी कमाई अंग्रेजों की जेब भरने के काम आती थी जबकि जहां उत्पादन पर प्रतिबंध नहीं था वहां से होने वाली कमाई उसी इलाके में रहती थी । इसने दोनों के निर्यात के केंद्रों में भी अंतर डाल दिया । बम्बई के आर्थिक केंद्र होने में इस अंतर का योगदान है । इसे विडम्बना की तरह लेखक ने नोट किया है कि अर्थतंत्र तो बम्बई के हिस्से आया जबकि अर्थशास्त्री बंगाल में हुए । उन्होंने यह भी चिन्हित किया है कि बंबई के व्यापारी समुदाय में मौजूद भारी सामाजिक विविधता के पीछे भी इस व्यापार पर एकाधिकार न होने का योगदान है । इसी प्रसंग में लेखक ने एक महत्वपूर्ण बात की ओर इशारा किया है । उनका कहना है कि आधुनिक इतिहास के बारे में सोचते हुए हम अंग्रेजी राज पर इतना अधिक ध्यान देते हैं कि देशी राजाओं के इलाकों की हलचलों पर बात ही नहीं करते । तथ्य यह है कि अनेक मामलों में ये देशी राजे अंग्रेजों से अधिक आधुनिक थे और अपने इलाकों में सामाजिक सुधार तथा शिक्षा की पहल अंग्रेजों से बहुत पहले की । मालवा इलाके के सभी तरह के व्यापारियों की अफीम के व्यापार में दक्षता का रिश्ता कलकत्ते में मारवाड़ियों की भारी उपस्थिति से भी है । इन व्यापारियों को अफीम की आपूर्ति के स्थानीय सम्पर्क जाल के बारे में अच्छी तरह पता था । राजस्थान में अफीम की उपस्थिति बहुतेरे सामाजिक समारोहों तक पायी जाती है । राजपूत परिवारों के विवाहों में अफीम बंटने की कहानी का पता सबको जसवंत सिंह के पुत्र के विवाह में इसके वितरण से चला था । लेखक ने बताया है कि बंबई बंदरगाह से चीन को अफीम की आपूर्ति से पारसी, मारवाड़ी, आर्मेनियाई और गुजराती लोग जुड़े हुए थे ।   

चीन ने अफीम के व्यापार पर रोक की तरह इन व्यापारियों को रहने के लिए कैंटन में बंदरगाह के नजदीक बहुत थोड़ी सी जगह दी थी और उनके ऊपर बहुत सारे प्रतिबंध लगाये । एक प्रतिबंध यह था कि ये व्यापारी अपने साथ परिवार नहीं ला सकते । इसके पीछे जड़ जमने का अंदेशा रहा होगा । इस प्रतिबंध के चलते लगभग सभी व्यापारियों ने चीन में भी पत्नियां रखीं । उनके परिवारों से इन पत्नियों के अस्तित्व को छिपाकर रखा जाता था । इन पत्नियों से जो बच्चे पैदा हुए वे भी इस व्यापार में शामिल कर लिये गये । इनमें पारसियों की मौजूदगी सबसे प्रभावी थी । उनका अलग कब्रिस्तान भी था जिसका इस्तेमाल 1923 तक होता रहा । हांग कांग में इन पारसियों की मौजूदगी तमाम नामों में नजर आती है । आबादी तो बहुत कम रह गयी है लेकिन विरासत और अवशेष अब भी बने हुए हैं । इनमें से एक ने हांग कांग विश्वविद्यालय की स्थापना में भी योगदान किया था । चीन के अफीम व्यापार से पारसी लोगों ने केवल धन ही नहीं कमाया । वहां रहते हुए उनका सम्पर्क पश्चिमी देशों के व्यापारियों से हुआ जिसके कारण वे नये नये क्षेत्रों में व्यापार और उद्यम का साहस जुटा सके । इस धन से उन्होंने तरह तरह के नवाचार किये । रंगमंच और सिनेमा से उनका जुड़ाव सभी लोग जानते हैं । अभी हाल में कोरोना के टीके के सिलसिले में सबने एक पारसी, अदार पूनावाला का नाम सुना । लम्बे समय तक मराठा शक्ति द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रतिरोध और बंबई के रास्ते मालवा की अफीम की चीन को आपूर्ति के बीच भी रिश्ता देखने का प्रयास लेखक ने किया है । बंबई के पूरे विकास में ही अफीम के इस व्यापार का योगदान है । न केवल बम्बई बल्कि, सिंगापुर, हांग कांग और शांघाई जैसे शहरों का विकास भी इसी अवैध व्यापार का नतीजा है । शहरों को छोड़िए, एचएसबीसी नामक बैंक भी इसी व्यापार को सुविधा प्रदान करने के क्रम में सामने आया । लेखक का निष्कर्ष है कि वैश्विक पूंजीवाद के साथ जुड़ी प्रत्येक परिघटना इस अवैध व्यापार के साथ किसी न किसी रूप में जुड़ी हुई है जिसे मुक्त व्यापार के नाम पर सरकारी संरक्षण में चलाया गया और जिसके मुनाफ़े का आधार ही नशे की लत थी ।

चीन के साथ अफीम के व्यापार में अंग्रेजों के बाद अमेरिकी घुसे । कुल बीस साल ही वे इसमें रहे लेकिन इसकी छाप अमेरिका में मौजूद है । कम से कम तीस शहरों के नाम में कैंटन लगा हुआ  है । एक पूरा संग्रहालय ही चीन को समर्पित है । इसके विपरीत अंग्रेजों के व्यापार का समय बहुत लम्बा रहा । इस सम्पर्क के असरात इतने गहरे हैं कि नजर ही नहीं आते । चीन के साथ चलने वाले अमेरिकी व्यापार में अफीम के जिक्र से इतना परहेज किया जाता है कि उसको चीनी व्यापार कहा जाता है । सही बात है कि अमेरिकी लोग केवल अफीम का व्यापार चीन से नहीं करते थे लेकिन उनके सभी आपसी आदान प्रदान अफीम की कमाई पर आश्रित थे । अमेरिका ने चीन के साथ लेन देन का आर्थिक इतिहास सुरक्षित रखा है । बहुतेरे लोगों को लगता है कि चीन के साथ अमेरिका का घनिष्ठ रिश्ता हालिया बात है । इस भ्रम का खंडन करते हुए लेखक ने बताया है कि चाय की मार्फ़त बहुत पहले से ही चीन के साथ अमेरिकी रिश्ते कायम हो चुके थे । अमेरिकी लोगों की दिक्कत यह थी कि चाय पर ईस्ट इंडिया कंपनी कब्जा करके बैठी थी । इस कब्जे का विरोध भी अमेरिकी स्वाधीनता संघर्ष का कारण बना । बोस्टन टी पार्टी का नाम ही इसका बड़ा सबूत है । संयोग से अफीम के व्यापार में शामिल अधिकांश अमेरिकी बोस्टन के कुछ खानदानों से थे इसलिए किसी ने उस समूह को बोस्टन के ब्राह्मण समुदाय का नाम दिया ।

अंग्रेजों की तरह ही अमेरिकी लोगों का चीन के साथ व्यापार चाय से शुरू तो हुआ लेकिन उनके सामने भी वही समस्या आयी जो अंग्रेजों के सामने आयी थी । चाय के बदले चुकाने के लिए धीरे धीरे अफीम को आजमाया गया । जब अमेरिकी लोग इस व्यवसाय में घुसे तो उन्होंने अनेक बदलाव किये । सबसे पहले तुर्की होते हुए चीन जाने का नया रास्ता उन्होंने खोजा । अफीम की तस्करी के लिए उसके भंडारण हेतु पानी के जहाजों को तैयार किया । फिर नये किस्म की जहाजों का निर्माण किया जो बहुत ही कारगर निकलीं । इनके सहारे किसी भी मौसम में आया जाया जा सकता था । नतीजे के तौर परअफीम की आवाजाही सालों भर होने लगी । इस व्यापार में गति का महत्व था । जो जितनी जल्दी माल पहुंचाता उसे उतनी बेहतर कीमत मिलने की सम्भावना थी । अब भारत और चीन के बीच एक ही जहाज दो या कभी कभी तीन चक्कर लगाने लगा । बहुतेरी अमेरिकी कंपनियों की एकाधिक जहाजें एक साथ समुद्र में यात्रा पर होतीं । इन्हीं जहाजों पर पहले गुलाम ढोये जाते थे, फिर गिरमिटिया मजदूरों को ढोया जाने लगा था ।

समुद्री जहाजों के भरोसे व्यापार ने अमेरिका को ऐसी जगहों पर विस्तार की प्रेरणा दी जो समुद्र के किनारे थीं । इन नये इलाकों के मूलवासियों को उनकी जमीन से जबरन भगाकर गोरों के कब्जे का विस्तार किया गया । लेखक ने कोलम्बिया और अलास्का को इसके ठोस उदाहरण के बतौर गिनाया है । चीन के साथ इस व्यापार से हासिल धन का निवेश बड़े पैमाने पर ढेर सारी शैक्षिक और शोध संस्थाओं में तो हुआ ही, रेल के निर्माण और विस्तार के पीछे भी चीन से हासिल मुनाफ़े का योगदान बहुत हद तक एक अनजानी कहानी है । एक बात और भी इससे जुड़ी है कि कैंटन नामक अधिकांश नगर समुद्री तट के पास ही बसे हुए हैं ।

लेखक का अनुमान है कि फौजी छावनियों के लिए कैंटूनमेंट नाम का रिश्ता कैंटन की इस बसावट से जुड़ा होना चाहिए । खास तरह के लोगों की बसावट जिससे स्थानीय सम्पर्क सीमित हों ऐसी धारणा कैंटन के विदेशी व्यापारियों की बसावट से आयी होगी । इन विदेशी व्यापारियों की भाषिक भिन्नता ने उनको बहुभाषिक बनाया होगा । तमाम जगहों की बहुभाषिकता के मूल उस बस्ती में होना सम्भव हैं । इसके अतिरिक्त लेखक का मत है कि बागवानी की संस्कृति का भी रिश्ता चीन से जुड़ा हुआ है । यहां तक कि विदेशी व्यापारियों ने चीन से तमाम ऐसे पौधे भी एकत्र किये जिन्हें बाद में अपने घरों या बगीचों में बड़े शौक से उगाया ।  

अफीम के इस व्यापार के खात्मे की जो कहानी सुनायी जाती है उसमें पश्चिमी देशों की नैतिकता सबसे प्रबल नजर आती है । लेखक ने एक अन्य प्रसंग से वैकल्पिक नजरिया प्रदान किया है । उनका कहना है कि अश्वेत मुक्ति के हालिया अभियान से जो तथ्य सामने आये उससे पहले नस्लभेद और रंगभेद के अंत की कहानी में गोरे लोगों की धार्मिक नैतिकता की भूमिका ही दिखायी देती थी । अश्वेत मुक्ति के इस अभियान के कारण बौद्धिक दुनिया में अश्वेत समुदाय के अपने प्रयासों को जगह मिली । उसी तरह लेखक ने अफीम व्यापार के खात्मे के प्रसंग में दादा भाई नौरोजी, पंडिता रमाबाई और रवींद्रनाथ ठाकुर के प्रयासों को केंद्रीय जगह दी है । पंडिता रमाबाई की तो अमेरिका यात्रा ही अफीम व्यापार विरोधी एक अमेरिकी संस्था के बुलावे पर हुई थी । सही है कि अमेरिकी व्यापारियों के मन में इस व्यापार से होने वाले मुनाफ़े के बारे में दुविधा बनी रही थी लेकिन आर्थिक लाभ के सामने यह संकोच कभी कारगर ही नहीं हो सका था ।                                                                                                                                  

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